शनिवार, 9 जुलाई 2011

भ्रष्टाचार विरोध, विभ्रम और यथार्थ भाग-6

हजारे की हकीकत
आइए, अभियान के नायक अन्ना हजारे पर थोड़ी चर्चा करते हैं। उन्होंने अपनी छवि गांधीवादी की बनाई हुई है। मीडिया में उन्हें सीधे गांधीवादी, गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अथवा गांधीवादी विचारक लिखा जाता है। लेकिन उनके विचारों और तरीके का गांधी के विचारों और तरीके से मेल नहीं बैठता। गांधी ने कभी स्टेज पर तस्वीरें और माइक लगा कर अनशन नहीं किया। न ही कभी किसी को फाँसी पर लटका देने और उनका माँस गिद्धों और कुत्तों को खिलाने का आह्नान किया। वैसे भी मुहावरा चील-कौओं को खिलाने का चलता है। गिद्धों और कुत्तों को खिलाने में प्रतिहिंसा का ज्वार स्वतः सिद्ध हो जाता है। सबसे बड़ी बात यह थी कि गांधी अन्यायकारी व्यवस्था से लड़ने के साथ उसमें अपनी हिस्सेदारी खत्म करने का आह्नान भी करते थे। उसके लिए आत्मशोध और आत्मपरिष्करण की जरूरत होती है। हमने देखा कि जिस मध्यवर्ग ने यह हल्ला मचाया कि उसका भ्रष्ट व्यवस्था और उसे चलाने वाले भ्रष्ट नेताओं से मोहभंग हो गया है, कहीं भी यह संकेत नहीं आने दिया है कि ऐसी व्यवस्था में सहभागिता से भी उसका मोहभंग हुआ है?
दरअसल, पूँजीवादी-उपभोक्तावादी व्यवस्था, जिसके गांधी हठ की हद तक विरोधी थे, उन्हें अपने में शामिल करने के कई उपाय करती है। उनमें जाने-अनजाने गांधीवादी भी सहयोग करते हैं। हमारे युग की इस परिघटना पर गौर करने की जरूरत है कि गांधी को नवउदारवादियों, जो संप्रदायवादी भी हैं, और संप्रदायवादियों, जो नवउदारवादी भी हैं, की मिली-जुली विचारधारात्मक संरचना में उड़ेलने (ट्रांसफ्रयूज करने) की लगातार कोशिश की जा रही है। ज्यादातर माक्र्सवादियों, समाजवादियों, अंबेदकरवादियों, स्त्रीवादियों, यहाँ तक गांधीवादियों से दुत्कारे गए गांधी के साथ नवउदारवादियों और संप्रदायवादियों का यह बर्ताव आसान हो जाता है। इस अभियान में भी गांधी के साथ वैसा ही सुलूक हो रहा है। लेकिन कोई समर्थक यह देखने और कहने को तैयार नहीं है।
कहने को हजारे अपने को गांधी के चरणों की धूल भी नहीं मानते, लेकिन साथ ही उनका आग्रह है कि गांधी के साथ शिवाजी भी चाहिए। अपने समय में शिवाजी अच्छे थे और आज भी उनसे सामाजिक और सांप्रदायिक सौहार्द की प्रेरणा ली जा सकती है। लेकिन प्राचीन अथवा मध्यकाल के किसी भी पात्र अथवा प्रसंग से आधुनिक काल में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समता के मूल्य ही प्रेरणा की कसौटी हो सकते हैं। ये मूल्य हमारे संविधान में निहित हैं। हमें उनसे भी बेहतर मूल्यों की चिंता और तलाश रहनी चाहिए, लेकिन संवैधानिक मूल्यों में आस्था की जमीन से ही वह संभव है। यह कहना गलत नहीं होगा कि हजारे के पास शिवाजी, शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की मार्फत आए हैं। खबरों के अनुसार उन्होंने संदीप पांडे से बाल ठाकरे के एक संस्करण राज ठाकरे की उत्तर भारतीयों को प्रताडि़त करने के लिए प्रशंसा की है। ठाकरों, मोदियों और उनकी पार्टियों का भारत के संविधान के साथ कपट का रिश्ता है। हजारे की उपमाएँ और प्रतीक चैंकाने वाले हैं: ‘भ्रष्टाचारियों को फाँसी दे देनी चाहिए’, ‘उनका माँस गिद्धों और कुत्तों को खिला देना चाहिए’, ‘अभियान का विरोध करने वाले भ्रष्ट ताकतों के समर्थक हैं’, ‘फलों से लदे पेड़ों पर ही लोग पत्थर फेंकते हैं’! इनका गांधी की बोली-भाषा से दूर का भी रिश्ता नहीं है।
यहाँ ध्यान दिया जा सकता है कि हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान में गांधी के साथ शिवाजी की जगह अंबेदकर अथवा लोहिया या दोनों का संदर्भ भी ला सकते थे। दोनों ने न केवल गांधी के विचार और तरीके की गंभीर समीक्षा की है, आजाद भारत में भ्रष्टाचार पैदा करने वाली व्यवस्था के खिलाफ अथक संघर्ष भी किया है। लेकिन हजारे और उनके सहयोगी जानते हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग फिर वास्तविक यानी राजनैतिक हो जाएगी- विभ्रम का जो तिलिस्म रचा गया है वह टूट जाएगा। इसीलिए राजनीति से यह नागरिक समाज रिश्ता नहीं रखना चाहता। ऐसा करने में वह गांधी का रिश्ता राजनीति से काट कर, उन्हें अपनी तरह का ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ बना देता है। गांधी के विचार और रास्ते को गलत मान कर अस्वीकृत किया जा सकता है। आजादी के बाद से ऐसा है भी। लेकिन जो विचार और रास्ता गांधी का नहीं है, उसे उनका बताना जाने-अनजाने कपट फैलाना है। हमने पिछले आम चुनाव में पूर्वी दिल्ली क्षेत्र से चुनाव लड़ा था। केजरीवाल की तरह होर्डिंग तो हम एक भी नहीं लगा पाए, लेकिन एक परचा बाँटा था, जिस पर परिचय में
‘गांधीवादी समाजवादी’ लिख दिया था। उसका हमें आज तक अफसोस और पश्चाताप है। हम जो हैं वही रह कर अपना काम करें, काम में जान होगी तो करने वाले को लोग जान ही जाएँगे। न भी जानें, काम तो बचेगा ही। लोगों को भ्रमित करने की क्या जरूरत है? नेता बखूबी वह काम कर रहे हैं।
मोदी और नीतीश की प्रशंसा में हजारे ने कहा कि उनके ग्रामीण विकास के कार्यों के लिए वे उन्हें 50 प्रतिशत अंक देते हैं। बाकी के 50 प्रतिशत अंक तब देंगे जब वे जन लोकपाल विधेयक को समर्थन देंगे। सवाल है कि यदि उन्होंने पूरे 100 अंक पहले ही बाँट दिए हैं तो बाद में इस सफाई का क्या औचित्य रह जाता है कि वे सांप्रदायिकता का विरोध करते हैं। जाहिर है, हजारे सांप्रदायिकता का निर्गुण विरोध कर रहे हैं, जिसमें गुजरात में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हुए मुसलमानों के नरसंहार का कृत्य शामिल नहीं है। उनकी यह सफाई तो ठीक हो सकती है कि सभी धर्मों के नुमांइदे अभियान के संस्थापक, समर्थक और भागीदार हैं। धरने में आर्कबिशप और मुफ़्ती साहब की मौजूदगी का हवाला भी ठीक है। लेकिन सवाल तो खुद हजारे का है। ठीक है आप अनापेक्षित समर्थन पाकर जोश में आ गए थे। उस जोश में आपको सबसे पहले प्रशंसा के पात्र नरेंद्र मोदी ही नजर आए? मान लेते हैं आप सांप्रदायिक मोदी को पसंद नहीं करते हैं। नवउदारवादी मोदी को तो पसंद करते हैं? जब नवउदारवाद के जनक मनमोहन सिंह को पसंद करते हैं तो उनके बच्चे मोदी को भी करेंगे। हमारे जैसे लोग तब भी आपका विरोध करेंगे। लोगों को यह बताने का प्रयास करेंगे कि नवउदारवाद के समर्थन के साथ भ्रष्टाचार का विरोध एक विभ्रम है, जो आई0ए0सी0, हजारे, मीडिया और मध्यवर्ग मिल कर फैला रहे हैं। इसकी कीमत केवल और केवल गरीबों को चुकानी है, उन आदर्शवादी युवाओं और नागरिकों को चुकानी है जो वाकई सच्ची प्रेरणा से समर्थन में निकल कर आए।
दरअसल, समस्या वही है। हजारे नागरिक समाज एक्टिविस्ट हैं, जहाँ नवउदारवादी विकास और मोदी को पसंद करने वालों की कमी नहीं है। मोदी और नीतीश का या अन्य भी किसी सरकार का ग्रामीण विकास का माॅडल गांधी के ग्राम स्वराज की
अवधारणा के विपरीत है। विकास के नवउदारवादी माॅडल के तहत गाँवों को शहर बनाने की जिद में स्लम बनाया जा रहा है। यह जो नरेगा मार्का ग्रामीण विकास और पंचायतीराज मार्का ग्रामीण सशक्तिकरण चल रहा है, इसका गांधी के आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के वैकल्पिक दर्शन से रिश्ता नहीं है। रिश्ता सामाजिक न्याय से भी नहीं है। कुछ समाजवादी साथियों ने नीतीश कुमार की बिहार विधानसभा चुनाव में दोबारा जीत पर कहा कि उन्होंने सामाजिक न्याय का अगला चरण पूरा किया है। यानी उन्होंने आरक्षण को अति दलितों और अति पिछड़ों तक पहुँचाया है। सामाजिक न्याय की संकल्पना मुख्यतः लोहिया और अंबेदकर की है। दोनों ने कहीं यह नहीं कहा है कि उच्च पूँजीवाद की पींगों के साथ सामाजिक न्याय का मकसद पूरा हो सकता है। दोनों ही उसे समाजवादी व्यवस्था और समाज की दिशा में ले जाने वाली एक जरूरी और सकारात्मक पहल मानते हैं, जहाँ मंजिल हासिल करने पर आरक्षण की जरूरत नहीं रहेगी। विभ्रम में जीने और फैलाने वालों को व्यवस्था पकड़ लेती है और आगे बढ़ाती है ताकि यथार्थ सामने न आने पाए।

प्रेम सिंह
क्रमश:

5 टिप्‍पणियां:

smshindi By Sonu ने कहा…

महोदय/ महोदया जी,
अब आपके लिये एक मोका है आप भेजिए अपनी कोई भी रचना जो जन्मदिन या दोस्ती पर लिखी गई हो! रचना आपकी स्वरचित होना अनिवार्य है! आपकी रचना मुझे 20 जुलाई तक मिल जानी चाहिए! इसके बाद आयी हुई रचना स्वीकार नहीं की जायेगी! आप अपनी रचना हमें "यूनिकोड" फांट में ही भेंजें! आप एक से अधिक रचना भी भेजें सकते हो! रचना के साथ आप चाहें तो अपनी फोटो, वेब लिंक(ब्लॉग लिंक), ई-मेल व नाम भी अपनी पोस्ट में लिख सकते है! प्रथम स्थान पर आने वाले रचनाकर को एक प्रमाण पत्र दिया जायेगा! रचना का चयन "स्मस हिन्दी ब्लॉग" द्वारा किया जायेगा! जो सभी को मान्य होगा! मेरे इस पते पर अपनी रचना भेजें sonuagra0009@gmail.com या आप मेरे ब्लॉग “स्मस हिन्दी” मे टिप्पणि के रूप में भी अपनी रचना भेज सकते हो.
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Arunesh c dave ने कहा…

लिखो भाई पढ़े कोई न तो खेद होगा बाकी आप विद्वान हो :)

شہروز ने कहा…

गंभीर विश्लेषण करती पोस्ट!
प्रभावी रचना!
सच्ची पोस्ट!
हमज़बान की नयी पोस्ट http://hamzabaan.blogspot.com/2011/07/blog-post_09.html में आदमखोर सामंत! की कथा ज़रूर पढ़ें

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

हजारे की हकीकत सामने ला कर बहुत उपकार कर रहे हैं.लेकिन यहाँ समझदार लोगों की बहुत कमी है.लोग भेड़-चाल में चल रहे हैं.

Biography Online of All famous peoples ने कहा…

There should be no doubt that Anna is towards the truth. It may be the part of dispute that the percentage of people support them.

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