मंगलवार, 13 मार्च 2012

खेती में दिखता पलायन का चेहरा-3


खेती से खिसकती ज़मीन
हमारी कार्यशील आबादी का 50 फ़ीसदी से ज़्यादा हिस्सा अभी भी खेती के क्षेत्र में ही मौजूद है। इसका यह अर्थ हर्गिज़ नहीं कि इतने लोगों की वहाँ वास्तव में ज़रूरत है। लोग वहाँ हैं क्योंकि उनके पास कोई विकल्प मौजूद नहीं है। वे वहाँ सरप्लस लेबर हैं जिसके रचनात्मक इस्तेमाल की न योजनाकारों को कोई परवाह है न चिंता। उनके पास या तो वहीं रह कर धीरे-धीरे ख़त्म हो जाने का इंतज़ार रहता है या उन्हें बाहर निकलकर जीवनयापन के किसी साधन की तलाश करनी होती है। खेती के भीतर पर्याप्त आमदनी की संभावनाएँ सिकुड़ती देख सीमांत व मध्यम किसान मजबूरी में खेती से बाहर होते जाते हैं। पहले आंशिक तौर पर, फिर पूरी तरह। उनके पास लंबे समय तक घाटा उठाकर भी खेती करते रहने का आर्थिक आधार नहीं होता। खेती के क्षेत्र के बाहर दूसरे क्षेत्रों में भी उनके लिए कोई जगह नहीं है।
ऐसा नहीं है कि जो लोग खेती करना छोड़ गए तो उनकी जगह कोई और खेती करने लगा। अगर खेती में गुज़र-बसर होती रहती तो जिन्होंने छोड़ी, वे ही क्यों छोड़ते। इसलिए उनके जाने पर अक्सर उनकी ज़मीन भी खेती के उपयोग से बाहर हो जाती है।
भारत में नव उदारवादी नीतियों के चलते जो गुब्बारा अर्थव्यवस्था पिछले दो दशकों में फैली है, उसने एक नए मध्यवर्ग और उपभोक्ता तबक़े को खड़ा किया। यह अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से वित्त और सर्विस सेक्टर पर टिकी है। उत्पादन का प्राथमिक क्षेत्र हेय हो गया है। इसी ने शेयर बाज़ार की सट्टेबाजी को सर्वोपरि बनाया और वही सट्टेबाजी ज़मीन के बाज़ार में भी आई। शहरों के आस-पास की ज़मीनों के दाम बढ़े हैं क्योंकि मध्यवर्ग के पास निवेश के लिए पैसा है। खेती का क्षेत्र काॅर्पोरेट के लिए खोल दिए जाने, कांट्रेक्ट खेती को राज्यों द्वारा बढ़ावा देने से आई.टी.सी., रिलायंस और टाटा जैसी कंपनियों की भी ग्रामीण भारत में सरगर्मियाँ बढी हैं। ज़मीन सबकी निगाहों में सोने से तेज चमक रही है।
नतीजा यह है कि खेती की ज़मीन का बहुत बड़ा हिस्सा चुपचाप खेती के उपयोग से बाहर हो गया है।
कुछ वर्षों पहले हमने देश में अनेक जगहों पर एस0ई0जे़ड0 (सेज़) के विरोध में ज़बर्दस्त आंदोलन देखा था और हममें से अनेक उस आंदोलन के हिस्से भी बने थे। सेज़ के प्रावधान मज़दूर विरोधी थे व उससे खेती की उपजाऊ ज़मीन किसानों से छीनी जा रही थी। अगर भारत सरकार द्वारा ‘फाॅर्मल अप्रूवल’ और ‘इन प्रिंसिपल अप्रूवल’ पाये सारे एसईजेड बन गए तो भी वे कुल 2.1 लाख हेक्टेयर ज़मीन ही ले सकते हैं। जबकि बाज़ार ने किसानों के साथ सौदे करके बिना किसी क़ानून और बिना किसी विरोध के देश की 1 करोड़ 80 लाख हेक्टेयर ज़मीन खेती के उपयोग से बाहर खिसका दी। देश के सारे राज्यों में खेती की ज़मीन में नाटकीय रूप से कमी आई है और उसे रोकने की कोई सजग कोशिश उस सरकार की तरफ़ से नहीं हुई जो देश की खाद्य सुरक्षा के लिए भी एक क़ानून बना रही है।
-विनीत तिवारी
क्रमश:

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