मंगलवार, 17 जुलाई 2012

रूमी की बांसुरी

हर साल गर्मियों में, फ्रांस और अन्य (अधिकांशतः फ्रेंच भाषाभाषी) देशों के लेखकों, कवियों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक अनौपचारिक सम्मेलन, फ्रांस के लियोन शहर में होता है। इस बैठक में मानवता के समक्ष उपस्थित विभिन्न मुद्दों पर शुक्रवार से रविवार तक तीन दिन का गहन संवाद होता है। इस संवाद का आयोजन जुलाई के पहले सप्ताह में किया जाता है। मुझे पिछले दो वर्षों से लगातार इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाता रहा परन्तु अपनी अन्य व्यस्तताओं के चलते मैं वहां नहीं जा सका। इस साल मुझे लियोन आने का निमंत्रण काफी पहले से दे दिया गया था और मैंने यह तय किया कि इस बार मैं वहां जरूर जाऊंगा।
फ्रांस और दुनिया के फ्रेंचभाषी हिस्सों के प्रमुख बुद्धिजीवियों, लेखकों और कवियों से मिलना और बातचीत करना सचमुच एक शानदार बौद्धिक अनुभव था। वहां उत्तरी अफ्रीका अर्थात अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, मोरक्को, माली, मिस्त्र कई अन्य देशों के प्रतिनिधि मौजूद थे। इन देशों के जो नागरिक फ्रांस में रह रहे हैं, वे भी वहां थे। अधिकांश प्रतिभागी फ्रांस और फ्रेंचभाषी विश्व के जानेमाने व्यक्तित्व थे। कुछ प्रतिभागी ब्राजील से भी आए थे। मानवता के भविष्य के प्रति पूरी गंभीरता से चिंतित इन लोगों से विचारविनिमय सचमुच एक बहुत अच्छा अनुभव था।
लियोन एक मझौले आकार का शहर है। शहर के बीच से दो नदियां बहती हैं और इस कारण यह शहर लगभग एक टापू है। लियोन का इतिहास रोमन काल तक जाता है और आज भी वहां रोमन युग के अवशेष मौजूद हैं। शहर के ठीक बीच, 700 एकड़ में फैला एक बहुत बड़ा पार्क है। जिस होटल में मैं और कुछ अन्य प्रतिभागी ठहरे थे, उससे यह पार्क कुछ ही मिनटों के फासले पर था। लियोन की सुंदरता देखने लायक थी। सम्मेलन पूरी तरह अनौपचारिक था और इसका आयोजन इस पार्क में ही, विशालकाय पुराने पेड़ों की छाया तले किया गया था। इसे देखकर मुझे टैगोर के शांतिनिकेतन की याद गई। दिलचस्प बात यह है कि वहां टैगोर, पाब्लो नेरूदा उनके यूनिवर्सलिज्म भी चर्चा का विषय थे। एक सत्र में टैगोर और नेरूदा दोनों पर एक साथ चर्चा हुई।
प्रतिभागियों में से केवल मैं फ्रेंच नही जानता था। अन्य सभी धाराप्रवाह फ्रेंच बोल रहे थे परन्तु इससे कोई समस्या नहीं हुई। मेरी बातों का अनुवाद करने के लिए कई लोग तैयार थे। मैं 5 जुलाई की सुबह जब लियोन पहुँचा तो हवाई अड्डे पर मुझे लेने के लिए सिमोन कुनेगेल नामक महिला आईं हुईं थीं। मुझे लगा कि वे मात्र स्वयंसेवक हैं और मुझे होटल तक छोड़कर चली जावेंगीं।
परन्तु मैं गलत था और मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि सुश्री सिमोन के बारे में मेरा अंदाजा गलत निकला। वे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलती थीं और मुंबई स्थित फ्रेंच राजनयिक मिशन में कई वर्षों तक पदस्थ रही थीं। वे कोलाबा में रहती थीं। भारत में अपनी पदस्थापना के दौरान उन्होंने कई भारतीय व्यंजन बनाना सीख लिया था। उन्होंने जोर देकर कहा कि मैं उनके घर आऊं ताकि वे मुझे भारतीय व्यंजन बनाकर खिला सकें। उनका कहना था कि इससे मुझे ऐसा लगेगा मानो मैं अपने घर पर ही हूं। मेरी यात्रा के पहले ही दिन उन्होंने मुझे पूरे लियोन शहर में घुमाया। शहर के पुराने हिस्से को देखकर मैं चकित रह गया। उसमें रोमन काल की खुशबू अब भी बाकी थी।
जब मैं सुश्री सिमोन के घर पहुँचा तब मेरे आश्चर्य का ठिकाना रहा। वहां दो अन्य मेहमान भी थे। एक थे मिस्त्र मूल के मोहम्मद, जो संगीतविज्ञानी हैं और अपने साथ ढेर सारी बांसुरियाँ लाये थे। उन्होंने बांसुरी बजाई भी और इससे मुझे केवल अपने देश भारत वरन मौलाना रूमी की "मथनवी रूमी" की भी याद आई। मथनवी का अर्थ होता है महाकाव्य। मौलाना रूमी की मथनवी, जो कि फारसी की कुरान कही जाती है, की शुरूआत में ही बांसुरी का जिक्र है। मौलाना रूमी कहते हैं कि बांसुरी के दिल में घाव (छेद) हैं और इनसे अपने ईश्वर से जुदा होने का उसका करूण क्रंदन निकलता है। मैने मोहम्मद को भगवान कृष्ण और उनकी बांसुरी के बारे में बताया और यह भी कि भगवान कृष्ण हमारे सूफी संतों के अत्यंत प्रिय थे। मोहम्मद की पत्नी जे़नब, जो कि जर्मन हैं, भी वहां थीं। वे भी अपने पति की तरह संगीतविज्ञानी हैं। मोहम्मद का बांसुरी वादन सचमुच मन को प्रसन्नता से भर देने वाला था। हमने उस दिन सुबह और शाम का खाना साथ ही खाया क्योंकि सिमोन का आग्रह था कि हम रात का भोजन भी उनके साथ लें। उन्होंने खाने में दाल पकाई थी जिसका स्वाद लगभग वैसा ही था जैसा हमारे देश में होता है। यद्यपि मैं सिमोन और उनके पति से पहली बार मिला था परन्तु जब मैंने उनसे विदा ली तो मुझे लगा कि मैं अपने बरसों पुराने दोस्तों से बिछुड़ रहा हूँ। यह मेरे लिये सम्मेलन की बहुत सुंदर शुरूआत थी।
दोपहर के भोजन के बाद वे मुझे फिर शहर में घुमाने ले गईं और मैने लियोन के कुछ अन्य हिस्से देखे। मेरे पास शहर देखने के लिए सिर्फ वही एक दिन था क्योंकि अगले तीन दिनों तक तो मैं संवाद में व्यस्त रहने वाला था। स्पष्टतः, एक दिन में हम लोगों के लिए सब कुछ देखना संभव नहीं था। हम लोग उस पहाड़ को भी नहीं देख पाये, जिसपर एक जमाने में लियोन के मजदूर रहते थे और वहीं से उन्होंने अन्याय के विरूद्ध अपना संघर्ष किया था। ऐसा कहा जाता है कि कार्ल मार्क्स ने भी उनसे प्रेरणा ली थी। मैं केवल उतना ही देख सका जितना कि एक दिन में संभव था। मैंने लियोन का सिनेमा पर केन्द्रित संग्रहालय भी देखा, किन्तु केवल बाहर से। ल्यूमियर ब्रदर्स लियोन के हैं और उनके घर को संग्रहालय बना दिया गया है।
संवाद के सत्र 6 जुलाई की सुबह से शुरू हुए। ये संवाद काफी अनौपचारिक थे। किसी विषय विशेष में रूचि रखने वाले लोग पेड़ों की शाखाओं या जमीन पर समूह बनाकर बैठ जाते और चर्चा शुरू कर देते। सभी संवाद केन्द्रित थे मानवता और आधुनिक दुनिया में उसे पेश रही समस्याओं पर। मैं जिस समूह के साथ बैठा, उसमें हालिया रिओ सम्मेलन, अन्यायपूर्ण वैश्विक आर्थिक व्यवस्था और अरब देशों में हुई क्रांति पर चर्चा हो रही थी।
मुझसे अरब क्रांति पर अपने विचार रखने के लिए कहा गया। मैंने बैंगलोर के फायर लाईज आश्रम के सिद्घार्थ की ओर नजर घुमाई। वे पेरिस में हैं और फ्रेंच भाषा का अच्छा ज्ञान रखते हैं। उन्होंने अपने आश्रम में भी इस तरह के संवादों का आयोजन किया था। मुझे सिद्घार्थ की मदद की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि मैं वहां चर्चा शुरू होने के कुछ समय बाद पहुँचा था और मुझे यह मालूम नही था कि बातचीत किस विषय पर हो रही है। सिद्घार्थ ने मुझे संक्षेप में पहले हुई चर्चा के बारे में बताया और यह कहा कि मैं अरब देशों में हुई प्रजातांत्रिक क्रांति के बारे में अपने विचार सामने रखूं।
मैने कहा कि अरब क्रांति मूलतः राजनैतिक थी कि सामाजिक और सांस्कृतिक। इस क्रांति का क्या भविष्य होगा, इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है क्योंकि राजनीति केवल विचारधारा पर आधारित नहीं होती बल्कि कई अन्य कारक भी उसे प्रभावित करते हैं। यह क्रांति विशुद्ध रूप से राजनैतिक थी और उसमे कोई सामाजिक सांस्कृतिकधार्मिक मुद्दा शामिल नही था। अभी तो मिस्त्र और ट्यूनीशिया में धार्मिक पार्टियों ने जीत हासिल कर ली है और धर्मनिरपेक्ष दलों को केवल कुछ सीटों पर संतोष करना पड़ा है। परन्तु इससे निराश होने की जरूरत नही है क्योंकि जै़मूल अबिदिन और हुस्नी मुबारक दोनों ने धार्मिक ताकतों का दमन किया था। ये दोनों शासक अमेरिका के पिट्ठू माने जाते थे।
आशा की एक किरण यह है कि इखवानूल मुसलमीन और अनेहदादोनों ने लोगों से यह वायदा किया है कि धार्मिक मामलों में उनकी नीतियां मध्यमार्गी होंगी और वे देश को धार्मिक कट्टरता की ओर नहीं ले जायेंगे। आश्चर्यजनक रूप से, लीबिया में भी धार्मिक अतिवाद पर कबीलाई और पारिवारिक वफादारियां भारी पड़ीं। अरब देशों में धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता की जड़ें बहुत गहरी नही हैं और इनको वहां जमने में कुछ वक्त लगेगा। इन परिस्थितियों में मध्यमार्गी इस्लाम ही सबसे अच्छा विकल्प मालूम होता है। शहर के एक टीवी चैनल ने भी इसी मुद्दे पर मुझसे बातचीत की और मैंने वहां भी यही बातें कहीं।
दोपहर के सत्र में मुझसे "मानवता और सार्वभौमिक मूल्य" विषय पर बोलने के लिए कहा गया। जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं इस सम्मेलन में औपचारिक भाषण नहीं हुए वरन यह एक तरह का गोलमेज विमर्श था जिसमें गोलमेज नहीं थी! इस सत्र का फोकस टैगोर पर था और मुझसे अपेक्षा थी कि मैं टैगोर पर कुछ बोलूं। यद्यपि मुझे केवल उन तक सीमित रहने की जरूरत नहीं थी। नि:संदेह, टैगोर एक महान कवि, लघुकथा लेखक, चित्रकार, संगीतकार और प्रतिभाशाली बुद्धिजीवी थे। उनकी संगीत रचनाओं को रबीन्द्र संगीत कहा जाता है और बांग्लादेश रेडियो से तक रोज इस संगीत का प्रसारण होता है।
टैगोर सार्वभौमिक मूल्यों में विश्वास रखते थे और अपनी रचनाओं के जरिए उन्होंने इन मूल्यों को बढ़ावा दिया। वे धार्मिक संकीर्णता से कोसों दूर थे। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक "गीतांजलि" जिस पर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला, में वे पूछते हैं, "तुम भगवान को मंदिरों में क्यों ढूंढते हो। मुझे तो मई की तपती दुपहरी में सड़क किनारे पत्थर तोड़ते मजदूरों में भगवान दिखते हैं। उनमें समाए ईश्वर को तुम आसानी से देख सकते हो" यह थी उनकी गरीबों और वंचितों के प्रति सहानुभूति की भावना। यह था उनका मानव श्रम की गरिमा पर विश्वास।
टैगोर ने ही गांधीजी को "महात्मा" का दर्जा दिया था। महात्मा एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है महान आत्मा। टैगोर ने गांधी को महान आत्मा क्यों कहा? उन्होंने पाया कि गांधी उनके आदर्शों को उनसे भी कहीं अधिक प्रतिबिंबित करते हैं। गांधी के अहिंसा और मानव प्रेम के दर्शन ने हमारी दुनिया की कई विभूतियों को प्रेरणा दी। इनमें शामिल हैं मार्टिन लूथर किंग जूनियर जिन्होंने गांधी की राह पर चलकर अफ्रीकीअमेरिकियों के अधिकारों की लंबी लड़ाई लड़ी।
गांधीजी ने अपनी पुस्तक "हिन्द स्वराज" में लिखा है, "मैं ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ता हूं पर मैं अंग्रेजों से घृणा नहीं करता। अपने दुश्मन से बेशक लड़ो परंतु एक मानव के रूप में उससे घृणा मत करो। तुम जब किसी व्यक्ति से लड़ते हो, तब, दरअसल, तुम जो बुराईयां उसमें हैं, उनसे लड़ते हो कि उसकी मानवता से" गांधीजी ब्रिटिश श्रमिक वर्ग के परम हितैषी थे। गांधी का दर्शन गहरी आंतरिक आस्था पर आधारित था। ऐसी आस्था के बगैर आपके मुंह से ऐसे शब्द निकल ही नहीं सकते।
आज हममें से शायद ही किसी में अपने विचारों के प्रति इतनी आस्था और द्रढता हो। इसके बिना हम दुनिया को नहीं बदल सकते। गांधीजी ने संकुचित धार्मिक सोच और साम्प्रदायिकता के खिलाफ जीवन भर संघर्ष किया और अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों, को अपना मानने के कारण ही उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी। मुसलमानों के प्रति उनके दृष्टिकोण से नाराज एक हिन्दू कट्टरवादी ने उन्हें गोली मार दी। जिस समय पूरे देश में मुसलमानों के प्रति गहरी घृणा का वातावरण हो, उनके गले काटने की प्रतिस्पर्धा चल रही हो, ऐसे समय उनके अधिकारों के लिए लड़ने का काम गांधी जैसे असाधारण रूप से साहसी और द्रण विचार वाले मनुष्य ही कर सकते थे। वे नि:संदेह महान थे।
मैंने नरेन्द्र मोदी के गुजरात की बात भी की जहां गांधी की धरती पर 2000 निर्दोष मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया। किसी से घृणा करना, उसे नुकसान पहुंचाना, उसे मार डालना बहुत आसान है। कठिन है किसी से प्रेम करना और मानवता की रक्षा के लिए दृ़ता से खड़े रहना। वहां मौजूद सभी लोगों को मेरी बातें बहुत मर्मस्पर्शी लगीं। दक्षिण अफ्रीका से आई एक महिला ने कहा कि गांधी नि:संदेह महान थे और उन्हें महात्मा कहने वाले टैगोर भी उतने ही महान थे।
आधुनिक दुनिया में हमें जरूरत है ऐसे लोगों की जो सभी को और विशेषकर अल्पसंख्यकों को खुले दिल से गले लगाएं। आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था हर देश में प्रवासियों की संख्या बढ़ रही है और राजनैतिक दमन भी बढ़ रहा है। इस कारण कई अलग-अलग तरह के अल्पसंख्यक समूह बन गए हैं। हमारी दुनिया को कई गांधी चाहिए।
दूसरे समूहों में अन्य विषयों पर चर्चा हुई जिनमें मुख्यतः समाज के हाशिए पर रहने वाले तबकों से जुड़े मुद्दे शामिल थे जैसे, शिक्षा व्यवस्था, सड़क पर रहने वाले बच्चों की समस्या, मीडिया और आर्थिक असमानताएं।
इस तरह के संवादों के आयोजन की जरूरत दुनिया के हर कोने में है। फ्रांस के एक एनजीओ ने इस सिलसिले में जो पहल की है वैसी ही पहल अन्य स्थानों पर भी की जानी चाहिए। इस एनजीओ के कार्यकर्ता अत्यंत उत्साही और मेहनती थे और उन्होंने बड़े अच्छे ढंग से सारी व्यवस्थाएं संभालीं। सबसे अच्छी बात यह थी कि पूरी चर्चा अनौपचारिक वातावरण में हुई। वहां किसी राजनेता या विशिष्ट व्यक्ति को आमंत्रित नहीं किया गया और ही कोई उद्घाटन या समापन सत्र हुआ। हर व्यक्ति अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र था। मैं सम्मेलन में महिलाओं की बड़ी संख्या में उपस्थिति से भी बहुत प्रभावित हुआ। उन्होंने गंभीरता और बौद्धिकता से अपने विचार प्रतिभागियों के समक्ष रखे।

-डॉ. असगर अली इंजीनियर

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |