मंगलवार, 20 नवंबर 2012

भूमि अधिग्रहण विधेयक पर नई तैयारी






कृषि मंत्री शरद पवार की अगुवाई में अधिकार प्राप्त केन्द्रियो मंत्रियो का समूह 8 अक्तूबर से नए भूमि अधिग्रहण विधेयक की तैयारी में जुटा हुआ था | सूचनाओं के अनुसार 16 अक्तूबर को आपसी सहमती से उस विधेयक का मसौदा तय कर लिया गया | मसौदा तय करने के दौरान मुख्य मतभेद इस बात पर उभरा था कि अधिग्रहित की जाने वाली जमीनों का कितना हिस्सा निजी कम्पनिया व पब्लिक प्राइवेट पाटर्नरशिप ( पी . पी पी ) का प्रोजेक्ट किसानो से स्वंय खरीदे और कितना हिस्सा सरकार अलग से किसानो से लेकर अधिग्रहित करे | शुरूआती मसौदे में कुल अधिग्रहण का 80% कम्पनियों या पी पी पी प्रोजेक्ट को किसानो से खरीदना था | जबकि 20% जमीन को सरकार द्वारा अधिग्रहित किया जाना था | मतलब स्पष्ट है कि 80% किसानो की सहमती के बिना यह प्रक्रिया पूरी नही होनी थी | 
इसका विरोध निजी कम्पनियों द्वारा पहले से किया जा रहा था | बाद में मंत्रियो के समूह में भी इस 80% की सीमा को घटाने का दबाव बढने लगा | अब इसे 5% कम करके 75% कर दिया गया है | हालाकि 18 अक्तूबर के  दैनिक हिन्दुस्तान में इसे 66% किये जाने की सूचना दी है | अभी मंत्रियो के समूह का यह मसौदा केन्द्रीय मंत्री परिषद में और फिर संसद में पेश व पास होकर ही विधेयक का रूप लेगा | विधेयक के रूप में इसका स्वरूप कैसा होगा यह बाद की बात है | लेकिन अभी तक लिए गये निर्णय पर यह सवाल खड़ा होता है कि मंत्रियो के समूह द्वारा 80% को घटाकर 75% या 66% क्यों किया गया  ? उसे बढाकर 90% या 100% क्यों नही किया गया  ? 
जवाब मुश्किल नही है कि इसे कम करने के लिए तो हर तरह से दबाव डालने में सक्षम धनाढ्य कम्पनिया एकजुट होकर मंत्री समूह पर दबाव बनाने में लगी हुई थी | दुसरे यह कि मंत्री समूह में शामिल कृषि मंत्री व ग्रामीण विकास मंत्री तथा अन्य मंत्रीगण न ही स्वंय किसान व ग्रामीण है और न ही वे किसानो व ग्रामीणों के हितो के साथ खड़े ही रहे है | मतलब साफ़ है कि मंत्री समूह खुद भी भूमि अधिग्रहण पर किसानो को निर्णय लेने की छूट देने के लिए तैयार नही थे | इसीलिए वह किसानो  को और दबाकर भूमि अधिग्रहण के लिए मसौदा तैयार करने में जुटा भी हुआ था | 
इसी का परिणाम आया कि , अब सरकार 25% या 34% तक भूमि किसानो से बिना उनकी रजामंदी  के ले सकती है , बशर्ते कि निजी कम्पनिया या पी . पी . पी . प्रोजेक्ट 75% या 66% जमीन उनके मालिक किसानो से खरीद ले | कम्पनिया इस सीमा को और ज्यादा घटाने का प्रयास करेंगी और यह भी संभावना है कि अंतिम विधेयक में यह सीमा घट  भी जाय | कयोंकि कम्पनियों के साथ सभी प्रचार माध्यमी हिस्से देश के औद्योगिक विकास के नाम पर भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को तेज एवं सरल बनाने के लिए लगातार दबाव डालते व बढाते जा रहे है | जबकि आम किसान इसे लेकर न तो व्यापक तौर पर सोच रहा है और ना ही सचेत है और न ही संगठित हो रहा है | भूमि अधिग्रहण मुद्दे पर किसानो या किसान संगठनों द्वारा संगठित रूप से अपना कोई मसौदा न पेश करना भी सरकार को धनाढ्य कम्पनियों के पक्ष में निर्णय देने के लिए छूट व आधार दे रहा है | 
वैसे सरकारों की पिछले 20--- 25  सालो से घोषित पक्षधरता उद्योग -- वाणिज्य के मालिको के ही साथ रही है | अब उनकी यह पक्षधरता किसानो की जमीन छीन कर ( अधिग्रहित कर ) उद्योगपतियों , बिल्डरों , डेवलेपरो
को सौपे जाने के रूप में सामने आती जा रही है | इसीलिए भी भूमि अधिग्रहण के मसौदे पर केवल संसद को ही नही , बल्कि किसानो को भी अपनी खेती किसानी के हितो के अनुसार निर्णय लेना है और उसे मानने के लिए सरकार पर दबाव भी डालना है | 
अगर किसी क्षेत्र के किसान महज अपनी और अपने गाँव की जमीन के अधिग्रहण का विरोध करने तक सीमित रहेंगे , निजी कम्पनियों के हित में पुरे देश में जारी किये गए अधिग्रहण कानून का व्यापक विरोध नही करेंगे , भूमि अधिग्रहण के लिए सभी किसानो की रजामंदी की शर्त नही लगायेंगे तो जमीन से उनके अधिकार के काटने -- छटने की यह प्रक्रिया रुकने वाली नही है | ये पूंजी के दलाल और सत्ता के काले लोग उनकी जमीन को एक दिन सम्पूर्ण रूप से लील; लेंगे | 



-सुनील दत्ता

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |