शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

अमीर बनने के लिए बेचैन रहना

  1. किसी बुरे सपने की तरह है अमीर बनने के लिए बेचैन रहना

    अमीर बनने का सपना मुझे हमेशा  ही से किसी बुरी इच्छा जैसा लगता रहा है। ऐसा कई बार हुआ जब मेरे कुछ शुभ चिन्तकों ने मुझे पैसा कमाने तथा अमीर बनने की तरकीबें बताईं, विशेष रूप से उन दिनों जब मेरी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। पिता की बेरोजगारी फिर उनकी असमय मृत्यु ने माँ सहित मेरे सात भाई बहनों की हालत खराब कर दी थी, उन दिनों भी अमीर बनने की तरकीब बताने वालों को मैं अच्छी नजर से नहीं देखता था। हाँ, परिश्रम से आय अर्जित करने या उसमें वृद्धि का तरीका बताने वालों को अवश्य मैं गंभीरता से सुनता था, ऐसे समय में जब प्रत्येक व्यक्ति जल्द से जल्द अमीर बन जाना चाहता है और यदि वह पहले से अमीर या अच्छी आय वाला है तो अपनी अमीरी को तीन-तिकड़म और नितांत अनैतिक तरीके से, देश की जड़ों में मठ्ठा डालने की हद तक जाकर वह चैगुनी-अठगुनी-सौगुनी भी अमीरी हासिल करने के लिए व्याकुल है। हर तरफ अमीरी की होड़ है, पूँजी का निर्लज्ज नृत्य है, ताण्डव है, घनलोलुप राक्षसों का भयानक चकाचैं।ध है, उससे भी भयानक शोर है। ऐसे में  से थोड़ा परे मैं हूँ और मेरे जैसे बहुत से लोग विपरीत दिशा में खड़े हुए अमीरी के उथले-गहरे पन को निस्पृह भाव से देख रहे हैं। अमीरी उन्हें मुँह चिढ़ाती है परन्तु वे अवसाद से नहीं मृत्यु भाव से हँसते हैं, साहसी हैं वे लोग जो घनलोलुपता के महाहंगामे के प्रभावों को तो महसूस करते हैं परन्तु उसकी चपेट में नहीं आते। प्रशांत श्रीवास्तव की एक कविता की पंक्तियाँ हैं:-
चादरें
सिकुड़ने का हुनर जानती हैं,
वे हमारी महत्वाकांक्षाओं के अनुपात में
हो जाती हैं छोटी,
कुछ चादरें आजीवन छोटी ही रहती हैं
मगर तब उनकी उम्र बढ़ जाती है।

    इसका यह मतलब नहीं है कि जो जहाँ खड़ा है, वहीं खड़ा रहे। उसके पास जो कुछ है, उसी पर संतोष करे, अपने से नीचे की ओर देखे, ऊपर की ओर नहीं। मैं किसी से मेरे जैसा बनने को नहीं कहता, मैंने तो लाभ के अवसरों की धार को कुन्द करने की हर संभव कोशिश की। सबको ऐसा करना चाहिए मैं यह नहीं कहता। जीवन तो प्रगति और बेहतरी के लिए संघर्ष का नाम है। गति के लिए आँखों में सपने तो होने ही चाहिए।
जाँ निसार अख्तर ने कभी तड़प कर कहा था-
    ‘‘आँखों में कोई ख्वाब सजा लो यारो’’
पाश ने भी कहा,
    ‘‘सबसे बुरा होता है मुर्दा शान्ति से मर जाना स्वप्नों का मर जाना’’
मजाज़ ने इस स्वप्न को ख़्वाबे सहर जानकर खुशी जाहिर की-
ज़ेहने इंसानी ने अब औहाम के जुल्मात में,
जि़न्दगी की सख्त तूफानी अंधेरी रात में,
कुछ नहीं कम से कम ख़्वाबे सहर देखा तो है
जिस तरफ देखा न था अब तक, उधर देखा तो है।

वे यह भी कह गए कि
तक़दीर कुछ भी हो, काविशे तदबीर भी तो है
तख़रीब के लिबास में तामीर भी तो है
ज़्ाुलमात के हिजाब में तनवीर भी तो है।

        जीवन को बेहतर बनाने की तदबीर करना और लूट की संस्कृति का हिस्सा बनना दो अलग स्थितियाँ हैं। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में प्रकाशित मिर्जा हादी रुस्वा के अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास उमराव जान अदा को याद कीजिए। अंतिम भाग में मिजऱ्ा रुस्वा और उमराव जान के बीच चल रहे संवाद के बीच उमराव जान कहती है-
    ‘‘मिर्जा साहब अब ज़माना तक़दीर का नहीं तदबीर का है’’ मिजऱ्ा रुस्वा ने तदबीर के पक्ष में शरीफ जादा जैसा उपन्यास लिख डाला, तदबीर मनुष्य तभी करेगा जब उसकी आँखों में स्वप्न हो, मन में इच्छा हो, यह स्वप्न, यह इच्छा नितांत भ्रमित होकर अर्थ की व्यापकता खो देती है। उसके द्वारा उपलब्ध तब्दीली की परिणतियाँ भी सीमित होती हैं। जाँ निसार अख्तर, पाश, मजाज जिस ख्वाब या स्वप्न की ओर संकेत करते हैं उसके सरोकार सामाजिक विराटता लिए हुए हैं। सामूहिकता के विस्फोट की परिणतियाँ भी सामूहिक होती हैं। यही वजह है कि सामूहिक लक्ष्यों के लिए शक्तिवादी रोमांच वाद पर सामूहिक प्रयास या संघर्ष को प्राथमिकता दी गई।
    हर समय अपनी अमीरी के बारे में सोचना और परेशान रहना मानसिक बीमारी है, उसी तरह जैसे हर समय अपने महत्व, आकांक्षा व प्रसिद्धि के बारे में चिंतित रहना। लेखकों, दूसरे कलाकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं में इस बीमारी के लक्षण आसानी से पाए जा सकते हैं, बीमारी कुण्ठा देती है, जिसके कारण कुण्ठा ग्रस्त लोगों की संख्या भी यहाँ अच्छी खासी है। इससे भी ज्यादा अमीर बनने या बड़ा आदमी बनने के लिए परेशान लोगों में आत्म हत्या करने वालों की संख्या भी यहाँ अधिक है। ज्यादा अमीर बनना या बनने के लिए छटपटाना सामाजिक अपराध भी है, किसी हद तक मानवीय भी। महँगे कपड़े पहनकर, महँगी गाडि़यों में घूमना, बड़े ऊँचे मकान बनवाना, रोज-ब-रोज अधिक सम्पत्तिशाली होना, कठिनाइयों में जीती देश की बड़ी आबादी को जो यकीनन गरीब है, मुँह चिढ़ाते हुए उन्हें उनके अभाव व बंचनाएँ याद दिलाना है। विडम्बना यह है कि समानता के सिद्धान्त में विश्वास रखने वाले कई साथी इस होड़ में शामिल दिख जाएँगे। महँगे-लम्बे कुर्ते व जींस में अंग्रेजी वर्चस्व वाली भाषा बोलते, औसत से बड़े मकानों में रहते ऐसे लोग आपको किसी भी समय गोष्ठी में मिल सकते हैं।
    आप कह सकते हैं कि यह देश में पिछले सालों हुए आर्थिक विकास की निशानियाँ हैं। वे भूल जाते हैं कि आर्थिक वृद्धि तथा प्रौद्योगिकी विकास के बावजूद हमारा मुल्क विश्व के निर्धनतम देशों में है। जहाँ सामाजिक उन्नति की गति बहुत धीमी है। जहाँ बेतहाशा गरीबी है। करोड़ों परिवार बेघर और करोड़ों नौजवान बेरोजगार हैं निरक्षरों-अशिक्षितों की संख्या इनसे भी ज्यादा है। जहाँ कुपोषण से लाखों बच्चे अब भी मरते हैं, कर्ज के बोझ से दबे किसान आत्महत्या करते हैं, भूख से बिलबिलाते लोग अब भी घरांे या फुटपाथों पर दम तोड़ देने पर मजबूर है। स्त्रियाँ प्रसव के समय कन्याएँ पैदा होने से पहले या पैदा होने के बाद मार दी जाती हंै, बाल मृत्यु दर के मामले में अपने देश का नम्बर ऊपर से छठा है और कन्या साक्षरता के मामले में भी। कम वजन के बच्चों का अनुपात भारत में सबसे ज्यादा है। देश की बड़ी आबादी जो मुख्यतः ग्रामीण अंचलों, कस्बों तथा छोटे शहरों में केन्द्रित है आवश्यक आधुनिक सुविधाओं से महरूम है। बिजली का भयानक संकट है तथा साफ पेयजल बड़े तरक्की याफ्ता शहरों तक में मुश्किल से मिल पा रहा हैं। महा प्रदेश यानी उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ज्यादातर लोग गन्दा पानी पीने को अभिशप्त हैं। शिक्षा और चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाओं के निजीकरण के कारण दोनों महँगी हुई हैं, बल्कि गरीब वर्गों की बात तो छोडि़ए निम्न मध्य व मध्यवर्ग के लिए जटिल बीमारियामें यह असंभव की स्थिति में है। एल0पी0जी0 पर सब्सिडी कम करने से संकट अधिक गहरा हो आया है- यह सार्वजनिक खर्च में कटौती का अभिशाप है। सरमायादारी की रथ पर सवार होकर आया बाजारवाद विकरालता ग्रहण कर रहा है, उसने मुसीबतें बढ़ाई हैं। मजाज ही ने 1937 में सरमायादारी पर नज्म लिखते हुए कहा था:-
    ये वो आंधी है, जिसकी रौ में मुफलिस का नशेमन है
    ये वो बिजली है जिसकी ज़द में हर दहका का खिर्मन है
    ये अपने हाथ में तहजीब का फानूस लेती है
मगर मजदूर के तन से लहूँ तक चूस लेती है
ये इंसानी बला खुद, खूने इंसानी की गाहक है
वबा से बढ़के मुहलिक, मौत से बढ़कर भयानक है।

    ये चिन्ताजनक है कि पिछले बीस वर्षों में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय में वृद्धि के बावजूद जीवन स्तर पर बहुत प्रभाव नहीं पड़ा है। अमत्र्यसेन के कथन को दोहराना पड़ रहा है कि तीव्र आर्थिक वृद्धि के बीस वर्षों बाद भी भारत अभी दुनिया के निर्धनतम देशों में एक है। वे आगे कहते हैं इस बात को खास तौर से उन लोगों ने नजर अंदाज किया है जो आय के इसी असमान वितरण के बदौलत विश्व स्तर का जीवन जी रहे हैं। यानी कि आय की उच्चता अथवा अमीरी के पीछे  अमानवीय असंवेदन शीलता की सक्रिय भूमिका होती है।
मजाज ही ने कहा है -
कहीं ये खूँ से फ़र्दे-मालो-जर तहरीर करती है
कहीं ये हड्डियाँ चुनकर महल तामीर करती है

    फर्दे मालोजर का मतलब धन दौलत का बही खाता होता है। तभी तो मुक्तिबोध को कहना पड़ा-
जो सरमायादारी को सम्बोधित हैं।
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र

    अमीरी के प्रति लोभ के आवेग में लार टपकाने से बचना अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ना नही ंहै। परिवार की जिम्मेदारी की पितृ सत्तात्मक अवधारणा से बचते हुए भी, वर्तमान सामाजिक संरचना ने कुछ हत्याएँ निर्मित की हैं। जिसमें पुरुष की भूमिका प्रमुखता प्राप्त करना है। परिवार की जिम्मेदारियों को निबाहते या उसे साझा करते हुए परिदृश्य से विलुप्त होते सामूहिक जनसंघर्षों की बहाली भी जरूरी है। बदलाव के लिए सघन वैचारिक अभियान की आवश्यकता से कौन इंकार कर सकता है, उसके भागीदार बनिए ताकि जीवन को बेहतर बनाया जा सके। असमानुपातिक विकास तथा इसके प्रति शिक्षित वर्ग में बढ़ते सम्मोहन ने जीवन में सामूहिकता को सीमित किया है। व्यक्तिवादी आकांक्षाओं ने सीमाएँ लाँघी हैं। केवल अपनी कमीज सफेद हो यह भावना विस्तृत हुई है।
    जनसंघर्षों की विलुप्ति बड़े के रूप में सामने आई है, राजनैतिक चेतना, लूट चेतना का रूप ले रही है, लोकतंत्र-लूटतंत्र की काया ग्रहण कर रहा है।
    राजनैतिक दलों को जिन मोर्चों पर सक्रियता के साथ उपस्थित होना चाहिए था, उनकी वहाँ बहुत कमी है, फलस्वरूप अन्ना हजारे, केजरीवाल, किरण बेदी और सिक्षो दिया जैसे लोगों के लिए स्पेस बनना ही था, जिन्हें यह ही नहीं मालूम कि उन्हें जाना कहाँ हैं। शक्तिवादी रोमांचवाद ही का यह एक उदाहरण है। इससे लूट या भ्रष्टाचार की अपेक्षा संसदीय जनतंत्र, उसका प्रमुख आधार राजनैतिक पार्टियों के प्रति विरक्ति ही अधिक पैदा हो रही है। जो अपने आप में एक बड़ा खतरा है। यह एक तरह से अमीर बनके अमीरों के विरुद्ध युद्धघोष है। लेकिन गरीबों को न अमीरों से लड़ना है न अमीरी से बल्कि गरीबी के कारणों से लड़ना है, यह सोचते हुए कि बहुत से लोगों की बहुत अमीरी के कारण ही वह गरीब हैं। बहुतों के घर की शान ओ शौकत उन्हें लूटकर ही कायम हुई है। बहरहाल इधर दो किताबें आई हैं, जिनकी चर्चा यहाँ अप्रासंगिक नही मानी जाएगी एक हिन्दी में नूर जहीर का उपन्यास ‘‘अपना खुदा एक औरत’’ दूसरी बांग्ला पुस्तक ‘‘कादंबरी देबीर सुसाइड नोट’’ लेखक पत्रकार रंजन बंधोपाध्याय। जो क्रमशः लखनऊ और कलकत्ता के दो बड़े अमीर घरानों का
आधार लिए हुए हैं। एक में बड़े घराने की तुच्छताओं के कारण कादंबरी आत्महत्या करने को बाध्य करती है तो दूसरी में सफिया दुखद मृत्यु का शिकार होती है। अमृत करोड़पति व्यक्ति की पत्नी, स्वयम् भी इसी हैसियत से होकर भी मादा कुकुर की नीच यातना उसकी नियति बनती है।  
 -शकील सिद्दीकी
  मो0 09839123525

2 टिप्‍पणियां:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

अमीर बनना बुरा नही है लेकिन इमानदारी से,,,
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recent post : नववर्ष की बधाई

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

एल एन मित्तल के दो भाई हैं जो उसी को देखकर उस जैसे काम करते हुए कहीं नहीं पहुंच रहे. अमीर बनने की चाह रखना कोई बुरी बात नहीं बशर्ते बौद्धिक सामर्थ्य तो हो वर्ना समाज में विद्रूपता ही फैलाएगी इस प्रकार की प्रवृत्ति.

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