मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

भारतीय सेना और प्रजातंत्र

भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के लगभग सभी राष्ट्रों के नागरिक, अपनी-अपनी सेनाओं को गर्व और श्रद्धा की नजर से देखते हैं। सेना को अराजनैतिक, अनुषासित सदस्यों वाली एक पवित्र संस्था माना जाता है। यह भी माना जाता है कि सेना के अधिकारी और कर्मचारी देषभक्त और ईमानदार होते हैं। आन्ध्रप्रदेष में सेना के दो अधिकारियों द्वारा जमीन पर कब्जा और आदर्ष हाउसिंग सोसायटी घोटाले को उन चन्द अपवादात्मक परिस्थितियों में गिना जाता है, जब धन की लिप्सा कुछ सैनिक अधिकारियों पर हावी हो गई थी। तहलका का वह स्टिंग आपरेषन, जिसके तहत खबरनवीसों ने हथियारों के सौदागर के भेस में सेना के अधिकारियों से मुलाकात की थी, ने भी सैनिकों की ईमानदारी और देषभक्ति में हमारे भरोसे को नहीं डिगाया। हम यह मानते रहे कि सैनिक स्वार्थपरता जैसी मानवीय कमजोरियों पर विजय हासिल कर लेते हैं। हम यह मानते रहे कि सैनिक जिसे एक व एकमात्र षत्रु मानते हैं वे हैं विदेषी हमलावर सेनाएं। हम यह भी मानते रहे कि ‘षत्रु’ से युद्ध करना आवष्यक है और यह भी कि सैनिक, हमारी सीमाओं की रक्षा और हमारे नागरिकों की सुरक्षा की खातिर युद्ध करते हैं।
मध्यमवर्गीय भारतीय, राजनेताओं को गिरी हुई दृष्टि से देखते हैं। वे यह मानते हैं कि अधिकांष राजनेता ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं व भ्रष्ट और स्वार्थी हैं। मध्यमवर्ग एक अन्य कारण से भी राजनेताओं को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता-वह यह कि वे चुनाव जीतने के लिए सस्ती कीमत पर अनाज, टी.वी. सेट और लेपटाॅप आदि जैसी सुविधाएं उन लोगांे को उपलब्ध करवाते हैं, जो उन्हें पाने के लायक नहीं हैं। राजनेताओं को हमारा मध्यमवर्ग एक आवष्यक बुराई की तरह सहन भर करता है।
सेवानिवृत्त सेना प्रमुख जनरल व्ही.के. सिंह के हालिया खुलासे, इन सभी मान्यताओं को चुनौती देते हैं-विषेषकर मध्यमवर्गीय भारतीयों की मान्यताओं को। जनरल सिंह का कहना है कि सेना, जम्मू-कष्मीर राज्य के मंत्रियों को लम्बे समय से धन देती रही है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाषित एक रपट के अनुसार, ‘आर्मी इंटेलिजेंस यूनिट’ के धन का उपयोग, जम्मू-कष्मीर की चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट करने की कोषिष में किया गया था। परन्तु जनरल ने यह स्पष्टीकरण दिया है कि मंत्रियों को धन, राजनैतिक स्थायित्व को बढ़ावा देने और लोगों के दिलो-दिमाग को जीतने के लिए दिया गया था। विभिन्न समाचारपत्रों में प्रकाषित रपटों में कई अन्य सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों के हवाले से यह बताया गया है कि ‘‘लोगों का दिलो-दिमाग जीतने’’ के अभियान पर जो खर्च हुआ, वह ‘सद्भावना योजना’ के अन्तर्गत किया गया और सेना ने विभिन्न कल्याणकारी कार्यक्रमों पर सीधे धन खर्च किया। लेफ्टिनंेट जर्नल अर्जुन रे, जो लद्दाख स्थित 14 कोर के कमांडर थे, ने अपनी पुस्तक, ‘पीस इज़ एव्रीबडीज बिजनेस: स्ट्रेटेजी फाॅर कनफ्लिक्ट प्रिवेंषन’ में उनके द्वारा लागू की गई सद्भावना योजना का विवरण दिया है। उनके नेतृत्व में सद्भावना एक नागरिक पहल थी, जिसके अंतर्गत नागरिकों को मानवीय सहायता उपलब्ध करवाई जाती थी और यह कोषिष की जाती थी कि सेना का मानवीय चेहरा लोगों के सामने आए। रे के अनुसार, उनकी सोच यह थी कि अभियान सब से नीचे के स्तर से षुरू होना चाहिए ताकि नागरिकों की मानवीय गरिमा की पुनस्र्थापना हो सके और वे अपने भविष्य के निर्माता स्वयं बन सकें। इस प्रकार, मीडिया रपटों से ऐसा लगता है कि ‘‘लोगों के दिलो-दिमाग जीतने’’ के लिए चलाई गई सद्भावना योजना अलग थी और कष्मीर के मंत्रियों को धन दिए जाने का मसला अलग था। जनरल व्ही. के. सिंह पूर्व सेनाप्रमुख हैं और जब वे यह कहते हैं कि सेना कष्मीर में मंत्रियों को धन देती थी, तब उनके वक्तव्य को आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह बात कहने से उनका कोई हित साधन हो रहा हो, ऐसा भी नहीं लगता। झूठी कहने से उन्हें क्या हासिल होगा? हम यह भी नहीं कह सकते कि जनरल सिंह अधूरी या गलत सूचनाओं के आधार पर यह बात कह रहे हैं। चूँकि वे सेना प्रमुख थे अतः सेना द्वारा की जाने वाली हर कार्यवाही की पूरी और सही-सही जानकारी उन्हें उपलब्ध रहती ही होगी। केवल निष्पक्ष जांच के जरिए यह पता लगाया जा सकता है कि किसे पैसा दिया गया और कितना।
भाजपा से जुड़े नेता और जनरल स्वयं, केवल इस जानकारी के लीक होने को महत्व दे रहे हैं और उसकी जांच की मांग कर रहे हैं। भाजपा नेता मिलेट्री इन्टेलिजेंस की रिपोर्ट में जो कहा गया है, उस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते। वे केवल इस बात की जांच चाहते हैं कि यह रपट मीडिया के पास कैसे पहुंची। दूसरी ओर, नेषनल कान्फ्रेन्स की मांग है कि रपट में कही गई बातों की गहन जांच होनी चाहिए और सही तथ्यों को लोगों के सामने लाया जाना चाहिए। जनरल ने यह मांग की है कि ‘टेक्निकल सर्विसेज डिवीजन’ और उसकी भूमिका के बारे में एक ष्वेतपत्र प्रकाषित किया जाए। यह पूरा मसला सार्वजनिक इसलिए हुआ क्योंकि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार, जनरल का समर्थन चाहते थे और पूर्व सैनिकों के वोट कबाड़ने के अतिरिक्त, अपने राजनैतिक एजेण्डा को सेना तक पहुंचाना भी चाहते थे। बहरहाल, इस सब का नतीजा यह हुआ कि जनरल ने पूरे देष को यह बता दिया कि सेना देष की राजनीति को प्रभावित करने की कोषिष करती रही है।
सेना की भूमिकाएं
प्राचीनकाल में युद्ध कबीलों के बीच होते थे और कबीले के हर सदस्य को लड़ाई में भाग लेना होता था। परंतु सामाजिक प्रगति के साथ, जब उत्पादन की मात्रा, समाज की मूलभूत आवष्यकताओं से अधिक होने लगी, अर्थात अर्थव्यवस्था में अधिषेष मूल्य का सृजन होने लगा, तब समाज में ऐसे प्रषिक्षित या अर्धप्रषिक्षित सैनिकों का खर्च उठाने की क्षमता आ गई, जिनका काम केवल युद्ध लड़ना था। राज्य के खजाने, हथियारों और राजा के महल की रक्षा के लिए न्यूनतम संख्या में नियमित सैनिक रहते थे परन्तु युद्ध लड़ने के लिए बड़ी सेनाएं, दूसरे राजाओं के साथ गठबंधन कर जुटाई जाती थीं। युद्ध के लिए हमेषा तैयार रहने वाली विषाल सेनाएं, जैसी कि हम आज देख रहे हैं, बहुत पुरानी नहीं हैं।
आधुनिक सेनाएं तीन प्रकार की भूमिकाएं निभाती हैं:  बाहरी खतरों से सीमा की रक्षा। देष में आन्तरिक हिंसक संघर्ष या गड़बडि़यों से निपटनाकिसी इलाके पर देष का कब्जा बनाए रखना। कब जब सेना को एक चैथी भूमिका भी निभानी पड़ती है। वह है प्राकृतिक या मानव-निर्मित हादसों के समय राहत व बचाव कार्य। कई बार सेना को इनमें से एक या अधिक भूमिकाएं एक साथ निभानी पड़ती हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि देष के नागरिकों का अलग-अलग तबका, सेना को अलग-अलग भूमिकाओं में देखता है।
भारत के नागरिकों के विभिन्न तबके, सेना को अलग-अलग समय में उपरोक्त चारों भूमिकाओं में देख चुके हैं। पाकिस्तान और चीन के साथ युद्ध के दौरान भारतीय सेना ने सीमाओं की रक्षा की और कई बार बहुत कठिन परिस्थितियों में उसने यह काम किया। हादसों, जैसे हाल में उत्तराखंड में बादल फटने, गुजरात व महराष्ट्र में भूकंप, सूनामी, बाढ़ आदि में लोगों को बचाने के लिए सैनिकों की सहायता ली जाती रही है। भारतीय सेना की साम्प्रदायिक दंगांे के दौरान भी तैनाती होती रही है। अल्पसंख्यक अक्सर यह मांग करते हैं कि उपद्रवग्रस्त इलाकों में जल्द से जल्द सेना की तैनाती कर दी जाए क्योंकि पुलिस की भूमिका अक्सर पक्षपातपूर्ण रहती है। विभिन्न तथ्यान्वेषण रपटों से यह साफ है कि पुलिस, अल्पसंख्यकों के विरूद्ध जरूरत से ज्यादा बल का इस्तेमाल करती है। अल्पसंख्यकों को एक ओर दंगाई मारते हैं तो दूसरी ओर पुलिस। पुलिसकर्मी मुसलमानों के व्यवसायिक संस्थानों की लूटपाट में भी हिस्सा लेते हैं। जो राजनेता दंगे करवाते हैं या जिन्हें उनसे राजनैतिक लाभ की उम्मीद होती है, वे सेना की तैनाती में जितनी संभव हो, उतनी देरी करने की कोषिष करते हैं। किसी ऐसे इलाके में सेना की तैनाती होते ही हिंसा में तेजी से कमी आ जाती है। सेना यह सुनिष्चित करती है कि अल्पसंख्यकों को बचाकर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया जाए। सन् 2002 में गुजरात और सन् 1984 में दिल्ली में सम्बंधित सरकारों ने सेना की तैनाती में 72 घंटे से भी अधिक की देरी की और इस दौरान दोनों राज्यों में मौत का नंगा नाच होता रहा।
ए.एफ.एस.पी.ए. बना सैनिकों का कवच
आन्तरिक संघर्ष के क्षेत्रों जैसे जम्मू-कष्मीर, नागालैण्ड व मणिपुर में सेना की लंबी अवधि के लिए तैनाती आम हो गई है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सेना वहां से कभी जाएगी ही नहीं। इस लंबी तैनाती की वजह से सेना, स्थानीय राजनीति में उलझ जाती है। नागालैण्ड, मणिपुर और जम्मू-कष्मीर के नागरिकों का एक बड़ा तबका, सेना को मानवाधिकारों के उल्लघंनकर्ता के रूप में देखता है। स्वाधीनता चाहने वाले हथियारबंद गिरोहों से मुकाबला करने में सैनिकों को भी जानें गंवानी पड़ती हैं और प्रतिक्रिया स्वरूप, वे निष्ठुरता से बल का इस्तेमाल करने पर आमादा हो जाते हैं। वे हथियारबंद लड़ाकों के मानवाधिकारों का उल्लघंन तो करते ही हैं, समुदाय के निहत्थे सदस्यों को भी अपना निषाना बनाने लगते हैं। बल प्रयोग अक्सर बदला लेने की इच्छा व भावना से किया जाता है। हथियारबंद लड़ाके तो मिलते नहीं हैं परन्तु उनके बदले समुदाय के आम सदस्यों को प्रताडि़त किया जाता है। यह माना जाता है कि हथियारबंद लड़ाकों के अपराधों के लिए उनके समुदाय को सजा देने से लड़ाकों पर हथियार डालने का दबाव पड़ेगा। मणिपुर व जम्मू कष्मीर में समुदाय की महिलाओं पर सेक्स संबंधी अत्याचारों का भी हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता है। मणिपुर में कुछ समय पहले, महिलाआंे ने निर्वस्त्र होकर सेना के षिविर के सामने प्रदर्षन किया था। वे सैनिकों को उनके साथ बलात्कार करने की चुनौती दे रही थीं। छत्रीसिंहपुरा हत्याकांड, युवकों का उनके घरों से गायब हो जाना, वीरता पदक और नकद इनाम के लालच में फर्जी मुठभेड़ें आदि जैसी घटनाएं होती रहती हैं। जम्मू कष्मीर में कई स्थानों पर सामूहिक कब्रें मिली हैं जो पीडि़तों के मानवाधिकारों के उल्लंघन का सुबूत तो हैं ही, उनसे यह भी साबित होता है कि सैनिकों को किसी का डर नहीं हैै। सैनिकों को इस तरह की घटनाओं के लिए जवाबदेह इसलिए नहीं बनाया जाता क्योंकि इससे ‘‘उनका मनोबल गिरेगा‘‘। ऐसे कुछ मामलों की जांच सीबीआई को सौंपी गई और जांच एजेन्सी को फर्जी मुठभेड़ों और सैनिकों द्वारा आम लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन के पुख्ता सुबूत मिले। परंतु सेना, सषस्त्र बल विषेषाधिकार अधिनियम का सहारा लेकर दोषी अधिकारियों को बचाने की कोषिष कर रही है। इस कानून के संरक्षण के कारण जनता के मानवाधिकारांे के उल्लंघन को प्रोत्साहन मिलता है और सैनिक बिना किसी डर के आमजनों के मानवाधिकारों को रौंदते हैं। जब समुदाय और उसके राजनैतिक प्रतिनिधियों को यह एहसास होता है कि वे दोषी सैनिकों को उनके कुकर्मों की सजा दिलवाने में असमर्थ हैं तो वे उसे एक ऐसी सेना के रूप में देखने लगते हैं जिसने उनके इलाके पर कब्जा किया हुआ है। ऐसी सेना का विरोध, चाहे वह कितना ही कमजोर क्यों न हो, जनता के लिए एकमात्र विकल्प बचता है व इससे हथियारबंद लड़ाकेे लोकप्रिय नायक बन जाते हैं।
इस मामले में राजनैतिक वर्ग की दो प्रमुख गलतियां हैं। पहली, वह समस्याओं का राजनैतिक हल निकालने की पर्याप्त व गंभीर कोषिष नहीं करना व दूसरी, सेना से संबंधित सभी जानकारियों को रहस्य के आवरण में रखना। जहां तक सैन्य रणनीति या इसी तरह की अन्य जानकारियों का सवाल है, उन्हें गुप्त रखना पूर्णतः उचित है परंतु क्या यह आवष्यक है कि हम सेना से संबंधित हर चीज को गुप्त बताने लगें? ऐसा करने से सेना के उच्चाधिकारियों को निरंकुष षक्तियां हासिल हो जाती हैं और उनकी जवाबदेही किसी के प्रति नहीं रहती। सेना के षीर्ष नेतृत्व को असीमित अधिकार देने के लिए मीडिया के जरिए सेना के आसपास एक आभामंडल का निर्माण कर दिया जाता है। तहलका के उस स्टिंग आपरेषन, जिसके जरिए उसने सेना में भ्रष्टाचार का पर्दाफाष किया था, की काफी आलोचना हुई थी। मीडिया भी सेना और उससे संबंधित खबरों की बहुत जांच-पड़ताल नहीं करता और ना ही उनकी गहराई से समीक्षा करता है।
भाजपा जैसी पार्टियों द्वारा पैदा किया जा रहा युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद का जुनून भी सेना को एक ऊँचे पायदान पर रखता है। युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद का चरित्र विस्तारवादी होता है और वह सैन्य षक्ति और प्रभुता की भाषा में बात करता है न कि न्याय और समावेषिता की भाषा में। यही युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद, सुषमा स्वराज को यह कहने के लिए प्रेरित करता है कि सीमा पर मारे गए हर भारतीय सैनिक के बदले वे दस पाकिस्तानी सैनिकों के सिर चाहती हैं। इस तरह की सोच व मानसिकता, देष को सेना पर जरूरत से ज्यादा निर्भर बना देती है। विवादों का निपटारा करने के लिए संवाद और समझाने-बुझाने के तरीकों को कोई महत्व ही नहीं दिया जाता। सेना पर निर्भरता का अर्थ होता है सैनिकों और सैनिक साजोसामान पर अधिक खर्च। इससे षिक्षा, स्वास्थ्य व अधोसंरचना विकास के कार्यक्रम प्रभावित होते हैं। इस तरह, मोदी की आक्रामक राजनीति को सेना की जरूरत है और सेना को ऐसे आक्रामक नेताओं की। इसलिए मोदी के मंच पर पूर्व सैनिकों की उपस्थिति आष्चर्य नहीं बल्कि चिंता को जन्म देती है क्योंकि इससे सेना को राजनीति में हस्तक्षेप करने की प्रेरणा मिलती है। अगर सैनिक अफसर पर्दे के पीछे से राजनेताओं को धन दंेगे और वह भी बिना किसी हिसाब-किताब के, तो यह प्रजातंत्र के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। राजनेताओं को धन देने से लोगों के दिलोदिमाग नहीं जीते जा सकते। और वैसे भी, लोगों का दिलोदिमाग जीतना सेना का काम नहीं है। यह राजनेताओं का काम है। राजनेताओं को सबको साथ लेकर, संवाद के जरिए, समस्याओं का राजनैतिक हल ढूढ़ना होगा। राजनेताओं और सेना के बीच गठजोड़ न केवल सैनिक अफसरों और राजनेताओं दोनों को भ्रष्ट करेगा वरन् यह देष के लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। एएफएसपीए जैसे कानूनों को तुरंत हटाए जाने की जरूरत है ताकि सैनिक अफसर व सैन्यकर्मी मानवाधिकारों का सम्मान करना सीखें। इससे प्रजातंत्र मजबूत होगा।

- इरफान इंजीनियर


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