शुक्रवार, 28 जून 2013

दिल्ली सल्तनत की एक ऐसी अंहकारी शहजादी जिसके कारण उसके बाप का कत्ल हुआ |


सिकन्दर सानी
13 जनवरी सन 1290
को शाही फ़ौज का एक बड़ा अफसर 70 वर्ष का बुढा जलालुद्दीन फिरोज किलोखड़ी के महल में बिना किसी के विरोध के दिल्ली का सुलतान बन गया | उस समय दिल्ली के अमीरों में दो दल थे : एक खिलजी दल और दूसरा तुर्क दल , खिलजी दल का नेता जलालुद्दीन था , रुपया और जागीर देकर उसने अपने शत्रुओ को अपना हिमायती बना रखा था |
बलबन वंश का एक मात्र दावेदार मलिक छज्जू कड़े का सूबेदार  बना कर दूर हटा दिया गया था | सन 1291 में उसने विद्रोह करके अपने आप को  स्वतंत्र घोषित कर दिया | मलिक छज्जू पराजित हुआ और अपने साथियो के साथ  पकड़ा गया | जलालुद्दीन की उदारता ने उसे बचा लिया |
बादशाह ने अपने दामाद और भतीजे गैरशास्प को कड़े का सूबेदार बनाकर भेज दिया | गैरशास्प साहसी , वीर और जिद्दी युवक था , वह बादशाह की दुलारी बेटी यानी  अपनी बेगम को अपने साथ कड़े ले जाना चाहता था | लेकिन शहजादी पर सल्तनत का नशा सवार था | वह एक साधारण सूबेदार की सूबेदारनी बनकर कड़े जाना अपनी तौहीन समझती थी | बादशाह सलामत भी उस के उपर दबाव नही डाल सकते थे | कयोकी वह
उनकी दुलारी बेटी थी | शहजादी  ने गैरशास्प को टका सा जबाव दे दिया , ''
मेरे साथ घरबार बसाना चाहते हो तो यहाँ यही रहो , दिल्ली के सुलतान की शहजादी  एक भिखमंगे के घर नही जायेगी |  इस अपमान से गैरशास्प  का चेहरा  स्याह हो गया , किसी तरह स्वंय को सयत करके उसने कहा , '' शहजादी  , मैं  आपको हीरे मोतियों से लाद देंगे |
शहजादी  खिलखिला करहँसतीहुई बोली , '' तुम क्या सोचते हो , दिल्ली के सुलतान की शहजादी ककंड -- पत्थरों से खेलती है ! ''
गैरशास्प रोष में बोला , '' शहजादी  , तुम पर सल्तनत का नशा सवार है , मैं सल्तनत पर फतह करके तुम पर निछावर कर दूंगा , ''
'' तो तुम सिकन्दर बनने का ख़्वाब देख रहे हो ! '' शहजादी  ने व्यंग किया ,
गैरशास्प ने अपने आप को अपमानित महसूस किया , उसका शरीर गुस्से से कापने लगा | उसने उसके नेत्र शहजादी  से मिले और शहजादी  काप उठी , उसके नेत्रों में संकल्प  था | जैसा वह कह रहा हो कि ' मैं तुम्हे सिकन्दर बनकर भी दिखा सकता हूँ '' |
रात भर गैरशास्प को नीद नही आई वह अपने कमरे में चहल-- कदमी करता हुआ कुछ  सोच रहा था , सत्ता का इतना अभिमान ! कहती क्या है , दिल्ली के सुलतान को शहजादी  एक भिखमंगे के घर जायेगी ! गैरशास्प घर जमाई बनकर रहेगा ! थू है उस  घर पर , गैरशास्प को भिखारी कहकर अपमानित करने वाली उस अभिमानी को वह एक  दिन दिखा देगा किउसकी बाजुओ में सल्तनते जीतने की कितनी ताकत है |
दुसरे दिन उसने बादशाह से कहा '' जहापनाह , मैं दिल्ली सल्तनत को खुशहाल और विशाल देखना चाहता हूँ , आप यदि हुकम दे तो मैं दक्षिण
 फतह कर दिल्ली सल्तनत का रूतबा बड़ा कर दूंगा , '' |
बादशाह चहक उठा , '' जरुर , जरुर ! हम खुश हुए , हम दुआ करते है कि जंग में तुम्हारी फतह  जरुर हो |
और दूसरे दिन उसने 8.000 सवारों के साथ कूच कर दिया |
यादव  राजा रामचन्द्र की राजधानी देवगिरी अपनी अतुल संपदा और वैभव से गैरशास्प को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी | यादव राजा रामचन्द्र वीर और प्रतिभाशाली राजा था | उसने अपनी सारी सेना लेकर कर्नाटक पर चढाई कर दी थी |
रामचन्द्र  को कर्नाटक में उलझा पाकर चतुर गैरशास्प ने तुरंत निर्णय ले लिया उसके लिए  यह सुनहरा मौका था | जिसमे उसका सम्पूर्ण भविष्य निहित था | वह चला था मालवा पर हमला करने दक्षिण फतह का हुक्मनामा लेकर , पर उसने अवसर को हाथ से जाने नही  दिया और देवगिरी पर हमला कर दिया |
राजा और  सेना रहित देवगिरी बहुत शीघ्र ही उसके हाथो में आ गया | उसके सैनिको के घोड़ो की टापों से देवगिरी का ऐश्वर्य कुचला जा रहा था उसने अपने सैनिको को  लूटपाट करने की छूट दे दी थी |
अपनी ही बेगम द्वारा अपमानित और दुत्कारा गया गैरशास्प हीरे--  मोती  -- मणि  -- माणिक के ढेरो के बीच अपने भविष्य का  तानाबाना बन रहा था | एक भिखारी लूट से प्राप्त करोड़ो की संपदा का मालिक हो
गया था ! लेकिन दिल्ली के सुलतान की शहजादी  के लिए तो ये सब ककड पत्थर है |उसके लिए इस अपार संपदा का कोई मूल्य नही , उस पर तो सल्तनत का नशा सवार  है , गैरशास्प को अपनी बाजुओ पर भरोसा था , वह सल्तनत फतह कर उसका घमण्ड चूर कर देगा |
गैरशास्प  बहुत देर तक सोचता रहा , अचानक उसे कुछ सुझा और उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान खेल गयी | उसने तुरंत एक दूत एक पत्र के साथ दिल्ली रवाना  कर दिया | दूत दिल्ली पहुंचकर बादशाह की खिदमत में पेश हुआ , पत्र का मजमून जानते ही बादशाह चहक उठा , '' शाही खजाने के लिए अपार दौलत '' ! हीरे मोती, माणिक , ढेरो  मन सोना चाँदी पलके बिछाए है और हाथी घोड़े हर्जाने में .गैरशास्प ने देवगिरी को नेस्तनाबूद कर दिया है उसने एलिचपुर दिल्ली सल्तनत में मिला दिया है , वाह कमाल कर दिया गैरशास्प ने ! हम जरुर गैरशास्प का स्वागत  करने कड़े जायेंगे , जाओ दूत गैरशास्प को कह दो कि हम खुद उसकी बहादुरी और  जिन्दादिली की दाद देने कड़े आ रहे है , '' दूत तुरंत रवाना हो गया |
अहमदचप बादशाह का वफादार नौकर था , उसको गैरशास्प  के निमत्रण में खतर की बू आ रही
थी | वह अपने आप को रोक नही पाया उसने अपने शंका बादशाह पर जाहिर कर दी |
बादशाह तुरंत नाराज होकर बोले , '' क्या बकते हो अहमद ! मेरे लिए खतरा है और अपने भतीजे से ? जानते हो वह मेरा दामाद भी है , तुम्हे गैरशास्प से जलन हो रही है हम अपने अजीज भतीजे के हौसले बुलंद करने कड़े जरुर जायेगे |  और  गैरशास्प का स्वागत करने वह अपने साथियो के साथ चल दिया | कड़े में गंगा
किनारे एक नौका में गैरशास्प अपने साथियो के साथ बादशाह का इन्तजार कर रहा  था , कुछ ही दूरी पर उसका लश्कर था |  उसने अपनी व्यवस्था पर नजर डाली , सभी इंतजाम ठीक थे , उसने संतोष की सांस ली उसका निश्चय अटल था |
उसके स्वागत के लिए आने वाली बादशाह की नौका दिखाई देने लगी , नौका हर क्षण  करीब आती जा रही थी कुछ समय बाद बादशाह की नौका किनारे खड़े गैरशास्प की  नौका के सामने बिलकुल पास आ गयी |
बादशाह जलालुद्दीन दोनों हाथ उठाये  गैरशास्प को अपनी बाजुओ में लेने के लिए उसकी नौका में उतरे , गैरशास्प ने  तुरंत इशारा किया और बादशाह जलालुद्दीन का सिर धड से अलग हो गया बादशाह के  साथ आये सभी व्यक्तिओ को घेर लिया गया और उनका कत्ल कर दिया गया | दिल्ली का तख्त अब उसका है , सिर्फ उसका सल्तनत के नशे में डूबी उसकी बेगम  भी नीद से अब जागेगी और पाएगी कि दिल्ली के तख्त पर उसके अब्बाजान नही उसका शौहर बैठा है | विजय के उन्माद में उसने यह दिखाने के लिए कि वह खुद अब
बादशाह हो गया है , जलालुद्दीन का सिर भाले से छेदकर पूरे लश्कर में  घुमवाया |
अब वह अपनी ही बेगम द्वारा भिखारी कहकर दुत्कारा गया गैरशास्प नही है | उस ने कितने ही गुलाम खरीद लिए है और अपनी फ़ौज में वृद्दि कर ली है | उसने दिल्ली जाने की तैयारी शुरू कर दी , तभी उसके जासूसों ने खबर दी कि जलाली सरदार जलालुद्दीन के एक बेटे को रुकुनुद्दीन के नाम से गद्दी पर बैठा दिया गया है |
बादशाही की इस दौड़ में गैरशास्प  ने दिल्ली में खबर उडवा दी कि उसने देवगिरी की लूट में अपार दौलत हासिल की है | वह एक बड़ी फ़ौज के साथ दिल्ली आ रहा है | अपने समर्थको और सहायको को वह खुश कर देगा और अपने विरोधियो को वह कत्ल करा देगा तथा उनकी जागीरे और सम्पत्ति जब्त कर लेगा |
इस खबर ने अपना माकूल असर दिखाया , गैरशास्प के एक बड़ी फ़ौज के साथ दिल्ली आने की खबर हर रोज जोर पकडती रही थी , वह जितना दिल्ली का फासला कम करता जाता था , उसके विरोधियो में घबराहट उतनी ही बढती जाती थी |
फलस्वरूप उसके शत्रुओ की सख्या कम होने लगी उसके विरोधी उससे जा मिले रुकनुद्दीन को मुलतान की तरफ भागना पडा और गैरशास्प ने बड़ी धूमधाम के साथ दिल्ली में प्रवेश किया | अपनी ही बेगम द्वारा भिखारी कहकर अपमानित हुआ गैरशास्प सरदारों तथा अमीरों पर रॉब व दबदबा कायम कर 19 जुलाई 1296 को दिल्ली की गद्दी पे अलाउद्दीन खिलजी के नाम से बैठा |
उस रात अलाउद्दीन खिलजी अपनी बेगम के हरम  में पहुंचा , उसने कुछ चुने हुए बहुमूल्य  हीरे साथ रख लिए थे | उसने नाटकीय अंदाज में शहजादीको तीन बार कोर्निश की और कहा , '' शहजादी की खिदमत  में यह भिखमंगा कुछ पत्थर पेश कर रहा है , शहजादी कबूल फरमाए '' |
शहजादी ने घृणा से उसकी तरफ देखा , वह खामोश रही |
बादशाह ने आगे कहा , '' शहजादी , इस भिखमंगे को देर से बुद्दी आई है , शहजादी जान बख्शे ! दिल्ली की सल्तनत की शहजादी एक भिखमंगे के घर कैसे जा सकती है !
यह भिखारी शहजादी के पास उनकी नेक सलाह मानकर घरबार बसाने आया है |
बादशाह की नाटकीय मुद्रा और उपहास भरी बातो से शहजादी को विषैले तीर की जैसी जलन महसूस हो रही थी , उसने लाल अंगारा आँखों से बादशाह की तरफ देखा |
शहजादी के गुस्से में बादशाह लुफ्त पा रहा था , उसने व्यंग किया , लेकिन बेगम अब आप किसी सल्तनत के सुलतान की शहजादी नही है अब आप दिल्ली के बादशाह की बेगम है और आपका यह नाचीज गुलाम सिकन्दर बनने जा रहा है | और वह ठहाके मार कर हँस पडा |
शहजादी को अपना गुस्सा रोकना असम्भव हो गया , उसके स्वर में दुःख था और बेहद घृणा भी थी , उसने कहा , तुमने मेरे अब्बाजान को धोखे  से कत्ल करके यह सल्तनत पाई है , तुम्हारी तकदीर थोड़ी देर के लिए भले ही साथ दे दे पर तुम कभी सिकन्दर नही बन सकते , '' |
बादशाह शहजादी से झगड़ कर उस शुभ रात्री का मजा नष्ट नही करना चाहता था उसने बात को समाप्त करते हुए कहा , बेगम मुझे तुम पर गर्व है तुम्हारी एक फटकार ने मुझे एक भिखारी से दिल्ली का बादशाह बना दिया , खुदा करे तुम्हारी यह दूसरी फटकार मुझको दूसरा सिकन्दर बना दे ' और उसने जबरदस्ती शहजादी को अपने आगोश में भर लिया | बादशाह की वह रात बेगम के साथ बीती |
देवगिरी के पतन ने अलाउद्दीन के हौसले बुलन्द किये थे वह अपने सपने को साकार करने में लग गया |
चतुर अलाउद्दीन ने देख लिया था कि हिन्दू कभी भी संगठित होकर नही रह सकते आपसी कलह और फुट से ये डालिया एक दुसरे से जुदा अपने अस्तित्व को ही भूल गयी थी |
देश खंड -- खंड हो गया था और खंडित देश के खंड -- खंड किये जा रहे थे , सभी में परस्पर शत्रुता थी | सभी एक दूसरे को मिटाने पर तुले हुए थे | चतुर अलाउद्दीन ने इस फूट से फायदा उठाने का संकल्प कर लिया | सिकन्दर बनने के सपने को चरितार्थ करने का सुनहरा मौक़ा सामने था और उस के घोड़ो की टापों से रणथम्भौर , महान चितौड़ , जैसलमेर , देवगिरी , वारगल , सभी रौदे गये | उत्तर में दीपालपुर व लाहौर से लेकर दक्षिण स्थित मदुरे व द्वारसमुद्र तक पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम स्थित सिंध व गुजरात तक सभी जगह हरा झंडा और चाँद फहराने लगा | उसने अपना नाम सिकन्दर सानी रखा और इस नाम से सिक्के भी  ढलवाये |
-सुनील दत्ता    
 स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

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