मंगलवार, 4 अगस्त 2015

मुझको भी इंग्लैंड ले चलो-शंकर शैलेन्द्र

मुझको भी इंग्लैंड ले चलो, पंडितजी महराज,
देखूँ रानी के सिर कैसे धरा जायेगा ताज .
बुरी घडी में मैं जन्मा जब राजे और नवाब,
तारे गिन-गिन बीन रहे थे अपने टूटे ख्वाब,
कभी न देखा हरम,चपल छप्पन छुरियों का नाच,
कलजुग की औलाद, मिली है किस्मत बड़ी ख़राब.
दादी मर गयी, कर गयी रूप कथा से भी मुहताज .

तुम जिनके जाते हो उनका बहुत सुना है नाम,
सुनता हूँ, उस एक छत्र में कभी न होती शाम,
काले, पीले, गोरे, भूरे, उनके अनगिन दास,
साथ किसी के साझेदारी और कोई बेदाम,
खुश होकर वे लोगों को दे देती हैं सौराज .

उनका कॉमनवेल्थ कि जैसे दोधारी तलवार ,
एक वार से हमें जिलावें, करें एक से वार,
घटे पौंड की पूँछ पकड़कर रुपया मांगे भीख,
आग उगलती टॉप कहीं पर, कहीं शुद्ध व्यापार,
कहीं मलाया और कहीं सर्वोदय सुखी समाज .

रूमानी कविता लिखता था सो अब लिखी न जाय,
चारो ओर अकाल, जियूं मैं कागद-पत्तर खाय ?
मुझे साथ ले चलो कि शायद मिले नयी स्फूर्ति 
बलिहारी वह दृश्य, कल्पना अधर-अधर लहराय-
साम्राज्य के मंगल तिलक लगाएगा सौराज .

-शंकर शैलेन्द्र

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