शनिवार, 20 दिसंबर 2025

मार्क्स को हर व्यक्ति को पढना चाहिए - क्रान्तिकारी लाला हरदयाल

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भौतिकवाद मानव समानता के लिए वैचारिक आधार प्रदान करता है - श्याम बिहारी वर्मा

भौतिकवाद मानव समानता के लिए वैचारिक आधार प्रदान करता है दुनिया में मानव समाज के प्रारंभ से ही ,थोड़े लोगों के पास ही धन इकट्ठा होने एवं अधिकांश लोगों द्वारा घोर गरीबी में जीवन बिताने की विरुद्ध तमाम संतों एवं समाज सुधारकों द्वारा लिखा जाता रहा है, स्पार्टा के प्रतिष्ठित नागरिक लाइक ग्रीस ने सारी जमीन को 39000 टुकड़ों में बांटकर उन टुकड़ों को किसानों में बराबर बराबर बांट दिया ,इनका कार्यकाल ईसा से 800 से 900 वर्ष पूर्व था , ईशा से तीसरी शताब्दी पूर्व स्पार्टा के राजघराने के एक युवक आगिस ने लाइकगेस के सुधारों को दोबारा लागू करने की कोशिश की, और मारा गया मैक्स बेवर ने उसे पहला "कम्युनिस्ट शाहीद " कहा है , आगिस की मौत के 5 साल बाद ईसापुर 235 से 222 में क्लिमोमेंस ने आगिस के सुधारो को बलपूर्वक लागू करने की कोशिश की ,कुछ ही समय में उच्च वर्ग के लोगों ने अपने वर्गीय हितों की रक्षा की खातिर साजिश करके मकदूनिया के राजा से स्पार्टा पर हमला कराकर सुधारों का को खत्म करा दिया, ईशा से 435 से 447 वर्ष पूर्व अफलातून ने अपने उत्कृष्ट ग्रंथ रिपब्लिक में नजीर के तौर पर एक ऐसे समाज की मुकम्मल योजना बनाई थी , जिसमें उन्होंने एथेंस में उत्कृष्ट साम्यवाद की व्यवस्था स्थापित की थी , अफलातून के बाद जिन बुद्धिजीवियों ने काल्पनिक स्वर्ग के नक्शे बनाए वह सब पब्लिक से प्रभावित हैं , पाइथागोरस 582 से 507 ईसवी पूर्व में दक्षिणी इटली में प्रोटॉन के स्थान पर अपने शिष्यों और समर्थकों की एक बस्ती बसाई थी वहां लोग समाजवादी सिद्धांतों के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करते थे , प्रकृति ने समस्त वस्तुएं सभी मनुष्यों के एक समान उपयोग के लिए उपलब्ध की हैं, ईश्वर ने सभी वस्तुओं की रचना का आदेश दिया है ,ताकि सबको समान रूप से रोजी-रोटी मिले और जमीन सबकी सामूहिक संपत्ति हो, इसलिए प्रकृति की ओर से सबको समान अधिकार मिला हुआ है लेकिन लालच ने यह अधिकार केवल कुछ लोगों तक सीमित कर दिया है सुन्नत अमरोज 339 से 397 ई ,पादरियों के कर्तव्य पुस्तक एक अध्याय 26 , ईसा मसीह के खास शिष्य 12 थे उनमें कोई मछेरा था ( पत रस और ऐंडूज )कोई रंगरेज था ( लूका) और कोई चर्मकार यह सभी निकले वर्ग से संबंधित थे , यह नया धर्म खुलेआम धनवानो के खिलाफ था और ईसा मसीह साफ शब्दों में उनकी निंदा करते थे ,वह कहते थे कि तुम खुदा और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते, और उनका निर्णय था कि धनवान खुदा के राज्य में जाने के लायक नहीं है, उन्होंने एक धनवान को देखकर कहा,कि धनवान का खुदा के राज्य में शामिल होना कितना कठिन है, क्योंकि धनवान खुदा के राज्य में प्रवेश करें इससे सुई के छेद में से ऊंट का निकल जाना आसान है लूका अध्याय 18 , इसी तरह जस्टिन शहीद 100 से 145 इसवी, जिनको रूम में सलीब दी गई , लिखते हैं कि हम जो इससे पहले सब वस्तुओं से अधिक धन और स्वामित्व के रास्ते को पसंद किया करते थे ,अब सामूहिक तौर पर उत्पादन करते हैं , और लोगों में उनकी आवश्यकताओं के अनुसार बांट देते हैं , पादरी तस्तोलिन 150 से 230 ई, कहते थे कि हममे बीवी के अलावा सब चीजें सामूहिक हैं , पादरी संत सिवोरेन मृत्यु 258 इसवी, कहते थे की जो कुछ ईश्वर की ओर से दिया जाता है वह सबके सामूहिक प्रयोग के लिए है , संत बाजेल महान 330 से 379 ई भी धन को हेय दृष्टि से देखते थे, क्या तुम ( धनवान ) चोर और डाकू नहीं हो, तुम्हारे पास जो रोटी है, वह भूखों की संपत्ति है ,जो वस्त्र तुम पहने हुए हो, वह नंगे शरीरों की संपत्ति है ,जो जूता तुमने पहन रखा है, वह नंगे पैरों की संपत्ति है और जो चांदी का भंडार तुमने इकट्ठा किया है, वह जरूरतमंदों की संपत्ति है, इतिहास गवाह है ईसा मसीह के समय से लगभग 400 वर्षों तक ऐसे अनगिनत मसीही धर्मगुरु हुए हैं, जो धन और धनवानो से नफरत करते थे ,वह भिक्षुकों जैसा सरल जीवन बिताते थे और उन्होंने अपने और अपने शिष्यों के लिए सामूहिक जीवन पद्धति को चुना था वह निजी संपत्ति को सभी खराबियों की जड़ समझते थे ,और ईसाइयों को निजी संपत्ति से दूर रहने के उपदेश देते थे , निसंदेहजब धीरे-धीरे धनवानो ने और खुद रोमन साम्राज्य के शासको ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया तब मसीही चर्च का चरित्र बदल गया ,परिणाम स्वरुप मसीही चर्च साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ बन गया, उसका हित साम्राज्य से संबद्ध हो गया और वह राज्य के अन्याय अत्याचार लूट खसोट को धार्मिक रूप से उचित ठहरने लगे ,वह जीवन शैली जिस पर मसीह के शिष्यों और दूसरे ईसाई धर्म गुरु चलते थे अब स्वप्न हो गई , इंग्लैंड के बुद्धि जीवी जान बाल कहते हैं , कि शुरू में ईश्वर ने सबको समान पैदा किया , निसंदेह ऊंच-नीच स्वार्थी मनुष्यों द्वारा बनाया गया ,तुम दासता की बेड़ियां तोड़ दो ,खेतों पर कब्जा कर लो, और उन लोगों को अपने रास्ते से हटा दो ,जो समता की राह में अवरोध पैदा करें , यह बगावती बातें थीं , नतीजतन जान बाल को 1381 में फांसी दे दी गई , ईरान के राजा कबाद 488 से 531 ई के समय में मजदक नाम के एक व्यक्ति अपनी बुद्धिमत्ता की वजह से राजा के करीबी हो गए ,वह कहते थे की धनी निर्धन सब बराबर हैं संपत्ति में सबको समान हिस्सा मिलना चाहिए उन्होंने सूखे की वजह से भूखे लोगों को अनाज के भंडारों से अनाज उठा लेने को कहा, कबाद में मजदक को नौशेरवां के हवाले कर दिया और नौशेरवां ने मजदक और उसके साथियों को जिंदा दफन कर दिया, थॉमस मूर 1448 से 15 35 के विचार थे कि पूंजी पतियों तथा कथित राष्ट्र राज्य मेहनतकशों को लूटने और श्रम से अनुचित लाभ उठाने की सुव्यवस्थित साजिश है, बादशाह और उसके दरबारी सरकारी अधिकारी और अदालतें सब इस साजिश के कल पुर्जे हैं, रिश्वतखोरी बेईमानी भाई भतीजा बाद और चापलूसी इसका आचरण है, फ्रांसिस बेकन 1561 से 1626 तक भौतिकवाद की कल्पना उतनी ही पुरानी है जितना मनुष्य का ज्ञान, सबसे पुराना भौतिकवादी दर्शन जो हमें ज्ञात है आर्यों की पवित्र पुस्तक ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में भी भौतिकवाद की झलक मिलती है इसके अलावा गौतम बुद्ध और चारबाक आदि की शिक्षाओं का कर भी भौतिकवाद ही है ,बल्कि कुछ विद्वानों का तो कहना है कि भौतिकवाद का दर्शन यूनानियों ने हिंदुस्तान से सीखा था , बेकन का ऐतिहासिक कार्य है कि उन्होंने भौतिकवादी दर्शन के आदिम प्रचलन को बहाल किया और प्रचलित अवधारणाओं को भौतिक सिद्धांतों की कसौटी पर परखा ,उन्होंने दावा किया कि प्रकृति परमाण्विक कणों से मिलकर बनी है और पदार्थ की आधारभूत व्यवस्था गति है , प्रकृति के स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकृति को भौतिकवाद कहते हैं भौतिकवादी दर्शन के अनुसार सूरज चांद जमीन नदी पहाड़ और समंदर पेड़ पौधे और जानवर यहां तक की दुनिया की सभी वस्तुएं वास्तव में भौतिक रूप में हमारे सामने मौजूद है ,यह हमारे विचारों द्वारा उत्पन्न नहीं है यह चीजें मनुष्यों से लाखों वर्ष पहले भी अस्तित्व में थी, जो बाद में पैदा हुए वह अपने से पहले पैदा होने वाले का कारण नहीं बन सकते, दूसरी बात यह है कि मनुष्य और उसका मस्तिष्क भी दूसरी वस्तुओं की तरह पदार्थ से ही बने हैं जिस वस्तु को हम विचार या आत्मा कहते हैं वह वास्तव में मनुष्य के मस्तिष्क का ही कार्य है, मस्तिष्क से बाहर विचार का कोई अस्तित्व नहीं है, पदार्थ की विशेषता यह है कि वह हर समय गतिशील एवं परिवर्तनशील रहता है वह कभी नष्ट नहीं होता निसंदेह उसकी आकृति और गुण परिवर्तित होते रहते हैं कैसे लकड़ी जलकर कोयला हो जाती है कोयला राख बन जाता है और राख के कण हवा में मिल जाते हैं ,या जमीन का हिस्सा बन जाते हैं ,नष्ट नहीं होते हैं,

गुरुवार, 18 दिसंबर 2025

क्या स्तालिन तानाशाह थे..? ➖➖➖➖➖➖➖➖ भाग..४

क्या स्तालिन तानाशाह थे..? ➖➖➖➖➖➖➖➖ भाग..४ ➖➖ #मास्को 1933 -38 यह वो वक्त था जब गैर मुल्क के पत्रकारों , कानूनविदों और राजनैतिकों का जमावड़ा लगातार रहा था। कारण था #मास्को_मुकदमा। इतिहास इसी शीर्षक से दर्ज है। वर्ष 1934 में स्तालिन के कर्णधार #किरोव की हत्या से पुरा सोवियत भोचक्का हो गया। जांच के बाद पता चला कि पार्टी, राज्य,लाल सेना के अंदर प्रतिक्रांतिकारी समुहों का निर्माण हो चुका है। स्थिति इतना गंभीर हो गई थी कि "सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी" के सदस्यों का सदस्यता कार्ड वापस ले लिया गया था। आखिर यह हुआ क्यों..कौन था इसके पिछे..? #ट्रॉटस्की.. जब भी लेनिन ,स्तालिन का जिक्र होता है तो एक नाम ट्रॉटस्की का भी आता है। बोल्सेविक पार्टी के नेतृत्व में जब सोवियत क्रांति हुई थी उस वक्त के केन्द्रीये कमेटी में ट्रॉटस्की भी प्रमुख सदस्य थे। जैसा कि होता है हर पार्टी में मुद्दे पर,कार्य पद्धति पर ,नेतृत्व पर आंतरिक चर्चा,बहस होता है..उसी प्रकार बोल्सेविक पार्टी के अंदर भी चर्चा,बहस से निष्कर्ष निकाला जाता था। ट्रॉटस्की एक महत्वकांक्षी व्यक्ति थे..जो खुद में सम्पूर्ण समझते थे और दुसरों को कमतर। उनकी यही महत्वकांक्षा व्यक्तिवाद से ग्रसित कर अहंकारी,अपनी गलतियों को न स्विकार कर क्रांति विरोधी रास्ता अखतियार कर लिये थे। यहां पर आपको #एम_एन_राय का वक्तव्य जानना चाहिये। लेकिन यह एम.एन.राय थे कौन..? एम.एन.राय लेनिन के जमाने से हीं #कम्युनिस्ट_इंटरनेशनल की महत्वपूर्ण सदस्य थे और बड़ी जिम्मेदारी निभा रहे थे। बाद में मतांतर की वजह से वहां से निकल आये और अपने अंतिम समय में स्तालिन का विरोधी बन गये। न सिर्फ़ स्तालिन बल्कि कम्युनिज्म का हीं विरोधी बन गये। वही एम.एन.राय "ट्रॉटस्की और स्तालिन " शीर्षक निबंध में लिखते हैं... "दरअसल उन दोनों के बीच कोई व्यक्तिगत विरोध नहीं था। ... स्तालिनवाद कहकर जिस नीति का ट्रॉटस्की ने विरोध किया था, वह लेनिन द्वारा लायी गयी नयी आर्थिक नीति के साथ पूरी तरह से मेल खाती है। इस नीति की वजह से मार्क्सवाद में कोई भटकाव नहीं आया, बल्कि कहा जा सकता है कि तब की स्थिति का आकलन कर वास्तविकता के साथ मार्क्सवाद का मेल करना ही स्तालिन का मकसद था। ... ट्रॉटस्की हमेशा यही मानते रहे कि वे ही सही हैं और पार्टी के दूसरे लोग गलत कर रहे हैं। अंत में पार्टी उन्हें ही आदर्श नेता मानने को मजबूर होगी। इसी उम्मीद से, वे पार्टी पर कृपा करके, उसके काम में अपनी ताकत का इस्तेमाल करते रहे। ... अगर ट्रॉटस्की के विचारों के आधार पर स्तालिन को पार्टी नेतृत्व पद से हटा दिया जाता, तो शायद आज सोवियत संघ का अस्तित्व ही नहीं रहता।" (चतुरंग पत्रिका,आश्विन 1347,अंक-१) #ट्रॉटस्की..सत्ता लोलुप्ता में इतना पतीत हो गये थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के वक्त यह मान कर चल रहे थे कि सोवियत संघ की पराजय हो जाती है,तो स्तालिन नेतृत्व का पतन हो जायेगा और फिर पार्टी और सोवियत का नेतृत्व मेरे हांथ में आ जायेगा। यहां आपको बता देना चाहता हूं कि ट्रॉटस्की 1929 में पार्टी के खिलाफ गतिविधियों, गुटबाजी,अनुशासन हिनता के वजह से पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था। फिर उनकी ख्यालि पोलाव यह था कि युद्ध में सोवियत सेना की हार होती है तब स्तालिन के नेतृत्व पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करूंगा और बोल्सेविक पार्टी मुझे हांथो-हांथ ले लेंगे। जब बैठक में ##ट्रॉटस्की पर निष्कासन का फैसला लिया जा रहा था तो उस बैठक में एम.एन.राय भी मौजूद थे। लेख के शुरूआत में "मास्को मुकदमा" का जिक्र किया था। जो #किरोव की हत्या सहित और भी क्रांति विरोधी लोगों पर मुकदमा चला था। यह एक जनवादी मुकदमा उन पून्जीवादी राष्ट्रों, राजनेताओं,उस व्यवस्था में रचे-बसे लोगों के लिए अनोखी घटना घटने जा रही थी। उस मुकदमें के प्रत्यक्ष दर्शी विदेशी पत्रकारों, कानूनविदों, कूटनीतिज्ञों,राजनैतिक नेता..सब ने यही कहा कि "एक बड़े साजिश का पर्दाफाश हुआ। इसी मुकदमें को अमेरिकी राजदूत #जोसेफ_डेविस ने अपनी पुस्तक " मिशन टू मास्को" में कहा है कि... "सब कुछ देखकर मैं निश्चिंत हो गया हूं कि इस मुकदमे में स्वीकारोक्ति के लिए किसी प्रकार का कोई जर्बदस्ती अभियुक्तों के साथ नहीं की गयी थी" मुकदमा खत्म होने के बाद डेविस जब स्तालिन के बारे में अपनी बेटी से कहते हैं "उन्हें देखकर लगता है कि धैर्य और बौद्धिकता के मामले में वे काफी ताकतवर हैं। उनकी दोनों आंखें कोमल प्यार भरे भूरे रंग में सराबोर हैं। ऐसा लगता है मानो बच्चे उनकी गोद में बैठना पसंद करेंगे। उनका चिंतन जगत काफी रसपूर्ण और विराट है। उनकी बुद्धि काफी कुशाग्र है। ..उनके सबसे बड़े दुश्मन उनके बारे में जो कुछ कहते हैं बिल्कुल इसके उलट सोंच सको,तभी स्तालिन की सच्ची तस्वीर मिल पायेगा"। यह सच है कि #किरोव की हत्या के बाद बेहद पैमाने पर गिरफ्तारी की गयी थी। तब ऐसा देखकर पत्रकार और बुद्धिजीवियों के एक तबके ने बर्नार्ड शॉ से सवाल किया कि " क्या रूस की क्रांति ने दुनियां के दबे-कुचले लोगों को आकर्षित किया है...?" बर्नार्ड शॉ जवाब देते हैं.."बात बिल्कुल उल्टा है। इस क्रांति ने दुनियां के सर्वश्रेष्ठ लोगों को आकर्षित किया है" क्रमशः जारी....... #Dharmendra Kumar

स्टालिन तानाशाह थे ? ➖➖➖➖➖➖ भाग..३

स्टालिन तानाशाह थे ? ➖➖➖➖➖➖ भाग..३ #वो_दस_साल_जब_सोवियत_जी_उठा ऊपर का हैस (#) टैग से आप कंफूज हो रहे होंगे..कि हमने तो अमेरिकी पत्रकार #जॉन_रीड की मशहूर किताब "दस दिन जब दुनिया हिला उठा" (Ten Days That Shook the World) के बारे में सुना ,पढ़ा हूं। यह "दस_साल" कहां से आया..! सन 1917 जारशाही से मुक्त होकर समाजवादी व्यवस्था को अंगीकार करने के लक्ष्य के साथ सोवियत आगे तो चल पड़ा। मगर यह राह इतना सरल नहीं था। विश्वयुद्ध, अकाल,बाहरी दुश्मनों के हमले,गृह युद्ध आदि सब कुछ मिलाकर जो बर्बादी हुई थी,उससे उबरना एक नवजात समाजवादी व्यवस्था को 1917 से 1929 यानी की 10 वर्ष लग गये थे। 1926 तक समाजवादी रूस की आर्थिक स्थिति क्रांति से पहले की #जार वाली स्थिति से खस्ताहाल था। लेनिन की सानिध्य भी साथ नहीं था। ऐसी स्थिति स्तालिन को झेलना पड़ रहा था। इसके बाद सन 1927 में थोड़ी तरक्की हुई और 1917 के जार वाली स्थिति से करीब-करीब पहूंचने में सफलता प्राप्त हुई । यही वो समयाधी था जिससे सोवियत अवाम को यकिन हो गया कि हम महफूज है। स्टालिन ने इस मोके को हांथ से जाने नहीं देना चाहते थे। एक वर्ष और थोड़ा व्यवस्थित करने के बाद 1929 में #पंचवर्षिये परियोजना पर लागु किये। यह वो जोखिम था जहां से सोवियत और साथ में समाजवादी व्यवस्था आवाद होता या फिर बर्बाद हो जाता। लेकिन जब नियत और दिशा सही हो तो सफलता मिलकर रहेगी। और हुआ भी वही। रूस 1917 के (जार शासन) मुकाबले तीन गुना ज्यादा उत्पादन हासिल कर लिया। यानी महज पांच वर्ष (कुल पंद्रह वर्ष) शुन्य से शिखर की ओर बढ़ चुका था। 1937 तक पून्जीवादी राष्ट्रों के कलेजा मुंह में आ गया समाजवादी सोवियत की बुलंदी देखकर। यह वो कर्मयज्ञ जिसकी विशालता दूनिंया ने पहले कभी नहीं देखा था। ट्रॉटस्की,जिनोविएव,कामेनेव,बुखारिन जैसे गिद्ध नज़र #स्तालिन के नाकामियों पर नोच खाने के लिये बैठा हो उस माहौल में सोंचिये स्तालिन को कितना फूंक-फूक कर कदम रखना पड़ा होगा..? और समाजवादी सोवियत को बुलंदी पर पहूंचाया..! स्तालिन के जीवनी के लेखक #आइजक_डयेत्सर जो स्तालिन के घोर आलोचक ट्रॉटस्की खेमे या ट्रॉटस्कीवादी से थे। और खुद डयेत्सर भी #स्तालिन के घोर विरोधी थे। कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम अपने विरोधीयों के बारे में सही बातें कह देते हैं, वही डयेत्सर से भी हो गया था। डयेत्सर लिखते हैं कि.. "क्यों ट्रॉटस्की, जिनोविएव,कामेनेव,बुखारिन आदि नेतृत्व में नहीं आ सके..? क्यों स्तालिन ने हीं नेतृत्व की जिम्मेवारी संभाली..? जवाब में वो खुद हीं कहते हैं कि ये लोग सिर्फ सिद्धांत पर अनावश्यक बहस किया करते थे। कौन नेतृत्व में आयेगा इनका आपस में हीं द्वन्द था। वही स्तालिन एक मात्र व्यक्ति थे जो खामोशी के साथ समाजवाद और पार्टी के लिए काम करते थे। नेतृत्व में कौन आया, कौन नहीं आया इसको लेकर उन्हें सर दर्द नहीं था। यहां बताना चाहिए कि लेनिन के प्रस्ताव पर वे 1912 में केन्द्रीय कमिटी के सदस्य तथा 1922 में पार्टी के महासचिव बने। इतिहास ने साबित कर दिया है कि लेनिन ने उपयुक्त व्यक्ति को ही जिम्मेवारी सौंपी थी। स्तालिन के संबंध में कहते हुए डयेत्सर आगे लिखते हैं, "स्तालिन के निजी जीवन का वर्णन करना असंभव है" ऐसा क्यों? इस पर डयेत्सर कहते हैं कि स्तालिन के निजी जीवन को लेकर लिखने को कुछ भी नहीं था। ऐसा कुछ भी नहीं मिलता। यहां तक कि उन्होंने किसी को निजी पत्र तक नहीं लिखा। दरअसल क्रांति, पार्टी और स्तालिन का निजी जीवन एकाकार हो गया था। इसमें कोई अंतर नहीं था। यहीं ट्रॉटस्की सहित अन्य लोगों के साथ उनका काफी फर्क था। ... प्रख्यात संगीतकार #पॉल_रॉबसन ने सोवियत संघ और स्तालिन के बारे में लिखा है, "...यहां आप देख पायेंगे आकार में राष्ट्रीय पर सारतत्व में अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति का स्वरूप... इनका जीवन समाजवादी व्यवस्था के अधीन लेनिन-स्तालिन के सुदृढ़ संचालन में विकसित हो रहा है, ... इनके खिलाफ तथाकथित मुक्त पश्चिम की सम्मिलित ताकतें खड़ी हैं, जिनकी अगुवाई कर रहे हैं अमेरिका के लालची, मुनाफाखोर, जंगखोर उद्योगपति और धनकुबेरों की टोली। तात्कालिक मुनाफे के लिए 'अमेरिकी शताब्दी' के मोह ने उन्हें अंधा बना रखा है। वे इस सच्चाई को नहीं देख पाये हैं कि यह सभ्यता उन्हें छोड़कर काफी आगे निकल चुकी है। हम जनता की शताब्दी में जी रहे हैं। यूरोप के पूर्वी आकाश में और पूरी दुनिया में प्रकाशमान सितारे चमक रहे हैं। गुलाम देशों की जनता सोवियत समाजवाद की ओर टकटकी लगायी हुई है। ... आधुनिक जीवन के हर क्षेत्र में स्तालिन का काफी गहरा और विस्तृत प्रभाव है। .. दुनिया के समाजशास्त्र के संबंध में जो ज्ञान वे छोड़कर गये हैं, वह आज भी अमूल्य है। कोई भी व्यक्ति आदर के साथ कह सकता है कि मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन स्तालिन वर्तमान और भविष्य की मानवता की श्रेष्ठ सम्पदा हैं। हां, गहरी मानवता और गहरी समझदारी के रूप में वे पर्वत-तुल्य बहुमूल्य परम्परा छोड़ गये हैं। ... निरंतरता में धैर्य के साथ दिली मुहब्बत और ज्ञान के जरिये शांति और लगातार बढ़ती समृद्धि के लिए उन्होंने संघर्ष किया। दुखों कष्टों से पीड़ित करोड़ों लोगों को इस धरती पर छोड़कर वे चल बसे।" क्रमशः जारी... तस्वीर..मैक्सिम गोर्की के अंतिम यात्रा के दौरान पार्थीव शरीर को कंधा देते कॉमरेड स्टालिन। #Dharmedra Kumar

स्तालिन तानाशाह थे..? ➖➖➖➖➖➖➖ भाग..२

स्तालिन तानाशाह थे..? ➖➖➖➖➖➖➖ भाग..२ स्तालिन=इस्पात हां रूस में इस्पात को स्तालिन कहा जाता है। जैसे अर्नेस्टो ग्वेरा को "चे" क्यूबा के क्रांतिकारीयों ने सम्बोधित किया था जिसका मतलब होता है "साथी,दोस्त,भाई" और आज हम सभी #चे_ग्वेरा से हीं सम्बोधित करते हैं ठीक उसी प्रकार जिस स्तालिन को हम जानते हैं वो स्तालिन नहीं थे। असली नाम "जोसेफ विसारिओनोविच" था। जोसेफ विसारिओनोविच के अदम्य साहस, असाधारण दृढ़ता को देखकर बोलसेविक पार्टी के कॉमरेड ने #स्तालिन से नवाजा था। जोकि आज हम "जे.वी स्तालिन " से जानते हैं। स्तालिन कोई धन्ना सेठ के घर में पैदा नहीं हुए थे। स्तालिन सही मायने में सर्वहारा परिवार से थे। स्तालिन के पिता श्री #मोची यानी भारत के हिसाब से सम्बोधित करें तो चमार जाती के घर में पैदा हुए और माता श्री कपड़े धोने का काम करती थीं। भारतीये परिपेक्ष में #धोबी थीं। आप कहेंगे की यह कौन सी बड़ी बात है। आब्राहम लिंकन, मार्टिन लुथर किंग ,नेनशल मंडेला आदि सरिखे लोग भी सर्वहारा वर्ग से हीं आये थे और देश दूनिंया के क्षीतिज पर चमक बिखेरने में कामयाब हुए। लेकिन जिस विचार को आत्मसात करके स्तालिन-लेनिन के नेतृत्व में अपना योगदान दिया। लेनिन के सपनों का समाज बनाने में योगदान दिया वो और सबों से अलग करता है। सोवियत क्रांति के बाद लेनिन का सानिध्य (नेतृत्व) सोवियत को जितनी मिलना चाहिए था उतना मिल नहीं पाया। मात्र पांच वर्ष हीं लेनिन ने नेतृत्व किये और आंदोलन के दौरान जो यातनाऐं झेली थी जिसकी वजह से लेनिन को अनेक विमारियों ने घेर रखा था..यही वजह थी कि वो ज्यादा दिन जीवित रह न सके। एक बार फिर से सोवियत नेतृत्व विहिन हो जाती लेकिन...वो तो महान लेनिन के दूर दृष्टि थी जो समय रहते स्तालिन को पहचान गये थे। और अपने जीते जी बोल्सेविक पार्टी का महासचीव स्तालिन को 1922 में बना दिये थे। प्रथम विश्व युद्ध के कारण सोवियत में हर तरह का आकाल मुंह बाये खड़ा थी। और वैसी वीकट प्रस्थिति में लेनिन को खोना..सोवियत अवाम को अवसाद में ढकेलने के लिए काफी था। लेनिन जिनकी मृत्यु 1924 में होने पर स्तालिन ने लेनिन के पार्थिव शरीर के पास खड़े होकर पार्टी की एकता की रक्षा और सोवियत समाजवाद और दुनियां के कम्युनिस्ट आंदोलन को ताकतवर बनाने के लिए लेनिन के बताये हुए रास्ते,दी गयी दिशा निर्देश का अक्षर सह पालन करते हुए कार्य करते रहने का संकल्प लिया और अपने मृत्यु तक निभाया भी। रोमा-रोला कहते हैं.. रोमा रोलां ने सोवियत क्रांति को शुरू में आम तौर पर समर्थन तो किया, पर कुछ-कुछ मुद्दों पर उनका मतांतर था। बाद में सोवियत समाजवाद को और अच्छी तरह से अध्ययन करने के पश्चात् उनके विचारों में तब्दीली आयी और 1931 में उन्होंने एक पत्र में लिखा, "सोवियत संघ के लक्ष्य और कर्म में विश्वास रखता हूं। जब तक इस शरीर में जान रहेगी, तब तक मैं सोवियत संघ को समर्थन करता रहूंगा।" ( आई विल नॉट रेस्ट-रोमा रोलां) 1933 में एक कदम और आगे बढ़कर एक सवाल के जवाब में इस मनीषी ने लिखा, "आज कम्युनिज्म सामाजिक संघर्ष की एक ऐसी विश्वव्यापी संस्था है, जो समझौता करना नहीं जानती, गोपनीयता बरतना नहीं जानती, जो एक सुचिंतित निर्भीक तर्कवाद को आधार बनाकर ऊंचे पर्वतों पर अधिकार करने चली है। ... शायद काफी लोग पार्टी से बाहर हो जायेंगे, शायद अनेक बार पीछे हटने पड़ेंगे-जो लोग पीछे हैं, उन्हें तेजी से आगे आने का हम लेखकगण आ‌ह्वान करते हैं। कारवां कभी रूकेगा नहीं।" ( आई विल नॉट रेस्ट-रोमा रोलां) इस बीच रोमा रोलां ने 1927 में यहां तक लिखा था, "कम्युनिज्म में मैं एक नयी जनशक्ति देख रहा हूं। फासीवाद के खिलाफ अभियान में सबसे ताकतवर फौजों में से यह एक प्रमुख फौज होगी।" जाहिर है कि पश्चिमी दुनिया की बुर्जुआ सभ्यता के भयावह संकट को देखकर बीसवीं सदी के इन दो श्रेष्ठ मानवतावादी स्तालिन द्वारा संचालित सोवियत संघ की नयी सभ्यता के चमकते प्रकाश से मुग्ध होकर जीवन के अंतिम दौर में कम्युनिज्म की ओर आकर्षित हुए थे।" ( आई विल नॉट रेस्ट-रोमा रोलां) बीसवीं सदी के एक और प्रख्यात मानवतावादी बुद्धिजीवी व नाटककार बर्नार्ड शॉ ने स्तालिन की तुलना साम्राज्यवादी दुनिया के राजनेताओं से करते हुए कहा था, "स्तालिन एक अनुभवी राजनेता हैं। उनके मुकाबले पश्चिमी दुनिया के राजनेता मोम के क्षयिष्णु पुतले की तरह प्रतीत होंगे, जो एक ऐसे दुष्ट व स्वचालित सामाजिक व्यवस्था में लटक रहे हैं, जिस व्यवस्था का एकमात्र मंत्र है निराधार बातें, झूठी कहानियां और काम-काज की पुरातन पद्धति।" (जी.बी शा, एक पियारसन-ए पोस्ट स्क्रिप्ट, कलिंस,लंदन 1951) इस विचार के आधार पर कि इंग्लैंड के मुकाबले अमेरिका में ज्यादा आजादी है, उनके परिचित विशिष्ट नागरिकों- एलानर और कनेल ने जब 1948 में अमेरिका जाना चाहा तो बर्नार्ड शॉ ने कहा, "दुनिया में सिर्फ एक ही देश है, जहां आपको सही अर्थों में स्वतंत्रता मिलेगी-उसका नाम है रूस। वहां महान स्तालिन जीवित हैं।" (न्यू स्टेट्समैन एंड नेशनल, 10/1934) सिर्फ इतना ही नहीं, 6 अगस्त 1950 को रेनॉल्ड न्यूज को दिये गये जीवन के प्रायः अंतिम साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया, "मि. शॉ, क्या आप कम्युनिस्ट हैं?" तो उनका बेहिचक जवाब था, "हां, मैं निश्चित तौर पर कम्युनिस्ट हूं। कम्युनिज्म के खिलाफ लड़ाई एक घोर मूर्खता है। ... भविष्य उसी देश का है जो कम्युनिज्म को सबसे तेजी के साथ सबसे ज्यादा आगे ले जा पायेगा।" (जी.बी शॉ-आर.पी दत्त) क्रमश: जारी... #Dharmedra Kumar

स्टालिन क्या तानाशाह थे..?

स्टालिन क्या तानाशाह थे..? ➖➖➖➖➖➖➖➖ भाग..१ किसी व्यक्ति ,शासन,व्यवस्था का मुल्यांकन उसके खत्म होने पर समाज से मिलने वाली प्रतिक्रिया के बाद आंकी जाती है। आज स्टालिन की चर्चा क्यों करनी पड़ रही है उसकी वजह Ashok Kumar Pandey जी ने बीसवीं सदी के तानाशाह के तौर पर स्टालिन को इंगित किये हैं। साथ में इस प्लेटफॉर्म्स के उन्दा और हमारे प्रिये लेखक Reborn Manish भाई जी ने भी सहमती देते हुए लेख लिखे हैं। हमारा लेख उन्हीं दोनों के जवाब है। सन 1953 स्टालिन की गंभीर बीमारी के कारन मृत्यु से दूनिंया के मानवतावादि शोक में ढूब गयी। स्टालिन के मृत्यु पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री, स्वतंत्रता सेनानी दिवंगत जवाहर लाल नेहरू ने दुख व्यक्त करते हुए कहते हैं कि.. "स्तालिन ने जिस तरह से इस समय के इतिहास को तोड़कर नये तरीके से गढ़ा है, विभिन्न पहलुओं से उसे प्रभावित किया है, शायद कोई और ऐसा नहीं कर सका है। धीरे-धीरे वे किंवदंती में तब्दील हुए थे। ... कहना चाहिए कि करोड़ों लोगों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी। असंख्य लोग उन्हें अपना आदमी मानते हैं, अपना मित्र मानते हैं, अपना परिवारजन मानते हैं। सिर्फ सोवियत संघ ही नहीं, दूसरे देश के काफी लोग उन्हें ऐसा ही मानते हैं। ... वे सत्ता या पद पर हों न हों-वे अपने कर्तव्य से ही महान थे। मेरा मानना है कि उनके इस प्रभाव ने शांति के पक्ष में ही काम किया है। जब युद्ध आया, तो उन्होंने खुद को एक महान योद्धा के रूप में साबित किया।" (डेली वर्कस,लंदन,15/3/1953) एक दूसरे मानवता वादी और गांधीजी के सही उत्तराधिकारी आचार्य बिनोवा भावे ने कहा था, "मार्शल स्तालिन ने अपने विविध गुणों से दुनिया की जनता की आस्था और आदर को हासिल किया था। इन गुणों को दुनिया कभी भुला नहीं पायेगी। उनके निधन से रूस को ही क्षति नहीं पहुंची, बल्कि पूरी दुनिया को क्षति पहुंची। (लेबर मंथली,खंड-35,अंक-4, 04/1953) " रैडिकल ह्यूमनिस्ट एम. एन. राय ने कहा था, "हमारे समय के सबसे महान व्यक्ति थे स्तालिन।" (द हिन्दु,मद्रस,03/1953) उपरोक्त लोग कम्युनिस्ट नहीं थे इसलिए इनकी बातों को मैंने यहां जिक्र किया, वे कम्युनिस्ट विरोधी के तौर पर ही जाने जाते हैं। आप हो सकता है कि कॉमरेड स्टालिन पर नेहरू का संदेश डेप्लोमेटिक ,राजनैतिक विवस्ता बोल सकते हैं..! क्योंकि अभी-अभी हीं भारत ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त हुआ था और सोवियत से वृहद सहयोग मिल रहा था। ऐसे एक सहयोगी राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष के लिए इतना तो बनता है। चलिये आपकी बात मान लेता हूं नेहरू ने स्टालिन से वास्तविक में प्रभावित होकर नहीं मात्र कोरम पुरा करने के लिये शोक संदेश व्यक्त किये होंगे..! सहयोग जो लेना था। सहयोग से याद आया जब स्टालिन कहते हैं.. "दस्तावेज इंतजार कर सकते हैं, भूख इंतजार नहीं कर सकती !" भारत आजाद होने के कुछ ही समय बाद घोर अन्न संकट की गिरफ्त में आ गया था। उसने अमरीका और रूस दोनों से जल्दी से जल्दी अनाज भेजने का अनुरोध किया। वाशिंगटन के सौदागर-सूदखोर अनाज की कीमत और उसकी अदायगी की शर्तों पर सौदेबाजी करते रहे। उधर जब यही अनुरोध क्रेमलिन के पास पहुँचा, तो स्तालिन ने अन्यत्र भेजे जा रहे अनाज के जहाज भारत की ओर मोड़ने का निर्देश दिया। इस पर क्रेमलिन के एक उच्चाधिकारी ने स्तालिन से कहा : "अभी इस मसले पर समझौता और दस्तावेजों पर हस्ताक्षर होने हैं।" तब स्तालिन ने कहा : "दस्तावेज-समझौते इन्तजार कर सकते हैं, भूख इन्तजार नहीं करती।" (गत शताब्दी में 50 के दशक के एक उच्चपदस्थ भारतीय राजनयिक पी. रत्नम ने उक्त वार्ता की चर्चा मास्को में अपने दूतावास में एकत्र भारतीयों के समक्ष की।) खैर.. अब चलिये करते हैं भारत के हीं स्वतंत्रता संग्राम के अग्रृणी योद्धा नेता जी सुभाष चंद्र बोस का। इनके सामने तो किसी प्रकार का डेप्लोमेटिक विवस्ता नहीं थी न..? "युद्ध में जब आजाद हिन्द फौज की पराजय हुई, तो नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने काफी भरोसे के साथ कहा था, "आज यदि युरोप मैं किसी ऐसे जीवित व्यक्ति की बात की जाय, जिसके हाथ में आने वाले कई दशकों के लिए यूरोपीय राष्ट्रों का भाग्य निर्भर करता है, तो वह मार्शल स्तालिन हैं। इसलिए भविष्य में सोवियत संघ क्या करता है उस ओर सर्वाधिक आग्रह के साथ पूरी दुनिया और सर्वोपरि पूरे यूरोप का ध्यान रहेगा।" (1945 ,सिंगापुर रेडियो से) प्रख्यात वैज्ञानिक जी. बी. एस. हॉलडेन ने कहा था, "वे एक महापुरुष थे। उन्होंने असाधारण कार्य किया।" (द लाइफ एंड वर्क्स ऑफ जी.बी.एस हॉलडेन (रोनाल्ड क्लार्क,लंदन 1961) प्रख्यात वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस ने 6 मार्च, 1953 को अपने एक शोक संदेश में कहा था, "स्तालिन नहीं रहे। इस खबर ने मुझे गंभीर रूप से विचलित कर दिया है। तीस सालों तक अपने गौरवपूर्ण कार्यभार के लिए वे सारी दुनिया में परिचित हैं। मातृभूमि की रक्षा के लिए उनकी महान कृति उनके गौरव के एक चिरंतन स्तंभके रूप में मौजूद है।" (परिचय पत्रिका,स्टालिन स्मरण अंक,मार्च 1953) क्रमशः. ... #Dharmendra kumar

चमार का कम्युनिस्ट बेटा कस्टालिन जिसने दुनिया हिला डाली

चमार का कम्युनिस्ट बेटा कस्टालिन जिसने दुनिया हिला डाली अक्टूबर 1917 की महान क्रांति, जिसने रूसी पूंजीवाद और जमींदारी व्यवस्था को समाप्त कर सोवियत सरकार की स्थापना की, जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी के एक-छठे हिस्से में समाजवाद स्थापित हुआ और अब यह साम्यवाद के निर्माण की ओर अग्रसर है, मानव इतिहास में सबसे गहन, सबसे व्यापक और सबसे मौलिक जन आंदोलन है। इस ऐतिहासिक संघर्ष का नेतृत्व करने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के दो प्रमुख व्यक्ति - लेनिन और स्टालिन - ने इस दौरान लगातार श्रमिक वर्ग और आम जनता के राजनीतिक नेताओं के रूप में अद्वितीय गुणों का प्रदर्शन किया है। लेनिन और स्टालिन ने जन नेताओं के रूप में अपनी असाधारण प्रतिभा को क्रांति की हर आवश्यकता में सिद्ध किया है: मार्क्सवादी सिद्धांत, राजनीतिक रणनीति, जन संगठनों का निर्माण और जन संघर्ष का विकास। उनके कार्यों की विशेषता उनका बहुआयामी स्वरूप है। कर्मठ और विचारशील, दोनों ने अपने कार्यों में सिद्धांत और व्यवहार के उस समन्वय का उदाहरण प्रस्तुत किया है जो जन संघर्षों की सफलता और अंततः समाजवाद की स्थापना के लिए अत्यंत आवश्यक है। दोनों ने इस दो सत्यों को भलीभांति समझा है कि क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता, और संगठित जन संघर्ष के बिना क्रांतिकारी सिद्धांत निष्फल रहता है। मार्क्स और एंगेल्स की तरह, लेनिन और स्टालिन ने अपने समाजवादी सिद्धांतों को सफल जन आंदोलन में रूपांतरित करने में उत्कृष्ट क्षमता दिखाई है। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास में लेनिन और स्टालिन के कार्यों का जिस तरह से जीवंत चित्रण किया गया है , वह साम्राज्यवादी युद्ध के इन दिनों में संयुक्त राज्य अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी और संपूर्ण जन आंदोलन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और आवश्यक सबकों से भरा है। यह लेख लेनिन और स्टालिन के कार्यों के संगठनात्मक पहलुओं पर विशेष ध्यान देते हुए, इनमें से कुछ सबकों को उजागर करने का प्रयास करेगा। महान मार्क्सवादी सिद्धांतकार रूसी क्रांति के नेताओं के रूप में लेनिन और स्टालिन की शानदार सफलताओं का मूल आधार मार्क्सवादी सिद्धांत पर उनकी गहरी पकड़ थी। अद्वितीय क्षमता के साथ, उन्होंने पतनशील पूंजीवाद और बढ़ते समाजवाद की असंख्य वस्तुनिष्ठ और व्यक्तिपरक जटिलताओं का विश्लेषण किया और उनसे आवश्यक व्यावहारिक निष्कर्ष निकाले। उन्होंने सोवियत संघ और विश्वभर में कम्युनिस्ट पार्टी और आम जनता को समृद्धि और स्वतंत्रता के मार्ग को स्पष्ट रूप से दिखाया, और यह कार्य उन्होंने किसी और से बेहतर किया। लेनिन के महान सैद्धांतिक कार्यों ने कई क्षेत्रों में मार्क्सवाद को आगे बढ़ाया और विस्तारित किया। उनकी प्रमुख उपलब्धियों में साम्राज्यवाद का परजीवी, पतनशील पूंजीवाद के रूप में विश्लेषण; द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के प्रकाश में समकालीन विज्ञान की कई शाखाओं का सर्वेक्षण और मूल्यांकन; पूंजीवाद के असमान विकास और साम्राज्यवादी युद्ध, सर्वहारा क्रांति और एक देश में समाजवाद की प्राप्ति पर इसके प्रभावों के सिद्धांत का प्रतिपादन शामिल है। उन्होंने साम्राज्यवादी युद्ध को गृहयुद्ध में परिवर्तित करने की विधि का विस्तार किया; उन्होंने पूंजीवादी राज्य और सर्वहारा की तानाशाही का विश्लेषण किया; उन्होंने राष्ट्रीय प्रश्न पर एक गहन सैद्धांतिक कार्य प्रस्तुत किया; उन्होंने क्रांति में किसानों की भूमिका को स्पष्ट किया। नारोदनिकों, अर्थशास्त्रियों, मेन्शेविकों और अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक-लोकतंत्र, समाजवादी-क्रांतिकारियों, अराजकतावादियों, सिंडिकवादियों, ट्रॉट्स्कीवादियों और अन्य छद्म-क्रांतिकारी समूहों के पूरे नेटवर्क के विरुद्ध उनका तीक्ष्ण प्रहार भी उल्लेखनीय है। और अनगिनत अतिरिक्त सैद्धांतिक और व्यावहारिक समस्याओं का उनका समाधान, सैद्धांतिक और संगठनात्मक शक्ति और एकता को मजबूत करने में अत्यंत महत्वपूर्ण था, जिसने बोल्शेविक पार्टी को विजय के पथ पर अग्रसर किया। स्टालिन ने कई अमूल्य सैद्धांतिक उपलब्धियों के माध्यम से मार्क्सवाद-लेनिनवाद को और विकसित किया। मार्क्सवादी सिद्धांत में उनका प्रमुख योगदान सोवियत संघ में समाजवाद के वास्तविक निर्माण का मार्ग प्रशस्त करना था। इस प्रकार, ट्रॉट्स्की, ज़िनोविएव, बुखारीन और उनके प्रति-क्रांतिकारी सहयोगियों के विरुद्ध उनके सशक्त तर्क-वितर्क हमारे समय के सबसे बड़े वैचारिक संघर्ष का आधार बने। उन्होंने एक देश में समाजवाद के निर्माण की विशाल और अनूठी समस्या के हर पहलू को स्पष्ट किया और अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद की संपूर्ण स्थिति का सर्वेक्षण किया। इसके परिणामस्वरूप कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व और इस प्रकार समाजवाद की निर्णायक विजय हुई। मार्क्स और एंगेल्स ने समाजवाद के मुख्य वैज्ञानिक सिद्धांतों की स्थापना करके इसकी नींव रखी। लेनिन विशेष रूप से क्रांतिकारी सत्ता अधिग्रहण और समाजवाद की मूलभूत संस्थाओं की स्थापना के सिद्धांतकार थे। उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था और वर्ग संघर्ष के गहन मार्क्सवादी विश्लेषण को आगे बढ़ाया और इसे साम्राज्यवाद के युग तक ले गए। स्टालिन ने समाजवाद के वास्तविक निर्माण और साम्यवाद की ओर विकास का मार्ग दिखाकर संपूर्ण मार्क्सवादी-लेनिनवादी संरचना को एक और ऊँचा स्तर तक पहुँचाया। लेनिन और स्टालिन के गहन योगदान के बिना, पार्टी और जनता उन जटिल समस्याओं के जाल से बाहर नहीं निकल पातीं जो उनके सामने खड़ी थीं। मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर उनकी महारत ही स्टालिन का वह मुख्य आधार है जिसके बल पर उन्होंने वर्तमान जटिल वैश्विक परिस्थितियों में सोवियत संघ का नेतृत्व किया। प्रतिभाशाली राजनीतिक रणनीतिकार मार्क्सवादी सिद्धांत के पारखी होने के नाते, लेनिन और स्टालिन राजनीतिक रणनीतिकारों के रूप में अपनी गहन क्षमता विकसित कर सके। मार्क्सवादी विश्लेषण पद्धति ने उन्हें वर्गों के संबंधों और किसी भी परिस्थिति में कार्यरत सामान्य आर्थिक और राजनीतिक शक्तियों का सटीक आकलन करने में सक्षम बनाया, जिससे वे यह निर्धारित कर सके कि पार्टी और जनता कब, कैसे और कहाँ सबसे प्रभावी प्रहार कर सकती है। लेनिन अपनी राजनीतिक रणनीति में साहसी, साधन संपन्न और लचीले थे। उन्होंने बार-बार अलग-अलग जन आंदोलनों या नीतिगत योजनाओं की रूपरेखा तैयार की, जिनकी शुरुआत और सफलता क्रांति के अस्तित्व पर निर्भर थी। उनकी ये नीतियां इतनी मौलिक और आश्चर्यजनक थीं कि अक्सर दुनिया चकित रह जाती थी। लेनिन को कई बार पार्टी की केंद्रीय समिति के विरोधी बहुमतों को अपने प्रस्तावों की सत्यता के बारे में समझाना पड़ा, साथ ही ज़िनोविएव, कामेनेव, बुखारीन, ट्रॉट्स्की और अन्य जैसे बाहरी तत्वों के विध्वंस को भी विफल करना पड़ा। राजनीतिक रणनीति में लेनिन की महान उपलब्धियों में 1905 के युद्धोत्तर जन संघर्ष को सशस्त्र विद्रोह में परिवर्तित करने में उनका नेतृत्व; पहली ड्यूमा का सफल बहिष्कार; साम्राज्यवादी विश्व युद्ध को रूस के भीतर गृहयुद्ध में परिवर्तित करना; 1917 में अंतरिम सरकार के खिलाफ पार्टी का दृढ़ रुख और सोवियतों का साहसिक विकास, जो जन संगठनों के रूप में उस पूंजीवादी, युद्धप्रिय शासन को उखाड़ फेंकने का काम करते थे; कोर्निलोव विद्रोह को पराजित करने के लिए जनता को संगठित करना, और साथ ही केरेन्स्की के खिलाफ संघर्ष जारी रखना शामिल थे। हालांकि, एक राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में लेनिन की सबसे बड़ी उपलब्धि अक्टूबर क्रांति को अंजाम देने के लिए सटीक समय और तरीके का निर्धारण करना था। इतिहास के इस सर्वोच्च क्षण में उन्होंने पार्टी और जनता को सही मार्क्सवादी नेतृत्व प्रदान किया। सोवियत संघ में क्रांति के लिए चले भीषण संघर्ष के बाद के वर्षों में, लेनिन ने ब्रेस्ट-लिटोव्स्क शांति संधि के माध्यम से एक राजनीतिक चमत्कार किया, जिसने क्रांति को साम्राज्यवादी हमलों से कुछ समय के लिए राहत दी और उसे हार से बचा लिया। उन्होंने भीषण गृहयुद्ध और युद्ध साम्यवाद के जटिल विकास में नेतृत्व प्रदान किया। उन्होंने तबाह हुए देश में आर्थिक पुनर्निर्माण शुरू करने के साधन के रूप में नई आर्थिक नीति की रूपरेखा तैयार करने और उसे स्पष्ट करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने उन क्रांतिकारियों के बचकाने वामपंथ पर करारा प्रहार किया, जिन्होंने प्रतिक्रियावादी ट्रेड यूनियनों और पूंजीवादी संसदों के भीतर काम करने से इनकार कर दिया था। स्टालिन, जिन्हें "लेनिन का सर्वश्रेष्ठ शिष्य" कहा जाता था, राजनीतिक रणनीति में भी असाधारण प्रतिभा प्रदर्शित करते थे। उनमें लेनिन का साहस, लचीलापन और दूरदर्शिता थी। यह महत्वपूर्ण है कि लेनिन द्वारा तैयार की गई कई कठिन रणनीतिक योजनाओं में स्टालिन हमेशा उनसे सहमत होते थे, हालांकि कई बार केंद्रीय समिति के सदस्य शुरू में अनिश्चित या विरोध में होते थे। लेनिन की नीतियों के सही अर्थ को इतनी जल्दी समझ लेना उनकी उस महान रणनीतिक क्षमता का संकेत था जिसे स्टालिन ने स्वयं 1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद पार्टी के शीर्ष नेतृत्व संभालने के बाद से कई बार प्रदर्शित किया है। स्टालिन की राजनीतिक रणनीति की सबसे बड़ी कृतियाँ, उनके मुख्य सैद्धांतिक कार्यों की तरह, समाजवाद के निर्माण से सीधे तौर पर जुड़ी हुई थीं। सोवियत संघ के औद्योगीकरण और कृषि के सामूहिकरण के लिए चलाए गए उनके गहन नेतृत्व में ये कृतियाँ स्पष्ट रूप से व्यक्त हुईं। पार्टी द्वारा 1929 में शुरू की गई प्रथम पंचवर्षीय योजना में शुरू किए गए इस ऐतिहासिक आंदोलन ने सोवियत संघ को विश्व का दूसरा सबसे औद्योगिक देश बना दिया, जिसके पास सबसे उन्नत कृषि संगठन था। इस विशाल आंदोलन में मार्क्सवादी-लेनिनवादी मूल्यांकन, संगठनात्मक कार्य और गहन जटिलता वाले रणनीतिक विचार शामिल थे। समाजवादी निर्माण के इस महान कार्य (जिसके प्रत्येक चरण का दुनिया भर के पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा उपहास किया गया और असंभव घोषित किया गया) की महत्वपूर्ण पूरक विशेषताएँ नेपमेन (छोटे व्यापारी) और कुलक (अमीर किसान) का समय पर आर्थिक और राजनीतिक खात्मे थीं। [1] स्टालिन द्वारा सोवियत संघ से जासूसों और विध्वंसकों को निकालने का साहसिक अभियान एक महत्वपूर्ण रणनीतिक कदम था, जिसने फासीवाद को उसकी सबसे बड़ी पराजय दी और सोवियत संघ पर संयुक्त हमले की चैंबरलेन और हिटलर की योजना को विफल कर दिया। लेनिनवाद-स्टालिनवाद जन मोर्चे की अंतरराष्ट्रीय नीति का सैद्धांतिक आधार भी था, जो पूंजीवादी और औपनिवेशिक देशों में श्रमिकों, किसानों, पेशेवरों और छोटे व्यापारियों के जनसमूह को फासीवाद के खिलाफ और लोकतंत्र के लिए प्रभावी संघर्ष में एकजुट करने की ऐतिहासिक रूप से अनिवार्य रणनीति थी। जन मोर्चे की नीति सोवियत विश्व शांति नीति से जुड़ी थी, जिसका उद्देश्य फासीवादी आक्रमणकारी शक्तियों को रोकने के लिए लोकतांत्रिक जनता का एक अंतरराष्ट्रीय मोर्चा बनाना था। यह नीति निस्संदेह युद्ध को रोकने में सफल होती, लेकिन मुख्य रूप से इंग्लैंड और फ्रांस के सोशल-डेमोक्रेटिक नेताओं द्वारा इसका समर्थन न करने के कारण, चैंबरलेन और डलाडियर इसे अस्वीकार करने में सक्षम रहे। अंतर्राष्ट्रीय शांति मोर्चे की इस पराजय और युद्ध के छिड़ने से विचलित न होते हुए, स्टालिन और कम्युनिस्ट पार्टी की कुशल रणनीति से प्रेरित सोवियत संघ ने विश्व शांति और लोकतंत्र के संघर्ष में एक नई नीति विकसित की। तेजी से विकसित होती इस नीति ने अपनी साहसिकता से दुनिया को चकित कर दिया, जिसके कुछ प्रमुख पहलुओं में सोवियत-जर्मनी अनाक्रमण संधि, फासीवादी धुरी देशों का नाश, पोलैंड में श्वेत रूसी और यूक्रेनी अल्पसंख्यकों की मुक्ति, जापान के साथ युद्धविराम और बाल्टिक देशों के साथ पारस्परिक सहायता समझौते शामिल हैं। उत्कृष्ट जन आयोजक लेनिन और स्टालिन ने स्वयं को न केवल महान मार्क्सवादी सिद्धांतकार और कुशल रणनीतिकार साबित किया, बल्कि अपनी मार्क्सवादी विचारधारा और रणनीति को मूर्त रूप देने के लिए आवश्यक जन संगठनों के कुशल निर्माता भी सिद्ध हुए। लेनिन ने कहा था, "सत्ता संघर्ष में सर्वहारा वर्ग के पास संगठन के सिवा कोई दूसरा हथियार नहीं है।" लेनिन और स्टालिन दोनों के लेखन में संगठन के निर्णायक राजनीतिक महत्व की गहरी समझ झलकती है, और उनका काम संगठन से संबंधित कार्यों के विस्तृत विवरण से भरा हुआ है। लेनिन एक असाधारण महान आयोजक थे। उन्होंने व्यवहार और सिद्धांत दोनों ही दृष्टियों से कम्युनिस्ट पार्टी के मूलभूत संगठनात्मक सिद्धांतों को विकसित किया, जो मानव जाति द्वारा अब तक निर्मित राजनीतिक संगठन का सबसे उन्नत और जटिल रूप था। उन्होंने रूस में पहले अखिल रूसी मार्क्सवादी समाचार पत्र, ' इस्करा' के प्रकाशन को सूक्ष्मतम रूप से व्यवस्थित किया , जिसके स्तंभों में मार्क्सवादी साहित्य के उत्कृष्ट योगदान प्रकाशित हुए और जिसने रूसी सोशल-डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी की वैचारिक और संगठनात्मक एकता को अत्यधिक समर्थन दिया। विभिन्न प्रकार के अवसरवादियों के साथ तीखे संघर्ष में, उन्होंने पार्टी की अग्रणी भूमिका, कठोर अनुशासन, लोकतांत्रिक केंद्रीकरण, एकात्मक एकता, आत्म-आलोचना, फैक्ट्री इकाई संगठन, काम करने के वैध और अवैध तरीके, पेशेवर क्रांतिकारी की भूमिका आदि की अवधारणाओं को स्पष्ट किया। इसने सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी को एक नए प्रकार की पार्टी बनाया और उसे रूसी क्रांति का सफलतापूर्वक नेतृत्व करने में सक्षम बनाया। लेनिन ने स्वयं कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने न केवल इसकी मूलभूत सैद्धांतिक नींव रखी और इसके शुभारंभ के महत्वपूर्ण क्षण का संकेत दिया, बल्कि रूसी क्रांति के नेता के रूप में अपने व्यापक कार्यों के बीच, उन्होंने इसके कार्यक्रम की मुख्य रूपरेखा और इसकी विस्तृत संरचना एवं कार्यप्रणाली का भी विस्तृत रूप से निर्धारण किया। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सार और स्वरूप में लेनिन का मार्गदर्शन स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। लेनिन ने जनगतिकी के कई अन्य रूपों में संगठनात्मक कार्यों में स्वयं को पूरी तरह से समर्पित किया और हमेशा की तरह शानदार परिणाम प्राप्त किए। इस प्रकार, उन्होंने सोवियत संघ की भूमिका और संरचना का सिद्धांत विकसित किया और व्यक्तिगत रूप से उनकी कई जटिल संगठनात्मक समस्याओं का समाधान किया। उन्होंने अपनी प्रखर बुद्धि और असीम ऊर्जा को लाल सेना के संगठन में भी लगाया, जिसने तीन वर्षों के भीषण गृहयुद्ध के दौरान देश की रक्षा के लिए जुझारू प्रयास किए। इसके अलावा, सोवियत उद्योग में समाजवादी आर्थिक संगठन, श्रम अनुशासन, वित्तपोषण आदि के अनूठे और जटिल स्वरूपों को स्थापित करने में वे मुख्य सूत्रधार थे। ट्रेड यूनियनों और पार्टी, राज्य, उद्योग और श्रमिकों के हितों के बीच संबंधों की जटिलताओं को सुलझाने में भी उनका योगदान अमूल्य था; ट्रेड यूनियनवाद पर उनके लेखन आज भी उत्कृष्ट माने जाते हैं। लेनिन के फलदायी जीवन की अंतिम उपलब्धियों में से एक सहकारी समितियों के संगठन और कार्यों पर उनका गहन लेख था। स्टालिन, लेनिन की तरह, जनसंगठन में भी असाधारण निपुणता रखते थे। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के सत्रहवें सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि पार्टी के मूलभूत कार्यों में से एक "संगठनात्मक नेतृत्व को राजनीतिक नेतृत्व के स्तर तक उठाना" है। इस सिद्धांत ने उनके सक्रिय राजनीतिक जीवन का मार्गदर्शन किया। स्टालिन अपने सभी उत्कृष्ट संगठनात्मक कार्यों में लेनिन के घनिष्ठ सहयोगी थे; और लेनिन की मृत्यु के बाद से, पार्टी के नेता के रूप में, उन्हें लगातार अपनी महान जनसंगठन क्षमता का उपयोग करना पड़ा है। उनके सैद्धांतिक और रणनीतिक योगदानों की तरह, उनका मुख्य संगठनात्मक कार्य भी मुख्य रूप से समाजवादी निर्माण को आगे बढ़ाने से संबंधित था। इस विशाल कार्य में औद्योगिक रूप से पिछड़े हुए क्षेत्र से लाखों कुशल श्रमिकों और इंजीनियरों का निर्माण करना, अद्वितीय आर्थिक संस्थाओं का विकास करना, जन श्रम के नए तरीके विकसित करना और हजारों अन्य गंभीर संगठनात्मक समस्याओं का समाधान करना शामिल था। इस कार्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता सोवियत कृषि का ऐतिहासिक सामूहिकरण था। इस संपूर्ण समाजवादी निर्माण में स्टालिन पार्टी और जनता के प्रमुख आयोजक, नेता और शिक्षक थे। स्टालिन के नेतृत्व में ही लाल सेना विश्व की सबसे शक्तिशाली सैन्य शक्ति के रूप में विकसित हुई। संगठन के हर पहलू पर उनकी निरंतर निगरानी रही। स्टालिन ने पार्टी को सामाजिक संगठन के मूलभूत पहलू, यानी बढ़ती समाजवादी लोकतंत्र की संरचना और उसे मूर्त रूप देने में भी नेतृत्व प्रदान किया। सोवियत जीवन की अन्य सभी विशेषताओं की तरह, इस अत्यधिक राजनीतिक विकास के भी जटिल संगठनात्मक पहलू हैं। विस्तारित सोवियत लोकतंत्र ने अपने कानूनी स्वरूप के रूप में नए संविधान को जन्म दिया, जो विश्व का सबसे उन्नत संविधान है और जिसका नाम स्टालिन के नाम पर रखा गया है। अद्वितीय जन कार्यकर्ता लेनिन और स्टालिन के जन नेताओं के रूप में किए गए हमारे पिछले विश्लेषण में, हमने मार्क्सवादी सिद्धांतकारों, राजनीतिक रणनीतिकारों और जन संगठनों के निर्माताओं के रूप में उनकी महान प्रतिभा की संक्षेप में समीक्षा की है। प्रभावी नेतृत्व की एक अन्य मूलभूत आवश्यकता में भी उनकी प्रतिभा कम नहीं है: व्यापक जनसमूह को संघर्ष में शामिल करने और उन्हें अदम्य जुझारू भावना से प्रेरित करने की क्षमता। इसके लिए मार्क्सवादी सिद्धांत, सुदृढ़ रणनीति और युक्तियों, मजबूत संगठन, कार्य के अच्छे तरीकों, अदम्य जुझारूपन और दृढ़ संकल्प का पूर्ण समन्वय आवश्यक है। वर्ग संघर्ष में एक अच्छे राजनीतिक नेतृत्व की अंतिम कसौटी सभी उपलब्ध और संभावित लड़ाकू शक्तियों को अधिकतम सीमा तक संगठित करने की क्षमता है। इसके लिए जनता के साथ घनिष्ठ संपर्क और उनकी समझ आवश्यक है। लेनिन और स्टालिन हमेशा से ही श्रमिक वर्ग और उसके स्वाभाविक सहयोगियों के साथ पूर्ण रूप से जुड़े रहे हैं। वे हर क्षण जनता की भावनाओं और विचारों को समझने में निपुण रहे हैं। वे हर समय जमीनी हकीकत से जुड़े रहे हैं। वे किसी भी समय जनता की गहरी आकांक्षाओं को आवाज देने और उनकी सबसे बुनियादी जरूरतों की पूर्ति का मार्ग दिखाने में सक्षम रहे हैं। लेनिन और स्टालिन जनता को संगठित करने में माहिर थे। वे कभी महज "कैबिनेट" जनरल नहीं थे, बल्कि सीधे मोर्चे पर काम करते थे। उदाहरण के लिए, पेट्रोग्राद में क्रांतिकारी सत्ता पर कब्ज़ा करने की तैयारी करने वाली समिति के प्रमुख स्टालिन थे; और 24 अक्टूबर की रात, निर्णायक कार्रवाई शुरू होने से ठीक पहले, जब लेनिन शहर पहुंचे, तो स्टालिन को विद्रोह का व्यक्तिगत नेतृत्व सौंपा गया। क्रांति के दौरान इन दोनों नेताओं ने सीमित संसाधनों और विशाल बाधाओं के बावजूद जन सक्रियता और संघर्ष के चमत्कार कर दिखाए। संघर्ष में पार्टी और जनता के हितों की समानता को समझते हुए, वे पार्टी को श्रमिक और किसान जनता के हर अंग से जोड़ सके और इन जनता को पार्टी की दूरदर्शिता, व्यवस्थित कार्यप्रणाली, दृढ़ संकल्प, अटूट साहस, मजबूत एकता, लौह अनुशासन और अदम्य संघर्ष भावना से अवगत करा सके। अक्टूबर क्रांति स्वयं लेनिन की महान सक्रियता का सर्वोत्तम उदाहरण है; उनकी उस क्षमता का प्रमाण है, जिसके द्वारा वे सिद्धांत और व्यवहार के समन्वय से अपेक्षाकृत छोटी संगठित शक्ति के इर्द-गिर्द विशाल जनसमूह को संघर्ष में शामिल कर लेते थे। जब यह विशाल आंदोलन संपन्न हुआ, तब कम्युनिस्ट पार्टी, जिसका नेतृत्व वह कर रही थी, की जनसंख्या 160,000,000 में लगभग 300,000 सदस्य ही थे। लेकिन स्पष्ट सोच और कुशल नेतृत्व वाली, सुदृढ़ नीति वाली, व्यावहारिक कार्यप्रणालियों का उपयोग करने वाली और लेनिन की अथक एवं निडर संघर्ष भावना से ओतप्रोत यह पार्टी अथक प्रयासों से जनसमूह तक पहुँचने में सफल रही। इसने उन्हें शिक्षित किया, उन्हें प्रेरित किया और पूंजीवाद के विरुद्ध सफल क्रांतिकारी संघर्ष में उनके लाखों सदस्यों का नेतृत्व किया। लेनिन और पार्टी की जनता को संघर्ष में संगठित और सक्रिय करने की इस असाधारण क्षमता का एक और शानदार उदाहरण भीषण गृहयुद्ध में देखने को मिला। जब अक्टूबर 1917 में क्रांति हुई, तब रूसी सेना, अपने ज़ारशाही अधिकारियों द्वारा विश्वासघात और जर्मनों द्वारा पराजित होकर, तेज़ी से बिखर रही थी और टूटने की कगार पर थी। विश्व के सैन्य विशेषज्ञों ने घोषणा की थी कि युद्ध से थकी-हारी, भूखी रूसी जनता को इंग्लैंड, फ्रांस, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा शुरू किए गए साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के विरुद्ध लड़ने के लिए पुनर्गठित करना असंभव है। लेकिन यह काम हो गया। गृहयुद्ध की भीषण आग में, उद्योग और कृषि के ठप होने और प्रति व्यक्ति केवल दो औंस रोटी के दैनिक राशन के साथ, लेनिन के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ने लाल सेना को 5,000,000 सैनिकों की एक अजेय शक्ति के रूप में खड़ा किया, जिसने सोवियत रूस की सीमाओं से प्रति-क्रांति को विजयी रूप से खदेड़ दिया। इस "असंभव" को संभव बनाने के लिए जनता के जबरदस्त लामबंदी की आवश्यकता थी, और इसे पूरा करने के लिए पार्टी की सारी समझ, दृढ़ता और जुझारू भावना का इस्तेमाल करना पड़ा। स्टालिन, लेनिन की तरह, जन कार्यकर्ताओं को संगठित करने की अपनी असाधारण क्षमता के लिए जाने जाते थे। नेतृत्व के इस महत्वपूर्ण चरण में उनकी इस क्षमता का स्पष्ट उदाहरण, अन्य प्रमुख अभियानों के साथ-साथ, प्रथम पंचवर्षीय योजना को लागू करने के लिए पार्टी द्वारा किए गए अथक प्रयासों में देखा जा सकता है। जब यह योजना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जानी गई, तो पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं ने इसका जमकर उपहास किया। इन बुद्धिजीवियों ने इसे पूरी तरह से काल्पनिक और महज़ प्रचार का हथकंडा बताया। कई लोगों ने कहा कि इसे पूरा करने में पाँच नहीं, बल्कि पचास साल लगेंगे, क्योंकि सोवियत सरकार पूंजी, औद्योगिक अनुभव, इंजीनियरों और कुशल श्रमिकों की भारी कमी से जूझ रही थी। इन लोगों ने विशेष रूप से योजना के उस भाग का उपहास किया जो कृषि सामूहिकीकरण से संबंधित था, और कहा कि व्यक्तिवादी किसानों को इसे लागू करने के लिए कभी भी संगठित नहीं किया जा सकता। लेकिन स्टालिन के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी इस निराशावाद, ट्रॉट्स्कीवादियों और अन्य विध्वंसकों के षड्यंत्रों से विचलित नहीं हुई। उसने पूरे सोवियत जनसमुदाय को बड़े पैमाने पर संगठित और सक्रिय किया। निराशावादियों का कहना था कि योजना पाँच वर्षों में पूरी नहीं हो सकती; लेकिन पार्टी ने इसे चार वर्षों में पूरा करने का संकल्प लिया। इसका परिणाम अब इतिहास है, रूसी क्रांति के इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय। जनसमुदाय की शिक्षा पर आधारित असाधारण प्रयासों से; लोगों को संगठित, प्रेरित और उनकी हर संसाधन शक्ति का अधिकतम उपयोग करके, पंचवर्षीय योजना को सवा चार वर्षों में पूरा किया गया। विशाल कारखाने मानो जादू की तरह स्थापित हो गए; खेतों का सामूहिककरण एक व्यापक आंदोलन के तहत किया गया; असंख्य श्रमिकों और तकनीशियनों को तेजी से प्रशिक्षित किया गया। इससे पहले विश्व ने उद्योग और कृषि में इतनी तीव्र प्रगति, इतनी विशाल जनसमुदाय का इतना जबरदस्त सशक्तिकरण कभी नहीं देखा था। सोवियत संघ विश्व के औद्योगिक देशों में दूसरे स्थान पर आ गया। स्टालिन एक उत्कृष्ट जनसमुदायकर्ता के रूप में उभरे। वर्तमान अशांत विश्व में इस तीव्र प्रगति (जो द्वितीय और तृतीय पंचवर्षीय योजनाओं के तहत जारी रही) का व्यावहारिक राजनीतिक महत्व यह है कि इसने सोवियत संघ को युद्ध करने वालों के मार्ग में शांति का एक अजेय किला बना दिया। यदि तमाम प्रयासों के बावजूद सोवियत संघ वर्तमान युद्ध में शामिल हो जाता है, तो जनसंघर्ष में जनता को संगठित और सक्रिय करने की बोल्शेविक क्षमता सोवियत संघ के पतन की चाह रखने वाले साम्राज्यवादियों के कार्यक्रम के लिए घातक सिद्ध होगी। कुछ सामान्य निष्कर्ष लेनिन और स्टालिन के जन नेताओं के रूप में किए गए कार्यों के उपरोक्त संक्षिप्त संकेत उनके काम की संपूर्ण तस्वीर प्रस्तुत नहीं करते, बल्कि उनके नेतृत्व के चार प्रमुख पहलुओं - मार्क्सवादी सिद्धांत, राजनीतिक रणनीति, जन संगठन और जन सक्रियता - पर प्रकाश डालते हैं। इन नेताओं के कार्यों से कम्युनिस्ट पार्टी और अमेरिकी मेहनतकश जनता को अनेक सबक मिलते हैं। यदि हम इनसे लाभ उठाना चाहते हैं, तो हमें लेनिन और स्टालिन द्वारा रूस में अपनाई गई विधियों को यहाँ आँख बंद करके लागू नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें अपने अमेरिकी आंदोलन की विशेष आवश्यकताओं और समस्याओं के अनुरूप ढालना चाहिए। लेनिन और स्टालिन ने स्वयं अंतरराष्ट्रीय मार्क्सवाद को विशिष्ट राष्ट्रीय परिस्थितियों में लागू करने के सबसे स्पष्ट उदाहरण दिए हैं। उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया है कि विभिन्न देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों को अपनी जनता को भली-भांति जानना चाहिए; अपने देशों की राष्ट्रीय परंपराओं और विशिष्टताओं का विश्लेषण करना चाहिए; और मार्क्सवाद को यांत्रिक रूप से नहीं, बल्कि विशिष्ट रूप से अपनी-अपनी परिस्थितियों में लागू करना चाहिए। अतः, आइए हम संक्षेप में अमेरिकी परिस्थिति में इसके कुछ प्रमुख अनुप्रयोगों का उल्लेख करें। सबसे पहले, मार्क्सवादी सिद्धांत के मामले में, अमेरिकी ट्रेड यूनियनों, किसान संगठनों और अन्य जन संगठनों के नेता, कुछ अपवादों को छोड़कर, अत्यंत कमजोर हैं। पूंजीवाद की वास्तविक स्थिति को लेकर उनमें गहरा भ्रम है। वे पूंजीवादी व्यवस्था को कमजोर करने वाली आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक शक्तियों को स्पष्ट रूप से नहीं समझते; न ही वे यह समझते हैं कि केवल समाजवाद ही वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को नष्ट करने वाली समस्याओं का समाधान कर सकता है। वर्गों के संबंधों के बारे में उनका आकलन स्पष्ट नहीं है; वर्ग संघर्ष और फासीवाद तथा प्रतिक्रियावाद के विकास के बारे में उनकी समझ सतही है। यह सैद्धांतिक कमजोरी श्रमिक वर्ग को आवश्यक वर्ग चेतना विकसित करने से रोकती है; यह उसकी रणनीति, संगठन और संघर्ष के सभी पहलुओं को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है। ट्रेड यूनियन और अन्य जन नेताओं की सैद्धांतिक उलझन अब युद्ध के प्रति उनके गलत रवैये में चरम पर पहुँच गई है। कुछ अपवादों को छोड़कर, वे पूंजीवादी इस दावे को स्वीकार कर रहे हैं कि ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस हिटलरवाद के विरुद्ध लोकतंत्र की रक्षा कर रहे हैं। इस प्रकार वे सीधे साम्राज्यवादी युद्ध-निर्माताओं के जाल में फँस जाते हैं और जनता को अपने पीछे खींचने का प्रयास करते हैं। ग्रीन और वोल जैसे प्रतिक्रियावादी, जो श्रम जगत में पूंजीवाद के प्रतिनिधि हैं, नीति के तौर पर युद्ध-समर्थक रुख अपनाते हैं; लेकिन कई ईमानदार जन नेता भी हैं, विशेषकर निम्न वर्ग के, जो केवल अज्ञानता और सामाजिक शक्तियों के जटिल टकराव का विश्लेषण करने में असमर्थता के कारण युद्ध-निर्माताओं का अनुसरण करते हैं। नेतृत्व और कार्यकर्ताओं दोनों के बीच मार्क्सवाद-लेनिनवाद का व्यापक ज्ञान, संपूर्ण वर्ग संघर्ष की सफलता के लिए आवश्यक है। व्यापक जन आंदोलन में इस ज्ञान का प्रसार करना कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वोच्च कर्तव्य है। दूसरे, सैद्धांतिक समझ से जुड़े राजनीतिक रणनीति के मामले में, जन संगठनों को लेनिन और स्टालिन से कुछ सबक सीखने चाहिए। उनमें स्पष्ट कमज़ोरियाँ दिखाई देती हैं; उदाहरण के लिए, श्रमिकों, किसानों, पेशेवरों और छोटे व्यवसायियों का गठबंधन बनाने की कोई योजना नहीं थी; आंदोलन घटनाओं के दबाव में और बहुत भ्रम और गतिहीनता के साथ उस दिशा में आगे बढ़ रहा था। फिर युद्ध की स्थिति में श्रम का कोई राजनीतिक या आर्थिक कार्यक्रम नहीं था। इसके बाद, खराब नेतृत्व के कारण श्रमिक 1940 के महत्वपूर्ण चुनावों में विभाजित ट्रेड यूनियन आंदोलन के साथ उतरे। फिर, राजनीतिक रूप से श्रम की आवश्यक स्वतंत्र भूमिका की समझ भी कम थी। इसके बाद, प्रतिक्रियावादियों, विशेष रूप से डाइस कमेटी और कम्युनिस्ट पार्टी पर उसके हमले के दुर्भावनापूर्ण कम्युनिस्ट-विरोधी अभियान का सामना कैसे किया जाए, इस पर श्रमिक और प्रगतिशील खेमे में भ्रम की स्थिति थी। हालाँकि स्पष्ट रूप से कम्युनिस्ट-विरोधी नेताओं का उद्देश्य न केवल कम्युनिस्ट पार्टी, बल्कि पूरे श्रमिक और प्रगतिशील आंदोलन को नष्ट करना था, फिर भी सबसे प्रगतिशील ट्रेड यूनियन नेता भी इन प्रतिक्रियावादी नेताओं से लड़ने में विफल रहे। इस तरह की सारी उलझन और कमजोरी वास्तव में लेनिन और स्टालिन की शानदार राजनीतिक रणनीति से बिल्कुल परे है। तीसरा, जन संगठन के मामले में, हमारे आंदोलन को भी कुशल आयोजकों, लेनिन और स्टालिन से बहुत कुछ सीखना है। अमेरिका के सभी प्रकार के जन संगठनों में काम और प्रशासन के आम तौर पर अव्यवस्थित और लापरवाह तरीकों पर गौर करें। इसका सबसे अच्छा उदाहरण यह है कि हमारे जैसे अत्यधिक औद्योगीकृत देश में भी, AF of L. के नेता ट्रेड यूनियनवाद के पुराने तौर-तरीकों से चिपके हुए हैं। श्रम आंदोलन में मौजूदा विभाजन AF of L. के अधिकारियों द्वारा संगठनात्मक रूपों और तरीकों में स्पष्ट रूप से आवश्यक प्रगति को न अपनाने के कारण हुआ है। फिर श्रम की गैर-दलीय लीग जैसी शुरुआती पहलों को छोड़कर, श्रम के जन राजनीतिक संगठन का अभाव है। हर बार होने वाले चुनाव में हम संगठित श्रम की दयनीय स्थिति देखते हैं, जो अपने स्वयं के संगठन के बिना, पूंजीवादी पार्टी के उम्मीदवारों के पीछे-पीछे चलता रहता है। इस प्रकार की संगठनात्मक पिछड़ापन, निःसंदेह, राजनीतिक सिद्धांत और रणनीति में रूढ़िवादिता पर आधारित है। यह लेनिन और स्टालिन द्वारा दिए गए उत्कृष्ट पाठों को लागू करने की तीव्र आवश्यकता को दर्शाता है। चौथी बात, जन सक्रियता के मामले में भी, अमेरिकी प्रगतिवादियों को लेनिन और स्टालिन के कार्यों से बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है। स्टालिन द्वारा सोवियत जनता को जिस ज़बरदस्त तरीके से संगठित किया गया था, उसकी तुलना अमेरिकी वर्ग संघर्ष में जनता की अनियमित सक्रियता से करें। उदाहरण के लिए, लेनिन की अफ्रीकन रिपब्लिक (AF) अपने विशाल सदस्यों को राजनीतिक चुनावों, हड़तालों या अभियान चलाने के लिए एकजुट करने में बुरी तरह असमर्थ है। यह विशाल, धीमी गति से चलने वाला आंदोलन, अपने वर्तमान नेतृत्व और नीतियों के साथ, किसी भी दिशा में समन्वित गति से आगे बढ़ने में असमर्थ है। इसके अन्य उदाहरण सुप्रीम कोर्ट, सरकारी पुनर्गठन, डब्ल्यूपीए, ऋण विधेयक और तटस्थता को लेकर कांग्रेस में हुए संघर्षों में ट्रेड यूनियनों और अन्य जन संगठनों की सक्रिय भागीदारी में आई विफलताएं हैं। इन महत्वपूर्ण संघर्षों में जनता को जागरूक करने और उन्हें न्यू डील कार्यक्रम के समर्थन में सक्रिय करने के लिए बहुत ही सतही प्रयास किए गए, जिसके परिणामस्वरूप जन आंदोलन बार-बार पराजित हुआ, हालांकि बहुमत इसके पक्ष में था। वर्तमान में, बढ़ती महंगाई के खिलाफ और असंगठित लोगों के संगठन के लिए ट्रेड यूनियनों द्वारा किए जा रहे संघर्ष में दिख रही बिखरी हुई शैली से जनता की सक्रियता की कमजोरी का स्पष्ट उदाहरण मिलता है। सक्रियता में इन कमियों (साथ ही सिद्धांत, रणनीति और संगठन के क्षेत्रों में भी) का व्यापक प्रभाव जन आंदोलन की राजनीतिक शक्ति को खतरनाक रूप से सीमित करना है। सुसंगठित और जुझारू प्रतिक्रिया के इस दौर में इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। अमेरिकी जन आंदोलन के सभी वर्गों को जनता को संगठित करने वाले कुशल नेताओं, लेनिन और स्टालिन के कार्यों का अध्ययन करने से लाभ हो सकता है। हालांकि, इन पाठों को केवल ट्रेड यूनियनों, किसान संगठनों और जन आंदोलन पर लागू करना ही पर्याप्त नहीं है। हम कम्युनिस्टों को, सर्वप्रथम, लेनिन और स्टालिन से सीखना चाहिए ताकि हम अग्रणी भूमिका के लिए खुद को तैयार कर सकें। सैद्धांतिक रूप से हमारी पार्टी अभी भी कमजोर है; हमारी राजनीतिक रणनीति में अक्सर बहुत कुछ सुधार की आवश्यकता है; हमारे संगठनात्मक तरीकों में व्यापक सुधार की आवश्यकता है, और विशिष्ट संघर्ष के लिए पार्टी के सदस्यों को संगठित करने के साथ-साथ जन संगठनों को सक्रिय करने में भी हम अभी भी कई कमियां प्रदर्शित करते हैं। इसलिए, हमारे दसवें सम्मेलन के पार्टी निर्माण प्रस्ताव में आग्रह किया गया: "हमारी पार्टी के प्रमुख निकायों का यह कर्तव्य है कि वे कॉमरेड स्टालिन के नेतृत्व के उन पाठों को अधिक सचेत और व्यवस्थित रूप से आत्मसात करें और उनमें महारत हासिल करें, जिनका शानदार उदाहरण सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवाद के उसके विश्व-ऐतिहासिक निर्माण में मिलता है।" आज हमारी पार्टी के सामने जनता को यह समझाने की विशाल चुनौती है कि यह एक साम्राज्यवादी युद्ध है, उन्हें शांति के लिए संघर्ष करने और अमेरिका को युद्ध से दूर रखने के लिए संगठित करने की, उनके नागरिक अधिकारों, जीवन स्तर और सामाजिक कानूनों की रक्षा के लिए उन्हें तैयार करने की; और उन्हें समाजवाद के सिद्धांतों से अवगत कराने की। हमारी पार्टी इन कठिन कार्यों को तभी पूरा कर सकती है जब वह मार्क्सवादी सिद्धांत, राजनीतिक रणनीति, जन संगठन और जन सक्रियता के क्षेत्र में लेनिन और स्टालिन द्वारा दिए गए गहन पाठों को सीखे और उनका अभ्यास करे। लोकतंत्र और समाजवाद के लिए संघर्ष में साम्राज्यवादी युद्ध के विरुद्ध सबसे प्रभावी तरीके सीखने के लिए दृढ़ संकल्पित श्रमिकों और अन्य कार्यकर्ताओं को लेनिन और स्टालिन द्वारा प्रतिपादित और लागू किए गए विश्लेषण और संघर्ष के महान सिद्धांतों का अध्ययन करना चाहिए और उन्हें अमेरिकी वर्ग संघर्ष के अनुकूल बनाना चाहिए। इस उद्देश्य के लिए, हमारे पास सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास [ 2] उपलब्ध होना सौभाग्य की बात है , जिसमें इन नेताओं के जीवन और संघर्षों की पूरी शिक्षाप्रद और नाटकीय कहानी समाहित है। इस महान पुस्तक को न केवल पढ़ा और अध्ययन किया जाना चाहिए, बल्कि स्वतंत्रता, लोकतंत्र और समाजवाद के लिए जन संघर्षों को आकार देने में एक व्यावहारिक मार्क्सवादी-लेनिनवादी-स्टालिनवादी मार्गदर्शक के रूप में भी इसका उपयोग किया जाना चाहिए। -जगदीश्वर चतुर्वेदी

बुधवार, 17 दिसंबर 2025

जब बंदरों की सरकार बनी तो बुल्डोजर ने घोंसले नोचने शुरु कर दिए

जब बंदरों की सरकार बनी तो बुल्डोजर ने घोंसले नोचने शुरु कर दिए जब देखो तो किसी न किसी का घर बुलडोजर से गिराया जा रहा है। दुष्ट अंध भक्त तालियां बजा रहे हैं। किसी जंगल में एक पेड़ पर एक जंगल का घोंसला था। शाम बया ब्याई में मौज-मस्ती से बैठे थे। बारिश का मौसम। बादल घिर आये। बिजली चमकने लगी। बड़ी बड़ी बूरनी शुरू हुई। धीरे-धीरे मूसलाधार पानी डाल दिया। लेकिन अपने मजबूत संगठन में बैठे की वजह से वे दोनों बेफिक्र थे। इसी बीच एक बंदर पानी से बचने के लिए उस पेड़ पर चढ़ गया। पेड़ों के पत्ते वर्षा से उसकी रक्षा करने में अशक्त थे। कभी वह नीचे चला जाता है, कभी वह ऊपर आ जाता है। तीसरे में ओले डाले की शुरूआत हो गई। ठंड के मारे बंदर किनकिनयाने लगा। बाय से नहीं रहा गया। वह बोला कि मानुस के से हाथ टूट गया मानुस की सी काया, चार महीने बरखा होवै,छपर क्यों नहीं छाया? देखिए, हम तो जाहिर तौर पर छोटे जीव हैं, लेकिन कैसा घोंसला आराम से रहते हैं। तुम भी हाथ पैर हिलाते हो तो क्या कुछ बना नहीं? इस सीख पर बंदर बुरी तरह से लापकर एक हाथ से बाये का घोंसला नोच डाला। बया और बयी उदाकर दूसरे पेड की डाल पर जा बैठे। उन्हें अप्राप्य नहीं था कि सीखने का यह परिणाम होगा कि अपने ही घर से हाथ धोना।

मंगलवार, 16 दिसंबर 2025

कम्युनिस्टों के जानलेवा देशभक्ति और बलिदानों के सबूत के सौ वर्ष

भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का शतक बलिदान, वैचारिक लड़ाइयों, ज़बरदस्त जीत और दर्दनाक हार का इतिहास है। अप्रैल 1957 में, ई. एम. एस. नंबूदरीपाद ने केरल के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली, जो समाजवादी गुट के बाहर पहली लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई कम्युनिस्ट सरकार थी। भारतीय कम्युनिस्टों को प्रेरित करने वाले मौलिक सवाल आज भी प्रासंगिक हैं: ज़मीन पर किसका नियंत्रण है? फैक्ट्रियों का मालिक कौन है? हमारे सामूहिक जीवन को आकार देने वाले फैसले कौन लेता है? भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन अब 100 साल पुराना हो गया है। दिसंबर 1925 से, जब में कानपुर सम्मेलन में कम्युनिस्ट समूह एक अखिल भारतीय पार्टी बनाने के लिए एक साथ आए, यह तथ्य बना हुआ है कि सौ से अधिक वर्षों से, कम्युनिस्ट भारतीय राजनीतिक और सामाजिक जीवन का एक अभिन्न अंग रहे हैं। कम्युनिस्टों ने औपनिवेशिक शासन से लड़ाई लड़ी है, मज़दूरों और किसानों के जन संगठन बनाए हैं, राज्यों पर शासन किया है, सांप्रदायिक फासीवाद का विरोध किया है और शोषण से मुक्त समाज के सपने को ज़िंदा रखा है। भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का शतक बलिदान, वैचारिक लड़ाइयों, ज़बरदस्त जीत और दर्दनाक हार का इतिहास है। यह एक ऐसा इतिहास भी है जो सीधे हमारे वर्तमान समय से बात करता है, जब दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी ताकतें अपनी कल्पना से भारत को आकार देना चाहती हैं और जब वैश्विक पूंजी का लालच आम लोगों की पीड़ा को और बढ़ा देता है। भारतीय साम्यवाद के इतिहास के साथ किसी भी गंभीर जुड़ाव की शुरुआत एक इतिहासलेखन बहस को स्वीकार करने से होनी चाहिए जो आंदोलन की प्रकृति के बारे में गहरे सवालों को दर्शाती है। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया, जिसे लोकप्रिय रूप से CPI के नाम से जाना जाता है, कानपुर में दिसंबर 1925 के सम्मेलन को असली स्थापना का क्षण मानती है, जब भारत के अंदर पहले से काम कर रहे कम्युनिस्ट समूह एक साथ आए और एक संविधान और चुने हुए नेतृत्व के साथ एक संगठित अखिल भारतीय पार्टी की स्थापना की। यह सिर्फ़ इतिहासकारों के सुलझाने के लिए एक पुरालेखीय विवाद नहीं है। ताशकंद गठन ने भारतीय मुक्ति और सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयता के बीच जैविक संबंध का प्रतिनिधित्व किया। इसने माना कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष साम्राज्यवाद के खिलाफ दुनिया भर के आंदोलन से अविभाज्य था। इस बीच, कानपुर सम्मेलन ने भारत के श्रमिकों और किसानों के बीच भारतीय धरती पर कम्युनिस्ट संगठन की जड़ें जमाने का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन यह समझना होगा कि ये दोनों क्षण एक ऐसे आंदोलन के विकास में आवश्यक चरण थे जो अंततः लाखों लोगों को संगठित करेगा। इन दो धाराओं, अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता और स्वदेशी जन संगठनों की द्वंद्वात्मक एकता ने अपने पूरे अस्तित्व में भारतीय साम्यवाद को परिभाषित किया है। औपनिवेशिक आग में गढ़ा गया ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने, शायद उस युग के कुछ राष्ट्रवादियों से बेहतर, भारत के मेहनतकश लोगों के बीच कम्युनिस्ट विचारों की क्रांतिकारी क्षमता को समझा। औपनिवेशिक राज्य ने अपनी विशिष्ट क्रूरता के साथ जवाब दिया। पेशावर षड्यंत्र मामले, कानपुर बोल्शेविक षड्यंत्र मामले और सबसे प्रमुख, 1929 से 1933 के मेरठ षड्यंत्र मामले में, प्रमुख कम्युनिस्टों पर आरोप लगाया गया कि वे, आरोप पत्र के शब्दों में, 'हिंसक क्रांति द्वारा भारत को ब्रिटेन से पूरी तरह अलग करके राजा सम्राट को ब्रिटिश भारत की संप्रभुता से वंचित करना चाहते थे'। फिर भी, ये मुकदमे, जो नवजात आंदोलन को कुचलने के इरादे से किए गए थे, इसके बजाय, पूरे देश में मार्क्सवादी विचारों के प्रचार के लिए एक मंच बन गए। मेरठ की अदालत में, कम्युनिस्टों ने उत्साहपूर्वक अपनी विचारधारा को समझाया और उसका बचाव किया, जिससे उनका मुकदमा क्रांतिकारी सिद्धांत पर एक सेमिनार में बदल गया। मेरठ जेल के बाहर ली गई 25 आरोपियों की तस्वीर एक प्रतिष्ठित छवि बनी हुई है: एस. ए. डांगे, मुजफ्फर अहमद, पी. सी. जोशी और अन्य क्रांतिकारी जिन्होंने दशकों तक आंदोलन को आकार दिया। 1943 में हुए पहले पार्टी कांग्रेस में, मौजूद 138 प्रतिनिधियों ने मिलकर औपनिवेशिक जेलों में कुल 414 साल बिताए थे। यह एक बात कम्युनिस्टों के जानलेवा देशभक्ति और बलिदानों का सबूत देती है।

रविवार, 14 दिसंबर 2025

हाय अल्ला संघी सिर्फ दरी बिछाता है

कांग्रेस का जादू देखो संघी दरी बिछाएगा कांग्रेसी अध्यक्ष बन हुक्म चलाएगा -हाय अल्ला संघी सिर्फ दरी बिछाता है
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