शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

देवजी ने हिड़मा को मरवाया:ताड़मेटला-झीरम घटना में हिड़मा का हाथ नहीं-मनीष कुंजाम

मनीष कुंजाम बोले- देवजी ने हिड़मा को मरवाया:ताड़मेटला-झीरम घटना में हिड़मा का हाथ नहीं, आंध्रा के नक्सलियों ने बस्तर के लड़कों को बदनाम किया ताड़मेटला-झीरम घटना में हिड़मा का हाथ नहीं, आंध्रा के नक्सलियों ने बस्तर के लड़कों को बदनाम किया| मनीष कुंजाम ने सुकमा में प्रेस कॉन्फ्रेंस लेकर मुठभेड़ को फर्जी बताया है। बस्तर में आदिवासी लीडर और पूर्व विधायक मनीष कुंजाम ने कहा कि आंध्र प्रदेश में फेक एनकाउंटर में हिड़मा मारा गया है। नक्सली लीडर देवजी ने ही उसे मरवाया है। उसने बाकी 50 लोगों को अरेस्ट करवा दिया है। वो खुद बचकर निकल गया है। अब वो आंध्र प्रदेश सरकार का मेहमान बनकर रह रहा है। मनीष कुंजाम का कहना है कि झीरम घाटी हमले में हिड़मा का हाथ नहीं था। बस्तर में हुई सारी बड़ी घटनाओं का मास्टरमाइंड हिड़मा को बताया गया है, जबकि आंध्रा के नक्सली यहां हमला करवाते हैं। यहां के लड़कों को बदनाम करते हैं और खुद बच जाते हैं। मनीष कुंजाम ने लगाए गंभीर आरोप दरअसल, मनीष कुंजाम ने सुकमा जिले में प्रेस वार्ता ली। इस दौरान उन्होंने हिड़मा के एनकाउंटर पर सवाल खड़े किया हैं। उन्होंने कहा कि इन्हें मरवाने और पकड़वाने के लिए देवजी ने षड्यंत्र रचा था। सभी को लेकर आंध्र प्रदेश गए। वहां की पुलिस ने हिड़मा को कहीं और मारा और उसकी लाश को कहीं और लाकर रख दिया। नाटकीय ढंग से इसे मुठभेड़ करार देने की कोशिश की गई। हिड़मा को पकड़कर मारा गया है। मुठभेड़ फर्जी है। मनीष ने कहा कि, हिड़मा को मरवाने के बाद बस्तर में घटी सारी घटनाओं का मास्टरमाइंड हिड़मा को बता दिया गया। ताड़मेटला में 76 जवानों की हत्या का मास्टरमाइंड भी हिड़मा को बताया गया, जबकि उस समय उस इलाके का सब जोनल सेक्रेटरी रमन्ना था। सरकार सबूत मिटा रही तो फिर हिड़मा मास्टरमाइंड कहां से हो गया? हिड़मा जोनल कमेटी में जरूर आया था लेकिन तब ये नया था। मनीष कुंजाम ने कहा कि, आंध्र प्रदेश की सरकार और पुलिस सारे सबूत मिटा रही है। जिसके बाद ही मीडिया को वहां जाने दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि ये बड़ा सवाल है कि क्या 50-50 नक्सली एक साथ अरेस्ट होने के लिए वहां जाएंगे? इसपर विचार किया जाना चाहिए। जिन्हें पकड़ा गया है सभी बस्तर के सुकमा और बीजापुर जिले के हैं। देवजी ने अपना वजूद बढ़ाने के लिए ही ऐसा किया है।

उच्चतम न्यायालय के पूर्व जज सहित 175 हस्तियों का पत्र: विपक्ष से कहा- बिहार का जनादेश अस्वीकार करें, जानिए मामला

उच्चतम न्यायालय के पूर्व जज सहित 175 हस्तियों का पत्र: विपक्ष से कहा- बिहार का जनादेश अस्वीकार करें, जानिए मामला देश के 175 जानी-मानी हस्तियों ने बिहार चुनाव के नतीजों, एसआईआर को लेकर खुला पत्र लिखा है। पत्र में उन्होंने विपक्ष से आग्रह किया कि वह इन चुनावों के नतीजों को अस्वीकार करे। उन्होंने निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव आयोग की मांग की। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज बी. सुदर्शन रेड्डी सहित 175 प्रमुख हस्तियों ने बिहार चुनाव, चुनाव आयोग और मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर खुला पत्र लिखा है। इन दिग्ज हस्तियों ने बिहार चुनाव परिणाम को धोखाधड़ी माना है और विपक्षी से आग्रह किया है कि वह इन नतीजों को स्वीकार न करे। खुले पत्र में कहा गया, हम देश के नागरिक पूरी तरह पारदर्शी, जवाबदेह, मुक्त और निष्पक्ष चुनावों की मांग करते हैं। हम बिहार चुनाव परिणाम को धोखाधड़ी मानते हैं और विपक्ष से भी यही मांग करते हैं कि वह इन परिणामों को स्वीकार न करे। इन हस्तियों ने आगे कहा कि एसआईआर की मौजूद प्रणाली एक ऐसी सरकार की इच्छा पूरी करती है, जो किसी भी तरह सत्ता बनाए रखना चाहती है। बदलाव के नाम पर मनमानी चुनाव प्रक्रिया होती है। हमने दर्शक, विश्लेषक और टिप्पणी का के रूप में यह सब देखा है कि यह बदली हुई व्यवस्था कैसे लोकतंत्र पर असर डालती है और पारदर्शी, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांतों को नजरअंदाज करती है। उन्होंने आगे कहा, यह हमारे लोकतंत्र और हमारे संविधान की रक्षा की लड़ाई का एक नया अध्याय है। अब धोखाधड़ी का खेल खुले तौर पर सामने आ गया है। मतदाताओं को जानबूझकर हटाया जा रहा है और उतनी ही सावधानी से नए मतदाता जोड़े जा रहे हैं, ताकि एक खास ताकत के उम्मीदवार जीत सकें। हम बिहार की जनता के साथ खड़े हैं और इन चुनाव परिणामों को अस्वीकार करते हैं। पत्र में आगे कहा गया, चुनाव आयोग के अनुसार एसआईआर प्रक्रिया 2003 की प्रक्रिया पर आधारित है, लेकिन वास्तव में उससे कोई मेल नहीं खाती। इसमें चालाकी से हर मतदाता के लिए एक नया फॉर्म जोड़ दिया गया है, जिससे उन्हें दोबारा मतदाता सूची में नाम लिखवाना पड़ता है। नाम हटाने की प्रक्रिया और अंतिम सूची किसी तरह की पारदर्शिता नहीं दिखाती और कोई जवाबदेही नहीं लेती। यह बदली हुई प्रक्रिया एक भेदभावपूर्ण सूची देती है, जिसमें बिहार में लाखों लोग मताधिकार से वंचित हो गए। इन प्रमुख हस्तियों ने आगे कहा, हम भारत के मतदाताओं के रूप में एकजुट होकर खड़े हैं। हम मानते हैं कि कोई भी योग्य मतदाता नहीं छूटना चाहिए। हमें राजनीतिक विपक्ष से निराशा है, क्योंकि उन्होंने इस बदली हुई चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा लिया। लोगों के बीच मतदाता अधिकार यात्रा को समर्थन मिलने के बावजूद चुनाव में शामिल होना धोखाधड़ी से बनी इस सरकार को वैधता देता है। इसके अलावा, विपक्ष ने देश के जमीनी नागरिक संगठनों के साथ रणनीतिक रूप से काम करने की भी कम क्षमता दिखाई है। नागरिक समाज ने इस चुनावी संकट के दौर में कई प्रभावी कदम उठाए हैं। हम विपक्षी दलों से अपील करते हैं कि वे बिहार चुनावों से सीख लें और मिलकर ऐसा माहौल बनाएं जिससे लोकतंत्र मजबूत हो सके। उन्हें जनता के साथ मिलकर लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए काम करना चाहिए। उन्होंने कहा, जैसे-जैसे आगे 12 और राज्यों में एसआईआर की प्रक्रिया लागू होने वाली है, हम चुप नहीं बैठेंगे। चुनाव आयोग अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल दिख रहा है और लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रहा है। चुनाव आयोग ने उन मूल्यों को ठेस पहुंचाई है, जिन पर उसका निर्माण हुआ था। इन प्रमुख हस्तियों ने आरोप लगाया कि मौजूदा नेतृत्व में चुनाव आयोग एक रक्षक की जगह भक्षक का काम कर रहा है। हम भारत के चुनाव आयोग को उसकी मौजूदा स्थिति में वैध नहीं मानते। हम एक बार फिर एक निष्पक्ष, गैर-राजनीतिक और सांविधानिक सिद्धाओं के अनुरूप चुनाव आयोग के लिए संघर्ष करेंगे। खुले पत्र में हस्ताक्षर करने वाली हस्तियों में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज बी सुदर्शन रेड्डी, भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के पूर्व अधिकारी देवश्याम एमजी, राजनीतिक अर्थशास्त्री और लेखक पराकला प्रभाकर, आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के पूर्व जज शंकर केजी, फिल्म अभिनेता प्रकाश राज, तकनीकी और सुरक्षा सलाहकार माधव देशपांडे, जनतंत्र समाज (बिहार) के राम शरण, बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता राशिद हुसैन जैसे नाम शामिल हैं।

यह क्या हो रहा है कश्मीर टाइम्स से AK राइफल्स के कारतूस, पिस्तौल की गोलियां और हैंड ग्रेनेड के पिन बरामद किए गए

यह क्या हो रहा है कश्मीर टाइम्स से AK राइफल्स के कारतूस, पिस्तौल की गोलियां और हैंड ग्रेनेड के पिन बरामद किए गए. दिग्गज पत्रकार वेद भसीन ने 1954 में कश्मीर टाइम्स की स्थापना की थी. इस अखबार को लंबे समय से अलगाववादी समर्थक माना जाता रहा है. जम्मू प्रेस क्लब के अध्यक्ष रहे वेद भसीन का कुछ साल पहले ही निधन हो गया था. इसके बाद उनकी बेटी अनुराधा भसीन ने अपने पति प्रबोध जामवाल के साथ प्रबंध और संपादकीय जिम्मेदारियां संभाली. जम्मू एवं कश्मीर पुलिस की स्टेट इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (SIA) ने गुरुवार को कश्मीर टाइम्स अखबार के जम्मू दफ्तर पर छापेमारी की. इस दौरान अखबार के दफ्तर से AK राइफल्स के कारतूस, पिस्तौल की गोलियां और हैंड ग्रेनेड के पिन बरामद किए गए. कश्मीर टाइम्स के खिलाफ ये कार्रवाई अखबार और उसके प्रमोटर्स के खिलाफ देश-विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने के आरोप में दर्ज मामले के सिलसिले में की गई है. संयुक्त बयान में संपादक अनुराधा भसीन जामवाल और प्रबोध जामवाल ने छापे की कड़ी निंदा करते हुए इसे स्वतंत्र पत्रकारिता को चुप कराने की सुनियोजित कोशिश बताया. उन्होंने कहा कि सरकार की आलोचना करना देश-विरोधी होना नहीं है. एक मजबूत और सवाल उठाने वाली प्रेस स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है. हमारे खिलाफ लगाए जा रहे आरोप डराने, बदनाम करने और हमें खामोश करने के लिए गढ़े गए हैं. हम खामोश नहीं होंगे. जारी बयान में इन आरोपों को वापस लेने की अपील की. साथ ही मीडिया साथियों, नागरिक समाज संगठनों और आम नागरिकों से एकजुटता दिखाने का आह्वान किया गया. बयान में कहा गया कि पत्रकारिता कोई अपराध नहीं है और छापे के बावजूद सच्चाई के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बरकरार रहेगी. पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) की नेता और महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती ने इस छापेमारी की कड़ी आलोचना की और इसे बेतुका बताते हुए कहा कि कश्मीर टाइम्स क्षेत्र के उन चुनिंदा अखबारों में से एक है जो सत्ता को सच का आईना दिखाता रहा और दबाव-धमकी के सामने न तो झुका और न ही टूटा. देश-विरोधी गतिविधियों के नाम पर उनके दफ्तर पर छापा मारना सरासर दादागीरी है. कश्मीर में सच बोलने वाले हर माध्यम को देश-विरोधी का ठप्पा लगाकर गला घोंटा जा रहा है. क्या हम सब देश-विरोधी हैं?

तिरुपति मंदिर लड्डू घोटाला: 68 लाख किलो नकली घी में बना प्रसाद, क्या है 250 करोड़ का स्कैम?

तिरुपति मंदिर लड्डू घोटाला: 68 लाख किलो नकली घी में बना प्रसाद, क्या है 250 करोड़ का स्कैम? आंध्र प्रदेश के तिरुमला तिरुपति देवस्थानम में लड्डू प्रसाद के लिए नकली घी के इस्तेमाल के मामले में, मंदिर बोर्ड के पूर्व प्रमुख से पूछताछ की गई। जांच में 2019 से 2024 तक 68 लाख किलोग्राम नकली घी का खुलासा हुआ, जिसकी कीमत लगभग 250 करोड़ रुपये है। आंध्र प्रदेश के तिरुमला तिरुपति देवस्थानम में चढ़ाए जाने वाले लड्डू प्रसाद में इस्तेमाल होने वाले नकली घी मामले में मंदिर बोर्ड के पूर्व प्रमुख से पूछताछ हुई है। जांच एजेंसी ने मंगलवार को तिरुमाला घी में कथित मिलावट मामले में तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) के पूर्व प्रमुख ए.वी. धर्म रेड्डी से पूछताछ की। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित टीम ने जांच के दौरान पाया कि आंध्र प्रदेश में तिरुमाला के श्री वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर में पवित्र तिरुपति लड्डू प्रसादम की तैयारी में कथित तौर पर मिलावटी घी का इस्तेमाल किया गया था। तिरुपति मंदिर के पूर्व प्रमुख ए.वी. धर्म रेड्डी, जो टीटीडी के कार्यकारी अधिकारी (ईओ) के रूप में कार्यरत थे, मामले की विस्तृत जांच के लिए तिरुपति में एसआईटी कार्यालय के समक्ष पेश हुए।

गुरुवार, 20 नवंबर 2025

अमेरिकी रिपोर्ट- ऑपरेशन सिंदूर में पाकिस्तान ने भारत को हराया:

अमेरिकी रिपोर्ट- ऑपरेशन सिंदूर में पाकिस्तान ने भारत को हराया:पहलगाम अटैक को भी आतंकी हमला नहीं माना; एक अमेरिकी रिपोर्ट में दावा किया गया है कि मई 2025 में भारत और पाकिस्तान के बीच 4 दिन की लड़ाई (ऑपरेशन सिंदूर) में पाकिस्तान को बड़ी सैन्य कामयाबी मिली थी। इस रिपोर्ट में पहलगाम अटैक को भी आतंकी हमला न मानकर 'विद्रोही हमला' माना गया है। 800 पन्नों की इस रिपोर्ट को यूएस-चाइना इकोनॉमिक एंड सिक्योरिटी रिव्यू कमीशन (USCC) ने जारी किया है। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इस रिपोर्ट का विरोध जताते हुए इस पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि क्या प्रधानमंत्री और विदेश मंत्रालय इस पर अपनी आपत्ति दर्ज कराएंगे और विरोध जताएंगे? हमारी कूटनीति को एक और बड़ा झटका लगा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान ने दावा किया है कि उसने कम से कम 6 भारतीय लड़ाकू विमानों को गिराया, जिनमें राफेल जेट भी शामिल हैं। इससे राफेल की इमेज को नुकसान पहुंचा। रिपोर्ट कहती है कि वास्तविक रूप से सिर्फ तीन भारतीय विमानों के गिराए जाने की पुष्टि होती है। USCC का कहना है कि चीन ने भारत-पाकिस्तान युद्ध का इस्तेमाल अपने आधुनिक हथियारों को लाइव वॉर में टेस्ट करने और दुनिया को दिखाने के लिए किया। लड़ाई के बाद दुनियाभर में चीनी दूतावासों ने अपने हथियारों की तारीफ की और कहा कि पाकिस्तान ने इनके इस्तेमाल से भारतीय लड़ाकू विमानों को गिराया। रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान ने इस लड़ाई में चीन से मिले हथियारों का इस्तेमाल किया और अपने सैन्य फायदे को दुनिया के सामने रखा। इसमें कहा गया है कि पाकिस्तान ने चीन के HQ-9 एयर डिफेंस सिस्टम, PL-15 मिसाइलें और J-10 फाइटर जेट का इस्तेमाल किया। भारत का दावा है कि पाकिस्तान को इस दौरान चीन से खुफिया जानकारी (इंटेलिजेंस) भी मिली। हालांकि पाकिस्तान ने इसे नकार दिया और चीन ने इस पर कुछ भी साफ नहीं कहा। रिपोर्ट के मुताबिक 2019–2023 के बीच पाकिस्तान के 82% हथियार चीन से आए हैं।

बुधवार, 19 नवंबर 2025

बकवास कौन कर रहा है - उ प्र दारोगा ने गैंगरेप पीड़िता के साथ 2 दिन में 5 बार रेप किया,

बकवास कौन कर रहा है - उ प्र दारोगा ने गैंगरेप पीड़िता के साथ 2 दिन में 5 बार रेप किया, पति को रिहा करने के बदले 50 हजार रिश्वत भी ली। रिश्वत देने के बाद दरोगा ने महिला से 'कॉपरेट' करने को कहा। इसके बाद वह उसे एक होटल में ले गया और कई बार रेप किया। पीड़िता के अनुसार, दरोगा ने दो दिन में पांच बार उसके साथ रेप किया। पीड़िता लगातार पुलिस अधिकारियों को इस संबंध में शिकायत दे रही है, लेकिन अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। पीड़िता ने यह भी बताया कि तीन दिन पहले जब उसने खुर्जा नगर कोतवाली के निरीक्षण के लिए पहुंचे डीआईजी से मिलने का प्रयास किया, तो पुलिस ने उसे धमकाया। उसे घर से बाहर निकलने पर पति को फर्जी केस में फंसाने की धमकी दी गई। पीड़िता ने आरोप लगाया कि आरोपी दरोगा उसे लगातार धमकियां दे रहा

सोमवार, 17 नवंबर 2025

अंग्रेजों के अत्याचार - अंग्रेज़ों के मुखविर नहीं बोलते हैं

चार्ल्स तृतीय का राज्याभिषेक हमें ब्रिटेन के नरसंहार, गुलामी और लूट के खूनी इतिहास की याद दिलाता है -प्रबीर पुरकायस्थ 6 मई को, ब्रिटिश साम्राज्य के सूर्यास्त के बाद, चार्ल्स तृतीय को यूनाइटेड किंगडम के राजा का ताज पहनाया गया। इस समारोह ने हमें ब्रिटिश साम्राज्य की नींव, औपनिवेशिक लूट और दास व्यापार के साथ ब्रिटिश राजशाही के संबंध की एक बार फिर याद दिला दी। ब्रिटिश राजघराना साम्राज्य का केवल नाममात्र का मुखिया नहीं था: रॉयल अफ़्रीकी कंपनी, जिसके पास अमेरिका को दासों की आपूर्ति का एकाधिकार था, ब्रिटिश राजशाही की प्रत्यक्ष संपत्ति थी और जिसका संचालन राजा के भाई, ड्यूक ऑफ़ यॉर्क द्वारा किया जाता था। शाही एकाधिकार तब समाप्त हुआ जब "मुक्त व्यापार" के ब्रिटिश समर्थकों, लंदन, मैनचेस्टर और अन्य शहरों के व्यापारियों ने इस लाभदायक व्यापार में अपना हिस्सा चाहा। आज मैं विज्ञान और विकास पर आधारित एक कॉलम में तीन सौ साल पहले के दास व्यापार में इंग्लैंड की भूमिका के बारे में क्यों लिख रहा हूँ? इसका जवाब यह है कि हमें दुनिया का एक अलग इतिहास पढ़ाया गया है, जो वास्तव में घटित नहीं हुआ। आइए पश्चिम की उस पौराणिक कथा को पढ़ें जो इतिहास बन गई है। सबसे पहले है खोज का युग। उसके बाद ज्ञानोदय/तर्क का युग आया; और फिर वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति जिसने आधुनिक दुनिया को जन्म दिया। खोज, ज्ञानोदय और औद्योगीकरण की इस कहानी में नरसंहार, आधुनिक गुलामी और उपनिवेशों की लूट का कोई ज़िक्र नहीं है। पश्चिमी इतिहासकारों के अनुसार, यह सच है कि पश्चिम के उदय के साथ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ भी हुईं, लेकिन ये मुख्य कहानी नहीं हैं। कहानी तर्क और विज्ञान के उदय, पश्चिमी मन के एकाधिकार की है! पश्चिमी देश कोलंबस और वास्को-डी-गामा की अमेरिका और भारत की यात्राओं को "खोज" क्यों कहते हैं? आखिरकार, जब कोलंबस हैती द्वीप पर पहुँचा, जिसका नाम उसने सैन डोमिंगो रखा था, तब तक अमेरिका महाद्वीप काफी आबाद हो चुका था। यूरोप के साथ एशियाई व्यापार रोमन काल से चला आ रहा है, तो फिर ये खोजकर्ता इन जगहों की "खोज" क्यों कर रहे हैं? इसे अन्वेषण न कहकर खोज कहने का कारण यह दावा है कि खोजकर्ताओं द्वारा "खोजी" गई सभी मूर्तिपूजक भूमियाँ चर्च और राजा के नाम पर जब्त की जा सकती थीं। यह 1494 में टॉर्डेसिलस की संधि के बाद हुआ, जिसमें संपूर्ण गैर-यूरोपीय (गैर-ईसाई) दुनिया को स्पेन और पुर्तगाल के बीच विभाजित कर दिया गया था। "खोजकर्ता" जो झंडे लेकर चलते थे, वे उनके राजाओं और चर्च के थे। इन भूमियों के "मूर्तिपूजक" निवासियों को ईसाई धर्म अपनाने का अधिकार दिया गया था, यह अधिकार उन्हें एक ऐसी भाषा में पढ़कर सुनाया जाता था जिसे वे नहीं समझते थे। यदि वे सकारात्मक सहमति देकर, संभवतः स्पेनिश या पुर्तगाली में, धर्म परिवर्तन के लिए सहमत नहीं होते, तो वे अपनी भूमि, स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार खो देते थे। गैर-ईसाइयों को आत्माहीन माना जाता था और उनके कोई अधिकार नहीं थे! उस समय के चर्च के अनुसार, ईश्वर की दृष्टि में अविश्वासियों का नरसंहार कोई अपराध नहीं था। कहीं हम यह न मान लें कि यह एक ऐतिहासिक विचलन था, इसलिए अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने 1823 में और उसके 300 से भी ज़्यादा साल बाद, खोज के इसी सिद्धांत का समर्थन किया। उसने कहा कि "खोज" के बाद "कब्ज़ा" - यानी मूल निवासियों की बेदखली - ने यूरोपीय शक्तियों को इन ज़मीनों पर वैध अधिकार दे दिया ! यदि आप पश्चिम के विचारकों के दृष्टिकोण से विश्व के आर्थिक इतिहास को पढ़ें, तो अफ्रीका से दास व्यापार, अमेरिका में नरसंहार और खोज के युग के साथ हुई लूट पश्चिम के उत्थान का कारण नहीं हैं। यह स्पष्ट रूप से औद्योगिक क्रांति से आया है, जिसकी जड़ें तर्क के युग में हैं, जिसने आधुनिक विज्ञान को जन्म दिया। यह औद्योगिक क्रांति है - भाप इंजन से चलने वाली कपड़ा मिलें - जो वास्तव में पश्चिम को हम सभी से अलग करती हैं। यहाँ पश्चिम यूरोप की सभी औपनिवेशिक शक्तियों का एक समरूपी स्वरूप है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के उपनिवेशवादी राज्य के साथ जुड़ा हुआ है। फिर खोज यह हो जाती है कि औद्योगिक क्रांति ग्रेट ब्रिटेन में क्यों हुई और उसके बाद पश्चिम का शेष विश्व से इतना बड़ा विचलन क्यों हुआ। यह काल-विभाजन औपनिवेशिक इतिहास के दो स्पष्ट विभाजन बनाता है। पहले को आधुनिक पूँजी का व्यापारिक चरण कहा जाता है जो विश्व के आर्थिक एकीकरण की ओर ले जाता है। इसे "व्यापारिक" कहने से इसे अमेरिका में नरसंहार की दुर्गंध, अफ्रीका के दास व्यापार और चीनी व कपास के बागानों की आधुनिक दासता से अलग करने में मदद मिलती है। दूसरा औद्योगिक चरण है। वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति के कारण, पश्चिम तेज़ी से चीन और भारत जैसी पुरानी अर्थव्यवस्थाओं से आगे निकल गया, जिससे उनकी आर्थिक शक्ति नष्ट हो गई। कैरिबियन और अमेरिका में बागान अर्थव्यवस्था केवल चीनी तक ही सीमित नहीं थी, फिर भी चीनी निस्संदेह उनकी प्रमुख वस्तु थी और विश्वव्यापी व्यापार के लिए अब तक की सबसे बड़ी वस्तु थी। चीनी बागानों का प्रमुख पूंजी निवेश भूमि, संयंत्र और मशीनरी नहीं, बल्कि स्वयं दासों का मौद्रिक मूल्य था। बागान मालिक उनकी संख्या, आयु और लिंग का सावधानीपूर्वक आकलन करते थे और इस प्रकार, उनकी उत्पादक क्षमता और "संचालन" लागत का ठीक उसी तरह आकलन करते थे जैसे एक कारखाना मालिक अपने पूंजीगत उपकरणों का आकलन करता है। दासों को ऋण के लिए बैंकों के पास भी गिरवी रखा जाता था, ठीक वैसे ही जैसे आज के कारखाना मालिक पूंजीगत वस्तुओं को गिरवी रखते हैं। बागान मालिकों के लिए, दासों को संपार्श्विक के रूप में गिरवी रखकर बैंक ऋण उनकी कार्यशील पूंजी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रदान करते थे। बागानों में काम करने वाले दासों को मशीनों के बराबर माना जाता था, लेकिन दासों को स्वयं वस्तुओं के रूप में देखा जाता था। दास व्यापार की क्रूरता और जिन अमानवीय परिस्थितियों में उन्हें रखा जाता था और जहाज से उतारकर बेचे जाने से पहले ले जाया जाता था, वह एक अलग कहानी है। इतिहास के इस व्यापारिक काल की बात करते समय आर्थिक इतिहासकार यह "भूल" जाते हैं कि दास व्यापार में जहाजरानी, ​​बैंकिंग और बीमा ने वित्तीय पूँजी का विशाल विस्तार किया। यही पूँजी औद्योगिक क्रांति को शक्ति प्रदान करती है। वित्तीय पूँजी के इस विस्तार में ब्रिटेन द्वारा दास प्रथा के उन्मूलन के समय दास स्वामियों को दिए गए मुआवज़े से काफ़ी मदद मिली। ब्रिटिश सरकार ने दास स्वामियों को मुआवज़ा देने के लिए बांड के ज़रिए 2 करोड़ पाउंड जुटाए, जो ब्रिटिश सरकार की वार्षिक आय का 40 प्रतिशत था। दिलचस्प बात यह है कि ब्रिटेन में दास प्रथा को एक अमानवीय प्रथा मानकर समाप्त कर दिया गया था, लेकिन मुआवज़ा दासों को नहीं, बल्कि दास स्वामियों को दिया गया था ! इसके बजाय, दासों को "प्रशिक्षु" के रूप में छह साल अतिरिक्त सेवा करनी पड़ती थी, उसके बाद ही उन्हें आज़ाद किया जा सकता था ताकि दास स्वामी को अपने बागानों में दास श्रम के बजाय उजरती मज़दूरी में बदलने में मदद मिल सके। ब्रिटिश उपनिवेशों में, कैरिबियन के ब्रिटिश उपनिवेशों में दास श्रम की जगह भारत से आए "गिरमिटिया" मज़दूरों ने ली, जिन्हें आज दासता कहा जाएगा। भाप इंजन के विज्ञान और प्रौद्योगिकी की देन होने की कहानी एक और मिथक है। मैंने पहले जेम्स वाट के भाप इंजन के बारे में पेटेंट के संदर्भ में लिखा है और बताया है कि कैसे वाट के पेटेंट ने भाप इंजन के आगे के विकास को रोक दिया। यहाँ हमारी चिंता का विषय यह है कि, जैसा कि तर्क दिया जाता है, यह ऊष्मागतिकी विज्ञान की देन नहीं है, बल्कि कॉर्नवाल के कोयला खनिकों की ज़रूरत से उपजा था और ऊष्मा के विज्ञान को समझने से इसका बहुत कम लेना-देना था। न ही इसने कपड़ा मिलों के विस्तार को जन्म दिया और न ही यह औद्योगिक क्रांति का वाहक बना। कपड़ा मिलों ने जल शक्ति का उपयोग उस काल – 1750-1800 – के बहुत बाद तक किया, जिसे हम औद्योगिक क्रांति कहते हैं। स्पिनिंग जेनी, वाटर फ्रेम और अन्य प्रगति, सभी वस्त्र उद्योग में भाप शक्ति के उपयोग से पहले की हैं । इंग्लैंड में वस्त्र निर्माण में प्रमुख प्रगति जल शक्ति द्वारा हुई। केवल 1825-1835 की अवधि में ही कपड़ा मिलों में विद्युत स्रोत के रूप में भाप इंजन ने जल चक्र का स्थान लिया। भारतीय कपड़ा उद्योग का विनाश अंग्रेजों के हाथों हुआ, जिन्होंने भारत पर भी एक शाही चार्टर के तहत शासन किया। जी हाँ, भारतीय व्यापार पर एकाधिकार के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी का चार्टर भी ब्रिटिश राजशाही से ही प्राप्त हुआ था, ठीक उसी तरह जैसे अटलांटिक में दास व्यापार पर एकाधिकार के लिए रॉयल अफ्रीकन कंपनी का चार्टर था। दोनों को ब्रिटिश राजशाही की सशस्त्र शक्ति का समर्थन प्राप्त था, वही शक्ति जो राजा चार्ल्स तृतीय ने अपने राज्याभिषेक समारोह में 700 साल पुराने समारोह में धारण की थी। बीच में एक-दो राजवंश बदल गए होंगे या उनका नाम बदल दिया गया होगा; लेकिन संस्था वही रही। यह ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति ही थी जिसने भारत के वस्त्र उद्योग को नष्ट कर दिया और इसे तैयार माल का आयातक और कच्चे कपास का निर्यातक बना दिया। यही वह चीज़ है जिसने भारत को अपने आंतरिक और बाहरी बाज़ारों के लिए वस्तुओं के एक प्रमुख उत्पादक से एक दरिद्र राष्ट्र में बदल दिया जो यूनाइटेड किंगडम को खाद्यान्न और खनिज निर्यात करता था। इससे भी बदतर, भारत को अफीम का एक मजबूर उत्पादक और आपूर्तिकर्ता भी बना दिया गया, जो एकमात्र ऐसी वस्तु थी जिसे यूनाइटेड किंगडम चीन को आपूर्ति कर सकता था। यही अफीम युद्धों और चीन के एक नवउपनिवेश में रूपांतरण की उत्पत्ति है। भारत से उपनिवेशों का निष्कासन, चीन के साथ अफीम का व्यापार, और अन्य उपनिवेशों की लूट ही यूनाइटेड किंगडम और अन्य औपनिवेशिक शक्तियों के विकास का कारण बनी। न कि उनकी खोज की खोज और ज्ञान की प्यास। पश्चिम और बाकी दुनिया के बीच का अंतर खोज की भावना और तर्क, यानी विज्ञान की खोज के कारण नहीं है। बल्कि, यह लूट, गुलामी और नरसंहार की कहानी है। ब्रिटिश राजमुकुट, अपने 700 साल पुराने राज्याभिषेक समारोह के ज़रिए, अपनी निरंतरता की याद दिलाता है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पहली पार्टी कांग्रेस – 1943

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पहली पार्टी कांग्रेस – 1943 भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का पहला अधिवेशन 1943 में बंबई में हुआ था। यह 23 मई से 1 जून तक, आठ दिनों तक चला। अधिवेशन में 139 प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिससे कुल 15,563 सदस्य बने। इस समय तक, पार्टी के मुखपत्र 11 भाषाओं में प्रकाशित होने लगे थे, जिनका संयुक्त प्रसार 60,000 था। अनुमान है कि कम से कम 6,00,000 लोग इन मुखपत्रों के साथ-साथ पार्टी द्वारा प्रकाशित अन्य पत्रकों और पैम्फलेटों को पढ़ रहे थे। यह अधिवेशन पार्टी, ट्रेड यूनियनों, किसान सभाओं और अन्य जन संगठनों की सदस्यता में समग्र वृद्धि की पृष्ठभूमि में आयोजित किया गया था। देश के सभी मौजूदा कम्युनिस्ट समूहों को एक मज़बूत कम्युनिस्ट पार्टी में एकीकृत करने के बाद यह कांग्रेस आयोजित की गई थी। कांग्रेस से ठीक पहले, 1941 में, ग़दर-कीर्ति समूह का पार्टी में विलय हो गया और बाबा सोहन सिंह भकना जैसे उसके नेता प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस में शामिल हुए। कांग्रेस में प्रस्तुत रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि पार्टी की सदस्यता 1933 के अंत में 150 से बढ़कर 1942 में 4,400 हो गई और 1943 के मई दिवस तक यह 15,563 तक पहुँच गई। इसी प्रकार, 2,637 पूर्णकालिक कार्यकर्ता पार्टी के लिए काम कर रहे थे। पार्टी के लिए 32,166 स्वयंसेवक थे, किशोर वाहिनी में 9,000 सदस्य, महिला संगठन में 41,100 सदस्य (जिनमें से 700 पार्टी सदस्य थीं, जो उस समय एकमात्र पार्टी थी जिसकी पाँच प्रतिशत सदस्य महिलाएँ थीं), छात्र संगठन में 39,155, किसान सभा में 3,85,370 (5,500 पार्टी सदस्य थे), ट्रेड यूनियनों में 3,01,400 (4,000 पार्टी सदस्य थे)। एस.ए. डांगे और बंकिम मुखर्जी, दोनों कम्युनिस्ट पार्टी के नेता, क्रमशः ट्रेड यूनियन और किसान सभा के निर्वाचित अध्यक्ष थे, जो इन वर्गों के बीच कम्युनिस्टों द्वारा किए गए कार्यों का प्रतिबिंब था। पार्टी का प्रभाव समाज के सभी वर्गों पर था, जैसा कि पार्टी कांग्रेस में शामिल हुए प्रतिनिधियों की विस्तृत श्रृंखला से पता चलता है। परिचय पत्र के अनुसार, 139 प्रतिनिधियों में से 22 मज़दूर, 25 किसान, 86 बुद्धिजीवी (जिन्होंने जन आंदोलन में काम किया था, मेहनतकशों के बीच व्यापक पैमाने पर मार्क्सवाद को लोकप्रिय बनाया था और पार्टी को मज़दूरों के बीच काम करने वाले मार्क्सवादियों के एक समूह से एक प्रमुख राजनीतिक दल में बदलने में मुख्य रूप से ज़िम्मेदार थे), तीन ज़मींदार, दो छोटे ज़मींदार और एक व्यापारी थे। कुल प्रतिनिधियों में से 13 महिलाएँ, तीन दलित, 13 मुसलमान, आठ सिख, दो पारसी और एक जैन थे। पार्टी पर से प्रतिबंध हटा लिए जाने के बावजूद, कांग्रेस के समय 695 पार्टी सदस्य अभी भी जेलों में सड़ रहे थे। इनमें से 105 आजीवन कारावास की सजा काट रहे थे। 70 प्रतिशत प्रतिनिधियों ने एक या एक से अधिक बार जेल में समय बिताया था और जेल में बिताया गया कुल समय 411 वर्ष था। दूसरे शब्दों में, पार्टी नेताओं का लगभग आधा राजनीतिक जीवन जेलों में बीता था। इनमें से दो महिलाएँ, कल्पना दत्त और कमला चटर्जी, साढ़े सात वर्ष जेल में बिता चुकी थीं। 53 प्रतिशत प्रतिनिधियों को भूमिगत जीवन का अनुभव था और उन्होंने कुल मिलाकर 54 वर्ष भूमिगत कार्य करते हुए बिताए थे। पार्टी में शामिल होने वाले प्रतिनिधिमंडल में भी आयु संरचना झलकती थी – 68 प्रतिशत प्रतिनिधि 35 वर्ष से कम आयु के थे, जबकि 8 प्रतिनिधि अग्रणी थे, जो 1929 से पहले पार्टी में शामिल हुए थे। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से कोई भी प्रतिनिधि निरक्षर नहीं था। मज़दूरों और किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले कई प्रतिनिधियों ने स्वयं अंग्रेजी सीखी थी ताकि वे मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और स्टालिन की रचनाओं को पढ़ सकें और देश में मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत के अनुप्रयोग को समझ सकें। कांग्रेस की शुरुआत एक जनसभा से हुई, जिसमें लगभग 25,000 लोग शामिल हुए। कामरेड मुज़फ़्फ़र अहमद डांगे, बंबई प्रांत के सचिव रहे एक पुराने कार्यकर्ता भय्याजी कुलकर्णी, केरल से कृष्णा पिल्लई, कलकत्ता की महिला नेता मणिकुंतला सेन, बंबई समिति के सचिव और रेलवे कर्मचारी डी.एस. वैद्य और छात्र नेता नर्गिस बटलीवाला ने अध्यक्ष मंडल की भूमिका निभाई। बंकिम मुखर्जी ने ध्वजारोहण किया, जबकि बाबा सोहन सिंह भकना ने शहीदों पर प्रस्ताव पेश किया। पार्टी महासचिव पीसी जोशी ने राजनीतिक प्रस्ताव पेश करने में नौ घंटे लगाए। बीटी रणदिवे ने 'मज़दूर वर्ग और राष्ट्रीय रक्षा के कार्यों' पर रिपोर्ट पेश की। कांग्रेस प्रतिदिन सुबह छह बजे से रात ग्यारह बजे तक रिपोर्ट सुनने, समूहों के बीच चर्चा और चर्चाओं की रिपोर्टिंग के लिए बैठती थी, जिसमें दोपहर और रात के भोजन के लिए बहुत कम समय का अवकाश होता था। छह भ्रातृ-पक्षीय दलों - ग्रेट ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका, चिली, क्यूबा और कनाडा - ने कांग्रेस को शुभकामना संदेश भेजे, जबकि श्रीलंका और बर्मा के प्रतिनिधि भी कांग्रेस में उपस्थित थे। चटगाँव की वीर माताओं और बीमार पार्टी नेताओं जैसी, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में अपने बच्चों का बलिदान दिया था, ने भी कांग्रेस को शुभकामना संदेश भेजे और कम्युनिस्ट पार्टी के लिए काम करने का संकल्प लिया। बंगाल के प्रसिद्ध कलाकार चित्त प्रसाद ने मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और स्टालिन के चित्र बनाए, जो गांधी, नेहरू और जिन्ना के साथ मंच की शोभा बढ़ा रहे थे। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झंडे भी पृष्ठभूमि का हिस्सा थे। चित्रों और झंडों का प्रदर्शन पार्टी की राजनीतिक-रणनीतिक समझ को दर्शाता था—फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में एक संयुक्त मोर्चा बनाना और कांग्रेस-लीग एकता पर ज़ोर देना। पीसी जोशी द्वारा प्रस्तुत राजनीतिक प्रस्ताव में अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय संदर्भ, कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा अपनाई गई रणनीति, औद्योगिक और खाद्य उत्पादन बढ़ाने और समग्र जन एकता बनाने के लिए काम करने के कारणों और आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया। इसके बाद विभिन्न प्रांतीय सचिवों की रिपोर्टें प्रस्तुत की गईं, जिनमें उनके प्रांतों में किए गए कार्यों और प्राप्त अनुभवों का विवरण दिया गया। इन रिपोर्टों के बाद, सरदेसाई ने देश में खाद्य स्थिति पर, नंबूदरीपाद ने अधिक खाद्य उत्पादन की आवश्यकता पर, अरुण ने छात्रों पर, कुन्हाईनंदन ने बाल संघम पर और कनक, यशोदा, अन्नपूर्णम्मा और पूरन मेहता ने महिलाओं पर रिपोर्ट प्रस्तुत की। इन साथियों ने न केवल अपने-अपने मोर्चों की स्थिति पर, बल्कि इन मोर्चों पर पार्टी की नीतियों के कार्यान्वयन में प्राप्त सफलताओं पर भी रिपोर्ट प्रस्तुत की। अधिकारी ने बदली हुई परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में पार्टी की नई विधियाँ प्रस्तुत कीं। कांग्रेस में पारित राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया कि इस दिन का मुख्य कार्य 'राष्ट्रीय सरकार की जीत के लिए राष्ट्रीय रक्षा हेतु राष्ट्रीय एकता' है। इसमें पूरी पार्टी से इस कार्य के कार्यान्वयन के लिए अभियान चलाने का आह्वान किया गया, साथ ही 'सभी राष्ट्रीय नेताओं की रिहाई', 'खाद्य स्थिति में हस्तक्षेप, जमाखोरी के विरुद्ध और खाद्य दंगों की रोकथाम सुनिश्चित करने' और 'फिफ्थ कॉलमिस्ट्स को अलग-थलग करने' की माँग भी की गई। कांग्रेस ने सभी मज़दूरों और किसानों से एकजुट होकर औद्योगिक और खाद्य उत्पादन बढ़ाने के लिए काम करने का आह्वान किया ताकि फ़ासीवाद की हार सुनिश्चित हो सके। कांग्रेस का तर्क था कि जब तक वे इस उद्देश्य के लिए एकजुट नहीं होंगे, तब तक वे अपने संगठन को मज़बूत नहीं कर पाएँगे और न ही 'पर्याप्त महंगाई भत्ता, वेतन वृद्धि, बोनस, यूनियनों को मान्यता, परती ज़मीनों का वितरण, सिंचाई सुविधाएँ, बीज, लगान और ब्याज से राहत या छूट' जैसी माँगें मनवा पाएँगे। कांग्रेस ने छात्रों की एकता का भी आह्वान किया और उन्हें अपने शैक्षिक अधिकारों और संस्थानों में स्वतंत्रता के लिए खड़े होने का आह्वान किया। यह स्वीकार करते हुए कि कम्युनिस्ट कार्य के कारण हुए 'जन जागरण की एक उल्लेखनीय विशेषता' 'महिला आंदोलन का उभार' थी, खासकर बंगाल, आंध्र और मालाबार में, कांग्रेस ने 'महिलाओं, खासकर मेहनतकश महिलाओं के संगठन पर विशेष ध्यान देने' का संकल्प लिया। कांग्रेस ने अपनी सभी इकाइयों से कहा कि वे उपरोक्त अभियानों के आधार पर 'जन संगठन बनाने की योजनाएँ' बनाएँ और एक 'जन कम्युनिस्ट पार्टी' के निर्माण का आधार तैयार करें। कांग्रेस ने पार्टी को एक 'जन राजनीतिक शक्ति' से एक जन राजनीतिक संगठन में बदलने और 'न केवल करोड़ों मेहनतकशों पर, बल्कि समग्र भारतीय जनता पर' राजनीतिक प्रभाव डालने का संकल्प लिया। इसने पार्टी सदस्यों, पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवकों, निधियों की संख्या बढ़ाने और ट्रेड यूनियनों, किसान सभाओं, छात्रों, महिलाओं और बच्चों के संगठनों की सदस्यता बढ़ाने का भी बीड़ा उठाया था। राजनीतिक परिस्थितियों को समझने और रणनीति तय करने की अपनी सीमाओं के बावजूद, सभी प्रस्तावों और रिपोर्टों को कांग्रेस में सर्वसम्मति से अपनाया गया। इसने सर्वसम्मति से केंद्रीय समिति और महासचिव का भी चुनाव किया। कांग्रेस के बारे में रिपोर्ट करते हुए पीसी जोशी ने कहा कि प्रतिनिधियों ने 'सर्वसम्मति से सोचा कि उन्होंने कांग्रेस में हुई आत्म-आलोचनात्मक चर्चाओं से सबसे ज़्यादा सीखा है।' उन्होंने टिप्पणी की कि कांग्रेस में प्रदर्शित एकता 'साझा लक्ष्य, साझे कार्यक्रम, जो वर्षों के साझे व्यवहार से परिपक्व हुआ है' को प्राप्त करने के उद्देश्य से आई थी। पार्टी के संस्थापक सदस्य मुज़फ़्फ़र अहमद ने अध्यक्ष मंडल की ओर से कांग्रेस को समापन भाषण दिया। "पार्टी का पहला कांग्रेस सम्मेलन समाप्त हो गया है। पार्टी ने अपने जीवन का सबसे बड़ा कार्यभार अपने ऊपर ले लिया है। आइए, इसे पूरा करने के लिए आगे आएँ।"

शनिवार, 15 नवंबर 2025

बिहार का दस हजारी चुनाव - नेहा सिंह राठौर

बिहार का दस हजारी चुनाव - नेहा सिंह राठौर

चुनाव लीबिया - सीरिया जैसा हुआ है - मो अदीब पूर्व सांसद

चुनाव लीबिया - सीरिया जैसा हुआ है - मो अदीब पूर्व सांसद

मार्क्सवाद की दुखती रग-जगदीश्वर चतुर्वेदी

मार्क्सवाद की दुखती रग कल पुराने मित्र कैसर शमीम साहब से लंबी बातचीत हो रही थी। वे मोदी के चुनाव में जीतकर आने के बाद से बेहद कष्ट में थे और कह रहे थे कि मैं तो सोच ही नहीं पा रहा हूँ कि क्या करुँ ? वे राजनीतिक अवसाद में थे। हमदोनों जेएनयू के दिनों से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से जुड़े थे। वे जेएनयू में पार्टी में आए थे,मैं मथुरा से ही माकपा से जुडा हुआ था। कैसर साहब ने एक सवाल किया कि आखिरकार माकपा के सदस्य या हमदर्द भाजपा में क्यों जा रहे हैं ? माकपा का आपको पश्चिम बंगाल में क्या भविष्य नजर आता है ? मैंने उनसे जो बातें कही वे आप सबके लिए भी काम आ सकती हैं इसलिए फेसबुक पर साझा कर रहा हूँ । मैंने कैसर शमीम से कहा कि माकपा को पश्चिम बंगाल में दोबारा पैरों पर खड़ा होना बहुत ही मुश्किल है। माकपा इस राज्य में समापन की ओर है। इसके कई कारण हैं जिनमें प्रधान कारण है माकपा का लोकतंत्र में हार-जीत के मर्म को न समझ पाना या समझकर अनदेखा करना। लोकतंत्र में चुनावी हार-जीत को हमें गंभीरता से लेना चाहिए। जो नेता हार गए हैं या जिन नेताओं के नेतृत्व में पार्टी हारी है वे आम जनता में घृणा के पात्र बन जाते हैं। पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य सिंगूर-नंदीग्राम की घटना के बाद घृणा के पात्र बनगए। उनको चुनाव अभियान का अगुआ बनाकर माकपा ने गलती की थी। यह सिलसिला जारी है। समूची जनता माकपा से जितनी नफरत करती थी वह नफरत उसने बुद्ध दा में समाहित कर दी ,यह सच है कि निजी तौर पर बुद्धदा बेहतर व्यक्ति हैं,सुसंस्कृत ईमानदार नेता हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि वे माकपा और वाममोर्चे के मुख्यमंत्री थे फलतः वे अपने प्रशासन के साथ अपनी पार्टी के अदने से कार्यकर्ता की भूलों के लिए भी जबावदेह थे। यही वजह है कि ईमानदार होने बावजूद वे आम जनता में घृणा के प्रतीक बन गए। यही हाल माकपा के राज्यसचिव विमान बसु का है। वे भी माकपा के घृणा प्रतीक बन गए, इसी तरह निचले स्तर पर अनेक नेता हैं जो आम जनता में घृणा के प्रतीक बन गए हैं। इनको पार्टी हटाने में असफल रही है।यही वजह है कि माकपा लगातार जनाधार खो रही है। कोई नेता घृणा प्रतीक क्यों बन जाता है ,यह बात तब तक समझ में नहीं आएगी जब तक हम आम जनता की हार-जीत की भावना को न समझें। लोकतंत्र में माकपा अकेला ऐसा दल है जो घृणा प्रतीकों को पार्टी के शिखर पर बिठाए रखता है। यह अकेला ऐसा दल है जिसकी पोलिट ब्यूरो और केन्द्रीयसमिति में अधिकतर सदस्य वे हैं जो जनता में जाकर कभी चुनाव नहीं लड़े हैं। लोकतंत्र में चुनाव न लड़कर लोकतंत्र का संचालन करने की कला सर्वसत्तावादी कला है। इससे नेता का जनता के साथ लगाव के स्तर का पता नहीं चलता। आज वास्तविकता यह है कि माकपा के अधिकांश कमेटियों के मेम्बर या सचिव कहीं से नगरपालिका चुनाव तक जीतकर नहीं आ सकते। ईएमएस नम्बूदिरीपाद या ज्योति बसु इसलिए बड़े दर्जे के नेता थे क्योंकि उनकी जनता मेंजडें थीं।वे जनता में कई बार चुने गए। पश्चिम बंगाल और केरल से पार्टी की सर्वोच्च कमेटियों में अधिकांश नेता चुनाव लड़कर अपनी वैधता को जनता में जाकर पुष्ट करते रहे हैं। लोकतंत्र में रहकर यह देखना ही होगा कि माकपा के किस नेता से जनता घृणा कर रही है ? पश्चिम बंगाल के प्रसंग में यह सबसे बड़ी असफलता है कि आम जनता जिन नेताओं से नफरत करती है वे अभी भी पार्टी पदों पर बने हुए हैं। जबकि ऐसे नेताओं को बिना किसी हील-हुज्जत के पार्टी की जिम्मेदारियों से मुक्त करना चाहिए। कैसर साहब ने यह भी पूछा था कि क्या वजह है कि माकपा के लोग भाजपा की ओर जा रहे हैं ? मैंने कहा कि इसके कई कारण हैं,इनमें पहला कारण है बंगाली जाति खासकर मध्यवर्गीय बंगाली की मनोदशा। इस वर्ग के लोग परंपरागत तौर पर सत्ताभक्त रहे हैं। उनका किसी विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। अंग्रेजों के जमाने से सत्ताभक्त बंगालियों की समृद्ध परंपरा रही है और यह परंपरा आजादी के बाद और भी मजबूत हुई है। वामशासन में मध्यवर्गीय बंगाली वाम के साथ था ,लोग कहते थे कि यह वाम विचारधारा का असर है, मैं उस समय भी आपत्ति करता था और आज भी करता हूँ। बंगाली मध्यवर्ग मे बहुत छोटा अंश है जो वैचारिक समझ के साथ वाम के साथ है, वरना ज्यादातर मध्यवर्गीय बंगाली सत्ताभक्त हैं । वे वैचारिकदरिद्र हैं। इस वैचारिकदरिद्र बंगाली मध्यवर्ग में ममता सरकार आने के बाद भगदड़ मची और रातों-रात मध्यवर्ग के लोग कल तक ममता को 'लंपटनेत्री' कहते थे ,अब 'देवी' कहने लगे हैं। मोदी की विजय दुंदुभि ने भी उनको प्रभावित किया है और वे लोग भाजपा की ओर जा रहे हैं। भाजपा की मुश्किलें इससे बढ़ेंगी या घटेंगी,यह मुख्य समस्या नहीं है। मुख्य समस्या है कि मध्यवर्ग के इस चरित्र को किस तरह देखें ? मध्यवर्गीय बंगालियों का एक बड़ा हिस्सा अब सीधे माकपा से दामन छुडाने में लगा है। मैं 2005 से माकपा में नहीं हूँ लेकिन मैं अब तक इस संगठन की यथाशक्ति मदद करता रहा हूँ। इसबार के लोकसभा चुनाव में भी चंदा दिया और और अन्य किस्म की मदद की। लेकिन जो लोग माकपा के स्तंभ कहलाते थे वे दूसरे पाले में नजर आए। माकपा के नेताओं में यह विवेक ही नहीं है कि वे लोकतांत्रिक भावनाओं, मूल्यों और अनुभूतियों के राजनीतिकमर्म को समझें। मैं विगत 15सालों से लगातार लिख रहा हूँ कि माकपा के नेतृत्व में वे लोग आ गए हैं जिनसे जनता नफरत करती है। मेरी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया क्योंकि वे चुनाव जीत रहे थे। वे जब चुनाव जीत रहे थे तब भी आम जनता में नेताओं का एक तबका घृणा का पात्र था और आज भी है। इनमें विमान बसु और बुद्धदेव का नाम सबसे ऊपर है। आम जनता में माकपा के नेताओं के असंवैधानिक क्रियाकलापों के कारण घृणा पैदा हुई है और इस अनुभूति को माकपा किसी तरह कम नहीं कर सकती। माकपा के पराभव का एक अन्य कारण है कि माकपा के वोटबैंक में तमाम किस्म के स्थानीय प्रतिक्रियावाद का शरण लेना। वोटबैंक राजनीति के कारण लोकल प्रतिक्रियावाद के खिलाफ कभी संघर्ष नहीं चलाया गया। लोकल प्रतिक्रियावाद के तार बाबा लोकनाथ से लेकर तमाम पुराने समाजसुधार संगठनों के सदस्यों के बीच में फैले हुए हैं। इसमें मुस्लिम प्रतिक्रियावाद भी शामिल है। तमाम किस्म की विचारधाराओं के साथ रमण करने वाली माकपा आजकल इन तमाम किस्म के प्रतिक्रियावादी नायकों के संगठनों के समर्थन के अभाव में अधमरी नजर आ रही है।इसके बावजूद एक तथ्य साफ है कि पश्चिम बंगाल में आम जनता में प्रतिक्रियावाद मजबूत हुआ है। भोंदूपन, अंधविश्वास और प्रतिगामिता में इजाफा हुआ है। इसका राज्य के वामदलों के विचारधारात्मक क्रियाकलापों की असफलता से गहरा संबंध है। प्रतिक्रियावाद आसानी से किसी भी विचारधारा में शरण लेकर रह सकता है और मौका पाते ही वो भाग भी सकता है या पलटकर हमला भी कर सकता है। मैं एक वाकया सुनाता हूँ। एक कॉमरेड थे बडे ही क्रांतिकारी थे एसएफआई के महासचिव या ऐसे ही पद पर थे ,राज्यसभा के लिए नामजद किए गए, हठात कुछ महिने बाद पाया गया कि वे भाजपा में चले गए। मैंने पूछा कि भाईयो यह कैसी मार्क्सवादी शिक्षा है जो सीधे भाजपा तक पहुँचा देती है ? किसी के पास जबाव नहीं था। कहने का आशय यह कि माकपा की लीडरशिप से लेकर नीचे तक अनुदारवाद और कट्टरतावाद बड़ी संख्या में सदस्यों में रहा है। यही अनुदारवाद अब खुलकर भाजपा की ओर जा रहा है। एक अन्य चीज वह यह कि अनुदारवाद एक किस्म सामाजिक अविवेकवाद है जिसमें अपराधीकरण की प्रवृत्ति होती है।यह अचानक नहीं है कि माकपा का बड़े पैमाने पर अपराधीकरण हो गया और कोई देखने को तैयार नहीं है। मैं जब 1989 में पश्चिम बंगाल आया था तो बड़ी आशाओं के साथ आया था, पार्टी ब्रांच में बात हो रही थी कि कौन कहां काम करेगा, सब मेम्बर अपने तरीके से बता रहे थे कि मैं वहां काम करूँगा,यहाँ काम करुँगा, अधिकतर लोग अपने –अपने मुहल्ले में काम करने के लिए कह रहे थे, मैंने भी कहा कि मैं अपने मुहल्ले में पार्टी से जुड़कर काम करूँगा। उनदिनों कॉं.अनिल विश्वास पार्टी ब्रांच संभालते थे, वे यहां के मुख्यनेताओं में से एक थे, बाद में राज्य सचिव बने, पोलिट ब्यूरो में रखे गए। वे तुरंत बोले कि तुमको मुहल्ले में काम नहीं करने देंगे, मैंने पूछा क्यों ,वे बोले नीचे पार्टी में गुण्डे भरे हैं तुम देखकर दुखी होओगे और पार्टी से मोहभंग हो जाएगा। उल्लेखनीय है मेरी शिक्षा की ब्रांच थी और उसमें सभी मेम्बर नामी लोग थे और लोकल थे,मैं अकेला बाहर से गया था,मेरे लिए अनिल विश्वास का बयान करेंट के झटके की तरह लगा, मैं काफी दिनों विचलित रहा और उन लोगों ने मुझे लोकल स्तर पर पार्टी से दूर रखा। कहने का आशय यह कि पार्टी के नेता जानते थे कि निचले स्तर पर किस तरह के अपराधी घुस आए हैं। इस घटना के कुछ दिन बाद कोलकाता एयरपोर्ट पर मेरी प्रकाश कारात से मुलाकात हुई हम दोनों एक ही फ्लाइट से दिल्ली आए, प्रकाश ने पूछा यहां की पार्टी कैसी लग रही है, मैंने अनिल विश्वास वाली बात कही तो वो चौंका लेकिन उसके पास मेरे सवालों का जबाव नहीं था ।मेरा सवाल था कि माकपा ने जान-बूझकर जनपार्टी बनाने के चक्कर में अपराधियों को पार्टी में क्यों रख लिया है ? मेरे कहने का आशय यह है कि माकपा में अनुदारवाद, कट्टरतावाद और अपराधीकरण ये तीनों प्रवृत्तियां लंबे समय से रही हैं और पार्टी नेतृत्व इनसे वाकिफ रहा है। इन तीनों प्रवृत्तियों को पूंजीवाद के खिलाफ घृणा फैलाने की आड़ में संरक्षण मिलता रहा है। यह खुला सच है कि पश्चिम बंगाल में माकपा सबसे बड़ा दल रहा है और उसने पूरे राज्य में आम जनता के जीवन के हर क्षेत्र में वर्चस्व बनाकर रखा। राज्यतंत्र को पार्टीतंत्र में रुपान्तरित कर दिया, अब वही माकपा अपने बनाए ताने-बाने और ढाँचे से पीड़ित है क्योंकि सरकार में ममता आ गयी। ममता को विरासत में ऐसा तंत्र मिला जिसमें पार्टीतंत्र की जी-हुजूरी करने की मानसिकता पहले से ही भरी हुई थी। पश्चिम बंगाल में भाजपा के वोट बढ़ने का एक और बड़ा कारण है कि पश्चिम बंगाल के मूल निवासी बंगालियों का एक बड़ा हिस्सा जो कल तक माकपा के साथ था वह तेजी से भाजपा की ओर जा रहा है। साथ ही हिन्दीभाषी लोग एकमुश्तभाव से भाजपा की ओर जा चुके हैं। इन दोनों समूहों को भाजपा की ओर मोडने में बहुसंख्यकवाद और हिन्दीवाद ने मदद की है।इसबार के चुनाव में भाजपा ने बहुसंख्यकवाद और हिन्दीवाद का घर –घर मोदी प्रचार अभियान में इस्तेमाल किया है।
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