शनिवार, 8 नवंबर 2025

पावलर वरदराजन, एक कलाकार जिन्होंने केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई

पावलर वरदराजन, एक कलाकार जिन्होंने केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई 1958 का देवीकुलम उपचुनाव नंबूदरीपाद सरकार के लिए बेहद अहम था। बागान मज़दूरों, जिनमें ज़्यादातर तमिल थे, को अपने पक्ष में करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी ने पवलर वरदराजन के संगीत समारोह आयोजित किए, जिनके गाने मतदाताओं को खूब पसंद आए। जब केरल के मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद 1958 के उपचुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी की जीत के जश्न में हिस्सा लेने देवीकुलम आए, तो उन्होंने आयोजकों से पूछा, " एविदयानु पवलर वरदराजन ?" ("पवलर वरदराजन कहाँ हैं?")। गीतकार और संगीत निर्देशक तथा वरदराजन के सबसे छोटे भाई गंगई अमरन ने याद करते हुए कहा, "जब वे मंच पर गए, तो ईएमएस ने वरदराजन को एक माला भेंट की।" उन्होंने कहा, "मैं 10 साल का था। हम अपने भाइयों भास्कर और इलैयाराजा और अपनी माँ के साथ वहाँ थे।" मई 1958 में उपचुनाव हुआ था जब एक अदालत ने रोसम्मा पुन्नूस के चुनाव को उनके प्रतिद्वंद्वी, कांग्रेस के बीके नायर द्वारा उनके नामांकन की अस्वीकृति के खिलाफ दायर याचिका पर रद्द कर दिया था। 126 सीटों वाली विधानसभा में सीपीआई के 60 सदस्य थे और उसे पांच निर्दलीय विधायकों का समर्थन प्राप्त था। इसलिए उनकी जीत नंबूदरीपाद सरकार के लिए महत्वपूर्ण थी। “चूंकि [देवीकुलम में] बागान मजदूर ज्यादातर तमिल थे, इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी ने मेरे भाई द्वारा संगीत कार्यक्रम आयोजित किए। वह उस आँगन में प्रदर्शन करता जहाँ किसान चाय की पत्तियों को अलग करने के लिए इकट्ठा होते थे। यह एक सिनेमाई सेटिंग थी, और उसके गीत पहाड़ियों में गूंजते थे," गंगई अमरन ने कहा, जिन्होंने आगे गाया, ' सिक्कीकिट्टू मुझिकुथम्मा वेक्कमकट्टा कलाई रेंदु' ('दो बेशर्म बैल पकड़े गए हैं उपचुनाव के दौरान वरदराजन के साथ रहीं स्वतंत्रता सेनानी और कम्युनिस्ट नेता मायांदी भारती ने याद किया कि कैसे चाय की पत्तियाँ तोड़ रही महिलाएँ दौड़कर उस जगह पहुँच जाती थीं जहाँ वरदराजन गा रहे होते थे। संगाई वेलावन द्वारा संकलित पुस्तक "पावलर वरदराजन पडैपुकल" में मायांदी भारती लिखती हैं, "जब वह मुन्नार में एक जीप के ऊपर गा रहे थे, तो दुकानदार, बसों का इंतज़ार कर रहे यात्री और डाकघर आए लोग हमारी गाड़ी के पास आकर उन्हें सुनते थे । "

शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

भारत में सत्त्ता दुष्टों, ठगों और लुटेरों के हाथ चली जायेगी-चर्चिल

अंग्रेज़ो ( विंस्टन चर्चिल ) ने 70 साल पहले ही ये बात कह दिया था। ************************************************* सत्त्ता दुष्टों, ठगों और लुटेरों के हाथ चली जायेगी। भारत के नेता निम्न क्षमता वाले, भूँसे के बने लुंजपुंज लोग होंगे। वे बेवकूफी से भरे और मीठी जुबान वाले हैं। वो सत्ता के लिए आपस मे लड़ेंगे और देश छोटी बातों पर ऊंचे सुर में राजनीति का अखाड़ा होगा। एक दिन आएगा जब भारत मे हवा और पानी पर भी टैक्स लग जायेगा। - विंस्टन चर्चिल 1946, ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारत की आजादी के अधिनियम के खिलाफ बोलते हुए। “Power will go to the hands of ras­cals, rogues, free­boot­ers; all Indian lead­ers will be of low cal­i­ber and men of straw. They will have sweet tongues and silly hearts. They will fight amongst them­selves for power and India will be lost in polit­i­cal squabbles. A day would come when even air and water would be taxed in India". लेकिन आजादी के बाद जब पहली बार चर्चिल पं. नेहरू से मिला तो अपने वक्तव्य के लिये माफी मांगा. लेकिन नेहरू ने कुछ नहीं कहा, क्यूंकि वे जानते थे चर्चिल बहुत गलत नहीं थे...आज चर्चिल की कही हुई बात कितनी सच है, दुनियां देख रही है कि नेहरू की कुर्सी पर एक अनपढ़ जाहिल झूठा, लंपट, लबार बैठा है,....और स्वयंभू विश्वगुूरू बना है. लंपटों की फौज हर हर महादेव की जगह हर हर मोदी का जयकारा लगा रही है...गांधी जिसको दुनियां पूज रही है उनको अपने देश मे ही उनके पुतले बनाकर गोली मारी जा रही है..गोली मारने वालों के स्वयंभू मसीहा विदेशों मे गांधी का तलुआ चाटते हैं और देश में उनके मूर्तियों को तोड़ते हैं....गांधी के हत्यारे के महिमामंडन करके मंदिर बना रहे हैं ..." दोगलों की सरकार, दोगलों के लिये, दोगलों द्वारा "... drbn singh.

अक्टूबर क्रान्ति की वर्षगांठ पर विशेष - क्रांतियां व्यर्थ नहीं जातीं

अक्टूबर क्रान्ति की वर्षगांठ पर विशेष - क्रांतियां व्यर्थ नहीं जातीं - पूंजीवाद स्वभावतः कृतघ्न है और समाजवाद स्वभावतः कृतज्ञ है। समाजवाद ने हमेशा पूंजीवाद की सकारात्मक बातों को माना है। लेकिन पूंजीवादी विचारक और पूंजीपतिवर्ग समाजवाद की सकारात्मक उपलब्धियों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। पूंजीवादी विचारक यह अच्छी तरह जानते हैं कि सन् 1917 की सोवियत अक्टूबर क्रांति की पहली महान उपलब्धि है गरीबों का सत्ता में आना । और सारी दुनिया को यह दिखाना कि मजदूर वर्ग भी शासन संभाल सकता है। फ्रांस की राज्य क्रांति के समय किसी के दिमाग में यह सपना नही आया था कि भविष्य में कभी मजदूरों की सरकार भी आ सकती है। अक्टूबर क्रांति के पहले तक इतिहास में राजसत्ता को चलाने और संभालने का अनुभव अभिजात्यवर्ग को ही था। पहलीबार गैर अभिजात्य वर्गों ने बोल्शेविक पार्टी के झंड़े तले एकत्रित होकर क्रांति की ,और सोवियत सत्ता को संभाला। मजदूर और किसान सरकार चला सकते हैं यह बात सिद्ध की । इस धारणा को खंडित किया कि शासन चलाने की शक्ति सिर्फ अभिजनों में होती है। सामंतों और बुर्जुआजी को सरकार चलाने का अनुभव था। लेकिन कम्युनिस्टों को 1917 की क्रांति के पहले सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं था। वे सरकार चलाने के मामले में अनुभवहीन थे ,नीति बनाने के मामले में अनुभवहीन थे। उन्होंने प्रशासन प्रबंधन को पूंजीवाद से ग्रहण किया और संगठन बनाने की अपनी क्षमता के साथ उसका शानदार रसायन तैयार किया। अक्टूबर क्रांति की दूसरी महान उपलब्धि है कि उसने मजदूरवर्ग को समाज का नायक बनाया। फ्रांस की राज्य क्रांति ने आधुनिक समाज के मुखिया के रूप में बुर्जुआजी को प्रतिष्ठित किया । लेकिन अक्टूबर क्रांति ने बुर्जुआजी को अपदस्थ करके मजदूरवर्ग को आधुनिकयुग के नायक के पद पर स्थापित किया। अक्टूबर क्रांति की तीसरी महान उपलब्धि है फ्रांस की राज्य क्रांति के बाद बुर्जुआजी ने जो वादे किए थे वह उन्हें पूरा करने में असफल रहा। उसकी इसी असफलता के रूप में नये पूंजीवादी राज्य का साम्राज्यवाद,बड़ी इजारेदारियों ,उपनिवेशवाद आदि में रूपान्तरण हुआ और प्रथम विश्वयुद्ध हुआ जिससे यह सिद्ध हो गया था कि बुर्जुआजी समाज को संतुष्ट रखने, खुशहाल रखने,आजादी देने आदि के मामले में बुरी तरह असफल है। जबकि अक्टूबर क्रांति ने यह मिथ तोड़ा कि पावर का केन्द्र बुर्जुआजी है। उसने यह मिथ भी तोड़ा कि मजदूर सिर्फ कामगार है,नौकर है। अक्टूबर क्रांति का यह महान योगदान है कि उसने मजदूरवर्ग को पावर के केन्द्र में स्थापित किया। अब मजदूरवर्ग सिर्फ वस्तु बनाने वाला कारीगर मात्र नहीं था । बल्कि उसे पावर के रूप में,सत्ता संघर्ष की सबसे मजबूत कड़ी के रूप में कम्युनिस्टों ने प्रतिष्ठा दिलायी। आज सारी दुनिया में मजदूरवर्ग ही अकेला ऐसा वर्ग है जो बुर्जुआजी को सीधे चुनौती दे रहा है। बुर्जुआजी को समाज के किसी भी वर्ग से भय नहीं लगता उसे भय लगता है तो एकमात्र मजदूरवर्ग से। मजदूरवर्ग की शक्तिशाली इमेज बनाने में कम्युनिस्ट आंदोलन और विश्वव्यापी मजदूर आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। आज सारी दुनिया में कोई भी सरकार मजदूरवर्ग के हितों की अनदेखी करके टिक नहीं सकती। यह अक्टूबर क्रांति की महान उपलब्धि है। सन् 1917 की अक्टूबर क्रांति का सबसे बड़ा योगदान है इसने विषमता के मिथ को तोड़ा है। यह माना जाता था विषमता तो प्रकृति की देन है,ईश्वरकृत है और पूर्वजन्म के कर्मों का फल है। कम्युनिस्टों ने इन सब बातों को वास्तव जीवन में खारिज करके दिखाया है। इससे यह चेतना पैदा करने में मदद मिली है कि विषमता प्राकृतिक ,ईश्वरकृत या पूर्वजन्म के कर्मों का फल नहीं होती बल्कि वर्गीय शोषण के गर्भ से विषमता का जन्म होता है। विषमता के भौतिक कारण होते हैं। विषमता पैदा करने में पूंजीपतिवर्ग की निर्णायक भूमिका होती है। पूंजीपतिवर्ग समाज का उद्धारकवर्ग नहीं बल्कि शोषकवर्ग है। यह बात सारी दुनिया के ज़ेहन में उतारने में अक्टूबर क्रांति ने मील के पत्थर का काम किया है। अक्टूबर क्रांति के बाद पूंजीपतिवर्ग ने धीरे-धीरे पूंजीपति के नाम से अपने को सम्बोधित करना ही बंद कर दिया,सारी दुनिया में पूंजीपति वर्ग के प्रति घृणा की लहर पैदा हुई जिसका असर आज भी बाकी है। आज भी सारी दुनिया के लोगों में अधिकांश लोग पूंजीपतिवर्ग से नफ़रत करते हैं। और मजदूरों के प्रति प्रेम बढ़ा है। अक्टूबर क्रांति के पहले मजदूरों-किसानों, वंचितों और हाशिए के लोगों में स्वतंत्रता की धारणा उतनी प्रबल नहीं थी जितनी प्रबल अक्टूबर क्रांति के बाद हुई। स्वतंत्रता और समानता की बुर्जुआ अवधारणा के विकल्प के रूप में नयी स्वतंत्रता और समानता की अवधारणा का उदय हुआ। अक्टूबर क्रांति के पहले स्वतंत्रता का अर्थ वही था जो फ्रांस की राज्य क्रांति ने निर्मित किया था। तब स्वतंत्रता का अर्थ था व्यापार और बाजार की स्वतंत्रता। सामाजिक समूहों की स्वतंत्रता के रूप में,हाशिए के लोगों की स्वतंत्रता के रूप में साधारणतौर पर अक्टूबर क्रांति के बाद ही सोचना आरंभ हुआ। साधारण लोगों के लिए स्वतंत्रता का अर्थ महज बोलने की आजादी नहीं है। यह स्वतंत्रता का सीमित दायरा है। मनुष्य के बोलने का उसके सामाजिक अस्तित्व के साथ संबंध होता है। मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व के सवालों को स्वतंत्रता के साथ जोड़ने कारण ही कालांतर में सारी दुनिया में विभिन्न सामाजिक समूहों और वर्गों ने अपने अस्तित्व रक्षा के सवालों को अभिव्यक्ति दी। आजादी और स्वतंत्रता के साथ जोड़कर देखा । बुर्जुआजी ने स्वतंत्रता के जिस पैराडाइम का निर्माण किया था उसे पूरी तरह बदला। मजदूरवर्ग ने श्रम को पूंजी के जुए से मुक्त करने के महान लक्ष्य के साथ स्वतंत्रता को जोड़ा था। बुर्जुआ स्वतंत्रता श्रम को वह पूंजी के जुए से मुक्त नहीं कर पाती इसके कारण बहुसंख्यक समाज के लिए स्वतंत्रता निरर्थक बनकर रह जाती है। पूंजी के जुए में बंधे रहकर जहां तक जा सकते हो वहां तक स्वतंत्रता है। बुर्जुआजी के लिए स्वतंत्रता सिर्फ़ व्यापार तक सीमित थी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वह बहुत ही सीमित अर्थ में ,अपने हितों के संरक्षण के संदर्भ में इस्तेमाल करता था। अक्टूबर क्रांति ने आम लोगों को चीजों को एक-दूसरे के साथ जोड़कर देखने की आदत पैदा की। स्टीरियोटाइप सरलीकरणों से राजनीति को मुक्त किया। बुर्जुआजी ने स्वतंत्रता के पास मनुष्य को खड़ा रखने की बजाय निजी संपत्ति को खड़ा किया और इस तरह उसने निजी संपत्ति और स्वतंत्रता में साँठगाँठ पैदा कर दी। अक्टूबर क्रांति ने स्वतंत्रता के साथ निजी संपत्ति की जगह मनुष्य को खड़ा कर दिया,मजदूरवर्ग को खड़ा कर दिया। उसने स्वतंत्रता की अंतर्वस्तु में से निजी संपत्ति को निकाल दिया। अक्टूबर क्रांति ने हमारे सामने यह सवाल खड़ा किया कि हम स्वतंत्रता सहित मनुष्य चाहते हैं ? या मनुष्यरहित और संपत्तिसहित स्वतंत्रता चाहते हैं ? संपत्तिसहित स्वतंत्रता का अर्थ है अमीरों के वर्चस्व का बना रहना। शोषकों के वर्चस्व का बने रहना। बोल्शेविकों ने इस वर्चस्व को चुनौती दी और सारी दुनिया को स्वतंत्रता के नए मार्ग पर चलने की सीख दी है और आज सारी दुनिया इस सीख से लाभ उठा रही हैं। विभिन्न गैर -बुर्जुआ समुदाय अपने लिए स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक अस्तित्व के सवालों को सारी दुनिया ने अन्तर्ग्रथित मान लिया है और आज ये विश्व मानवाधिकारों के चार्टर का हिस्सा हैं। दुनिया के अधिकांश देश इसे मान्यता देने को बाध्य हुए हैं। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में समाजवादी व्यवस्था के पराभव के बाद सारी दुनिया में पूंजीवादी प्रचारकों ने हल्ला मचाना आरंभ कर दिया कि क्रांति हार गयी है। समाजवाद खत्म हो गया है। साम्यवाद की मौत हो गयी है। मार्क्सवाद का अंत हो गया है। लेकिन यह सच नहीं है। इस बात को समझने के लिए हम फ्रांस की राज्य क्रांति का उदाहरण सामने रखकर विचार करें तो शायद ठीक से समाजवाद के विश्वव्यापी असर के बारे में सही ढ़ंग से अनुमान लगा सकें। फ्रांस की राज्य क्रांति ने लोकतंत्र,समानता और बंधुत्व की महान धारणा दी। फ्रांस की राज्य क्रांति कितने दिन तक बनी रह पायी ? बमुश्किल दो साल टिके रह पायी। इन दो सालों में उन्होंने जो काम किया उसकी सारी दुनिया आज भी ऋणी है। इसकी तुलना में सोवियत समाजवादी अक्टूबर क्रांति 60 साल तक रही और उसने जो काम किए उनका असर कुछ देशों में समाजवादी व्यवस्था के पराभव के बाबजूद सारी दुनिया में ज्यों का त्यों बना हुआ है। समाजवादी क्रांति ने जो अधिकार आदमी को दिए,जो शक्ति और संपदा दी वह अक्षुण्ण है। सिर्फ शक्ति संतुलन बदला है। क्रांतियां व्यर्थ नहीं जातीं। वे समाज में गहरे परिवर्तन के निशान छोड़ जाती हैं। समस्या यह है कि हम उन परिवर्तनों को सही परिप्रेक्ष्य में समझें । मजदूरवर्ग और सारी दुनिया का वंचित समाज अक्टूबर क्रांति के प्रति कृतज्ञ है उसने वंचितों और हाशिए के लोगों को जीने का नया मंत्र दिया। सामाजिक संघर्ष का नया विवेक दिया है और सबसे बड़ा विवेक यह दिया है कि पूंजीपतिवर्ग को पछाड़ना चाहते हो,पूंजीवादी समाज में सुखी रहना चाहते हो तो अपना संगठन बनाओ,संगठनबद्ध होकर जीना सीखो। मजदूरवर्ग और श्रम का सम्मान करना सीखो,मजदूरवर्ग कमजोर वर्ग नहीं है बल्कि सामाजिक परिवर्तन की धुरी है। -जगदीश्वर चतुर्वेदी

गुरुवार, 6 नवंबर 2025

जोहरान ममदानी ने न्यूयार्क मेयर चुने जाने के बाद अपने भाषण में देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के भाषण को दोहराया है

जोहरान ममदानी ने न्यूयार्क मेयर चुने जाने के बाद अपने भाषण में देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के भाषण को दोहराया है आपके लिए प्रस्तुत है संविधान सभा की कार्यवाही संविधान सभा में नेहरू का ऐतिहासिक भाषण आज गणतंत्र दिवस है। आजादी की लड़ाई के महत्वपूर्ण स्तंभ रहे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के उस भाषण को आज याद करने का दिन है, जो उन्होंने 14 अगस्त 1947 की रात को दिया था। आज उस प्रस्ताव को याद करने का दिन भी है जो उस रात नेहरू ने पेश किया था। संविधान सभा में नेहरू का ऐतिहासिक भाषण भारत की संविधान सभा का गठन 1946 में हुआ था. उस समय तक भारत विधिवत आज़ाद नहीं हुआ था. परंतु 14 अगस्त, 1947 को मध्य रात्रि में संविधान सभा ने आज़ाद भारत की सर्वोच्च शक्ति सम्पन्न संस्था के रूप में आज़ाद भारत की सत्ता ग्रहण की थी. वह क्षण हमारे देश का प्रसन्नता, आशाओं और आकांक्षाओं से भरपूर था. उस दिन ठीक रात्रि के 12 बजे संविधान सभा ने एक प्रस्ताव स्वीकार कर सत्ता के हस्तांतरण को स्वीकार किया था. ठीक रात्रि के 12 बजे संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने एक अत्यधिक महत्वपूर्ण शपथ सदस्यों को दिलाई थी और उसी के माध्यम से देश की सत्ता संचालन का अधिकार संविधान सभा में निहित किया गया था. उसी रात्रि संविधान सभा ने यह भी तय किया था कि लार्ड माउंटबैटन आज़ाद भारत के प्रथम गवर्नर जनरल होंगे. उसी रात्रि दो और महत्वपूर्ण घटनाएं घटी थीं. संविधान सभा ने हमारे देश के राष्ट्रध्वज को स्वीकार किया था. उस ध्वज को संविधान सभा की महिला सदस्यों ने विधिवत रूप से संविधान सभा के अध्यक्ष को सौंपा था. उसी रात श्रीमती सुचिता कृपलानी ने संविधान सभा में डॉ. इकबाल द्वारा रचित सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा और रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित राष्ट्र गीत जन गण मन गाया था. उस रात्रि संविधान सभा की विशेष बैठक सर्वप्रथम आज़ादी के आंदोलन के शहीदों को श्रद्धाजंलि के साथ प्रारंभ हुई थी. श्रद्धाजंलि के बाद संविधान सभा के अध्यक्ष ने पंडित जवाहरलाल नेहरू से उस प्रस्ताव को पेश करने का अनुरोध किया, जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज बनकर रह गया. पंडित नेहरू ने अपने भाषण का प्रारंभ करते हुए कहा था कि वर्षों पूर्व हमने नियति से एक वादा किया था. हमने एक शपथ ली थी, एक प्रतिज्ञा ली थी. आज उस प्रतिज्ञा को पूरा करने का अवसर आ गया है. शायद वह प्रतिज्ञा अभी सही मायने में पूरी नहीं हुई है परंतु उसकी पूर्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम आज उठाया है. कुछ ही क्षणों में यह सभा एक पूर्ण रूप से स्वतंत्रत एवं आत्मनिर्भर सभा का रूप ले लेगी और एक आज़ाद मुल्क के प्रतिनिधि के रूप में अपने उत्तरदायित्वों को निभाएगी. हमारे ऊपर बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां आ गई हैं. यदि हम इन ज़िम्मेदारियों के महत्व को नहीं समझेंगे तो हम अपने कर्तव्यों का निर्वहन ठीक से नहीं कर पाएंगे. इसलिए हम जो शपथ आज ले रहे हैं उसके असली अर्थ को समझना होगा. मैं जो प्रस्ताव अभी पेश कर रहा हूं वह उसी शपथ का हिस्सा है. सच पूछा जाए तो आज हमारे संघर्ष का पहला अध्याय समाप्त हुआ और आज प्रसन्नता का अवसर है. हमारे हृदय प्रफुल्लित हैं. ये हमारे गर्व और संतोष के क्षण हैं. परंतु हमें यह भी भी महसूस हो रहा है कि संपूर्ण देश इन खुशियों को मनाने की स्थिति में नहीं है. भारी संख्या में लोगों के दिल दुःखी हैं. दिल्ली के आसपास चारों तरफ आग लगी हुई है और उसकी आंच इस सभा के भीतर भी महसूस हो रही है. इसलिए हमारी यह प्रसन्नता अधूरी है. इन प्रतिकूल परिस्थितियों का हमें साहस के साथ सामना करना होगा. घबराने और निराशा से काम नहीं चलेगा. अब शासन की लगाम हमारे हाथ आ गई है. अब हमें अपने कर्तव्यों को ज़िम्मेदारी से निभाना है. अनेक देशों ने आज़ादी खून-खराबे के बाद ही हासिल की है. हमारे देश में भी बहुत खून बहा है और इसका हमें दर्द है. इसके बावजूद हम यह कहने की स्थिति में हैं कि आज़ादी शांतिपूर्ण तरीकों से हासिल हुई है. दुनिया के सामने हमने एक अद्भुत आदर्श पेश किया है. हम आज़ाद तो हो गए हैं परंतु आज़ादी के साथ-साथ हमारी ज़िम्मेदारियां भी बढ़ी हैं. हमें उनका सामना करना है. वर्षों पहले देखा सपना आज पूर्ण हो रहा है. विदेशी शासकों को भगाकर आज़ादी हासिल करने की मंजिल पर हम पहुंच गए हैं. परंतु अकेले विदेशी शासकों को भगा देने से हमारा सपना पूरा नहीं होता है. हमें ऐसा वातावरण बनाना है जिसमें इस देश के लोगों के दुःख दर्द समाप्त हो जाए और वे सब आज़ादी के वातावरण में सांस ले सकें. यह बहुत की बड़ा महत्वाकांक्षी इरादा है परंतु हमें पूरा करना ही होगा. समस्याएं इतनी गंभीर हैं कि उनके बारे में सोचकर ही हमारा हृदय कांपने लगता है. परंतु हमें यह सोचकर हिम्मत आती है कि हमने इसी प्रकार की समस्याओं का सामना किया है. आज हममें करने की इच्छा शक्ति है. हम उन तमाम मुसीबतों का, उन तमाम दिक्कतों का सामना करने के लिए तैयार हैं. हम अब आज़ाद हैं. यह तो ठीक है परंतु जब हम आज़ाद हो रहे हैं तो हमें यह महसूस करना चाहिए कि यह देश किसी समूह, पार्टी या जाति का नहीं है. किसी एक धर्म के मानने वालों का भी नहीं है. यह सब का है चाहे उसका धर्म या जाति कोई भी हो. हमारी आज़ादी कैसी होगी यह हम अनेक बार परिभाषित कर चुके हैं. इस संविधान सभा के उद्घाटन के अवसर पर भी मैंने एक प्रस्ताव पेश किया था जिसमें वादा किया था कि इस देश की आज़ादी सब के लिए है. आज़ाद भारत में सभी नागरिकों के अधिकार बराबर होंगे. आज़ाद भारत में हम किसी का शोषण नहीं होने देंगे और हम शोषितों के साथ खड़े रहेंगे. यदि हम इस रास्ते पर चलेंगे तो बड़ी से बड़ी समस्याओं का हल ढूंढ लेंगे. परंतु यदि हम संकुचित हो जाएंगे तो भटक जाएंगे. इसके बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने वह ऐतिहासिक प्रस्ताव पेश किया जो आने वाली सदियों में भी हमारे देश के इतिहास में स्वर्णअक्षरों में लिखा रहेगा. प्रस्तावः “वर्षों पहले हमने भाग्य से यह वादा किया था और अब समय आ गया है कि वह प्रतिज्ञा पूरी हो रही है. आज ठीक जब घड़ी में रात्रि के 12 बजेंगे, जब सारी दुनिया सो रही होगी तब भारत आज़ाद होकर जागेगा. “इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं पर बहुत कम आते हैं जब हम पुराने को त्याग कर नये में प्रवेश करते हैं. जब वर्षों के शोषण के बाद वाणी मिलती है. यह सही है कि हम स्वयं को देश और मानवता की सेवा के लिए अर्पित कर रहे हैं. जब मानवीय सभ्यता का उदय हुआ था तभी से हमारा देश उस मंजिल की ओर बढ़ चला था और सदियों उस मंजिल को प्राप्त करने का प्रयास करता रहा और उस मंजिल को प्राप्त करने में उसे सफलताएं और असफलताएं दोनों मिलती रहीं. इन तमाम पिछली सदियों में भारत अपने आदर्शों से विमुख नहीं हुआ. आज वह समय आ गया है कि जब हमारे इतिहास का वह काला अध्याय समाप्त हो गया है. आज हम उस दिशा में कदम रख रहे हैं जब अनेक सफलताएं हमारा रास्ता देख रही है और हम पूर्ण साहस के साथ आने वाली चुनौतियों का मुकाबला करेंगे. आज़ादी और सत्ता अपने साथ जिम्मेदारियां भी लाती हैं. इस सदन के ऊपर, यह सदन जो कि एक सार्वभौमिक सदन है और जो इस देश की स्वतंत्र जनता का प्रतिनिधि है उसके ऊपर भी बहुत गंभीर जिम्मेदारियां आ पड़ी हैं. आज़ादी के आंदोलन के दौरान हमने अनेक मुसीबतों का सामना किया. अनेक तरह की यातनाएं झेली वह सब आज भी हमारी स्मृति पटल पर कायम है. परंतु हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अतीत के दिन लद गए हैं और भविष्य हमारा इंतजार कर रहा है. भविष्य भी कांटों से परिपूर्ण है. इस देश में हमें अपने देशवासियों की सेवा करना है. उन देशवासियों की जो करोड़ों की संख्या में आज भी विभिन्न प्रकार के अभावों की जिंदगी जी रहे हैं. हमें करोड़ों लोगों की गरीबी, अज्ञानता और असमानता को दूर करना है. हमारी पीढ़ी के महानतम व्यक्ति की आकांक्षा इस देश के हर निवासी के आंसू पोंछने की है. यह बहुत ही महत्वाकांक्षी कार्य है परंतु हमें इसे करना होगा. और आज हमें इसे हासिल करने की प्रतिज्ञा करना होगी. हमें अपने सपनों को साकार करने के लिए कड़ा परिश्रम करना होगा. यह सपने हमारे देश ही नहीं बल्कि संपूर्ण देशों के लिए हैं. दुनिया के सभी निवासियों के लिए है. हमें आज के इस प्रसन्नता के क्षण में इस बात को भी महसूस करना है कि दुनिया का कोई भी राष्ट्र अलग-थलग रह कर जिंदा नहीं रह सकता है. दुनिया के लिए शांति आवश्यक है. शांति, आज़ादी और प्रगति यह सब अविभाज्य मूल हैं. “आज इस अवसर पर हम भारत के निवासियों को, जिनके हम प्रतिनिधि हैं, यह अपील करते हैं कि वे हममें पूरा भरोसा कर हमारे साथ चले. आज यह अवसर आलोचना का नहीं हैं, बुराईयों का नहीं है. एक दूसरे पर दोषारोपण का नहीं है. हमें आज़ाद भारत के भव्य भवन का निर्माण करना है. ऐसा भव्य जिसमें सब सुख और शांति की सांस ले सकें”. इसके बाद संविधान सभा के सभी उपस्थित सदस्यों ने आधी रात को खड़े होकर तालियां की गड़गड़ाहट के बीच पंडित नेहरू द्वारा पेश किए गए इए प्रस्ताव को स्वीकार किया. उसके बाद संविधान सभा में दो और महत्वपूर्ण भाषण हुए थे. उनमें से एक डॉ. राधाकृष्णन का था, जो बाद में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के बाद देश के राष्ट्रपति बने थे. डॉ. राधाकृष्णन ने अपने भाषण में कहा कि जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश किया गया यह प्रस्ताव हमारे देश के प्राचीन एवं लंबे इतिहास का एक मील का पत्थर है. लंबी अंधेरी रातों के इंतजार के बाद हमने स्वतंत्रता का सूरज उगते देखा है. हम गुलामी से आज़ादी की मंजिल पर पहुंच गए हैं. डॉ. राधाकृष्णन ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली के शब्दों का उल्लेख करते हुए कहा “शायद ही दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण मिलेगा जब एक शक्तिशाली साम्राज्यवादी सत्ता ने उस देश को आज़ादी दी हो जिस पर उसने दो सदियों तक राज किया हो. आज डच, इंडोनेशिया से चिपके रहना चाहते हैं और फ्रांस उन देशों से हटने को तैयार नहीं जहां उनकी अभी भी सत्ता कायम है. इस संदर्भ में जो कुछ हमने (ब्रिटेन ने) किया है वह अद्भुत, अप्रत्याशित एवं ऐतिहासिक है”. उन्होंने (डॉ. राधाकृष्णन) आज़ाद भारत के उत्तरदायित्वों की चर्चा करते हुए कहा कि हमें आज़ाद भारत में घृणा से छुटकारा पाना होगा. असहिष्णुता इंसान का सबसे बड़ा दुर्गुण है. हमें एक दूसरे के विचारों को समझने और सहने की आदत डालना होगी. डॉ. राधाकृष्णन ने अपने भाषण में इस बात का उल्लेख किया कि यह हमारा सौभाग्य है कि हमने आज़ादी का आंदोलन एक ऐसे व्यक्तित्व के नेतृत्व में लड़ा जो हर दृष्टि से विश्व का नागरिक है. जो इंसानियत का जीता जागता प्रतीक है. महात्मा गांधी हमारे देश में सदियों पुरानी परंपराओं के प्रतीक हैं उनमें उसी सभ्यता का नेतृत्व किया है जो भारत के लिए सदियों से रास्ता दिखाती रही है. उसी महान भारत के रूप में हम आज आज़ाद हो रहे हैं और हमें आज इस बात को याद रखना है कि आज़ाद भारत के रूप में अपना कल्याण ही नहीं बल्कि विश्व का कल्याण करेंगे. और समस्त विश्व के निवासियों की सुरक्षा और प्रगति के लिए संघर्षरत रहेंगे. डॉ. राधाकृष्णन ने ऐतिहासिक वक्तव्य के बाद समस्त सदस्य अपनी सीटों के पास खड़े हो गए और रात्रि के 12 बजे का इंतजार करते रहे. घड़ी में 12 बजे ही संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरू के द्वारा तैयार किया गया प्रस्ताव सदन के समक्ष रखा जो पारित किया गया. उसके बाद सदन ने यह तय किया कि अंग्रेज़ साम्राज्यवाद के प्रतिनिधि लार्ड माउंटबेटन को विधिवत सूचना दी जाए कि अब भारत आज़ाद हो गया है और इस संविधान सभा ने आज़ाद भारत की सत्ता संभाल ली है. उन्हें यह भी सूचित किया जाए कि संविधान सभा ने उन्हें आज़ाद भारत के प्रथम गवर्नर जनरल के रूप में नियुक्त किया है और यह भी निर्णय लिया गया है कि इस प्रस्ताव की सूचना पंडित जवाहरलाल नेहरू और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, लार्ड माउंट बेटन को विधिवत रूप से पेश करें. इसके बाद संविधान सभा के अध्यक्ष को देश की समस्त महिलाओं की ओर से आज़ाद भारत का झंडा पेश किया गया. इस झंडे को श्रीमती सरोजनी नायडू, जिन्हें भारत कोकिला के नाम से जाना जाता था को पेश करना था परंतु किन्हीं कारण से उनकी अनुपस्थिति में श्रीमती हंसा मेहता ने यह उत्तरदायित्व निभाया. आज़ाद भारत के झंडे को देते हुए उन्होंने कहा कि मैं यह महान उत्तरदायित्व भारत की समस्त महिलाओं की ओर से पूरा कर रही हूं. यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि यह झंडा जो आज़ाद भारत के आकाश में लहराएगा महिलाओं की ओर से समर्पित किया जा रहा है. उन्होंने इस बात की उम्मीद प्रकट की कि यह झंडा हमारे देश की स्वाधीनता, सार्वभौमिकता के प्रतीक के रूप में लहराया रहेगा और आज़ाद भारत के निवासियों की हर दृष्टि से सेवा करने का अवसर देगा. इसके बाद उस समय भारत स्थित चीनी राजदूत द्वारा लिखित एक कविता के प्रति आभार प्रकट करते हुए उसे स्वीकार किया गया. उस रात्रि को सदन की कार्यवाही समाप्त करने से पूर्व श्रीमती सुचित कृपलानी ने सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा और जन गण मन का गायन किया. (उसके बाद सदन की कार्यवाही अगले दिन 15 अगस्त को 10 बजे तक के लिए स्थगित की गई).

इंडियन एसोसिएशन आफ लायर्स के राष्ट्रीय महासचिव वाई एस लोहित को सीनियर अधिवक्ता घोषित किए जाने पर हार्दिक बधाई

इंडियन ए आफ लायर्स के राष्ट्रीय महासचिव वाई एस लोहित को सीनियर अधिवक्ता घोषित किए जाने पर हार्दिक बधाई वाई एस लोहित जिनका पूरा नाम यादुकुल शिरोमणि श्रीवास्तव है, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक प्रतिष्ठित वकील हैं। वह एक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं और इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में वकालत करते हैं। वरिष्ठ पद: हाल ही में (नवंबर 2025 में), उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 89 अन्य वकीलों के साथ वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किया गया है। अनुभव: उनके पास वकालत के क्षेत्र में लगभग 47 वर्षों का अनुभव है और उनका कार्यालय लखनऊ के इंदिरा नगर में स्थित है। प्रमुख मामले: वह विभिन्न कानूनी मामलों में याचिकाकर्ताओं और प्रतिवादियों की ओर से अदालत में पेश हुए हैं, जिनमें सेवा मामले (service matters) और अन्य रिट याचिकाएं शामिल हैं।

बुधवार, 5 नवंबर 2025

न कोई हिन्दू न कोई मुसलमान - गुरु नानक देव

गुरु नानक देव जी का जन्म इस दिन विश्व में सभी मनुष्यों के बीच सद्भाव स्थापित करने के लिए हुआ था। 5 नवंबर को गुरु नानक देव जी के जन्मदिन, जिसे प्रकाश पर्व के रूप में भी जाना जाता है, के रूप में मनाए जाने वाले इस पावन कार्तिक पूर्णिमा पर विनम्र अभिवादन। साढ़े पाँच शताब्दियों से भी पहले, गुरु नानक देव जी ने जाति और धार्मिक संघर्षों के खिलाफ आवाज उठाई थी। अपने 70 साल के जीवनकाल में, उन्होंने सत्य और मानवीय एकता को जगाने के लिए मक्का और मदीना से लेकर वाराणसी, बंगाल, असम और पूरे भारत की यात्रा की। फिर भी आज, 550 साल बाद भी, विभाजन कायम है। उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उनके बताए रास्ते पर चलकर सांप्रदायिकता, जातिवाद और सभी प्रकार की असमानता के खिलाफ काम किया जाए। अपना पूरा जीवन जाति और सांप्रदायिक भेदभाव से लड़ने के लिए समर्पित करने के बावजूद, जाटों, खत्रियों और दलितों के लिए अभी भी अलग गुरुद्वारे मौजूद हैं। दुख की बात है कि जातिगत उत्पीड़न से बचने के लिए इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने वालों को भी अलगाव का सामना करना पड़ता है—दलित चर्च मौजूद हैं, और मुसलमानों के भीतर अशरफ और अजलाफ जैसे विभाजन जारी हैं। बिहार के कार्यकर्ता अली अनवर इस मुद्दे पर 25 वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं। एक मराठी कहावत है, "जाति कभी नहीं जाती।" महावीर, बुद्ध, गुरु नानक, ज्योतिबा फुले और डॉ. बी. आर. अंबेडकर जैसे महान सुधारकों ने जाति को समाप्त करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया, लेकिन आज संसदीय राजनीति पूरी तरह से धर्म और जाति के इर्द-गिर्द घूमती है, जैसे एक बैल तेली के कोल्हू में अंतहीन चक्कर लगाता रहता है। इस प्रकाश पर्व पर, यदि हम वास्तव में गुरु नानक देव जी का सम्मान करते हैं, तो हमें इन जंजीरों को तोड़कर आगे बढ़ना चाहिए। गुरु नानक देव जी ने कहा था कि हिंदू धर्म की पदानुक्रमित जाति व्यवस्था नैतिक पतन का लक्षण है। तपस्वी दस संघों में, योगी बारह में, जैन दिगंबर और श्वेतांबर जैसे संप्रदायों में विभाजित हो गए, और यहां तक ​​कि विद्वान भी पवित्र ग्रंथों की व्याख्याओं को लेकर झगड़ते रहे। कई संप्रदाय उभरे, प्रत्येक एक दूसरे से टकराते रहे। कुछ जादू के पीछे भागे, कुछ अमरता के पीछे, और कई भ्रष्टाचार में डूब गए। सत्य अनगिनत टुकड़ों में विखंडित हो गया। भ्रम में फंसकर लोगों ने ईमानदारी खो दी। जब पैगंबर मुहम्मद अपने साथियों के साथ आए, तो उनके अनुयायी भी कई संप्रदायों में विभाजित हो गए और नए-नए रीति-रिवाज जोड़ दिए। इस्लाम भी आंतरिक रूप से विभाजित हो गया। इस प्रकार, हिंदू और मुसलमान, दोनों ही अहंकार और अहंकार के कारण संप्रदायों में विभक्त हो गए। जहाँ गंगा और वाराणसी हिंदुओं के लिए पवित्र हो गए, वहीं मक्का और मदीना मुसलमानों के लिए पवित्र हो गए। हिंदुओं ने जनेऊ पर ज़ोर दिया, मुसलमानों ने खतना पर। फिर भी राम और रहीम एक ही हैं, एक ही ईश्वर की ओर संकेत करते हैं। वेद और कुरान को भूलकर, लोग लालच और अहंकार से प्रेरित होकर रीति-रिवाजों को लेकर झगड़ने लगे। ऐसी दुनिया में, जैसा कि गुरु नानक ने कहा था, "लोगों की पुकार सुनकर, सृष्टिकर्ता ने गुरु नानक को दुनिया में भेजा।" बेईं नदी में ध्यान करने के बाद, उन्होंने घोषणा की, "न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान"—इस प्रकार मानव एकता स्थापित करने के उनके दिव्य मिशन की शुरुआत हुई। व्यापक रूप से यात्रा करते हुए, उन्होंने उपदेश दिया कि सच्चा धर्म कर्मकांड और संप्रदायवाद से परे है और सभी मनुष्य भाई हैं। उनका उद्देश्य धर्मों का विलय करना नहीं, बल्कि उनके आचरण को शुद्ध करना था—हर धर्म के अनुयायियों से सत्य के मार्ग पर चलने का आग्रह करना। पाँच शताब्दियों बाद, महात्मा गांधी ने अपनी प्रार्थना "रघुपति राघव राजा राम, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम" के साथ इस दर्शन को प्रतिध्वनित किया। एक सच्चा मुसलमान कौन है, यह पूछे जाने पर, गुरु नानक ने उत्तर दिया, "स्वयं को सच्चा मुसलमान कहलाना सबसे कठिन है।" एक सच्चा मुसलमान वह है जो आंतरिक अशुद्धता को नष्ट करता है, विनम्रतापूर्वक ईश्वर की आज्ञा का पालन करता है, और जन्म-मृत्यु से परे रहता है। उन्होंने कहा, "प्रेम की मस्जिद बनाओ, ईमान को अपनी प्रार्थना की चटाई बनाओ, और ईमानदारी को अपना कुरान बनाओ। करुणा को अपना खतना और अच्छे कर्मों को अपना उपवास बनाओ।" सच्ची प्रार्थना शब्द नहीं, बल्कि कर्म हैं: सत्य, ईमानदार श्रम, सभी प्राणियों की सेवा, ईमानदारी और ईश्वर के प्रति समर्पण। जो इन्हें अपनाता है, वह सच्चा पवित्र बन जाता है। सामान्य लोगों के लिए, हिंदू धर्म और इस्लाम अलग-अलग और असंगत प्रतीत होते हैं। लेकिन गुरु नानक ने सिखाया कि यदि घृणा का त्याग कर दिया जाए, तो दोनों मार्ग आध्यात्मिक मुक्ति के एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं: "जो इसे जानता है, उसके लिए दोनों मार्ग एक हैं।" केवल वे ही पूर्णता प्राप्त करते हैं जो एकता देखते हैं। गुरु नानक ने कहा, "यद्यपि मार्ग दो हैं, परन्तु प्रभु एक ही है। सभी रूपों में उसे पहचानो; केवल एक की ही आराधना करो।" -डॉ. सुरेश खैरनार

सरकार चुनाव में मस्त उ प्र मिर्जापुर में ट्रेन से कटे 8 श्रद्धालु:कार्तिक स्नान के लिए गंगा घाट जा रहे थे

सरकार चुनाव में मस्त उ प्र मिर्जापुर में ट्रेन से कटे 8 श्रद्धालु:कार्तिक स्नान के लिए गंगा घाट जा रहे थे घायलों को नजदीकी अस्पताल में भर्ती कराया गया। हादसे में मारे गए ज्यादातर श्रद्धालु वाराणसी में कार्तिक पूर्णिमा स्थान के लिए जा रहे थे। हादसा बुधवार सुबह साढ़े नौ बजे चुनार रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर-3 पर हुआ। बताया जा रहा है कि चोपन से आने वाली पैसेंजर प्लेटफॉर्म 4 पर आई थी। यहां से श्रद्धालु उतरकर ट्रैक पार करने लगे। प्लेटफॉर्म नंबर 3 पर जैसे ही पार करके ट्रैक पर उतरे। इसी दौरान कालका एक्सप्रेस ट्रैक से गुजरी। उसका स्टॉपेज नहीं था। श्रद्धालु भाग पाते उसके पहले ही ट्रेन की चपेट में आ गए। शवों के चीथड़े उड़ गए। हालांकि, रेलवे ने अभी मौत के आंकड़ों को लेकर कोई ऑफिशियल जानकारी नहीं दी।

जन्मदिन पर पाकिस्तान में पहला तख्तापलट कराने की कोशिश करने वाले कम्युनिस्ट नेता सज्जाद जहीर

जन्मदिन पर पाकिस्तान में पहला तख्तापलट कराने की कोशिश करने वाले कम्युनिस्ट नेता सज्जाद जहीर पाकिस्तान की पहली कम्युनिस्ट पार्टी वास्तव में भारत में ही बनी थी (!)। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) का मानना ​​था कि 1947 में भारत के विभाजन के समय देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था की नाज़ुक प्रकृति को देखते हुए, नव-निर्मित देश (पाकिस्तान) कम्युनिस्ट क्रांति के लिए पूरी तरह तैयार था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने कई मुस्लिम सदस्यों (मार्क्सवादी बुद्धिजीवी सज्जाद ज़हीर के नेतृत्व में) को श्रमिक नेताओं, छात्रों और वामपंथी राजनेताओं के साथ संबंध बढ़ाने और पाकिस्तान में कम्युनिस्ट क्रांति के लिए जमीन तैयार करने के उद्देश्य से पाकिस्तान भेजा। ज़हीर ने 1948 में कोलकाता में पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी (CPP) का गठन किया और फिर पार्टी को पाकिस्तान स्थानांतरित कर दिया। पार्टी ने देश के दोनों हिस्सों (पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान) में खुद को संगठित करना शुरू कर दिया। समान रूप से दिलचस्प बात यह है कि हालांकि सीपीपी कम्युनिस्ट विद्रोह पैदा करने के उद्देश्य से औद्योगिक श्रमिकों और किसानों को संगठित करने में सक्रिय थी, लेकिन उसने मेजर जनरल अकबर खान की सैन्य तख्तापलट की महत्वाकांक्षी योजना में में शामिल होकर पाकिस्तान में क्रांतिकारी प्रक्रिया को तेज करने की कोशिश की। अकबर तुर्की के कमाल अतातुर्क के भी बड़े प्रशंसक थे और सभाओं में सरकार के ख़िलाफ़ अपनी भड़ास निकालते रहते थे। उनकी दोस्ती सज्जाद ज़हीर और कुछ मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों और प्रगतिशील कवियों (जैसे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़) से हो गई थी, जिनके साथ उन्होंने 'प्रगतिशील-राष्ट्रवादी तख्तापलट' करने के अपने विचार पर चर्चा शुरू की। सेना और पुलिस से कुछ अधिकारियों की भर्ती करने के बाद, अकबर ने सीपीपी में अपने दोस्तों से संपर्क किया और उनसे सीपीपी और उस समय प्रगतिशील/वामपंथी छात्र समूहों, मज़दूर संघों और बुद्धिजीवियों पर पार्टी के प्रभाव के ज़रिए अपनी तख्तापलट के बाद की सरकार को सुव्यवस्थित करने में मदद मांगी। हालाँकि, 1951 में अकबर द्वारा भर्ती किए गए कुछ अधिकारियों ने सारी बातें उजागर कर दीं और अकबर की तख्तापलट की योजना को सरकार और सेना ने शुरू में ही नाकाम कर दिया। अकबर, उनकी पत्नी, कवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और दर्जनों अधिकारियों और सीपीपी सदस्यों (सज्जाद ज़हीर सहित) को गिरफ्तार कर लिया गया, उन पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें जेल में डाल दिया गया। सीपीपी पर प्रतिबंध लगा दिया गया। हालाँकि शुरुआत में उन्हें लंबी जेल की सज़ा दी गई, लेकिन 1950 के दशक के मध्य तक असफल तख्तापलट करने वालों को माफ़ कर दिया गया। सज्जाद ज़हीर और उनके साथ भारत से आए लोगों को वापस भारत भेज दिया गया।

मंगलवार, 4 नवंबर 2025

मोदी योगी युग के हिन्दू रत्न -

मोदी योगी युग के हिन्दू रत्न - DSP ऋषिकांत शुक्ला के पास मिली 100 करोड़ की संपत्ति, 10 साल में घर भर लिया (Kanpur में लंबे समय तक तैनात रहे DSP Rishikant Shukla के पास करीब 100 करोड़ की संपत्ति होने की बात सामने आई है. SIT जांच में पता चला है कि शुक्ला, कानपुर के चर्चित वकील Akhilesh Dubey के बेहद करीबी थे और आरोप है कि उन्हीं के सहयोग से यह संपत्ति बनाई.) उत्तर प्रदेश के कानपुर (Kanpur) नगर में लंबे समय तक दरोगा के पद पर तैनात रहे ऋषिकांत शुक्ला को सस्पेंड कर दिया गया है. अभी तक, ऋषिकांत शुक्ला मैनपुरी जिले में DSP के पद पर तैनात थे. SIT जांच में उनके पास करीब 100 करोड़ की संपत्ति होने की बात सामने आई है. जांच में पता चला है कि शुक्ला, कानपुर के चर्चित वकील अखिलेश दुबे (Akhilesh Dubey) के बेहद करीबी थे और उन्हीं के सहयोग से यह संपत्ति बनाई. आजतक की रिपोर्ट के मुताबिक, ऋषिकांत शुक्ला करीब 10 सालों तक कानपुर नगर में दरोगा के पद पर तैनात रहे. साल 1998 से 2006 तक और फिर दिसंबर 2006 से 2009 तक. इसी दौरान कानपुर के चर्चित वकील अखिलेश दुबे से उनकी नजदीकियां बढ़ीं. आरोप है कि अखिलेश दुबे के साथ मिलकर फर्जी मुकदमे दर्ज करने, जबरन वसूली और जमीन कब्जाने में ऋषिकांत शुक्ला भी शामिल रहे. बताते चलें कि अखिलेश दुबे जेल में बंद हैं. उन पर झूठे पॉक्सो के मुकदमे दर्ज कराकर लोगों से करोड़ों रुपयों की रंगदारी वसूलने का आरोप है. पिछले महीने ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया, जिसके बाद उनका साथ देने वाले पुलिस अधिकारियों की भी कुंडली खंगाली जाने लगी. इसमें शुक्ला का नाम भी सामने आया. पुलिस कमिश्नर, कानपुर नगर द्वारा दी गई रिपोर्ट में बताया गया है कि अखिलेश दुबे पर शहर में एक गिरोह बनाकर फर्जी मुकदमे दर्ज कराने, जबरन वसूली करने और जमीन कब्जाने का आरोप है. जांच में यह भी खुलासा हुआ कि दुबे का कुछ पुलिस अधिकारियों और अन्य विभागों से भी गठजोड़ है. ‘100 करोड़ की अवैध संपत्ति’ स्पेशल इंवेस्टिगेशन टीम (SIT) की जांच में सामने आया है कि शुक्ला ने अपने परिवार, साझेदारों और करीबी साथियों के नाम पर करीब 100 करोड़ रुपये की संपत्ति खड़ी की है. इनमें आर्यनगर की 11 दुकानें भी शामिल हैं, जो कथित रूप से उनके सहयोगी देवेंद्र दुबे के नाम पर बेनामी संपत्ति के रूप में दर्ज हैं. SIT जांच में मिली संपत्तियां, ऋषिकांत शुक्ला की घोषित आय से कई गुना ज्यादा कीमत की हैं. जांच रिपोर्ट में 12 संपत्तियों की बाजार कीमत करीब 92 करोड़ रुपये आंकी गई है, जबकि अन्य तीन संपत्तियों के दस्तावेज उपलब्ध नहीं हो सके हैं. मामले की गंभीरता को देखते हुए अपर पुलिस महानिदेशक (ADG) (प्रशासन) ने पुलिस महानिदेशक (DGP), उत्तर प्रदेश को पत्र भेजकर मांग की है कि DSP शुक्ला के खिलाफ सतर्कता (विजिलेंस) जांच की जाए. जांच पूरी होने के बाद आगे की कानूनी कार्रवाई की जाएगी.(लल्लन टॅाप)

भारत में पुलिस मुठभेड़ हत्याओं के पीछे की राजनीति

भारत में पुलिस मुठभेड़ हत्याओं के पीछे की राजनीति सौरव दास (मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट) 1993 की एन.एन. वोहरा समिति की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि आपराधिक गिरोह—जिन्हें राजनेताओं, पुलिस अधिकारियों और नौकरशाही के कुछ वर्गों द्वारा पोषित और संरक्षित किया जाता है—इतनी गहराई से जड़ें जमा चुके हैं कि वे भारत के कई हिस्सों में एक समानांतर शासन व्यवस्था चला रहे हैं। समिति ने अध्ययन किया कि कैसे गिरोह ज़मीन हड़पने और जबरन वसूली जैसी अवैध गतिविधियों के ज़रिए धन इकट्ठा करते हैं, फिर ताकत और राजनीतिक प्रभाव हासिल करते हैं, जिससे राज्य और संगठित अपराध के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है। इसे भारत के विभिन्न हिस्सों में पुलिस मुठभेड़ हत्याओं की हालिया बाढ़ के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जिनमें उत्तर प्रदेश (2017 से 256), पंजाब (इस साल कम से कम पाँच), और तमिलनाडु (2021 से कम से कम 21) शामिल हैं। 23 अक्टूबर को दिल्ली के रोहिणी इलाके में हुई पुलिस गोलीबारी अपराध को "खत्म" करने के इन न्यायेतर तरीकों में से नवीनतम थी। बिहार के चार मोस्ट वांटेड गैंगस्टर मारे गए। मारे गए ये अपराधी, कथित तौर पर सुपारी किलर थे, जिनका नेतृत्व 25 वर्षीय रंजन पाठक कर रहा था, जिसने 19 साल की उम्र में अपराध की दुनिया में कदम रखा था। ये कुख्यात "सिग्मा एंड कंपनी" गिरोह का हिस्सा थे जिसने हाल के महीनों में बिहार के सीतामढ़ी ज़िले में आतंक फैलाया था। खुफिया सूचनाओं से संकेत मिलता है कि वे आगामी बिहार विधानसभा चुनाव से पहले "हाई-प्रोफाइल हमलों" की योजना बना रहे थे, जिसके चलते पुलिस ने तुरंत कार्रवाई की। रोहिणी मुठभेड़ और अन्य राज्यों में हुई मुठभेड़ों की बाढ़ अपराध और राजनीति के बीच एक गहरे और जड़ जमाए हुए गठजोड़ के लक्षण हैं। पुलिस उन अपराधियों के खात्मे का जश्न मना रही है जिन्हें वे "दुष्ट अपराधी" कहते हैं, लेकिन कुछ असहज सवाल अभी भी बने हुए हैं। 20 से ज़्यादा सुपारी किलरों के एक गिरोह ने राज्य के चुनाव में खलल डालने की क्षमता कैसे हासिल कर ली? उनके उदय में किसने मदद की, और उन्हें रोकने के लिए न्यायेतर गोलीबारी की ज़रूरत क्यों पड़ी? ये जवाब एक ऐसी वास्तविकता की ओर इशारा करते हैं जहाँ गैंगस्टर और बाहुबली किसी राज्य के राजनीतिक परिदृश्य का अभिन्न अंग बन जाते हैं, और कमज़ोर शासन, राजनीतिक संरक्षण और जनता की सहमति के माहौल में फलते-फूलते हैं। इस व्यापक कुप्रथा के लक्षण उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पुलिस मुठभेड़ों के रूप में दिखाई देते हैं, जहाँ न्यायेतर हत्याओं को निर्णायक नेतृत्व के प्रमाण के रूप में पेश किया जाता है। हालाँकि, चिंताजनक बात यह है कि इस तरह के तरीके ऐतिहासिक रूप से बेहतर शासन परंपराओं से जुड़े राज्यों, जैसे तमिलनाडु, में भी घुस रहे हैं, जो दर्शाता है कि संवैधानिक मानदंडों का क्षरण न तो क्षेत्रीय है और न ही पक्षपातपूर्ण, बल्कि प्रणालीगत है। गठजोड़ और दंडमुक्ति गैंगस्टर शक्तिशाली संरक्षकों के बिना फल-फूल नहीं सकते। बिहार और उत्तर प्रदेश में, दशकों के साक्ष्य एक सक्रिय गठजोड़ को दर्शाते हैं जहाँ सत्तारूढ़ राजनेता चुनावों के दौरान धन और बाहुबल के बदले अपराधियों को बचाते हैं। उत्तर प्रदेश के गैंगस्टर विकास दुबे का मामला, जिसके खिलाफ अपने चरम पर हत्याओं सहित 60 मामले दर्ज थे, इस गतिशीलता का उदाहरण है। राजनीतिक संरक्षण से वह इतना दुस्साहसी हो गया था कि 2001 में उसने भाजपा के राज्य मंत्री संतोष शुक्ला की दिनदहाड़े एक पुलिस थाने के अंदर हत्या कर दी। उसका रसूख इतना था कि 25 प्रत्यक्षदर्शियों में से किसी ने भी अदालत में उसके खिलाफ गवाही देने की हिम्मत नहीं जुटाई। जुलाई 2020 में कानपुर मुठभेड़ में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के मुख्य आरोपी गैंगस्टर विकास दुबे को तीन राज्यों की पुलिस द्वारा लगभग एक हफ्ते तक की गई तलाशी के बाद मध्य प्रदेश के उज्जैन से गिरफ्तार किया गया। | वर्षों तक, दुबे और उसका परिवार स्थानीय चुनाव जीतता रहा और बहुजन समाज पार्टी से लेकर भाजपा तक, सभी दलों के साथ सौदेबाजी करता रहा। राजनीतिक समर्थन के बिना, कोई भी अपराधी इस तरह के कृत्य को अंजाम देने का दुस्साहस नहीं कर सकता। दुबे जैसे मामलों में, अदालत में न्याय का मार्ग अक्सर अवरुद्ध कर दिया जाता है। गवाह मुकर जाते हैं; दुबे के मामले में, यहाँ तक कि जाँच अधिकारी भी मुकर गया और उसे अचानक भूलने की बीमारी हो गई। ऐसी परिस्थितियों में अभियोजन पक्ष विफल हो जाता है। वर्षों बाद, अभियुक्त कानूनी अनिश्चितता से उबरता है, अक्सर पहले से ज़्यादा ताकतवर। ऐसी परिस्थितियों में अदालतें असहाय हो जाती हैं। यहाँ तक कि जब दोषसिद्धि हो भी जाती है, आमतौर पर राजनीतिक हवा बदलने के बाद, तब भी सज़ा टिक नहीं पाती। अप्रैल 2023 में, बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने राज्य के बिहार कारागार नियमावली, 2012 में फेरबदल करके हत्या के दोषी आनंद मोहन को सजा माफी के लिए आवेदन करने का पात्र बना दिया, जिससे लोगों में आक्रोश फैल गया। यह कदम पूरी तरह से राजनीतिक था, 2024 के आम चुनाव से ठीक एक साल पहले: सिंह राजपूतों, जो एक प्रमुख मतदाता समूह है, के बीच एक बड़ा समर्थक वर्ग है। हालाँकि मोहन उस अर्थ में "गैंगस्टर" नहीं है, लेकिन यह घटना इस बात को उजागर करती है कि राजनीतिक संरक्षण अपराधियों की किस हद तक मदद करता है। कम-ज्ञात गैंगस्टर, शायद सिग्मा गैंग की तरह, अक्सर चुनावों के दौरान राजनेताओं के लिए प्रवर्तक के रूप में काम करते हैं: मतदाताओं को डराना, दूरदराज के इलाकों में बूथों पर कब्जा करना, या विरोधियों पर हमला करना। बदले में, वे सुरक्षा की उम्मीद करते हैं। जैसा कि कई सेवानिवृत्त भारतीय पुलिस सेवा अधिकारियों ने रिकार्ड पर कहा है, एक बार जब उनका आकार और ताकत बढ़ जाती है, तो राज्य प्राधिकारियों के लिए उनका प्रबंधन करना कठिन हो जाता है। जो पुलिस अधिकारी बिना पॉलिटिकल सपोर्ट के इन नेटवर्क से लड़ने की कोशिश करते हैं, वे बहुत बड़े खतरे में पड़ जाते हैं: कुछ को मार दिया गया है या बदले की भावना से झूठे मामलों में फंसा दिया गया है। ऐसा भी होता है कि लोकल डॉन अपनी पकड़ वाले इलाकों में अपने दोस्त पुलिस वालों को रखने के लिए खुद पुलिस अधिकारियों को चुनते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि कानून का राज खत्म हो जाता है। दोधारी तलवार जब राज्य आखिरकार गैंगस्टर्स के खिलाफ कार्रवाई करता है, या तो इसलिए कि वे अब नेक्सस के लिए किसी काम के नहीं रहे या पॉलिटिकल सिस्टम में बदलाव के कारण, तो उन्हें पुलिस एनकाउंटर जैसे पब्लिक तमाशों में कानून के दायरे से बाहर निकालकर खत्म कर दिया जाता है। पाठक के गैंग को खत्म करने वाला आधी रात का एनकाउंटर इसका एक उदाहरण है: तेज़ और पक्का, लेकिन पूरी तरह से कोर्ट को बाईपास करते हुए। अधिकारी कहते हैं कि ऑपरेशन साफ-सुथरा था, कि संदिग्धों ने पहले गोली चलाई और जानलेवा बल प्रयोग ही एकमात्र ऑप्शन था। हर एनकाउंटर की घटना में यही स्क्रिप्ट दोहराई जाती है। हालांकि, अगर कोई ऑफिशियल कहानी को करीब से देखे - जैसा कि इस लेखक ने अगस्त 2024 में न्यू लाइन्स मैगज़ीन के लिए उत्तर प्रदेश में एनकाउंटर किलिंग्स पर एक इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट में किया था - तो यह जांच में मुश्किल से ही टिक पाती है। इनमें से हर मामला ऑफिशियली उसी स्क्रिप्ट को फॉलो करता है: "खूंखार अपराधी" या "पक्का अपराधी" ने हमला किया या भागने की कोशिश की, पुलिस ने आत्मरक्षा में गोली चलाई, कहानी खत्म। शायद ही कभी यह ट्रायल या डिटेल में, निष्पक्ष जांच तक पहुंचता है। राज्य की अपनी फोरेंसिक जांच रिपोर्ट, बैलिस्टिक रिपोर्ट और अन्य साइंटिफिक डॉक्यूमेंट्स, साथ ही गवाहों की गवाही और ध्यान से डॉट्स को जोड़ने वाली एक्सरसाइज से यह पता चलेगा कि इनमें से ज़्यादातर पुलिस एनकाउंटर पुलिस द्वारा किए गए सोचे-समझे, ठंडे खून के मर्डर थे - न कि उनके "अचानक हुए एनकाउंटर" के दावे के मुताबिक। स्पेशल टास्क फोर्स और फोरेंसिक टीमें 18 जुलाई, 2020 को कानपुर जिले में गैंगस्टर विकास दुबे के एनकाउंटर से जुड़ी घटनाओं को फिर से दोहराती हैं, जो मामले की चल रही जांच का हिस्सा है। जुलाई 2020 में गैंगस्टर दुबे की मौत, जब उसे आठ पुलिसकर्मियों की मौत के सिलसिले में गिरफ्तार करने के बाद ले जाया जा रहा था, तो यह उसे चुप कराने के लिए एक सोची-समझी हत्या थी, इससे पहले कि वह पुलिस और नेताओं के साथ अपने नेक्सस का खुलासा कर पाता। पुलिस ने कहा कि उसे ले जा रही पुलिस वैन एक एक्सीडेंट के बाद पलट गई और उसने भागने की कोशिश की और इसी दौरान उसे गोली मार दी गई - एक बेहद संदिग्ध कहानी। इन रेगुलर, प्लान किए गए एनकाउंटर के बावजूद, कोई खास जवाबदेही तय नहीं हुई है। नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन (NHRC) और कोर्ट सिर्फ़ कुछ सबसे गंभीर मामलों में ही दखल देते हैं, और तब भी, न्याय बहुत धीरे मिलता है। राज्यों में पुलिस कथित अपराधियों का एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल एनकाउंटर करती है, और उन्हें न्याय की जीत के तौर पर पेश करती है, खासकर तब जब किसी जघन्य अपराध के बाद लोगों में गुस्सा ज़्यादा होता है। फिर भी, ऐसा हर एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल एनकाउंटर राज्य के अपने क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम और गवर्नेंस पर अविश्वास का संकेत है। एनकाउंटर को नॉर्मल बनाना - या पुलिसिंग पर एक ऑफिशियल सरकारी पॉलिसी के तौर पर अपनाना - इस मैकेनिज्म को कुछ पुलिसवालों के लिए कमाई का ज़रिया बना रहा है। योगी आदित्यनाथ की सरकार के शुरुआती दिनों में इंडिया टुडे की एक इन्वेस्टिगेशन ने उनके पुलिसवालों द्वारा किसी को मारने के लिए तय किए गए रेट कार्ड का खुलासा किया था। तब से, उत्तर प्रदेश में हर दिन औसतन पांच एनकाउंटर हुए हैं। राज्य के अपने ही बयान के मुताबिक, 2017 और इस साल अक्टूबर के बीच 15,000 से ज़्यादा पुलिस एनकाउंटर में 256 "खूंखार अपराधी" मारे गए, और 10,324 से ज़्यादा लोग "हाफ-एनकाउंटर" में घायल हुए, जैसा कि स्थानीय तौर पर कहा जाता है, जिसमें आमतौर पर उन्हें अपाहिज करने के लिए घुटने में गोली मारी जाती है। इस प्रक्रिया में 31,960 अपराधियों को गिरफ्तार किया गया है। जैसा कि उत्तर प्रदेश में रिपोर्टिंग के मेरे अनुभव से पता चला है, पुलिस द्वारा मारे गए ज़्यादातर लोग या तो छोटे-मोटे अपराधों में शामिल थे या उनके आस-पास के इलाकों में शक्तिशाली लोगों से दुश्मनी थी, जो आमतौर पर अलग जाति के होते थे। यह सब एक ऐसे समाज के बैकग्राउंड में हो रहा है जो बहुत ज़्यादा क्रिमिनलाइज़्ड है, जहाँ राज्य की शक्ति और निजी दुश्मनी के बीच की रेखा धुंधली है, और जहाँ न्याय व्यवस्था की नाकामियों का फायदा पुलिस और स्थानीय अमीर लोग राज्य द्वारा मंज़ूर हिंसा के ज़रिए हिसाब बराबर करने के लिए उठाते हैं। कोर्ट की कोशिश सुप्रीम कोर्ट ने 2014 के पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ मामले में फर्जी एनकाउंटर पर रोक लगाने के लिए गाइडलाइंस जारी कीं: हर पुलिस फायरिंग की एक अलग राज्य एजेंसी द्वारा स्वतंत्र जांच की जानी चाहिए, तीन महीने के भीतर मजिस्ट्रेट जांच पूरी होनी चाहिए, और 24 घंटे के भीतर NHRC को तुरंत रिपोर्ट करना चाहिए। कागज़ पर, ये मज़बूत सुरक्षा उपाय लगते हैं। हालांकि, असल में, कोर्ट की गाइडलाइंस में अस्पष्ट भाषा के कारण इन्हें अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है या तोड़ा-मरोड़ा जाता है। हालांकि 2014 की PUCL गाइडलाइंस में कहा गया है कि एनकाउंटर में हुई हर मौत के बाद एक फर्स्ट इन्फॉर्मेशन रिपोर्ट (FIR) दर्ज की जानी चाहिए, लेकिन इसमें साफ तौर पर यह नहीं बताया गया है कि किसके खिलाफ FIR दर्ज की जाएगी। पुलिस फिर इस कमी का फायदा उठाकर मरे हुए व्यक्ति के खिलाफ FIR दर्ज कर देती है, यह कहते हुए कि उसने पुलिस अधिकारियों को मारने की कोशिश की थी। चूंकि आरोपी मर चुका होता है, इसलिए कोर्ट में क्लोजर रिपोर्ट फाइल कर दी जाती है, जिसे कोर्ट बिना किसी सवाल के मान लेता है। राजनीतिक नेता, अपनी तरफ से, अक्सर उन अधिकारियों को इनाम देते हैं जो एनकाउंटर में लोगों को मारते हैं, उन्हें पब्लिक सेफ्टी के हीरो बताते हैं, जैसा कि आदित्यनाथ ने किया है और जैसा कि बॉम्बे का इतिहास गवाह है। कुछ राज्यों में ऐसे "एनकाउंटर स्पेशलिस्ट" को तो गैलेंट्री मेडल और प्रमोशन भी दिए गए हैं - यह एक उल्टा इंसेंटिव स्ट्रक्चर है जो असल में एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल हत्याओं को बढ़ावा देता है। सुप्रीम कोर्ट अपने 2014 के दिशानिर्देशों में अस्पष्टता को दूर करने और एनकाउंटर हत्याओं की बढ़ती घटनाओं के खिलाफ सख्ती से कार्रवाई करने में विफल रहा है। यह एक परेशान करने वाला विरोधाभास पेश करता है: गैंगस्टरों से परेशान इलाकों में, जनता अक्सर इन तुरंत "एनकाउंटर न्याय" की घटनाओं की तारीफ करती है। जब दिल्ली में चार सिग्मा गैंग के सदस्यों को मारा गया, तो कई लोगों ने राहत की सांस ली होगी कि ये गुंडे अब उनकी सड़कों पर या आने वाले चुनाव में परेशान नहीं करेंगे। जनता की भावना को पूरी तरह से दोष देना मुश्किल है। दशकों से ढीली पुलिसिंग और सुस्त अदालतों से निराश होकर, कई लोग एनकाउंटर को सुरक्षा का शॉर्ट-कट मानते हैं: रिश्वत या धमकी से न्याय से बचने वाले गैंगस्टर से बेहतर है कि वह मरा हुआ हो। एनकाउंटर कल्चर असल में गैंगस्टर कल्चर का ही आईना है: यह इस सिद्धांत पर काम करता है कि 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' - कि राज्य कानून को तोड़ने वालों को खत्म करने के लिए कानून को सस्पेंड कर सकता है - यह एक असाधारण स्थिति है। हालांकि, ऐसा करके, राज्य अनजाने में गैंगस्टर के खुद के विजिलेंट जस्टिस के सिद्धांत को सही ठहराता है। आखिरकार, अगर पुलिस जरूरत पड़ने पर जज, जूरी और जल्लाद की तरह काम कर सकती है, तो यह इस धारणा को मजबूत करता है कि अगर राजनीतिक रूप से फायदेमंद हो तो ड्यू प्रोसेस को छोड़ा जा सकता है। यह एक खतरनाक मिसाल कायम करता है। "सही एनकाउंटर" और हत्या के बीच की लाइन कौन खींचता है? हर एनकाउंटर असल में राज्य की विफलता की एक स्वीकारोक्ति है - केस बनाने में विफलता, सजा दिलाने में विफलता, और सड़क के किनारे गड्ढे के बजाय कोर्टरूम में कानून को बनाए रखने में विफलता। यह एक गैंगस्टर को खत्म कर सकता है, लेकिन यह सिस्टम की सड़ांध को अछूता छोड़ देता है। बड़े लोगों का क्या? इस लेखक की उत्तर प्रदेश में रिपोर्टिंग से पता चला कि कैसे बड़े माफिया राज्य के कई हिस्सों में सुरक्षित बैठे हैं, जो ट्रिगर-हैप्पी पुलिस तंत्र से अछूते हैं। बंदूक की नोक पर लोकतंत्र इस गैंगस्टर-राजनेता गठजोड़ की कीमत आम लोग चुकाते हैं। यह अंधेरा होने के बाद अपराध से भरे कस्बों की खाली गलियों में, लोकल गुंडों को बिज़नेस वालों को दिए जाने वाले एक्स्ट्रा "इंश्योरेंस मनी" में, और सुरक्षित जगहों की तलाश में राज्य छोड़कर भागने वाले युवा टैलेंट में देखा जाता है। यह संस्थानों की ईमानदारी पर भी असर डालता है। उदाहरण के लिए, पुलिस राजनीतिकरण और मनोबल टूटने के बीच झूलती रहती है: उनसे उम्मीद की जाती है कि वे या तो मौजूदा ताकतवर लोगों के साथ मिले रहें या उनका सामना करके अपने करियर या जान को जोखिम में डालें। न्यायपालिका दशकों से चले आ रहे मामलों के बोझ तले दबी हुई है, और जब कोई डॉन सभी मुश्किलों के बावजूद दोषी ठहराया जाता है, तो यह खबर इसलिए बनती है क्योंकि ऐसा बहुत कम होता है। क्या इस दलदल से निकलने का कोई रास्ता है? यह समस्या कई तरह की है और हर मोर्चे पर दखल की ज़रूरत है: अदालतों में पेंडिंग मामलों को कम करने और आदतन अपराधियों के लिए बेल के नियमों को सख्त करने से लेकर एक भरोसेमंद गवाह सुरक्षा प्रणाली शुरू करने और लंबे समय से अटके पुलिस सुधारों तक। जेल सुधार भी। इसके लिए युवाओं के लिए शिक्षा और रोज़गार में निवेश, एक मज़बूत और सच में स्वतंत्र NHRC, और सबसे बढ़कर, एक सांस्कृतिक बदलाव की ज़रूरत है - यह सामूहिक पहचान कि राज्य द्वारा प्रायोजित हत्याएं न्याय नहीं हैं, और सज़ा से बचना ताकत नहीं है। फिर भी, ये सभी प्रयास बार-बार उन एनकाउंटरों के तमाशे से कमज़ोर पड़ जाते हैं जो तुरंत न्याय का वादा करते हैं, जबकि कानून के शासन की नींव को ही खोखला कर देते हैं। क्या इस कई तरह की समस्या को हल करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति है भी? सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि जीवन का अधिकार मौलिक है, और एक खूंखार अपराधी को भी कानून के अनुसार न्याय पाने का अधिकार है। जो राज्य इस प्रक्रिया में शॉर्टकट अपनाता है, वह केवल नैतिक अधिकार खो देता है और उन अपराधियों को ही ऊपरी हाथ (आधिपत्य) दे देता है जिन्हें वह खत्म करना चाहता है। सौरव दास एक इन्वेस्टिगेटिव पत्रकार हैं जो कानून, न्यायपालिका, अपराध और नीति पर लिखते हैं। साभार: frontline

रविवार, 2 नवंबर 2025

मोदी ने कहां खर्च कर दिए 60 हजार करोड़? बेचना पड़ गया 35 टन सोना

मोदी ने कहां खर्च कर दिए 60 हजार करोड़? बेचना पड़ गया 35 टन सोना, हफ्तेभर में घट गया विदेशी मुद्रा भंडार आरबीआई ने आंकड़े जारी कर बताया है कि उसके विदेशी मुद्रा भंडार में बड़ी गिरावट दर्ज की गई है. इसकी वजह फॉरेक्‍स बाजार में डॉलर के मुकाबले कमजोर होता रुपया है. इसे दोबारा थामने के लिए आरबीआई को डॉलर और सोने सहित तमाम विदेशी मुद्राओं को बेचना पड़ा है. नई दिल्‍ली. ग्‍लोबल मार्केट में लगातार जारी उठापटक का असर देश के विदेशी मुद्रा भंडार पर भी दिखा है. रिजर्व बैंक ने शुक्रवार को आंकड़े जारी कर बताया कि 24 अक्‍टूबर को समाप्‍त सप्‍ताह में विदेशी मुद्रा भंडार में करीब 7 अरब डॉलर की गिरावट आई है. सबसे चौंकाने वाली बात यह रही कि इस दौरान आरबीआई को अपने भंडार से कई क्विंटल सोना भी बेचना पड़ा. अब सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसा क्‍या हुआ जो रिजर्व बैंक को इतना पैसा खर्च करना पड़ा और अपने विदेशी मुद्रा भंडार को घटाना पड़ गया.
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