लो क सं घ र्ष !
लोकसंघर्ष पत्रिका
शनिवार, 15 नवंबर 2025
मार्क्सवाद की दुखती रग-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मार्क्सवाद की दुखती रग
कल पुराने मित्र कैसर शमीम साहब से लंबी बातचीत हो रही थी। वे मोदी के चुनाव में जीतकर आने के बाद से बेहद कष्ट में थे और कह रहे थे कि मैं तो सोच ही नहीं पा रहा हूँ कि क्या करुँ ? वे राजनीतिक अवसाद में थे। हमदोनों जेएनयू के दिनों से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से जुड़े थे। वे जेएनयू में पार्टी में आए थे,मैं मथुरा से ही माकपा से जुडा हुआ था। कैसर साहब ने एक सवाल किया कि आखिरकार माकपा के सदस्य या हमदर्द भाजपा में क्यों जा रहे हैं ? माकपा का आपको पश्चिम बंगाल में क्या भविष्य नजर आता है ? मैंने उनसे जो बातें कही वे आप सबके लिए भी काम आ सकती हैं इसलिए फेसबुक पर साझा कर रहा हूँ ।
मैंने कैसर शमीम से कहा कि माकपा को पश्चिम बंगाल में दोबारा पैरों पर खड़ा होना बहुत ही मुश्किल है। माकपा इस राज्य में समापन की ओर है। इसके कई कारण हैं जिनमें प्रधान कारण है माकपा का लोकतंत्र में हार-जीत के मर्म को न समझ पाना या समझकर अनदेखा करना।
लोकतंत्र में चुनावी हार-जीत को हमें गंभीरता से लेना चाहिए। जो नेता हार गए हैं या जिन नेताओं के नेतृत्व में पार्टी हारी है वे आम जनता में घृणा के पात्र बन जाते हैं। पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य सिंगूर-नंदीग्राम की घटना के बाद घृणा के पात्र बनगए। उनको चुनाव अभियान का अगुआ बनाकर माकपा ने गलती की थी। यह सिलसिला जारी है।
समूची जनता माकपा से जितनी नफरत करती थी वह नफरत उसने बुद्ध दा में समाहित कर दी ,यह सच है कि निजी तौर पर बुद्धदा बेहतर व्यक्ति हैं,सुसंस्कृत ईमानदार नेता हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि वे माकपा और वाममोर्चे के मुख्यमंत्री थे फलतः वे अपने प्रशासन के साथ अपनी पार्टी के अदने से कार्यकर्ता की भूलों के लिए भी जबावदेह थे। यही वजह है कि ईमानदार होने बावजूद वे आम जनता में घृणा के प्रतीक बन गए। यही हाल माकपा के राज्यसचिव विमान बसु का है। वे भी माकपा के घृणा प्रतीक बन गए, इसी तरह निचले स्तर पर अनेक नेता हैं जो आम जनता में घृणा के प्रतीक बन गए हैं। इनको पार्टी हटाने में असफल रही है।यही वजह है कि माकपा लगातार जनाधार खो रही है।
कोई नेता घृणा प्रतीक क्यों बन जाता है ,यह बात तब तक समझ में नहीं आएगी जब तक हम आम जनता की हार-जीत की भावना को न समझें। लोकतंत्र में माकपा अकेला ऐसा दल है जो घृणा प्रतीकों को पार्टी के शिखर पर बिठाए रखता है। यह अकेला ऐसा दल है जिसकी पोलिट ब्यूरो और केन्द्रीयसमिति में अधिकतर सदस्य वे हैं जो जनता में जाकर कभी चुनाव नहीं लड़े हैं।
लोकतंत्र में चुनाव न लड़कर लोकतंत्र का संचालन करने की कला सर्वसत्तावादी कला है। इससे नेता का जनता के साथ लगाव के स्तर का पता नहीं चलता। आज वास्तविकता यह है कि माकपा के अधिकांश कमेटियों के मेम्बर या सचिव कहीं से नगरपालिका चुनाव तक जीतकर नहीं आ सकते। ईएमएस नम्बूदिरीपाद या ज्योति बसु इसलिए बड़े दर्जे के नेता थे क्योंकि उनकी जनता मेंजडें थीं।वे जनता में कई बार चुने गए।
पश्चिम बंगाल और केरल से पार्टी की सर्वोच्च कमेटियों में अधिकांश नेता चुनाव लड़कर अपनी वैधता को जनता में जाकर पुष्ट करते रहे हैं।
लोकतंत्र में रहकर यह देखना ही होगा कि माकपा के किस नेता से जनता घृणा कर रही है ? पश्चिम बंगाल के प्रसंग में यह सबसे बड़ी असफलता है कि आम जनता जिन नेताओं से नफरत करती है वे अभी भी पार्टी पदों पर बने हुए हैं। जबकि ऐसे नेताओं को बिना किसी हील-हुज्जत के पार्टी की जिम्मेदारियों से मुक्त करना चाहिए।
कैसर साहब ने यह भी पूछा था कि क्या वजह है कि माकपा के लोग भाजपा की ओर जा रहे हैं ? मैंने कहा कि इसके कई कारण हैं,इनमें पहला कारण है बंगाली जाति खासकर मध्यवर्गीय बंगाली की मनोदशा। इस वर्ग के लोग परंपरागत तौर पर सत्ताभक्त रहे हैं। उनका किसी विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। अंग्रेजों के जमाने से सत्ताभक्त बंगालियों की समृद्ध परंपरा रही है और यह परंपरा आजादी के बाद और भी मजबूत हुई है। वामशासन में मध्यवर्गीय बंगाली वाम के साथ था ,लोग कहते थे कि यह वाम विचारधारा का असर है, मैं उस समय भी आपत्ति करता था और आज भी करता हूँ।
बंगाली मध्यवर्ग मे बहुत छोटा अंश है जो वैचारिक समझ के साथ वाम के साथ है, वरना ज्यादातर मध्यवर्गीय बंगाली सत्ताभक्त हैं । वे वैचारिकदरिद्र हैं। इस वैचारिकदरिद्र बंगाली मध्यवर्ग में ममता सरकार आने के बाद भगदड़ मची और रातों-रात मध्यवर्ग के लोग कल तक ममता को 'लंपटनेत्री' कहते थे ,अब 'देवी' कहने लगे हैं। मोदी की विजय दुंदुभि ने भी उनको प्रभावित किया है और वे लोग भाजपा की ओर जा रहे हैं। भाजपा की मुश्किलें इससे बढ़ेंगी या घटेंगी,यह मुख्य समस्या नहीं है। मुख्य समस्या है कि मध्यवर्ग के इस चरित्र को किस तरह देखें ?
मध्यवर्गीय बंगालियों का एक बड़ा हिस्सा अब सीधे माकपा से दामन छुडाने में लगा है। मैं 2005 से माकपा में नहीं हूँ लेकिन मैं अब तक इस संगठन की यथाशक्ति मदद करता रहा हूँ। इसबार के लोकसभा चुनाव में भी चंदा दिया और और अन्य किस्म की मदद की। लेकिन जो लोग माकपा के स्तंभ कहलाते थे वे दूसरे पाले में नजर आए।
माकपा के नेताओं में यह विवेक ही नहीं है कि वे लोकतांत्रिक भावनाओं, मूल्यों और अनुभूतियों के राजनीतिकमर्म को समझें। मैं विगत 15सालों से लगातार लिख रहा हूँ कि माकपा के नेतृत्व में वे लोग आ गए हैं जिनसे जनता नफरत करती है। मेरी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया क्योंकि वे चुनाव जीत रहे थे। वे जब चुनाव जीत रहे थे तब भी आम जनता में नेताओं का एक तबका घृणा का पात्र था और आज भी है। इनमें विमान बसु और बुद्धदेव का नाम सबसे ऊपर है।
आम जनता में माकपा के नेताओं के असंवैधानिक क्रियाकलापों के कारण घृणा पैदा हुई है और इस अनुभूति को माकपा किसी तरह कम नहीं कर सकती।
माकपा के पराभव का एक अन्य कारण है कि माकपा के वोटबैंक में तमाम किस्म के स्थानीय प्रतिक्रियावाद का शरण लेना। वोटबैंक राजनीति के कारण लोकल प्रतिक्रियावाद के खिलाफ कभी संघर्ष नहीं चलाया गया। लोकल प्रतिक्रियावाद के तार बाबा लोकनाथ से लेकर तमाम पुराने समाजसुधार संगठनों के सदस्यों के बीच में फैले हुए हैं। इसमें मुस्लिम प्रतिक्रियावाद भी शामिल है। तमाम किस्म की विचारधाराओं के साथ रमण करने वाली माकपा आजकल इन तमाम किस्म के प्रतिक्रियावादी नायकों के संगठनों के समर्थन के अभाव में अधमरी नजर आ रही है।इसके बावजूद एक तथ्य साफ है कि पश्चिम बंगाल में आम जनता में प्रतिक्रियावाद मजबूत हुआ है। भोंदूपन, अंधविश्वास और प्रतिगामिता में इजाफा हुआ है। इसका राज्य के वामदलों के विचारधारात्मक क्रियाकलापों की असफलता से गहरा संबंध है।
प्रतिक्रियावाद आसानी से किसी भी विचारधारा में शरण लेकर रह सकता है और मौका पाते ही वो भाग भी सकता है या पलटकर हमला भी कर सकता है। मैं एक वाकया सुनाता हूँ। एक कॉमरेड थे बडे ही क्रांतिकारी थे एसएफआई के महासचिव या ऐसे ही पद पर थे ,राज्यसभा के लिए नामजद किए गए, हठात कुछ महिने बाद पाया गया कि वे भाजपा में चले गए। मैंने पूछा कि भाईयो यह कैसी मार्क्सवादी शिक्षा है जो सीधे भाजपा तक पहुँचा देती है ? किसी के पास जबाव नहीं था। कहने का आशय यह कि माकपा की लीडरशिप से लेकर नीचे तक अनुदारवाद और कट्टरतावाद बड़ी संख्या में सदस्यों में रहा है। यही अनुदारवाद अब खुलकर भाजपा की ओर जा रहा है।
एक अन्य चीज वह यह कि अनुदारवाद एक किस्म सामाजिक अविवेकवाद है जिसमें अपराधीकरण की प्रवृत्ति होती है।यह अचानक नहीं है कि माकपा का बड़े पैमाने पर अपराधीकरण हो गया और कोई देखने को तैयार नहीं है।
मैं जब 1989 में पश्चिम बंगाल आया था तो बड़ी आशाओं के साथ आया था, पार्टी ब्रांच में बात हो रही थी कि कौन कहां काम करेगा, सब मेम्बर अपने तरीके से बता रहे थे कि मैं वहां काम करूँगा,यहाँ काम करुँगा, अधिकतर लोग अपने –अपने मुहल्ले में काम करने के लिए कह रहे थे, मैंने भी कहा कि मैं अपने मुहल्ले में पार्टी से जुड़कर काम करूँगा। उनदिनों कॉं.अनिल विश्वास पार्टी ब्रांच संभालते थे, वे यहां के मुख्यनेताओं में से एक थे, बाद में राज्य सचिव बने, पोलिट ब्यूरो में रखे गए। वे तुरंत बोले कि तुमको मुहल्ले में काम नहीं करने देंगे, मैंने पूछा क्यों ,वे बोले नीचे पार्टी में गुण्डे भरे हैं तुम देखकर दुखी होओगे और पार्टी से मोहभंग हो जाएगा।
उल्लेखनीय है मेरी शिक्षा की ब्रांच थी और उसमें सभी मेम्बर नामी लोग थे और लोकल थे,मैं अकेला बाहर से गया था,मेरे लिए अनिल विश्वास का बयान करेंट के झटके की तरह लगा, मैं काफी दिनों विचलित रहा और उन लोगों ने मुझे लोकल स्तर पर पार्टी से दूर रखा।
कहने का आशय यह कि पार्टी के नेता जानते थे कि निचले स्तर पर किस तरह के अपराधी घुस आए हैं। इस घटना के कुछ दिन बाद कोलकाता एयरपोर्ट पर मेरी प्रकाश कारात से मुलाकात हुई हम दोनों एक ही फ्लाइट से दिल्ली आए, प्रकाश ने पूछा यहां की पार्टी कैसी लग रही है, मैंने अनिल विश्वास वाली बात कही तो वो चौंका लेकिन उसके पास मेरे सवालों का जबाव नहीं था ।मेरा सवाल था कि माकपा ने जान-बूझकर जनपार्टी बनाने के चक्कर में अपराधियों को पार्टी में क्यों रख लिया है ?
मेरे कहने का आशय यह है कि माकपा में अनुदारवाद, कट्टरतावाद और अपराधीकरण ये तीनों प्रवृत्तियां लंबे समय से रही हैं और पार्टी नेतृत्व इनसे वाकिफ रहा है। इन तीनों प्रवृत्तियों को पूंजीवाद के खिलाफ घृणा फैलाने की आड़ में संरक्षण मिलता रहा है।
यह खुला सच है कि पश्चिम बंगाल में माकपा सबसे बड़ा दल रहा है और उसने पूरे राज्य में आम जनता के जीवन के हर क्षेत्र में वर्चस्व बनाकर रखा। राज्यतंत्र को पार्टीतंत्र में रुपान्तरित कर दिया, अब वही माकपा अपने बनाए ताने-बाने और ढाँचे से पीड़ित है क्योंकि सरकार में ममता आ गयी। ममता को विरासत में ऐसा तंत्र मिला जिसमें पार्टीतंत्र की जी-हुजूरी करने की मानसिकता पहले से ही भरी हुई थी।
पश्चिम बंगाल में भाजपा के वोट बढ़ने का एक और बड़ा कारण है कि पश्चिम बंगाल के मूल निवासी बंगालियों का एक बड़ा हिस्सा जो कल तक माकपा के साथ था वह तेजी से भाजपा की ओर जा रहा है। साथ ही हिन्दीभाषी लोग एकमुश्तभाव से भाजपा की ओर जा चुके हैं। इन दोनों समूहों को भाजपा की ओर मोडने में बहुसंख्यकवाद और हिन्दीवाद ने मदद की है।इसबार के चुनाव में भाजपा ने बहुसंख्यकवाद और हिन्दीवाद का घर –घर मोदी प्रचार अभियान में इस्तेमाल किया है।
बाराबंकी नकली खाद कारखाने का मालिक भाजपा नेता भी है
बाराबंकी नकली खाद कारखाने का मालिक भाजपा नेता भी है
बाराबंकी में दो गोदामों पर छापेमारी; नकली डीएपी बनाने का राॅ मैटेरियल बरामद,
बाराबंकी :जिले में अवैध रूप से संचालित हो रही नकली खाद बनाने की फैक्ट्री का भंडाफोड़ हुआ है. कृषि विभाग को मिले इनपुट पर शुक्रवार को जिला कृषि अधिकारी और तहसीलदार समेत तमाम अधिकारियों की टीम ने दो गोदामों में छापेमारी की. गोदाम के अंदर के हालात देखकर टीम हैरान रह गई.
जनता का कहना है कि भाजपा नेता होने के कारण कार्रवाई नहीं हो रही थी किन्तु किसान यूनियन के दबाव में आकर कार्रवाई करनी पड़ी।
जिला कृषि अधिकारी राजितराम ने बताया कि कृषि विभाग को सूचना मिली थी कि पैगम्बरपुर में बने एक गोदाम में कुछ अवैध गतिविधियां संचालित हो रही हैं. इस सूचना पर शुक्रवार को कृषि अधिकारी राजितराम, तहसीलदार कविता सिंह, नायब तहसीलदार सौरभ कुमार और कृषि रक्षा अधिकारी और किसान यूनियन के कार्यकर्ताओं और ग्राम प्रधान के साथ गोदाम में छापेमारी की.
उन्होंने बताया कि गोदाम खुलवाया गया है, जिसमें पाया गया कि बहुत सारे मटेरियल ऐसे हैं जिसमें नकली पोटाश और नकली डीएपी बनाने का काम किया जा रहा है. मौके पर कोई नकली सामान नहीं मिला है, लेकिन जो मिला है, उसमें राॅ मैटेरियल में अलग अलग 430 बोरी, 189 बोरी लाल पाउडर, ऑर्गेनिक खाद की 21 बोरियां, पोटाश की 17 खाली बोरियां, एक मिक्सर मशीन, बोरियां सिलने के लिए धागे, कुछ प्लेन बोरियां, लाल कलर का लूज पाउडर जैसे तमाम राॅ मैटेरियल बरामद किया गया है.
उन्होंने बताया कि टीम ने होलसेल के गोदाम को खुलवाया गया है. इस दौरान अलग-अलग कंपनी के 250 बैग, 110 बैग (5 केजी), 140 बैग, 115 बोरी और 126 बोरी, 100 बोरी, 45 बोरी बरामद हुई हैं.
जिला कृषि अधिकारी ने बताया कि इस बाबत टीम ने संचालक से अभिलेख और बिल बाउचर तलब किये तो वह कुछ भी प्रस्तुत नहीं कर सके. उन्होंने बताया कि सभी मैटेरियल संदिग्ध प्रतीत हो रहे हैं, जिनका नमूना लेकर टेस्ट के लिए लैब भेजा जा रहा है. दोनों गोदामों को सील कर दिया गया है. मामले में फाइल तैयार कर एफआईआर करने की कार्यवाही की जा रही है.
गुरुवार, 13 नवंबर 2025
पर्ची मा लिखा होत – 'आराम कर बाबा!' आगे रास्ता मा बुखार खड़ो है
अठरी के... कसम भइया! इत्ते चलन मा बोल गए बाबा! जे पर्ची खींच-खींच के दूसरन का भविष्य बतावत रहे, ऊ खुद दुई कदम चलतै लो बैटरी हो गए ! दूसरन का भाग्य देखन से पहले तनिक अपनौ देख लेवत, पर्ची मा लिखा होत – 'आराम कर बाबा!' आगे रास्ता मा बुखार खड़ो है
-अनीता मिश्रा
बुधवार, 12 नवंबर 2025
दिल्ली में शुद्ध आतंकवाद की घटना घटी है
दिल्ली में शुद्ध आतंकवाद की घटना घटी है । - अरुण महेश्वरी
पर मोदी सरकार उसे आतंकवाद नहीं कह सकती है ।
ऐसा मोदी के अविवेकपूर्ण सोच के कारण हुआ है ।
पहलगाम की घटना के बाद मोदी ने भारत सरकार को एक ऐसे मूर्खतापूर्ण सिद्धांत से बाँध दिया था जिसमें ‘आतंकवाद की हर कार्रवाई को भारत के खिलाफ युद्ध’ मान कर पाकिस्तान पर चढ़ाई करना होगा।
इसकी दुहाई देकर ही तब ऑपरेशन सिंदूर किया गया था ।
अब यदि उसी सिद्धांत का पालन किया जाता है तो फिर से भारत को पाकिस्तान पर चढ़ाई करनी होगी ।
ऑपरेशन सिंदूर में वास्तव में मात्र 22 मिनट की हवाई लडा़ई के बाद ही भारत पीछे हट गया था । चार दिन में अचानक सीज फायर भी हो गया ।
अब फिर उस रास्ते पर बढ़ना मोदी जैसों के बूते में नहीं है । सारी दुनिया मोदी की इस दुर्दशा को उपहास की नज़र से देख रही है ।
दुनिया में यूं ही घूमने-फिरने के अभ्यस्त मोदी अब अपमानित होकर दुनिया की नज़रों से छिप-छिप कर चलने लगे हैं।
मंगलवार, 11 नवंबर 2025
गृहमंत्री अमित शाह इस्तीफा दे - प्रधानमंत्री मोदी भूटान पिकनिक पर है
गृहमंत्री अमित शाह इस्तीफा दे - प्रधानमंत्री मोदी भूटान पिकनिक पर है
दिल्ली में लाल किला मेट्रो के गेट नंबर 1 के पास हुए धमाके के बाद समाजवादी पार्टी आगबबूला हो गई है. सपा ने गृह मंत्री अमित शाह का इस्तीफा मांगा है. सपा सरकार में मंत्री रहे आईपी सिंह ने यह मांग की है. सोशल मीडिया साइट एक्स पर सिंह ने लिखा कि गृहमंत्री अमित शाह दिल्ली में हुए ब्लास्ट में हुई मौतों की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए तत्काल अपने पद से इस्तीफा दें. अभी तक वे हर मोर्चे पर विफल साबित हुए.
*12 घंटे पहले देश पर हमला हुआ. कई भारतीयों की मौत हो गई. मोदी सज धजकर भूटान निकल गए.*
*मतलब किसी घर पर हमला हो, और घर का मुखिया कहे कि मुझे तो घूमने विदेश जाना है. तुम लोग अपना देख लो.*
*हद निर्लज्जता है।*
रविवार, 9 नवंबर 2025
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव रहे कामरेड पूरन चंद जोशी
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव रहे कामरेड पूरन चंद जोशी
पूरन चंद जोशी (14 अप्रैल 1907 - 9 नवंबर 1980) भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के शुरुआती नेताओं में से एक थे। वे 1935 से 1947 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव रहे ।
जोशी का जन्म 14 अप्रैल 1907 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा में एक कुमाऊंनी परिवार में हुआ था । उनके पिता हरिनंदन जोशी एक शिक्षक थे। 1928 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कला में स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की। स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने के तुरंत बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वह 1928-1929 के दौरान जवाहरलाल नेहरू , यूसुफ मेहरअली और अन्य के साथ युवा लीगों के एक प्रमुख आयोजक बने । जल्द ही वह अक्टूबर 1928 में मेरठ में गठित उत्तर प्रदेश की वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी के महासचिव बन गए। 1929 में , 22 साल की उम्र में, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें मेरठ षडयंत्र केस के संदिग्धों में से एक के रूप में गिरफ्तार कर लिया ।
जोशी को अंडमान द्वीप समूह की जेल में छह साल के लिए निर्वासित कर दिया गया । उनकी उम्र को देखते हुए, बाद में यह सज़ा घटाकर तीन साल कर दी गई। 1933 में रिहा होने के बाद, जोशी ने कई समूहों को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बैनर तले लाने की दिशा में काम किया। 1934 में CPI को तीसरे इंटरनेशनल या कॉमिन्टर्न में शामिल कर लिया गया ।
महासचिव के रूप में
1935 के अंत में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन सचिव सोमनाथ लाहिड़ी की अचानक गिरफ्तारी के बाद जोशी नए महासचिव बने। इस प्रकार वे 1935 से 1947 की अवधि के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव बने। उस समय वामपंथी आंदोलन लगातार बढ़ रहा था और ब्रिटिश सरकार ने 1934 से 1938 तक कम्युनिस्ट गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया था। फरवरी 1938 में, जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने बॉम्बे में अपना पहला कानूनी मुखपत्र, नेशनल फ्रंट शुरू किया , जोशी उसके संपादक बने। ब्रिटिश राज ने 1939 में सीपीआई पर उसके शुरुआती युद्ध-विरोधी रुख के कारण दोबारा प्रतिबंध लगा दिया। जब 1941 में नाजी जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला किया, तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने घोषणा की कि युद्ध का स्वरूप फासीवाद के खिलाफ जनता के युद्ध में बदल गया है ।
वैचारिक-राजनीतिक आधिपत्य और सांस्कृतिक पुनर्जागरण
कम्युनिस्ट आंदोलन के सिद्धांत और व्यवहार में जोशी का एक उत्कृष्ट योगदान राजनीतिक-वैचारिक आधिपत्य और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की शुरुआत थी। ग्राम्शी के योगदान की चर्चा तो उचित ही है, लेकिन जोशी के योगदान पर उचित ध्यान नहीं दिया गया; उन्होंने जनचेतना पर गहरी छाप छोड़ी। आज भी लोग उनके समय के राजनीतिक, वैचारिक और सांस्कृतिक योगदानों का गहराई से अध्ययन करके कम्युनिस्ट या लोकतंत्रवादी बन जाते हैं।
जोशी ने, सबसे पहले, अपने समय के राजनीतिक आंदोलन को अभूतपूर्व क्रांतिकारी बनाया। साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और फासीवाद के विरुद्ध उनका "राष्ट्रीय मोर्चा" का नारा उस समय और शिक्षित जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप था। भले ही सभी लोग कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल न हुए हों, फिर भी बड़ी संख्या में लोग कम्युनिस्ट पार्टी की ओर आकर्षित हुए। छात्रों, युवाओं, शिक्षकों, पेशेवरों, कलाकारों, प्रबुद्ध पूंजीपतियों और कई अन्य लोगों ने मार्क्सवाद के पहलुओं को उनके व्यापक अर्थों में स्वीकार किया।
उनके नेतृत्व में, कम्युनिस्टों ने कांग्रेस को मजबूत वामपंथी प्रभाव वाले एक व्यापक मोर्चे में बदल दिया। सीएसपी, डब्ल्यूपीपी, वामपंथी एकीकरण और संयुक्त जन संगठनों के गठन ने सीपीआई की सीमाओं से बहुत दूर जागरूक लोगों के विशाल वर्गों को कट्टरपंथी बना दिया। प्रमुख नीति निर्माण केंद्र कम्युनिस्टों द्वारा संचालित किए गए थे, जैसे उद्योग और कृषि। कई पीसीसी का नेतृत्व या भागीदारी सीधे कम्युनिस्टों ने की थी जैसे सोहन सिंह जोश , एसए डांगे , एसवी घाटे , एसएस मिराजकर , मलयापुरम सिंगारवेलु , जेडए अहमद , आदि। एआईसीसी में कम से कम 20 कम्युनिस्ट थे, जिन्होंने महात्मा गांधी , नेहरू , बोस और अन्य के साथ कार्य संबंध स्थापित किए। मार्क्सवाद का प्रभाव कम्युनिस्ट आंदोलन से बहुत दूर तक फैला, 1930 के दशक के अंत और 1940 के दशक के प्रारंभ तक, बड़ी संख्या में लोग मार्क्सवाद में परिवर्तित हो गए, जिसने राष्ट्रीय आंदोलन की विचारधारा पर गहरी छाप छोड़ी: कांग्रेस, सीएसपी, एचएसआरए, ग़दर , चटगाँव समूह, आदि। मार्क्सवाद को वैचारिक विजय प्राप्त हुई। सुभाष बोस के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के बाद, कांग्रेस लगभग एक वामपंथी संगठन बन गई, जिसका अधिकांश श्रेय जोशी को जाता है। अगर बोस ने कांग्रेस नहीं छोड़ी होती, तो शायद आज़ादी के समय हम एक अलग कांग्रेस देख पाते।
दूसरे, जोशी ने कला और संस्कृति को एक व्यापक लोकतांत्रिक और क्रांतिकारी रूप दिया। गीत, नाटक, कविता, साहित्य, रंगमंच और सिनेमा जनचेतना और क्रांतिकारी परिवर्तन के माध्यम बने। मुद्रित शब्द जनशक्ति बन गए। इन सबने राष्ट्रीय परिदृश्य पर एक पुनर्जागरण का निर्माण किया। इनका गहरा प्रभाव स्वतंत्रता के बहुत बाद तक देखा जा सकता है। कम्युनिस्टों ने इन माध्यमों का इतने बड़े पैमाने पर और प्रभावशाली ढंग से उपयोग करने वाले पहले व्यक्ति थे।
साहित्य, कला, संस्कृति और फ़िल्मों के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण हस्तियों ने पीढ़ियों को क्रांतिकारी रूप से प्रभावित किया। भाकपा, इप्टा, पीडब्लूए, एआईएसएफ आदि ने प्रगतिशील आंदोलनों को प्रेरित किया है। प्रेमचंद और राहुल की किताबें पढ़कर और जनसंस्कृति में भाग लेकर कई युवा कम्युनिस्ट बने। कम्युनिस्ट पार्टी ने अपेक्षाकृत छोटी होने के बावजूद, काफ़ी वैचारिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व कायम किया। इसमें कई समकालीन सबक हैं।
संस्कृति, जनता को राजनीतिक बनाने और जागृत करने का एक प्रभावी माध्यम बन गई। जोशी ने सहजता से जनता की राजनीतिक संस्कृति को राष्ट्रीय आकांक्षाओं के साथ जोड़ दिया।
पहली सीपीआई कांग्रेस, 1943
यह अधिवेशन जितना राजनीतिक था, उतना ही सांस्कृतिक भी था। बड़ी संख्या में गैर-दलीय लोग भी इसमें शामिल हुए और नतीजों का इंतज़ार किया। जोशी के भाषण का बेसब्री से इंतज़ार किया गया और उसे ध्यान से सुना गया।
बहुआयामी संघर्ष
जोशी जी जनता के बीच के व्यक्ति थे और जानते थे कि कब आगे बढ़ना है और क्या नारे देने हैं। बंगाल के अकाल में उनका काम बेजोड़ है। इप्टा का जन्म इसी से हुआ था। अकाल की जड़ों का उनका विश्लेषण गहन वैज्ञानिक मार्क्सवादी है। महात्मा गांधी के साथ उनके पत्राचार ने "राष्ट्रपिता" को कम्युनिस्टों के कई विचारों से अवगत कराया।
अक्सर ऐसा प्रस्तुत किया जाता है मानो जोशी समझौतावादी, वर्ग-सहयोगी थे। यह दृष्टिकोण बी.टी. रणदिवे के दौर की विरासत है, जब उनकी खूब बदनामी हुई थी।
जोशी ने न केवल 1946 सहित विभिन्न चुनावों में शांतिपूर्ण जनसंघर्षों और पार्टी का नेतृत्व किया; बल्कि उन्होंने सशस्त्र संघर्षों में भी पार्टी का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। उनके नेतृत्व में ही कयूर, पुन्नप्रा-वायलार, आरआईएन विद्रोह, तेभागा और तेलंगाना जैसे सशस्त्र संघर्ष हुए। इसे कम करके दिखाने की कोशिश की जाती है। उन्होंने ही 1946 में तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष को हरी झंडी दी थी, जो निज़ाम विरोधी संघर्ष का हिस्सा था, न कि भारत में समाजवादी क्रांति का हिस्सा। दोनों अलग-अलग हैं।
उनके कार्यकाल के दौरान, कई कम्युनिस्टों को विधानमंडलों में भेजा गया, हालांकि मतदान पर बहुत अधिक प्रतिबंध था।
निष्कासन और पुनर्वास
स्वतंत्रता के बाद के दौर में , कलकत्ता में दूसरे कांग्रेस के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने हथियार उठाने का रास्ता अपनाया। जोशी जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ एकता की वकालत कर रहे थे । 1948 में सीपीआई के कलकत्ता कांग्रेस में उनकी कड़ी आलोचना हुई और उन्हें महासचिव पद से हटा दिया गया। इसके बाद, उन्हें 27 जनवरी 1949 को पार्टी से निलंबित कर दिया गया, दिसंबर 1949 में निष्कासित कर दिया गया और 1 जून 1951 को पार्टी में पुनः शामिल कर लिया गया। धीरे-धीरे उन्हें दरकिनार कर दिया गया, हालाँकि उन्हें पार्टी के साप्ताहिक समाचार पत्र, न्यू एज का संपादक बनाकर पुनर्वासित किया गया । भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के बाद , वे सीपीआई के साथ थे। हालाँकि उन्होंने 1964 में 7वीं कांग्रेस में सीपीआई की नीति को समझाया, लेकिन उन्हें कभी सीधे नेतृत्व में नहीं लाया गया।
अपने अंतिम दिनों में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन पर एक संग्रह स्थापित करने के लिए शोध और प्रकाशन कार्यों में खुद को व्यस्त रखा।
1943 में, उन्होंने कल्पना दत्ता से विवाह किया, जो एक क्रांतिकारी थीं और जिन्होंने चटगाँव शस्त्रागार छापे में भाग लिया था । कल्पना दत्त भारतीय सिनेमा जगत की मशहूर अदाकारा भी थी।
शनिवार, 8 नवंबर 2025
पावलर वरदराजन, एक कलाकार जिन्होंने केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
पावलर वरदराजन, एक कलाकार जिन्होंने केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
1958 का देवीकुलम उपचुनाव नंबूदरीपाद सरकार के लिए बेहद अहम था। बागान मज़दूरों, जिनमें ज़्यादातर तमिल थे, को अपने पक्ष में करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी ने पवलर वरदराजन के संगीत समारोह आयोजित किए, जिनके गाने मतदाताओं को खूब पसंद आए।
जब केरल के मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद 1958 के उपचुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी की जीत के जश्न में हिस्सा लेने देवीकुलम आए, तो उन्होंने आयोजकों से पूछा, " एविदयानु पवलर वरदराजन ?" ("पवलर वरदराजन कहाँ हैं?")। गीतकार और संगीत निर्देशक तथा वरदराजन के सबसे छोटे भाई गंगई अमरन ने याद करते हुए कहा, "जब वे मंच पर गए, तो ईएमएस ने वरदराजन को एक माला भेंट की।" उन्होंने कहा, "मैं 10 साल का था। हम अपने भाइयों भास्कर और इलैयाराजा और अपनी माँ के साथ वहाँ थे।"
मई 1958 में उपचुनाव हुआ था जब एक अदालत ने रोसम्मा पुन्नूस के चुनाव को उनके प्रतिद्वंद्वी, कांग्रेस के बीके नायर द्वारा उनके नामांकन की अस्वीकृति के खिलाफ दायर याचिका पर रद्द कर दिया था। 126 सीटों वाली विधानसभा में सीपीआई के 60 सदस्य थे और उसे पांच निर्दलीय विधायकों का समर्थन प्राप्त था। इसलिए उनकी जीत नंबूदरीपाद सरकार के लिए महत्वपूर्ण थी। “चूंकि [देवीकुलम में] बागान मजदूर ज्यादातर तमिल थे, इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी ने मेरे भाई द्वारा संगीत कार्यक्रम आयोजित किए। वह उस आँगन में प्रदर्शन करता जहाँ किसान चाय की पत्तियों को अलग करने के लिए इकट्ठा होते थे। यह एक सिनेमाई सेटिंग थी, और उसके गीत पहाड़ियों में गूंजते थे," गंगई अमरन ने कहा, जिन्होंने आगे गाया, ' सिक्कीकिट्टू मुझिकुथम्मा वेक्कमकट्टा कलाई रेंदु' ('दो बेशर्म बैल पकड़े गए हैं उपचुनाव के दौरान वरदराजन के साथ रहीं स्वतंत्रता सेनानी और कम्युनिस्ट नेता मायांदी भारती ने याद किया कि कैसे चाय की पत्तियाँ तोड़ रही महिलाएँ दौड़कर उस जगह पहुँच जाती थीं जहाँ वरदराजन गा रहे होते थे। संगाई वेलावन द्वारा संकलित पुस्तक "पावलर वरदराजन पडैपुकल" में मायांदी भारती लिखती हैं, "जब वह मुन्नार में एक जीप के ऊपर गा रहे थे, तो दुकानदार, बसों का इंतज़ार कर रहे यात्री और डाकघर आए लोग हमारी गाड़ी के पास आकर उन्हें सुनते थे । "
शुक्रवार, 7 नवंबर 2025
भारत में सत्त्ता दुष्टों, ठगों और लुटेरों के हाथ चली जायेगी-चर्चिल
अंग्रेज़ो ( विंस्टन चर्चिल ) ने 70 साल पहले ही ये बात कह दिया था।
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सत्त्ता दुष्टों, ठगों और लुटेरों के हाथ चली जायेगी। भारत के नेता निम्न क्षमता वाले, भूँसे के बने लुंजपुंज लोग होंगे। वे बेवकूफी से भरे और मीठी जुबान वाले हैं। वो सत्ता के लिए आपस मे लड़ेंगे और देश छोटी बातों पर ऊंचे सुर में राजनीति का अखाड़ा होगा। एक दिन आएगा जब भारत मे हवा और पानी पर भी टैक्स लग जायेगा।
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विंस्टन चर्चिल 1946, ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारत की आजादी के अधिनियम के खिलाफ बोलते हुए।
“Power will go to the hands of rascals, rogues, freebooters; all Indian leaders will be of low caliber and men of straw. They will have sweet tongues and silly hearts. They will fight amongst themselves for power and India will be lost in political squabbles. A day would come when even air and water would be taxed in India".
लेकिन आजादी के बाद जब पहली बार चर्चिल पं. नेहरू से मिला तो अपने वक्तव्य के लिये माफी मांगा. लेकिन नेहरू ने कुछ नहीं कहा, क्यूंकि वे जानते थे चर्चिल बहुत गलत नहीं थे...आज चर्चिल की कही हुई बात कितनी सच है, दुनियां देख रही है कि नेहरू की कुर्सी पर एक अनपढ़ जाहिल झूठा, लंपट, लबार बैठा है,....और स्वयंभू विश्वगुूरू बना है. लंपटों की फौज हर हर महादेव की जगह हर हर मोदी का जयकारा लगा रही है...गांधी जिसको दुनियां पूज रही है उनको अपने देश मे ही उनके पुतले बनाकर गोली मारी जा रही है..गोली मारने वालों के स्वयंभू मसीहा विदेशों मे गांधी का तलुआ चाटते हैं और देश में उनके मूर्तियों को तोड़ते हैं....गांधी के हत्यारे के महिमामंडन करके मंदिर बना रहे हैं ..." दोगलों की सरकार, दोगलों के लिये, दोगलों द्वारा "...
drbn singh.
अक्टूबर क्रान्ति की वर्षगांठ पर विशेष - क्रांतियां व्यर्थ नहीं जातीं
अक्टूबर क्रान्ति की वर्षगांठ पर विशेष -
क्रांतियां व्यर्थ नहीं जातीं -
पूंजीवाद स्वभावतः कृतघ्न है और समाजवाद स्वभावतः कृतज्ञ है। समाजवाद ने हमेशा पूंजीवाद की सकारात्मक बातों को माना है। लेकिन पूंजीवादी विचारक और पूंजीपतिवर्ग समाजवाद की सकारात्मक उपलब्धियों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं।
पूंजीवादी विचारक यह अच्छी तरह जानते हैं कि सन् 1917 की सोवियत अक्टूबर क्रांति की पहली महान उपलब्धि है गरीबों का सत्ता में आना । और सारी दुनिया को यह दिखाना कि मजदूर वर्ग भी शासन संभाल सकता है। फ्रांस की राज्य क्रांति के समय किसी के दिमाग में यह सपना नही आया था कि भविष्य में कभी मजदूरों की सरकार भी आ सकती है।
अक्टूबर क्रांति के पहले तक इतिहास में राजसत्ता को चलाने और संभालने का अनुभव अभिजात्यवर्ग को ही था। पहलीबार गैर अभिजात्य वर्गों ने बोल्शेविक पार्टी के झंड़े तले एकत्रित होकर क्रांति की ,और सोवियत सत्ता को संभाला। मजदूर और किसान सरकार चला सकते हैं यह बात सिद्ध की । इस धारणा को खंडित किया कि शासन चलाने की शक्ति सिर्फ अभिजनों में होती है।
सामंतों और बुर्जुआजी को सरकार चलाने का अनुभव था। लेकिन कम्युनिस्टों को 1917 की क्रांति के पहले सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं था। वे सरकार चलाने के मामले में अनुभवहीन थे ,नीति बनाने के मामले में अनुभवहीन थे। उन्होंने प्रशासन प्रबंधन को पूंजीवाद से ग्रहण किया और संगठन बनाने की अपनी क्षमता के साथ उसका शानदार रसायन तैयार किया।
अक्टूबर क्रांति की दूसरी महान उपलब्धि है कि उसने मजदूरवर्ग को समाज का नायक बनाया। फ्रांस की राज्य क्रांति ने आधुनिक समाज के मुखिया के रूप में बुर्जुआजी को प्रतिष्ठित किया । लेकिन अक्टूबर क्रांति ने बुर्जुआजी को अपदस्थ करके मजदूरवर्ग को आधुनिकयुग के नायक के पद पर स्थापित किया।
अक्टूबर क्रांति की तीसरी महान उपलब्धि है फ्रांस की राज्य क्रांति के बाद बुर्जुआजी ने जो वादे किए थे वह उन्हें पूरा करने में असफल रहा। उसकी इसी असफलता के रूप में नये पूंजीवादी राज्य का साम्राज्यवाद,बड़ी इजारेदारियों ,उपनिवेशवाद आदि में रूपान्तरण हुआ और प्रथम विश्वयुद्ध हुआ जिससे यह सिद्ध हो गया था कि बुर्जुआजी समाज को संतुष्ट रखने, खुशहाल रखने,आजादी देने आदि के मामले में बुरी तरह असफल है।
जबकि अक्टूबर क्रांति ने यह मिथ तोड़ा कि पावर का केन्द्र बुर्जुआजी है। उसने यह मिथ भी तोड़ा कि मजदूर सिर्फ कामगार है,नौकर है। अक्टूबर क्रांति का यह महान योगदान है कि उसने मजदूरवर्ग को पावर के केन्द्र में स्थापित किया। अब मजदूरवर्ग सिर्फ वस्तु बनाने वाला कारीगर मात्र नहीं था । बल्कि उसे पावर के रूप में,सत्ता संघर्ष की सबसे मजबूत कड़ी के रूप में कम्युनिस्टों ने प्रतिष्ठा दिलायी।
आज सारी दुनिया में मजदूरवर्ग ही अकेला ऐसा वर्ग है जो बुर्जुआजी को सीधे चुनौती दे रहा है। बुर्जुआजी को समाज के किसी भी वर्ग से भय नहीं लगता उसे भय लगता है तो एकमात्र मजदूरवर्ग से।
मजदूरवर्ग की शक्तिशाली इमेज बनाने में कम्युनिस्ट आंदोलन और विश्वव्यापी मजदूर आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। आज सारी दुनिया में कोई भी सरकार मजदूरवर्ग के हितों की अनदेखी करके टिक नहीं सकती। यह अक्टूबर क्रांति की महान उपलब्धि है।
सन् 1917 की अक्टूबर क्रांति का सबसे बड़ा योगदान है इसने विषमता के मिथ को तोड़ा है। यह माना जाता था विषमता तो प्रकृति की देन है,ईश्वरकृत है और पूर्वजन्म के कर्मों का फल है। कम्युनिस्टों ने इन सब बातों को वास्तव जीवन में खारिज करके दिखाया है। इससे यह चेतना पैदा करने में मदद मिली है कि विषमता प्राकृतिक ,ईश्वरकृत या पूर्वजन्म के कर्मों का फल नहीं होती बल्कि वर्गीय शोषण के गर्भ से विषमता का जन्म होता है। विषमता के भौतिक कारण होते हैं।
विषमता पैदा करने में पूंजीपतिवर्ग की निर्णायक भूमिका होती है। पूंजीपतिवर्ग समाज का उद्धारकवर्ग नहीं बल्कि शोषकवर्ग है। यह बात सारी दुनिया के ज़ेहन में उतारने में अक्टूबर क्रांति ने मील के पत्थर का काम किया है। अक्टूबर क्रांति के बाद पूंजीपतिवर्ग ने धीरे-धीरे पूंजीपति के नाम से अपने को सम्बोधित करना ही बंद कर दिया,सारी दुनिया में पूंजीपति वर्ग के प्रति घृणा की लहर पैदा हुई जिसका असर आज भी बाकी है। आज भी सारी दुनिया के लोगों में अधिकांश लोग पूंजीपतिवर्ग से नफ़रत करते हैं। और मजदूरों के प्रति प्रेम बढ़ा है।
अक्टूबर क्रांति के पहले मजदूरों-किसानों, वंचितों और हाशिए के लोगों में स्वतंत्रता की धारणा उतनी प्रबल नहीं थी जितनी प्रबल अक्टूबर क्रांति के बाद हुई। स्वतंत्रता और समानता की बुर्जुआ अवधारणा के विकल्प के रूप में नयी स्वतंत्रता और समानता की अवधारणा का उदय हुआ। अक्टूबर क्रांति के पहले स्वतंत्रता का अर्थ वही था जो फ्रांस की राज्य क्रांति ने निर्मित किया था। तब स्वतंत्रता का अर्थ था व्यापार और बाजार की स्वतंत्रता। सामाजिक समूहों की स्वतंत्रता के रूप में,हाशिए के लोगों की स्वतंत्रता के रूप में साधारणतौर पर अक्टूबर क्रांति के बाद ही सोचना आरंभ हुआ।
साधारण लोगों के लिए स्वतंत्रता का अर्थ महज बोलने की आजादी नहीं है। यह स्वतंत्रता का सीमित दायरा है। मनुष्य के बोलने का उसके सामाजिक अस्तित्व के साथ संबंध होता है। मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व के सवालों को स्वतंत्रता के साथ जोड़ने कारण ही कालांतर में सारी दुनिया में विभिन्न सामाजिक समूहों और वर्गों ने अपने अस्तित्व रक्षा के सवालों को अभिव्यक्ति दी। आजादी और स्वतंत्रता के साथ जोड़कर देखा । बुर्जुआजी ने स्वतंत्रता के जिस पैराडाइम का निर्माण किया था उसे पूरी तरह बदला।
मजदूरवर्ग ने श्रम को पूंजी के जुए से मुक्त करने के महान लक्ष्य के साथ स्वतंत्रता को जोड़ा था। बुर्जुआ स्वतंत्रता श्रम को वह पूंजी के जुए से मुक्त नहीं कर पाती इसके कारण बहुसंख्यक समाज के लिए स्वतंत्रता निरर्थक बनकर रह जाती है। पूंजी के जुए में बंधे रहकर जहां तक जा सकते हो वहां तक स्वतंत्रता है।
बुर्जुआजी के लिए स्वतंत्रता सिर्फ़ व्यापार तक सीमित थी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वह बहुत ही सीमित अर्थ में ,अपने हितों के संरक्षण के संदर्भ में इस्तेमाल करता था।
अक्टूबर क्रांति ने आम लोगों को चीजों को एक-दूसरे के साथ जोड़कर देखने की आदत पैदा की। स्टीरियोटाइप सरलीकरणों से राजनीति को मुक्त किया। बुर्जुआजी ने स्वतंत्रता के पास मनुष्य को खड़ा रखने की बजाय निजी संपत्ति को खड़ा किया और इस तरह उसने निजी संपत्ति और स्वतंत्रता में साँठगाँठ पैदा कर दी। अक्टूबर क्रांति ने स्वतंत्रता के साथ निजी संपत्ति की जगह मनुष्य को खड़ा कर दिया,मजदूरवर्ग को खड़ा कर दिया। उसने स्वतंत्रता की अंतर्वस्तु में से निजी संपत्ति को निकाल दिया।
अक्टूबर क्रांति ने हमारे सामने यह सवाल खड़ा किया कि हम स्वतंत्रता सहित मनुष्य चाहते हैं ? या मनुष्यरहित और संपत्तिसहित स्वतंत्रता चाहते हैं ? संपत्तिसहित स्वतंत्रता का अर्थ है अमीरों के वर्चस्व का बना रहना। शोषकों के वर्चस्व का बने रहना। बोल्शेविकों ने इस वर्चस्व को चुनौती दी और सारी दुनिया को स्वतंत्रता के नए मार्ग पर चलने की सीख दी है और आज सारी दुनिया इस सीख से लाभ उठा रही हैं। विभिन्न गैर -बुर्जुआ समुदाय अपने लिए स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक अस्तित्व के सवालों को सारी दुनिया ने अन्तर्ग्रथित मान लिया है और आज ये विश्व मानवाधिकारों के चार्टर का हिस्सा हैं। दुनिया के अधिकांश देश इसे मान्यता देने को बाध्य हुए हैं।
सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में समाजवादी व्यवस्था के पराभव के बाद सारी दुनिया में पूंजीवादी प्रचारकों ने हल्ला मचाना आरंभ कर दिया कि क्रांति हार गयी है। समाजवाद खत्म हो गया है। साम्यवाद की मौत हो गयी है। मार्क्सवाद का अंत हो गया है। लेकिन यह सच नहीं है। इस बात को समझने के लिए हम फ्रांस की राज्य क्रांति का उदाहरण सामने रखकर विचार करें तो शायद ठीक से समाजवाद के विश्वव्यापी असर के बारे में सही ढ़ंग से अनुमान लगा सकें।
फ्रांस की राज्य क्रांति ने लोकतंत्र,समानता और बंधुत्व की महान धारणा दी। फ्रांस की राज्य क्रांति कितने दिन तक बनी रह पायी ? बमुश्किल दो साल टिके रह पायी। इन दो सालों में उन्होंने जो काम किया उसकी सारी दुनिया आज भी ऋणी है। इसकी तुलना में सोवियत समाजवादी अक्टूबर क्रांति 60 साल तक रही और उसने जो काम किए उनका असर कुछ देशों में समाजवादी व्यवस्था के पराभव के बाबजूद सारी दुनिया में ज्यों का त्यों बना हुआ है। समाजवादी क्रांति ने जो अधिकार आदमी को दिए,जो शक्ति और संपदा दी वह अक्षुण्ण है। सिर्फ शक्ति संतुलन बदला है।
क्रांतियां व्यर्थ नहीं जातीं। वे समाज में गहरे परिवर्तन के निशान छोड़ जाती हैं। समस्या यह है कि हम उन परिवर्तनों को सही परिप्रेक्ष्य में समझें । मजदूरवर्ग और सारी दुनिया का वंचित समाज अक्टूबर क्रांति के प्रति कृतज्ञ है उसने वंचितों और हाशिए के लोगों को जीने का नया मंत्र दिया। सामाजिक संघर्ष का नया विवेक दिया है और सबसे बड़ा विवेक यह दिया है कि पूंजीपतिवर्ग को पछाड़ना चाहते हो,पूंजीवादी समाज में सुखी रहना चाहते हो तो अपना संगठन बनाओ,संगठनबद्ध होकर जीना सीखो। मजदूरवर्ग और श्रम का सम्मान करना सीखो,मजदूरवर्ग कमजोर वर्ग नहीं है बल्कि सामाजिक परिवर्तन की धुरी है।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
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