बुधवार, 9 जुलाई 2025

अडानी और मुनाफा और गौहत्या

गुजरात :- *अडानी* के पोर्ट पर *हजारों गाय* 🐄 ट्रको में खड़ी है। *अरब के देशों* में जाने के लिए... 😱😱😱 जिन्हे वहां काटा जाएगा..... कहा मर गए भक्तों..?? गधों को याद दिला दूं की गौ मांस का धंधा करने वालो से ही भाजपा ने चंदा लिया है। सब पैसे का खेल है। आप तो बस "जय श्रीराम" के नारे लगाने के लिए ही है। तो भक्तों, जोर से बोलो.... https://www.facebook.com/share/v/1HBgEY9DWj/ 😄

वेश्या - आचार्य चतुरसेन

वेश्या : आचार्य चतुरसेन शास्त्री (वेश्या भी आखिर नारी है; फिर गुलबदन क्यों नारी के सहज गुणों के प्रतिकूल व्यवहार करती है, यह प्रश्न लेखक ने पाठकों पर छोड़ दिया है। इसपर आप जितना अधिक विचार करेंगे उतना ही आप वेश्या को निर्दोष पाएंगे।) शिमला-शैल की वहार जिसने आंखों से नहीं देखी उससे हम अब क्या कहें? बीसवीं शताब्दी का यन्त्रबद्ध भौतिक बल प्रतापी यूरोप के श्वेत दर्प के सम्मुख आज्ञाकारी कुत्ते की तरह दुम हिलाता है। फिर शिमला-शैल पृथ्वी के एकमात्र अवशिष्ट साम्राज्य की नखरेदार राजधानी है, जहां बैठकर दूध के समान सफेद और रमणी के समान चिकने सफाचट मुखवाले-परन्तु बहादुर साहब लोग-तुषार और शीतल वायु के झोंकों का अखण्ड आनन्द लेते हुए, लूओं में झुलसते हुए अस्थि-चविशिष्ट भारत के तैंतीस करोड़ मनुष्यों पर हुक्म चलाते हैं। जिनकी असली तलवार गहना, और कलम है, वे जो न करें सो थोड़ा। ग्रीष्म की प्रचण्ड धूप में घोड़े की पीठ पर लोहा लेनेवाले भारत के नृपतियों के वंशधर भी गोरी मिसों के हाथ की चाय पीने का लोभ संवरण न कर, अपनी निरीह अधम प्रजा को लूओं में झुलसते छोड़, ग्रीष्म में शिमला-शैल पर जा पहुंचते हैं। वही शिमला-शैल अपनी मनोरम घाटियों, हरी-भरी पर्वत-शृंखलाओं के पीछे सुदूर आकाश में हिमालय के श्वेत हिमपूर्ण शिखरों को जब सुनहरी धूप में दिखाता है, तब नैसर्गिक शोभा का क्या कहना है? फिर प्रकाण्ड धवल अट्टालिकाएं-जहां तडिद्दामिनी सुन्दरी अधम दासी की तरह सेवा करती हैं-जब सुरा और सुन्दरियों से परिपूर्ण हैं, तब इस प्रतापी ब्रिटिश-छत्रछाया में अभयदान प्राप्त महाराजाधिराजों और राजराजेश्वरों को अब और क्या चाहिए? दिन-रात सुरा-सुन्दरी और प्रभु-पद-वन्दन में उनकी ग्रीष्म इस तरह बीत जाती है, जैसे किसी नवदम्पति की सुहागरात। अजी, एक बार बिजली की असंख्य दीप-मालाओं से आलोकित उन प्रासादों में इन नरपुंगवों को लेवेण्डर से सराबोर वस्त्रोंवाली अधनंगी मिसों के साथ कमर में हाथ डाले थिरक-थिरककर नाचते तो देखिए ? और उसके बाद झुक-झुककर उनके सामने जमनास्टिक की जैसी कसरत करते और विनयाञ्जलि भेंट करते और बदले में करपल्लव का चुम्बनाधिकार, और सहारा देकर उठाने की सेवा का भार, इससे अधिक प्रारब्धानुसार । बस, अब कुछ न कहेंगे। सन् १६०८ का सुन्दर प्रभात था । मई मास समाप्त हो रहा था । भारतवर्ष ज्वलन्त उत्ताप से भट्ठी बन रहा था, पर शिमला-शैल पर वह प्रभात सुन्दर शरद्के प्रभात की भांति निकल रहा था । एक दस वर्ष की बालिका एक तितली को पकड़ने के प्रयत्न में घास पर दौड़-धूप कर रही थी। उसके शरीर पर ज़री के काम की सलवार, एक ढीला रेशमी पंजाबी कुरता और मस्तक पर अतलस का दुपट्टा था,जो अस्त-व्यस्त हो रहा था। बालिका सुन्दरी तो थी, पर कोई अलौकिक प्रभा उसमें न थी। परन्तु उसके ओष्ठ और नेत्रों में अवश्य एक अद्भुत चमत्कार था। सुन्दर, स्वस्थ और सुखद जीवन ने जो मस्ती उसके इस बाल-शरीर में भर दी थी, उसे यौवन के निकट भविष्य-आक्रमण के पूर्व रूप ने कुछ और ही रंग दे रखा था। वह मानो कभी आपे में न रहती थी, वह सदा बिखरी रहती थी। उल्लास, हास्य, विनोद और मस्ती, यही उसका जीवन था । हम पहले ही कह चुके हैं कि इस बालिका के सारे अंगों में यदि कोई अंग अपूर्व था तो होंठ और आंखें थीं। हम कह सकते हैं कि मानो उसके प्राण सदैव इन दोनों अंगों में बसे रहते थे। वह देखती क्या थी खाती थी। बहुत कम उसकी दृष्टि स्थिर होती थी। पर क्षण-भर भी यदि वह किसीको देखती तो कुछ बोलने से प्रथम एक-दो बार उसके होंठ फड़कते थे- ओफ ! कौन कह सकता है कि उन होंठों के फड़कते ही उन नेत्रों से जो धारा निकलती थी, उसमें कितना मद हो सकता था। पृथ्वी पर कौन ऐसा जन्तु होगा कि जो उन नेत्रों के अधीन न हो जाए और उन होंठों की फड़कन के गम्भीर गर्त में छिपे निनाद को अर्थसहित समझने का अभिलाषी न हो। इन दोनों वस्तुओं के बाद और एक तीसरी वस्तु थी, जो इन दो वस्तुओं के बाद ही दीख पड़ती थी। वह थी वह धवल दन्त-पंक्ति, वह दन्त-पंक्ति, जो बड़ी कठिनाई से कदाचित् ही ठीक-ठीक प्रकट दीख पड़ती हो। उज्ज्वल, सुडौल श्वेत रेखा की, उन फड़कते होंठों के बीच से अकस्मात् प्रस्फुटित होने की, कल्पना तो कीजिए। परन्तु एक दस वर्ष की बालिका का ऐसा नख-शिख वर्णन! पाठक हमारी इस अपवित्र धृष्टता को क्षमा करें। अच्छा, अब हम मन को विचलित न होने देंगे। अस्तु । बालिका अपने जन्मसिद्ध गर्व और मस्तानी अदा को विस्मृत-सी करती हुई तितली के पीछे फिर रही थी। निकट ही एक भद्रपुरुष बेंच पर बैठे उसे एक-टक देख रहे हैं, इसका उसे कुछ ध्यान न था। बालिका के निकट पहुंचने पर भद्र-पुरुष उठ बैठे। उन्होंने किंचित् हंसकर मधुर स्वर से कहा-गरीब जानवर को क्यों दुख देती हो ; उसने तुम्हारा कुछ चुराया है क्या?–बालिका ने क्षण-भर स्तब्ध खड़ी होकर भद्र पुरुष को देखा-प्रोफ! उन्हीं नेत्रों से, दो बार होंठ फड़के और उसके बाद बिजली की रेखा के समान दन्त-पंक्ति प्रकट हुई। बालिका ने बिना हिचकिचाए कहा-कैसी खूबसूरत है--आप ज़रा पकड़ देंगे? 'सिर्फ इसलिए कि खूबसूरत है ?' बालिका समझी नहीं, पर उसने गर्दन हिला दी। भद्र पुरुष आगे बढ़कर एक-दम बालिका के निकट आ गए। एक प्रबल आन्दोलन उनके हृदय में पालोड़ित हो उठा । एक अस्वाभाविक उन्माद में वे कह उठे: 'तुम खुद कितनी खूबसूरत हो ? तुम्हें कोई इसीलिए पकड़ ले तब ?' बालिका ने भद्र पुरुष को निकट आते और उपर्युक्त शब्द कहते सुन, एक बार फिर उसी तरह उनकी तरफ देखा--उसी तरह उसके होंठ फड़के। पर वह बोली नहीं । उनने वहां से भागने का आयोजन किया। भद्र पुरुष हंस पड़े। उन्होंने उसके दोनों हाथ पकड़कर कहा--लो, पकड़ी गई तो भागती हो? सामने से आवाज़ आई--गुलबदन ! 'छोड़िए, अम्मी बुलाती है।'--बालिका ने किंचित् झुंझलाकर कहा। 'मगर तुम्हारा नाम?' 'मैं नहीं बताने की।' 'तुम्हारी अम्मी का क्या नाम है ?' 'मैं नहीं बताती, छोड़िए।'-बालिका ने खींचकर हाथ छुड़ा लिया। वह भाग गई। भद्र पुरुष ने क्षण-भर बालिका की ओर देखा--तितली की तरह उड़ी जा रही थी। सामने कुछ दूर पर उसकी मां और दो-तीन व्यक्ति खड़े थे । भद्र पुरुष ने निकट खड़े एक व्यक्ति से कहा : 'अहमद ?' 'हुजूर !' 'इसे लायो।' 'जो हुक्म ।' 'मैं घूमता हुआ चला जाऊंगा। तुम गाड़ी ले जाओ।' 'जो हुक्म!' 'दस हज़ार?' 'जी हां सरकार ! वह लाहौर की मशहूर तवायफ मुमताज़ बेगम की लड़की है। बुढ़िया बड़ी धाख निकली। उसने हुजूर को देख और पहचान लिया था।बस पैर फैला गई। बड़ी मुश्किल से सौदा पटा है।' 'वे लोग यहां कब आ जाएंगे?' 'कल दस बजे।' 'गाड़ी ग्यारह बजे चलेगी। सिवा दोनों मां-बेटियों के उनका तीसरा कोई आदमी साथ न रहने पाएगा। इसकी हिदायत कर दी है न?' “जी हां हुजूर, ऐसा ही होगा।' “और एक बात, छोटी रानी को इस वारदात की खबर न होने पाए ?' 'बहुत अच्छा सरकार।' एक रिज़र्व कम्पार्टमेण्ट उनके लिए गाड़ी में लगा रहेगा। मगर मैं आज रात को होटल में उन लोगों से मुलाकात करूंगा । खाना भी उन्हींके साथ खाऊंगा। एक रिजर्व कमरे और स्पेशल खाने का बन्दोवस्त भी कर लो--तुम खुदही चले जाओ-फोन में मत कहो, जिससे कानों-कान किसीको खबर न हो। ठीक नौ बजे, समझे ?' 'जी हुजूर !' "और सुनो, आज ग्यारह बजे रात को मिस फास्टर उसी जगह आएगी न?' "जरूर!' 'तब होटल से लौटकर उधर चलना होगा। अब तुम जा सकते हो।' ये भद्र पुरुष थे कौन? पाठकों को सब कुछ नहीं बताया जा सकता। वे एक विस्तृत राज्य के सुजन अधिपति, श्रीमन्त महाराजाधिराज राजराजेश्वर श्री....थे। आप सीधे यूरोप की यात्रा से आ रहे थे और आपको राज्याधिकार प्राप्त हुए कुछ ही मास हुए थे। आपकी अवस्था इक्कीस के लगभग थी। आपकी वेष-भूषा यद्यपि साधारण थी, परन्तु राजत्व का गाम्भीर्य मुख-मुद्रा में था। वह बालिका उसे क्या लक्ष्य कर सकती थी? रॉयल होटल के सर्वश्रेष्ठ कमरे में ज्वलन्त बिजली के प्रकाश में सुन्दर रंगीन कांच और चीनी के पात्रों में अंगरेज़ी ढंग के खाने चुने जा रहे हैं--होटल के सिद्धहस्त कर्मचारी और बैरा ज़र्क-वर्क पोशाक पहने एक यूरोपियन व्यक्ति की देखरेख में सब कुछ सजा रहे हैं। श्रीमन्त महाराजाधिराज के पधारने का समय हो गया है। ठीक समय पर महाराज केवल एक पार्श्वद के साथ पधारे। कर्मचारी ने नतमस्तक होकर महाराज का अभिवादन किया। महाराज ने किंचित् हास्यवदन से इधर-उधर देखा और कर्मचारियों को धन्यवाद दिया। क्षण-भर बाद पूर्व व्यक्ति ने संकेत से गुलबदन और उसकी माता के आगमन की सूचना दी। सब लोग बाहर चले गए। बालिका अस्वाभाविक गाम्भीर्य की मूर्ति बनी उस लोकोत्तर उज्ज्वल कक्ष में प्रातःकाल के परिचित भद्र पुरुष को सम्मुख देखकर देखती रह गई। वृद्धा ने झुककर सलाम किया और बालिका से ज़रा भर्त्सना से कहा बेअदब! महाराज को सलाम कर। बालिका ने ज़रा आगे बढ़कर सलाम किया। महाराज ने उठकर उसे एक कुर्सी पर बैठाया और वृद्धा को भी बैठने का आदेश किया। सबके बैठने पर महाराज ने पूर्ववत् बालिका का हाथ पकड़कर वैसे ही हास्य-मुख से कहा-खूबसूरत तितली पकड़ी गई न! बालिका ने नेत्रों से वही धारा छोड़ी। उसके होंठ फड़के, वह बोल न सकी, मां की ओर देखने लगी। वृद्धा ने कहा-महाराज! सुबह अगर इसने कुछ गुस्ताखी की हो तो हुजूर माफ फर्माएं; लड़की बिलकुल बेअदब तो नहीं, मगर बच्ची ही तो है। 'कुछ नहीं, मगर इसने मुझे पागल बना दिया। मगर सच तो कहो, तुम दिल में नाराज़ तो नहीं? यह इन्तज़ाम तुम्हें दिल से तो पसन्द है?' 'यह इसकी और मेरी खुशकिस्मती है महाराज! आप यह क्या फर्मा रहे हैं? कहां यह कनीज़ और कहां हुजूर?' महाराज बीच ही में बोल पड़े। उन्होंने कहा-मगर मुझे कुछ खास इन्तजाम करना पड़ेगा, और तुम्हें उसमें मदद करनी पड़ेगी। तुम तो जानती ही हो, यह काम बहुत पोशीदा रहेगा। खासकर यह मैं बिलकुल नहीं ज़ाहिर करना चाहता कि यह तवायफ है और मुसलमान है। मैं उसे हर तरह की ऊंची तालीम दूंगा, और उसका रुतबा महारानी के बराबर होगा। अभी पांच साल उसे तालीम पाने का वक्त है। तुम्हें तब तक वहीं उसके साथ रहना पड़ेगा। शहर के बाहर एक पारास्ता कोठी में तुम लोगों के ठहरने का बन्दोबस्त कर दिया जाएगा। वहां तुम्हें जहां तक मुमकिन होगा, कोई तकलीफ न होगी। अब कहो, इसमें तुम्हें कुछ उज्र है? 'मुतलक नहीं हुजूर, मगर मेरा वहां रहना कैसे मुमकिन हो सकता है, सरकार को शायद पता नहीं, मेरा निजू खर्च दो हजार रुपये माहवार है।' 'वह तुम्हें मिलेगा।' 'तब हुजूर के हुक्म को कैसे टाला जा सकता है।' "तुम लोगों को हिन्दू-लिबास में रहना पड़ेगा, और क्या-क्या, कैसे-कैसे किया जाएगा, यह हिदायत कर दी जाएगी। उम्मीद है, समझदारी और होशियारी से काम लोगी। सिर्फ तुम दोनों मां-बेटियां चलोगी। तुम्हारा अपना एक भी नौकर न जाने पाएगा, समझी?' 'जो इर्शाद हुजूर!' 'तब बातचीत खत्म हुई। अब बेतकल्लुफी से खाना खानो-पीओ, मगर एक बात-इससे भी इसका क्या नाम है? गुलबदन!' 'इधर तो आयो प्यारी गुलबदन!' इतना कहकर उन्होंने बालिका का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींच लिया। फिर वही दृष्टि और वही उत्फुल्ल होंठों की फड़कन! महाराज ने अधीर होकर बालिका का प्रगाढ़ चुम्बन ले लिया। बालिका छटपटाकर महाराज के कर-पाश से भागी। वृद्धा ने घटना देखी-अनदेखी करके खाने का आयोजन किया। बालिका ने कहा-अम्मी चलो! 'ठहरो बेटी, महाराज की दावत में हम लोग आए हैं। फिर बिना खाए कैसे जा सकते हैं। बैठो और महाराज से हुक्म लेकर खाना खायो।' बालिका चुपचाप बैठ गई। उसने महाराज की ओर झांककर भी न देखा। खाना खत्म होने पर तत्काल मां-बेटी उठ खड़ी हुईं। माता के आदेश से भयभीत-सी होकर गुलबदन ने सलाम किया और चल दी। इसी समय नौकर ने महाराज के कान में कहा-महाराज, मिस फास्टर ड्राइंग रूम में सरकार की प्रतीक्षा कर रही हैं। महाराज उन्मत्त की भांति उधर लपके। श्रावण की नन्हीं फुहारों से भरी हुई ठण्डी हवा के झकोरे, ग्रीष्म की ज्वलन्त ऊष्मा सहने के बाद कैसे प्रिय प्रतीत होते हैं, मन कैसा मत्त मयूर-सा नाचने लगता है, यह कैसे कहा जाए? नन्हीं फुहारों के साथ हवा के झोंके भीतर घुस रहे थे। बालिका एक मसनद के सहारे बढ़िया विलायती कालीन पर जरदोज़ी के काम की बहुत महीन और बहुमूल्य साड़ी पहने स्थिर बैठी थी। उसकी वह बाल-सुलभ चंचलता, जो मनुष्य का मन अपनी ओर हठात् खींच लेती थी, इस समय उसमें न थी। उसके सम्मुख एक वृद्ध पुरुष अपनी सफेद दाढ़ी को बीच में से चीरकर कानों पर चढ़ाए, बड़ा-सा सफेद साफा बांधे दुजानू बैठे थे। उनके हाथ में तम्बूरा था। वे एमन कल्याण के स्वरों को अपने कम्पित वृद्ध कण्ठ से निकाल, उंगली के आघात से तन्तुवाद्य पर घोषित कर रहे थे। तत्क्षण ही बालिका को उनका अनुकरण करना था। वह उसके मस्तिष्क पर भारी भार था। बालिका उन सुन्दर सुखद झोंकों से ज़रा भी विचलित न होकर वृद्ध के मुख से निकलते और तम्बूरे के तारों से टकराते स्वरों को मनोयोग से सुन रही थी। वृद्ध ने तारों के पास कान झुकाकर कहा-बोलो तो बेटी! तुम्हारा गला तो बहुत साफ है। देखो मध्यम दोनों लगेंगे; समझीं, यह एमन के स्वर हैं। बालिका का भीत-कम्पित स्वर, उसकी माधुरी मूर्ति और कोमल कण्ठ उस अस्तंगत सूर्य की बरसाती प्रभा में मिलकर गज़ब कर गया। वृद्ध पुरुष तम्बूरे पर झुककर मूर्छना के साथ ही वाह! कर गए। उसी कक्ष में एक गद्देदार आरामकुर्सी पर श्रीमन्त महाराजाधिराज एक खिड़की से आती उन्मुक्त वायु का पूरा स्वाद ले रहे थे। बढ़िया फ्रांस की बनी सुगन्धित सिगरेट को एक ओर फेंक वे उठकर बालिका को घूरने लगे। बालिका ने उस ओर देखा। बीच ही में उसका तार टूट गया। वह चुप हो गई। महाराज ने आकर उसके दोनों हाथ पकड़कर उठा लिया। उन्होंने कहा-उस्ताद जी, बस अब आज और नहीं। आप जाइए। वृद्ध पुरुष झटपट उठकर अभिवादन करके चल दिए। उन्हें इस कठिन अवस्था में भी बालिका ने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। महाराज ने बालिका को दोनों हाथों में उठाकर कहा--गुलबदन! तुम कब? प्रोफ! कब-कब! कब?--उन्होंने उसके उसी उत्फुल्ल होंठ को चूम लिया और कसकर छाती से लगा लिया। बालिका मानो मूछित हो गई। वह शिथिलगात्र, निस्पन्द गति से उनके अंक से खिसकने लगी। महाराज ने उसे कौच पर लिटा दिया। बालिका धीरे से उठकर अपने वस्त्र संभालने लगी। महाराज ने कहा-गुलबदन! तुम कितने दिनों में बड़ी हो जाओगी? गुलबदन महाराज का मतलब न समझकर नीची नज़र किए खड़ी रही। महाराज ने कहा-कैसी ठण्डी हवा चल रही है! तुम्हें अच्छा लगता है? बालिका ने स्वच्छ आंखें ऊपर को उठाकर कहा-जी हां। 'तुम्हें मालूम है, तुम्हारा नाम क्या रखा गया है?' 'जी हां!' 'क्या भला?' 'गुलाबबाई'-बालिका के मुख पर हास्य-रेखा दौड़ गई और एक बार बालिका का मुख चुम्बन करके महाराज ने उसे दूसरे कमरे में भेज दिया। उन्मत्त यौवन धीरे-धीरे आया और एकदम आक्रान्त कर गया। पीले रंग पर लाली और चमक, गुलाबी प्रभा पर मानिक की चमक एक अभूतपूर्व रंग दिखा रही थी। किसीपर दृष्टि पड़ते ही कुछ क्षण निनिमेष देखना और फिर उत्फुल्ल होंठों का फड़कना, यह बाल्यकाल का स्वभाव इस गदराए हुए यौवन पर बिजली गिरा रहा था। महाराजाधिराज की आंखों में गुलाब, नस-नस में गुलाब, जीवन और मृत्यु में गुलाब थी। गुलाब को विलास और ठाट-बाट के जो सुख प्राप्त थे, वे पाश्चात्य जीवन के विलासी के लिए कल्पना की वस्तु नहीं। वह महाराज के नौ राजप्रासादों में से किसीको किसी समय अपनी इच्छानुसार, जिस प्रकार चाहे इस्तेमाल कर सकती थी। सैकड़ों दास-दासियां उसकी आज्ञा, वह चाहे जैसी हो, पालन करने और उसके सुख-रक्षार्थ उसकी सेवा में रहती थीं। जो कुछ वह चाहती थी, परिणाम और धन-व्यय का विचार बिना किए तत्काल प्रबन्ध किया जाता था। उसके चित्रमयी वस्त्र, विशेष करके रेशम और मखमल के अचिन्त्य रूप से अमूल्य और बढ़िया होते थे और वह काश्मीर तथा बनारस में विशेष रूप से तैयार किए जाते थे। उसका जेवर कई लाख रुपयों की कीमत का था। कुछ तो उसके लिए पेरिस से मंगाए गए थे। एक उपयुक्त तथा सुखभोगमयी राल्स रॉयस मोटरगाड़ी सदैव उसकी सेवा में रहती थी, जिसपर वह सन्ध्या और प्रातःकाल की सैर करने बाहर निकलती थी। उसकी दूर की यात्रा के लिए महाराज की स्पेशल ट्रेन में उसके लिए सदैव एक कमरा रिज़र्व किया जाता था। ऐसे दुर्लभ राज-सुख उस बालिका को उसके यौवन के प्रारम्भ में नसीब हुए-केवल उस दृष्टि और उन फड़कते होंठों के बदले। दस वर्ष व्यतीत हो गए। दिल्ली स्टेशन पर खूब धूम थी। किसी राजा की स्पेशल ट्रेन आ रही है। अंग्रेज आफीसर और कुली प्रत्येक के मुख पर यही एक बात थी। प्लेटफार्म सज रहा था और नगर के कुछ खास गण्यमान्य व्यक्ति महाराज की स्पेशल ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे। स्पेशल ट्रेन आई। खास कमरे पर खस के पर्दे पड़े थे और उनपर पानी ऊपर से टपक रहा था। बिजली के पंखे की सरसराहट बाहर से सुनाई पड़ती थी। गाड़ी खड़ी होने के कुछ क्षण बाद एक उच्च पदस्थ कर्मचारी ने प्लेटफार्म पर समुपस्थित पुरुषों की अभ्यर्थना करते हुए कहा-श्रीमती महारानी महोदया आप सब सज्जनों की सेवा में अपना हार्दिक धन्यवाद देती हैं। श्रीमन्त महाराजाधिराज कल दूसरी गाड़ी से पधारेंगे। कारण-विशेष से वे इस समय न पधार सके। दो-एक सम्भ्रान्त पुरुषों ने महाराज के स्थान पर महारानी को ही अपना सम्मान प्रदान करने के लिए शिष्टाचार के दो-चार शब्द कहे। हठात् सैलून का द्वार खुला और महारानी स्वयं उतरकर प्लेटफार्म पर आ खड़ी हो गईं। सम्भ्रान्त आगतजन इधर-उधर हट गए। महारानी बारीक धानी परिधान पहने थीं। बहुमूल्य हीरे के आभूषण उनके शरीर पर दमक रहे थे। कर्मचारी और दीवान अवाक् रह गए। महारानी ने किसीकी ओर लक्ष्य न देकर अपने खास खिदमतगार को हुक्म दिया कि वह उनका खास सामान गाड़ी से उतार ले। उनकी इस आज्ञा पर सभी चकित थे। हठात् एक व्यक्ति भीड़ से निकलकर महारानी के निकट आ खड़ा हुआ। महारानी ने आश्वस्त होकर कहा-ज़मीर! मैंने समझा, तुम्हें मेरा तार नहीं मिला! अच्छा, सब ठीक है? 'जी हुजूर, मेल जाने में अभी पौन घण्टा है, फर्स्ट क्लास का डिब्बा रिजर्व है। हुजूर के साथ और कितने आदमी हैं?' 'सिर्फ एक खिदमतगार!' इसके बाद महारानी ने कर्मचारी से कहा-मुझे ज़रूरी काम से अभी बम्बई जाना है, आप लोग महाराज से अर्ज़ कर दें। 'मगर हुजूर! महाराज की तो आज्ञा नहीं है।' 'मैं महाराज की गुलाम नहीं हूं!' 'किन्तु महारानी...!' 'मैं जो कहती हूं, वह करो! ज़मीर, मेरा सामान डिब्बे में ले जाओ।' आगन्तुक स्वागतार्थी सम्भ्रान्त पुरुषों को भीत-चकित करती हुई महोरानी गुलाबबाई उर्फ गुलबदन बेगम' भीड़ को चीरती हुई सामने खड़ी मेल-ट्रेन के फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेण्ट के रिज़र्व डिब्बे में बैठ गईं। कुबेर-नगरी बम्बई में बीसवीं शताब्दी के समस्त वैभव पूर्ण विस्फारित हैं। सम्पदा और ऐश्वर्य का यह जीवन सम्पदा और ऐश्वर्य के उस जीवन से भिन्न है, जो रईसों और राजाओं को प्राप्त है। राजा-रईस खाली जेब रहने पर भी जो शान-ठाट और रईसी चोंचले करते हैं, वे इस कुबेर-नगरी में भरी जेबों से भी सम्भव नहीं। परन्तु धन जहां है, वहां विलासिता है ही, मुंह फाड़कर धन किसने खाया है? धन का यथार्थ मार्ग तो मूत्र-मार्ग है। धन ने जहां यह मार्ग देखा, फिर वह कहां रह सकेगा? एक सजी हुई अट्टालिका में एक सुन्दर, किन्तु जरा भारी शरीर का युवक कौच पर पड़ा प्यासी आंखों से सामने हारमोनियम पर उंगली फेरती हुई सुन्दरी के मुख और उभरे हुए अधढके शरीर को देख रहा है। शराब का प्याला और सुगन्धित शराब का पात्र उसके निकट है। रह-रहकर वह मद्यपान कर रहा है। यह सब है, पर गाने का रंग नहीं जमता। विकल होकर सुन्दरी ने बाजा एक ओर सरका दिया, वह थककर एक कौच पर गिर पड़ी। युवक ने दौड़कर कहाक्या तबीयत अच्छी नहीं, प्यारी? 'नहीं, मुझे ज़रा चुप पड़ी रहने दो।' 'पर मुझसे नाराज़ तो नहीं हो?' 'नहीं, मगर मुझसे ज़रा देर बोलो मत।' युवक स्तब्ध हुआ। सुन्दरी दीवार की ओर मुंह करके लेट गई। वह सोच रही थी, यह कैसा प्रारब्ध-भोग है! हे परमेश्वर! मैं कहां से कहां आ गिरी? भाग्य-चक्र भी कैसा है? उसमें और इसमें कितना अन्तर है, पर जो हो गया वह तो अब लौट सकता नहीं। परन्तु...। उसके मुंह से एक सांस निकली, वह तड़प उठी। युवक ने उठकर उसका सिर गोद में लेकर कहा-गर्मी के कारण तुम्हारी तबियत खराब हो गई है, चलो ज़रा समुद्र के किनारे घूम आएं। गाड़ी बाहर है ही। सुन्दरी सहमत हुई। क्षण-भर में गाड़ी उन्हें लेकर हैंगिंग गार्डन की ओर उड़ रही थी। हठात् एक मोटर बड़े ज़ोर से टकरा गई। ड्राइवर के हज़ार सावधानी करने पर भी युवक औंधे मुंह गिर पड़े। सुन्दरी ने सामने की मोटर में बैठे व्यक्तियों को देखा, उसके मुख से चीख निकल गई। वह सहम कर सीट पर चिपक गई। एक व्यक्ति ने ललकार कर कहा-नाक काट लो। उसके हाथ में रिवॉलवर था। दूसरा व्यक्ति धीरे-धीरे मोटर की ओर बढ़ा। सुन्दरी औंधे मुंह गाड़ी में लोटकर चिल्लाने लगी। युवक ने आगे बढ़कर आततायी को रोककर उसे एक धक्का दिया और उसी क्षण एक गोली उसकी छाती को चीरती हुई निकल गई। आततायी युवती पर छुरी लेकर चढ़ गया। अभी दिन काफी था। सड़क पर यथेष्ट यातायात था। बहुत लोग झुक पड़े। आततायी अब भागने का उपक्रम करने लगे। परन्तु पुलिस की सावधानी और भीड़ की मदद से वे गिरफ्तार हुए। सुन्दरी भयभीत और साधारण घायल अवस्था में अस्पताल में पहुंचाई गई। होश में आने पर उसने अस्पताल के कमरों की खिड़कियों पर दृष्टि गाड़कर देखा-कितनी स्मृतियां आईं और गईं। उस शून्य में उसकी दृष्टि गड़ गई। उसके होंठ फड़के, पर हाय! वहां उस फड़कन को देखने वाला कौन था! युवती दोनों हाथों से मुंह दबा कर रोने लगी-हाय! मैंने क्या किया? 'क्या हुआ?' 'तीन को कालापानी, दो को फांसी, एक पागल हो गया। 'पागल हो गया?' 'जी हां।' ' मगर सभी को फांसी क्यों न हुई?'-फन कुचली हुई नागिन की तरह चपेट खाकर युवती ने बिछौने से उठकर कहा। उसी तरह उसके होंठ फड़क उठे। उसने पूछा--और उन्हें? 'उन्हें गद्दी त्याग देने को विवश किया जा रहा है। सुना है, वे राजपाट छोड़कर यूरोप चले जाएंगे।' युवती के होंठों में फिर फड़कन उत्पन्न हुई। उसकी दृष्टि दूर पर कांपते हुए वृक्ष के पत्तों पर अटक गई। उसके सारे शरीर में कम्प उत्पन्न हो गया। वह उठी। उसने ज़मीन में लात मारकर कहा-मैं अपनी मां की बेटी हूं, मेरा नाम है गुलबदन। बादशाहों की गद्दियां इन ठोकरों से बर्बाद होंगी और लोगों की जानें इन जूतियों पर कुर्बान होंगी--यह मैं जानती हूं, मगर ज़मीर! 'हुजूर।' 'बदला पूरा नहीं हुआ। 'सरकार, सेठ ने एक लाख रुपया आपके नाम विल किया है, यह अदालत में उनके सॉलीसीटर से मालूम हुआ।' 'सेठ दिलदार था, मगर महाराज न था। अफसोस है, बेचारा मर गया। अच्छा, मैं आज ही पंजाब जाऊंगी।' 'आज ही?' 'हां, मेरे एक दोस्त का तार आया है—वे मेरी इन्तज़ारी कर रहे हैं।' 'बेहतर हो कि यहां के झगड़े खतम होने पर जाएं।' 'बेवकूफ, परसों मेरे निकाह की तारीख है!' सुन्दरी एक मर्म-भेदिनी दृष्टि डालती चली गई। 'गुलबदन, बेरहमी न करो।' 'बेरहमी क्या करती हूं?' 'इस वक्त मैं तंगदस्त हूं, रुपया जल्द ही मेरे पास आने वाला है?' 'मगर मैं पेट में पत्थर बांधकर तो जी नहीं सकती?' 'तुम्हें क्या भूखों मरने की नौबत आ रही है? कोठी, बंगला, मोटर, नौकरसभी तो हाज़िर हैं। पांच सौ का मुशाहिरा भी कुछ कम नहीं!' 'मेरे नौकरों के नौकर ऐसे कोठी, बंगले और मोटरों पर औकात बसर करते हैं। और पांच सौ रुपया रोज़ाना खर्च करने की मैं आदी हूं!' 'मगर गुलबदन! मैं राजा तो नहीं!' 'फिर रानियों पर क्यों मन चलाया?' 'रानी भी तो राजी थी!' 'रानी बनी रहे तभी तक!' 'वरना?' 'वरना? वरना रास्ता नापो, मैं अपना ठिकाना देख लूंगी!' 'तुम-तुम यह कहती क्या हो? मैं तुम्हारा शौहर हैं।' 'ज़िन्दगी और जिस्म सलामत रहेगा तो ऐसे हज़ार शौहर पैरों के तलुए सहलाएंगे!' 'तुम्हारा इरादा क्या है?' 'तुम अपना रास्ता देखो, और मैं अपना!' 'यह नहीं होगा!' 'यही होगा, तुम्हारी क्या हैसियत जो मेरी मर्जी के खिलाफ चूं करो!' 'क्या यही तुम्हारा इरादा है?' 'यही है।' 'मैं तुम्हें जान से मार डालूँगा!' 'इसकी इत्तिला अभी मैं पुलिस को किए देती हैं।' सुन्दरी ने टेलीफोन पर उंगलियां घुमाई, खुवक ने घुटनों के बल बैठकर कहा -खुदा के लिए, गुलबदन, ऐसा जुल्म न करो! 'कहती हूं सामने से हट जाओ, वरना ज़लील होना पड़ेगा!' युवक की आंखों से पहले आँसू फिर आग की ज्वालाएं निकलीं। उसने कहा -उफ बेवफा रण्डी! और वहां से चल दिया। दिल्ली में बड़े-बड़े पोस्टर चिपके दीख पड़ते थे, और आबाल-बृद्ध उन्हें पढ़ और चर्चा कर रहे थे। प्रसिद्ध गुलबदन का मुजरा स्थानीय थिएटर में होगा। लोगों के दिल गुदगुदाने लगे। राजगद्दियों को विध्वंस करनेवाली, फांसी और कालेपानी की सीधी सड़क, लगातार शौहर बनाने और बिगाड़नेवाली, वह अद्भत वेश्या कैसी है? थिएटर के द्वार पर उसका एक रंगीन फोटो कांच के आवरण में लगा दिया गया था। लोग देख रहे थे और जीभ चटखा रहे थे। नीचे पांच रुपये से चवन्नी तक के टिकट की दर थी। अभिनय के समय पर भीड़ का पार न था। चवन्नी की खिड़की पर आदमी पर आदमी टूट रहे थे। थिएटर-हॉल खचाखच भर रहा था। क्षण-क्षण में तालियों की गड़गड़ाहट के मारे कान के पर्दे फटे जाते थे। लोग तरह-तरह का शोर कर रहे थे। एकाएक सैकड़ों बत्तियों का प्रकाश जगमगा उठा और वह पुराना सौन्दर्य नये वस्त्रों में सजकर सम्मुख आया। वह स्त्री-जो राजपरिवार की महारानी का पद भोग चुकी थी जिसे सभी सम्पदाएं तुच्छ थीं, आज अपने सौन्दर्य को इस तरह खड़ी होकर चवन्नी वालों को बिखेर रही थी। देखने वाले दहल रहे थे। धीरे-धीरे उसने गाना शुरू किया-साज़िन्दों ने गत मिलाई। चवन्नीवालों ने शोर किया-ज़रा नाचकर बताना, बी साहेब! शोर बढ़ता गया। क्षोभ, ग्लानि और लज्जा से गुलबदन बैठ गई। एक सहृदय पुरुष ने सिर हिलाकर कहा-हाय री वेश्या!!-और वे बाहर निकल आए! वे दूर तक कुछ सोचते और रंगमंच का शोर सुनते अंधकार में वेश्या' के व्यक्तित्व पर विचार करते चले जा रहे थे। पृथ्वी पर कौन इस तरह इस शब्द पर कभी विचार करने का ऐसा अवसर पाएगा?

जयशंकर प्रसाद और आजीवक

प्रसाद की कृतियों में आजीवक प्रसंग: पुदीना कश्यप हिंदी साहित्य के प्रमुख उन्नायक जयशंकर प्रसाद के नाटक 'चंद्रगुप्त' के प्रारंभिक संस्करण में आजीवक प्रसंग में तीन दृश्यों में आया है, जो उनके अगले संस्करण से हटा दिया गया है। यह दृश्य कब और क्यों अलग किया गया, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। यह निर्णय नाटककार की सहमति से क्या लिया गया? कश्यप का यह शोधपरक दस्तावेज़ न केवल आजीवक सिद्धांत के क्रांतिकारी महत्व को दर्शाता है, बल्कि साहित्य और विकिपीडिया के अध्ययन की भी व्याख्या करता है। प्रस्तुत है. अरुण देव द्वारा प्रसाद की कृतियों में आजीवक प्रसंग मित्र कश्यप जशंकर प्रसाद की महिमा ऐतिहासिक-सांस्कृतिक, उपन्यासकार और नाटककार कवि की रही है। उनका नाटक चंद्रगुप्त की गिनती हिंदी के बहुप्रतिष्ठित नाटकों में से एक है। प्रसादजी के अन्य प्रमुख नाटक अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, ध्रुव-स्वामिनी आदि की तरह चंद्रगुप्त भी ऐतिहासिक नाटक हैं। उनके केन्द्रीय पात्र चन्द्रगुप्त मौर्य के देशी-विदेशी सभी ग्रन्थों का उल्लेख है। भारतीय इतिहास में थोड़ा बड़ा सैन्यबल चंद्रगुप्त का था, किसम और राजा का नहीं रहा। यही नहीं भारत की सीमा का विस्तृत विस्तार चंद्रगुप्त के शासनकाल में हुआ, वह भी कभी नहीं आश्वस्त जा सका। आज जिसे वृहत्तर भारत कहा जाता है, असल में वह चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल का सीमांकन है। ऐसे महान सम्राटों के बारे में चर्चा करना स्वतः ही विराट भारत के गौरवशाली राष्ट्रीयताबोध से जुड़ना है। 'चंद्रगुप्त' नाटक का लुप्तप्राय अध्याय चन्द्रगुप्त मौर्य को केन्द्र में रखा गया पहला नाटक डेमोक्रेट नाम के नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय ने 1911 में लिखा था। 1917 में उन्होंने हिंदी में अनुदित कहानी भी कही थी। प्रथम संस्करण के प्रकाशक से पता चलता है कि द्विजेन्द्रलाल राय का नाटक प्रकाशित होने से पहले ही जयशंकर प्रसाद, मौर्यकालीन इतिहास और संस्कृति के विशद अध्ययन की शुरुआत हुई थी। चंद्रगुप्त नाटक का पहला संस्करण प्रेमचंद के सरस्वती प्रेस से छपा था। उनके प्रकाशक से दो महत्वपूर्ण सूचनात्मक संकेत मिलते हैं, जिनमें यहाँ दी गई असफलताएँ शामिल हैं - प्रसादजी ने 1908 में चंद्रगुप्त मौर्य शीर्षक से जो ग्रंथ लिखा था, उसमें डॉक्युमेंट नाटक के प्रथम संस्करण को शामिल किया गया था। उन्हें भारती भंडार, अल्लाहाबाद द्वारा प्रकाशित चंद्रगुप्त का संस्करण में देखा जा सकता है। 1912 में उन्होंने कल्याणी परिणय शीर्षक से रूपक लिखा था। 1929 में नाटक सरस्वती प्रेस में जेपी के बाद प्रसादजी ने कहा कि रूपक को भी 'यथाप्रसंग' में बदल दिया गया और 'परिविभाजित कर' चंद्रगुप्त के प्रस्ताव में शामिल किया गया। कह सकते हैं कि दो साल के अंतराल के बाद यह नाटक 1931 में, जब पहले संस्करण के रूप में बाजार में आया, तो प्रसादजी उनकी कथ्य और शिल्प से जुड़े थे। प्रकाशन में देरी से प्रसाद वाङ्मय के संपादक रत्नशंकर प्रसाद ने स्पष्ट किया कि चंद्रगुप्त प्रसादजी का छठा नाटक था। इसका लेखन स्कन्दगुप्त से पहले हो चुका था, दूसरा प्रकाशन संवत 1988 (ईस्वी 1931) में हुआ था। उनका दो साल पूर्व इसे प्रेस में दे दिया गया था। सरस्वती प्रेस की हालत भी कुछ ऐसी नहीं थी कि वह बड़ा काम जल्दी कर दे। दैनंदिन खर्च छोटी-छोटी चपाइयों से बने थे इसलिए उन्हें पहले मजबूत बनाए रखा गया था। चन्द्रगुप्त को अन्यत्र देना भी संभव नहीं था क्योंकि वह मुंशी प्रेमचंद की प्रेस के साथ रैना लेखक और प्रकाशक भारती भंडार के स्वामी रायकृष्णदास के निजी संपर्क में थे... पाण्डु लिपी 1929 से दो वर्षों तक अमुद्रित पाद राही और 1931 के मध्य में गुप्त कृति। लेखन में भी पर्याप्त समय लगना संभव है, कुछ नए कलाकारों के शामिल होने की प्रतीक्षा हो रही है। [1] ये नए तथ्य क्या रहे होंगे? पहले संस्करण के प्रकाशक से इतना पता चलता है कि प्रसादजी ने नाटक में कल्याणी परिणय को परिवर्तित-परिभाषा कर चंद्रगुप्त का हिस्सा बनाया है, दूसरे संस्करण के प्रकाशक से प्रसादजी ने उसे इतना बदल दिया है कि प्रसंग के और कोई साम्य नज़र नहीं आता। चन्द्रगुप्त नाटक का पाठ इस समय प्रसाद के नाटक चन्द्रगुप्त के दो पाठ मौजूद हैं। प्रथम प्रसाद जन्मशती पर उनके पुत्र रत्नशंकर प्रसाद के संपादन में पाँच खण्डों में प्रसाद न्यास के आन्धिया वाराणसी से प्रसाद वाङ्मय के दूसरे खण्ड में प्रकाशित किया गया। इस पाठ में कुल संतलिस के दृश्य हैं। द्वितीय ग्रन्थ भारती भंडार, वाराणसी द्वारा प्रकाशित चन्द्रगुप्त मौर्यकालीन देखा जा सकता है। इसमें केवल चवालीस दृश्य शामिल हैं। कैपिराइट फ्री के बाद इस नाटक को अन्य प्रकाशकों ने भी छापा है। लेकिन बौद्ध सिंह द्वारा संपादित जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली , सत्यप्रकाश मिश्र द्वारा संपादित प्रसाद के संपूर्ण नाटक और एकांकी सहित बाकी सभी संस्करणों में चावालीस दृश्यों वाला पाठ ही है। विभिन्न स्टार्टअप के पाठ्यक्रम में पढ़ाई चल रही है। निकाले गए तीन दृश्य वे हैं जिनमें आजीवक नामक पात्र शामिल हैं। आजीवक प्रावैदिक भारत की श्रमण परम्परा के उत्तराधिकारी थे तथा घोर अपनी अपरिग्रही प्रथा एवं कठिन व्रतों के लिए जाते थे। जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में उनका बार-बार उल्लेख हुआ है। नाटक में आजीवक की उपस्थिति युगीन परिदृश्य के दर्शन के साथ-साथ हास्य के सृजन का विकास हुआ है। समुद्र-तट पर आजीवक दर्शन का भी संकेत मिलता है। प्रश्न यह है कि आजीवक प्रसंग वाले तीन दृश्यों को कब, क्यों और हटाया गया था। नाटककार की सहमति के लिए क्या था? नाटक के लिए प्रसादजी की अलग से भूमिका नहीं लिखी गई थी, इसकी पुष्टि रत्नाकर प्रसाद ने भी की है। संभवतः 1908 में चंद्रगुप्त मौर्य ग्रंथ शीर्षक से ही उनकी भूमिका मानी गयी थी। आजीवक दर्शन आजीवक दर्शन भारत का प्राचीनतम भौतिक दर्शन है। जैन और बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि महावीर और बुद्ध के समय, आजीवक दर्शन के कम से कम पाँचवें प्रमुख तीर्थंकर मौजूद थे। दीघनिकाय में बुद्ध ने अपनी बहुत प्रशंसा की है। जैन ग्रंथों में उनका उल्लेख विरोधी मतावलंबी के रूप में किया गया है। दर्शन के अलावा वे गणित, ज्योतिष और आयुर्वेद के पंडित थे। उनके गणित संबंधी ज्ञान की पुष्टि भास्कर प्रथम द्वारा आर्यभटीय की टिप्पणियों से भी होती है। मठविदौ मकरीपुराण तीर्थ में आजीवक दर्शन के दो प्रमुख तीर्थस्थल, मकरारी (मखलि गोसाल) और पूरन कस्सप की प्रशंसा शामिल है। भास्कर प्रथम के अनुसार भूमिति अर्थात चतुर्भुजाकार शिखरों के अभिलेखों की खोज के लिए वे ही की थी। चरक संहिता के लेखक अग्निवेषायन के बारे में बताया गया है। आर्थर एल. बॉशम ने अग्निवेशायन को मखलि गोसालक के पूर्व आजीवक के बारे में बताया है। इंडिका और अन्य यूनानी संसाधनों में जिन अचेलक (एनएजीएन) श्रमिकों का उल्लेख है, उनके गुण आजीवकों से मेल खाते हैं। जैन ग्रंथों में ऐसे कई संदर्भ हैं जो आजीवकों के आयुर्वेद और ज्योतिष संबंधी ज्ञान की पुष्टि करते हैं। विद्वानों की बात यह है कि औपनिषदिक युग का सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली दर्शन होने के बावजूद संस्कृत वाङ्मय में आजीवकों का अपवाद-स्वरूप ही दिखाई देता है। महाभारत में आजीवकों को वर्णसंकर और रेशम के समकक्ष राखे के लिए मृत्युदंड की सलामी दी गई है। [2] आजीवकों की पैठ मुख्यतः शिल्पकार, किसान और श्रमिक वर्गों के बीच थी। वायुपुराण में आजीवक दर्शन को अपने श्रम-कौशल के पर अजीवकोपार्जन बल करने वालों का धर्म-दर्शन कहा गया है। जैनग्रंथों के अनुसार मगध के वैभवशाली सम्राट महानंद आजीवक मतावलंबी थे। उनके राज्य में आजीवकों का काफी सम्मान था। उनमें यह भी पाया गया कि नंद के दरबार से सूर्यास्त के समय चाणक ने आजीवक वेष का ही सहारा लिया था। इसके बावजूद उसके मन में अचेलक श्रमिकों के प्रति प्रयास बनी रही। अर्थशास्त्री आजीवक में जैन आदि भिक्षुओं को घर पर भोजन के लिए आमंत्रित कर 100 पैन की रियायती व्यवस्था का निर्देश दिया गया है। आधुनिक, कर्नाटक शताब्दी, आन्ध्रप्रदेश आदि से चौथी-पाँचवीं शताब्दी तक के ऐसे कई अभिलेख मिले हैं जो आजीवकों पर कर लगाने की पुष्टि करते हैं। बुद्ध के समय आजीवक तर्क के लिए जाते थे। चातुर्मास ठीक हो जाता है और वे हमेशा जीवित रहते हैं। उनके भिक्षाटन संबंधी नियम अत्यंत कठोर थे। कोशल नरेश प्रसेनजीत ने अपने लिए कुटागारशालाओं का निर्माण करवाया था। जहाँ वे सैद्धांतिक विषयों पर संवाद करते थे। आजीवक यज्ञ और कर्मकांडों के आलोचक थे। इस कारण ब्राह्मण धर्मग्रंथों में उन्हें पाखंड, नास्तिक, मूर्ख आदि कहा गया है। ब्राह्मणों ने आजीवकों को लोकस्मृति से गायब करने के लिए पहले अपना लोक दर्शन कहा , फिर चार्वाक कहावत शुरू हुई। पुराणों में कहीं उसे वेन का दर्शन कहा गया है, कहीं मायामोह का। कहीं बृहस्पति को उनका श्रेय दिया गया, तो कहीं इंद्र को उनका उपाख्यान बताया गया। चन्द्रगुप्त और आजीवक चंद्रगुप्त को हालांकि जैन ने बताया है, उनके बचपन के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। उस समय अधिकांश शिल्पकार और पेशेवर जातियाँ आजीवक दर्शन में विश्वास करती थीं, इसलिए हम उन्हें अशोक का पैतृक दर्शन कह सकते हैं। चंद्रगुप्त का पुत्र और अशोक का पिता बिंदुसार अपने पैतृक धर्म (आजीवक) में वापस आता है। चंद्रगुप्त के जैन का दावा भी हो रहा है. लेकिन सिद्धांत यह है कि जैन दर्शन की प्रथम संगीति पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के अंतिम वर्षों में हुई थी, उन्होंने जैन होने का बड़ा दावा पेश नहीं किया था। वैसे भी बड़े राज्य का गठन और उसे लैपटॉप रखना आसान काम नहीं था. अपने धार्मिक-दार्शनिक अभिरुचियों को परिष्कृत कर सके, इतना समय शायद ही उसके पास होगा। इतना तय है कि उनके शासनकाल में आजीवक धर्म मगध में उत्तर, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण भारत का सबसे बड़ा धर्म था। यह स्तर अशोक के शासनकाल तक बना रहता है। अशोक आजीवक मतावलंबी भले न रहे हो, लेकिन उसके आजीवक दर्शन से सहानुभूति थी, इसके कई प्रमाण हैं। चंद्रगुप्त ऐतिहासिक नाटक है, इसलिए प्रसाद नाटककार युगीन सत्य के रूप में आजीवकों का उल्लेख नहीं किया गया है, या संबंधित साक्ष्य को पूरी तरह से हटाने की सहमति दे दी गई है, यह किसी भी दृष्टि से याद नहीं है। इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि नाटक की प्रमुख घटनाएँ नंद के समकालीन हैं, जब आजीवक दर्शन राज्य का धर्म था। चन्द्रगुप्त की विजय के साथ ही नाटक का समापन हो गया है। फिर तीन बिंदुओं को कब और हटाया गया, क्यों हटाया गया? चंद्रगुप्त को कई फर्मों के पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया है। तो क्या स्टूडेंट्स के सभी 'अवांछित' आर्टिस्ट को मोशन पिक्चर से नीरापद बनाने के लिए ऐसा किया गया था. या यह आज़ादी उन दिनों से पहले हुई थी, जब हिंदी-हिंदू का पुरुथानवादी दौर चल रहा था। अपने समय का सबसे महत्वपूर्ण दर्शन होने के बावजूद आजीवकों और उनके दर्शन को आलोचकों की निंदा का सामना करना पड़ा। सच तो यह है कि आजीवक दर्शन की चुनौती के बिना वे भारतीय जनमानस में पथ नहीं बना सकते थे। ब्राह्मण धर्मग्रन्थों में सदैव उसे आस्तिक दर्शन माना गया है। हम इस पर आगे भी विचार करेंगे। पहले नाटक के वे दृश्य जो पहले संस्करण (1931) में शामिल थे, जिनमें बाद के संस्करण में लेखक की मात्रा या बिना सामग्री के ही भुगतान किया गया है। चंद्रगुप्त नाटक का आजीवक प्रसंग नाटक में आजीवक श्रमण का प्रवेश प्रथम अंक के पांचवें दृश्य से होता है। उनका परिचय 'बड़ी-बड़ी जटाओं वाला, बांस-सा बांस के लिए चंद्र ओढे आजीवक' शब्द से दिया गया है। आजीवक हाथ में बांस (मस्कर) रखे हुए थे, इसलिए पाणिनि ने उन्हें मस्करिन [3] कहा था। जैन और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार आजीवक राखी अचेलक रहते थे। पाँच आजीवक शास्ताओं में से एक अजीत केशकाबली के शरीर पर बाल से डूबे हुए कमरे में रखे गए थे। आजीवक प्रकृतिवादी थे. जैन ग्रंथों में इन्हें नियतिवादी कहा गया है। (आजीवक किसी भी व्यक्ति की परसत्ता के अनुभव से इनकार करते थे, उनके संदर्भ में सही शब्द नियतिवाद या नियतिवादी है)। नाटक का एक पात्र सार्थक धनदत्त भी नियुक्त है। सहसा वोल-सा बांस के लिए, चंद्रा ओधे एक आजीवक श्रमण उसका सम्मुख ज्ञान जोर से जोड़ता है। धनदत्त चिंतित है. आजीवक लौकने लगता है – धनदत्त : (सक्रोध) तुम हँस रहे हो! आजीवक : तो क्या राउंड? धनदत्त : अरे नहीं-नहीं तुमने सोचा तो दिया ही अब यात्रा के समय रोने भी लगोगे। आजीवक : फिर क्या होगा? धनदत्त : कहीं राह में कुनवे सुख घोड़ा, घोड़ा-बैल मर्चेंडाइज, डाकू घेरे लें। तूफ़ान तूफान लागे. पानी बरसने लगे. रात को प्रेतों का आक्रमण हो, गाड़ियाँ उलटी?' आजीवक : फिर धनदत्त : 'तुम्हारा सर! मैं जा रहा हूँ. इतनी दूर, शकुन देखकर घर से निकला था। तुम पूरे व्यतिपात की तरह मेरी यात्रा में व्याघात बन रहे हो।' [4] जैन ग्रंथों के अनुसार आजीवक शकुन-विचार द्वारा बकवास किया गया था। इससे पता चलता है कि प्रसादजी ने आजीवकों के बारे में अध्ययन किया था और उनके बारे में जो सामान्य बातें प्रचलित थीं, उनका ध्यान अपने नाटक में लगाया था। शकुन विचारक, निरा तंत्र-मंत्र या ज्योतिषीय कर्म नहीं था। इसे उन दिनों की सीज़न आधारित समीक्षाओं की ज़बरदस्ती भी कहा जा सकता है। लोग आने-जाने के लिए किसी अनुभवी व्यक्ति से सीज़न, मार्ग आदि की जानकारी लेकर आए थे। चातुर्मास में हमेशा के लिए रहने वाले आजीवक श्रमण इस काम में उनकी निर्लोभ मदद करते थे। आगे इस क्षेत्र में नौकरानी लोगों का प्रवेश हुआ। लोगों के पैसे घोटाले के लिए उन्होंने शकुन विचार को कर्मकांडीय आयोजन बनाया। नाटक का एक अन्य पात्र चंदन संवाद को आगे ढूँढना है- चंदन : पर जो अपशकुन हो गया। अब हम लोग न पीछे लौट सकते हैं।' आजीवक : यही तो पुरुष कुछ नहीं कर सकता. चंदन : (आश्चर्य से) क्यों? आजीवक: क्योंकि इसमें न कर्तव्य है, न कर्म। धनदत्त : है है...यह तुम क्या कहते हो? आजीवक : यही तो इसमें वीर्य नहीं है। धनदत्त : अरे चन्दन ! कोई उपाय बतायें क्या? वास्तु तो निकल ही गया. अब चैत्य-वृक्ष के नीचे विश्राम या घर ही वापसी चलूँ? फिर कोई दूसरा शकुन देखकर यात्रा होगी। आजीवक : तुम नियति के क्रीड़ा कंद— कुछ न कर सकोगे? आजीवक : नियति जो वही करता है वही मनुष्य के लिए मार्ग है। मूर्ख मनुष्य! वैकल्पिक अपना टांग अड़ाता है. राजपुरुष : अकर्मण्य भिक्षु! यह क्या पाठ पढ़ रहा हो।' चंदन : नियति अगर ढांचा टाँग तोड़ दे? साधुजी! आजीवक : तो तुम मुझे अपनी पीठ पर लादकर मुझे कहाँ जाना है, लाओ दोगे। चंदन : और थोक सामान ढोना मैं स्वीकारोक्ति नहीं? आजीवक: तो कदाचित नियति तारा टांग भी टूट जाएगी।' [5] नाटक के दूसरे अंक के दसवें दृश्य में एक बार फिर धनदत्त, चंदन, माधवी आदि आजीवक शामिल हैं। इस अंक प्रसादजी आजीवक दर्शन के एक और सिद्धांत को व्यक्त करते हैं— धनदत्त : नियति क्या चाहती है? तुम बटालाओगे? आजीवक : यह तो वही जाने! लाखों योनियों में यात्रा करते-करते वह पहुँचने वाले स्थान पर पहुँचता है। [6] आजीवक मानव प्रयास की निस्सारता पर विश्वास करते थे। बुद्ध के समय 'मुक्ति' का प्रश्न बहुत बड़ा था। उस समय उसके चार प्रमुख समाधान या मार्ग निर्गत किये जा रहे थे। जैनों का मानना ​​था कि कर्म से धार्मिकता बहुतायत है। मुक्ति के लिए उन्होंने कर्म-निर्जरा की सलाह दी थी, जिससे निरंतर तपश्चर्या संभव हो सकती है। बुद्ध संसार को दुःखमय माना गया। उनका कहना था कि चित्त-वृत्ति निरोध से इसी जीवन में निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है। ब्राह्मण ववी देवताओं के प्रमाण पर विश्वास करते थे। उनके लिए हजारों सीता की बलि देना उनका नाममात्र का कर्म था। आजीवकों का कहना था कि प्रकृति अपने गुणों से आबिद्ध रहती है। कोई कुछ करे, ना करे, उसकी चाल नहीं कमजोर। कोई ऐसी बाहरी सत्ता नहीं जो उसे अपनी चाल बदलने के लिए मजबूर कर सके। गोसाल के अनुसार जैसे आकाश में नकली सूत की गेंद तुम धीरे-धीरे अपनी खुलती हुई खो जाती हो—विचार ही जीवन के साथ भी होता है। [7] नाटक में आजीवक का वर्णन, 'लाखों योनियों में यात्रा करते-करते वह जिस स्थान पर पहुँचता है, वह आजीवक है' में इस दर्शन की आधार-मान्यता की खोज है। नाटक में आजीवक की तीसरी उपस्थिति तीसरे अंक के दसवें दृश्य में है। चंदन, धनदत्त, आदि एकता हैं। आजीवक धनदत्त से कहा गया है— 'सार्थवाह! अब मुझे नियति का आदेश है कि तू यहां से चल दे।' [8] यहां नियति का आदेश नंद का शासन समाप्त होने का पूर्वाभास है। अनसुलझी पहेली नाटक का प्रथम प्रकाशन जिसमें सभी 47 दृश्य शामिल थे, 1931 में हुआ था। 95 वर्ष बाद भी बृहद हिन्दी समाज को यह नहीं पता कि आजीवक की उपस्थिति में तीन दर्शनीय स्थलों का कब्ज़ा और अवशेष हटा दिया गया था। इस पहेली के समाधान की दिशा में प्रो. कमलेश वर्मा की अभिनय प्रस्तुति होगी। नाटक से तीन अंक निकलने का कारण देखने के लिए वे काफी भिन्न हैं। यह अलग बात है कि उनके काफी प्रयास के बावजूद समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। वर्माजी के लेख को शब्दबिरादरी पोर्टल पर डाउनलोड किया जा सकता है। [9] वर्मा जी ने विश्वनाथ शर्मा की पुस्तक, प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन (1949) का ज़िक्र किया है। इस पुस्तक के अनुसार 1931 में चन्द्रगुप्त का पहला संस्करण आया, इसमें 47 दृश्य थे। दूसरे संस्करण में प्रसाद ने कुछ दृश्यों को मिलाकर कुल कुछ संख्याएँ घटायीं थीं। मगर शर्मा जी की इस पुस्तक में भी 'आजीवक' वाले प्रसंग की कोई चर्चा नहीं मिली। विकी स्रोत भारती भंडार, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित चंद्रगुप्त मौर्य (दूसरा संस्करण) का प्रकाशन वर्ष 1932 है। इसमें केवल 44 दृश्य शामिल हैं। क्रीज़ के स्केच के अलावा नाटक का शीर्षक भी बदल दिया गया था। प्रसादजी ने नाटक का शीर्षक चन्द्रगुप्त रखा था। इस शीर्षक का उन्होंने स्वयं रेखांकन भी किया था, जिसे सरस्वती प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक के आरंभ में देखा जा सकता है। भारती भण्डार से प्रकाशित पुस्तक का शीर्षक था 'मधुर चन्द्रगुप्त मौर्य' । ऐसा क्यों किया गया? इसके लिए प्रसादजी की लीज क्या थी? यह आवेदन प्रक्रिया थी. जो नहीं. पुनश्च: भारती भंडार के संस्करण से तीन अंक निकलने की पुष्टि तो होती है, मिलाए जाने की नहीं। दोनों के शेष सामग्री में भी प्रथम दृष्टया कोई बदलाव नहीं है। डॉ. वर्मा ने सिद्धनाथ कुमार की किताब 'प्रसाद के नाटक' का भी ज़िक्र किया है। बताया गया है कि इस पुस्तक के दूसरे संस्करण (1990) के पृष्ठ 37-38 पर अतिरिक्त दृश्यों की चर्चा है। नवीन के शब्दों में— '1933 में 'चंद्रगुप्त' नाटक का प्रथम मंचन काशी रत्नाकर-रसिक-मंडल द्वारा 14-15 दिसंबर को काशी के न्यू सिनेमा हॉल में हुआ था। मंच की तैयारी और योजना का विवरण क्रम में राजेंद्र नारायण शर्मा का एक व्यापक सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है। शर्मा जी का संदर्भ इस प्रकार है - 'लेखक: प्रसाद का अंतेवासी', नाट्य प्रशिक्षण शिविर- 1972, वाराणसी की स्मारिका, 1972। राजेंद्र नारायण शर्मा के उस लंबे कथा के एक अंश में अतिरिक्त तीन दृश्यों के बारे में बताया गया है, "...एक ब्रह्म संकल्प के साथ सबने प्रसादजी के 'चंद्रगुप्त' नाटक में अभिनय किया। रचना आपको मूल नाटक की कहानी के रूप में मिलती है। पारसी की प्रभुता के युग की मांग को इच्छा नदहे भी उन्होंने अपनी दी। हालांकि प्रहसन ने केवल नाटक के मंचन के बारे में लिखा था, लेकिन उन्होंने इस बात पर ध्यान दिया कि प्रहसन के पात्र और उनकी कथा जो इस युग के लेखक हैं दूसरा और तीसरा दृश्य श्री लक्ष्मीकांत झा ने लिखा है।” (प्रसाद के नाटक - सिद्धनाथ कुमार, अनुपम प्रकाशन, पटना, 1990, पृष्ठ संख्या - 38) राजेंद्र नारायण शर्मा की टिप्पणी हमारी समस्या का समाधान नहीं करें। उन्होंने नाटक का मंचन वर्ष 1933 बताया है, जबकि भारती भंडार के 1932 के संस्करण से पता चलता है कि चारों ओर के दृश्यों को पहले ही हटा दिया गया था। जैसा कि पहले भी कहा गया है, थ्री पॉइंट्स को दोनों संस्करणों की सामग्री में कोई अंतर नहीं है। यदि सांस्कृतिक टिप्पणी सच है तो बस इतना ही कहा जा सकता है कि प्रो सादाजी ने मंच की आवश्यकता को देखते हुए, नाटक के पाठ में तत्काल बदलाव किया हो, लेकिन वह विचारधारा और अवसर विशेष के लिए था। उनके आधार पर प्रकाशित सामग्री को संशोधित नहीं किया गया था। दूसरे नाटक में आजीवक की उपस्थिति केवल प्रहसन के लिए नहीं, बल्कि अस्तित्व सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को प्रभावशाली बनाने के लिए है। प्रो. कमलेश वर्मा, राजेंद्र नारायण शर्मा की टिप्पणी से 'प्रसाद वाङ्मय' के खंड-दो में शामिल किया गया है । इन दृश्यों को केवल उस समय के मंचन के लिए बोल्कर द्वारा लिखा गया था, इसलिए इसमें मूल पाठ शामिल नहीं किया गया था। ये भी है. प्रसाद ने मंचन से जुड़े शुभचिंतकों के प्रेमपूर्ण दबाव के कारण इन तीन फिल्मों को बोलकर लिखना स्वीकार कर लिया था इसलिए नाटक के पाठ का हिस्सा नहीं माना गया। इन पौराणिक दृश्यों की भाषा में अन्य दृश्यों की भाषा भी कम है। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि इनमें प्रहसन की फीलिंग थी।' इस संबंध में मैं पूरी तरह से कहता हूं कि 'प्रसाद वाङ्मय' के खंड- दो चंद्रगुप्त नाटक का जो पाठ है उसमें संवत 1988(1931 ईस्वी) दर्ज है। सम्मिलित 47 दृश्य थे, इसकी पुष्टि जगन्नाथ प्रसाद की पुस्तक से भी होती है। वह नाटक का पहला संस्करण था। वह मंचन की बात संभव ही नहीं थी. तीन फिल्मों को निकाला गया और शीर्षक परिवर्तन कार्य भारती भंडार से दूसरे संस्करण में हुआ। रही के भाषा वकील का सवाल है तो सार्थक धनदत्त, उनकी पत्नी, चंदन और आजीवक श्रमण मूर्ति गैर-अभिजन समाज के प्रतिनिधि हैं। उनकी भाषा मागधी या स्थानीय रही होगी। प्रसादजी ने शैली के भाषा अंकोल का प्रयोग किया है। अन्य हास्य किसी भी नाटक का मुख्य भाग होता है। वह धीरे-धीरे सरल और सहज संप्रेषणीय होगा— जनसाधारण उसका निर्माण ही आनंद ले जाएगा। हम कह सकते हैं कि नाटककार ने प्रसंगानुकूल भाषा का चयन किया था। एक और बात जो सिद्धनाथ कुमार, राजेंद्र नारायण शर्मा आदि के संदर्भ में कही गई है, वह यह है कि वे नाटक में बदलाव की बात करते हैं, मगर आजीवक का उल्लेख नहीं करते हैं। बुद्ध के समय आजीवक भारत का प्रमुख दर्शन था। उत्तर भारत में इसका शीर्षक अशोक के आरंभिक राजवंश तक बना रहा। उसके बाद यह दक्षिण में फला-फूला, जहां तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी तक इसके रहने के प्रमाण बने रहे। उत्तर भारत, अकबर के दरबार में आजीवक (नास्तिक) जिस राजनीतिक दर्शन की गवेषणा करता है, उसकी तुलना अरस्तु से रूस लेकरो, बैंथम सहित आधुनिक ईश्वरवाद के राजनीतिक दर्शन से की जा सकती है। इसके बावजूद इक्का-दुक्का अपवाद को किसी भी संस्कृत या हिंदू धर्मग्रंथ में आजीवकों या उनके दर्शन का उल्लेख नहीं किया गया है। उल्टे उनकी यादों को स्ट्राट्स के लिए लोकायत, चार्वाक, नास्तिक जैसे नाम दिए जा रहे हैं। वैज्ञानिक उपन्यात 'इरावती' के अजीवक प्रसंग पर कभी चर्चा नहीं होती प्रसादजी को पुरुथानवादी लेखक माना जाता है। उन्होंने कालखंड विशेष से संबंधित अजातशत्रु, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त आदि अनेक नाटक लिखे, लेकिन अशोक को छोड़ दिया गया था। साक्षात यह है कि अशोक उनकी हिंदू पुरुथानवादी नीति का हिस्सा नहीं था। ऐसे में एक साक्षात्कार में यह स्पष्ट करना वृथा है कि उन्होंने पहले विस्मृति-गर्त में सामा आशिक आजीवक दर्शन की चर्चा में तत्संबंधी प्रसंग के लिए 'चंद्रगुप्त' का हिस्सा बनाया था। अमृतोदय, वेणीसंहार, प्रबोधचन्द्रोदय आदि अनेक नाटकों में आजीवकों (नास्तिकों) का प्रत्यक्ष या दर्शन होता है। सभी नाटककारों की दृष्टि में उन्हें वैदिक धर्मों की तुलना में हे सिद्ध करने की रही है। युगीन परंपरा के संप्रदाय प्रसादजी की छात्रावास में भी आजीवकों के साथ विचारधारा ही सुलूक हुई है। लेकिन संस्कृत नाटककारों/लेखकों ने सीधे नाम लेने के बजाय जहां मायामोह, महामोह, पाशंड, चार्वाक, नास्तिक, बृहस्पति आदि प्रतीकों का प्रहसननुमा प्रयोग किया था- प्रसादजी ने उनके प्रतिनिधित्व के लिए सीधे आजीवक भिक्षुओं को नाटक का हिस्सा बना दिया है; और बीसवीं शताब्दी में अंग्रेजी में ईसाइयों को याद दिलाते हैं कि भारत में एक समय आजीवक नाम की भी श्रमण परंपरा थी। कदाचित उन्हें लगा कि ऐसा करना नाटक की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को वास्तविकता के करीब ले जाएगा। वे गलत भी नहीं थे. नाटक का बड़ा हिस्सा नंद के शासन में घटता है, जब आजीवक राज्य का प्रमुख धर्म था, इस कारण इसे अन्यथा भी नहीं कहा जा सकता था। ऐसे में नाटक से इन दृश्यों का हटाया जाना कई प्रश्न छोड़ जाता है। इस पर नजर डाली गई कि पहले और दूसरे संस्करण के बीच एक साल का अंतर है। [10] जहां तक ​​प्रसादजी का सवाल है, उनमें तीन फिल्में 'आजीवक', 'धनदत्त', 'मणिमाला' और 'चंदन' से बहुत अनुराग बनी रहेंगी। ये चारों पात्र अपने एक ही विशिष्ट चरित्र के साथ उनके साहित्यिक उपन्यास 'इरावती' के पात्र का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। अधूरा होने के कारण यह दावा नहीं किया जा सकता है कि उपन्यास यदि लेखक के निबंध में पूरा हो गया है तो उसकी वर्तमान सामग्री ठीक उसी रूप में रहती है, जिस रूप में वह दिखाई देती है, लेकिन उनके द्वारा, आजीवक दर्शन के बारे में जानने के लिए जैन बौद्ध और ग्रंथों के गहन अध्ययन की पुष्टि की जाती है। 'इरावती' का विषयवस्तु उस दौर का है जब मौर्य शासन काल में यह तानाशाही हाथों में थी। उनका पुराना वैभव समाप्त हो रहा था। जिस कलिंग को जीतने के लिए अशोक ने भारी युद्ध किया था, वहां के शासक खारवेल सिर पर थे, और शासक शासक के पास मगध की जनता के मन में यवन आक्रमण का भय समाया हुआ था। वास्तविक सत्य सेनापति पुष्यमित्र शुंग के हाथों में थे। ब्राह्मण आश्रमों को सत्ता के विपरीत-गिरजाघरों की ताकत बढ़ाने में मदद मिली। आजीवक, जैन, बौद्ध जैसे श्रमण परंपरा के प्रमुख दर्शनों की गुर्जना पद से आलोचना की गई थी। उपन्यासों में आए 'कुकुरवृत्ति', पाखंड (पाखंड), 'नियतिवादी' जैसे शब्द सार समाज में श्रमण दर्शनों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण का बोध कराते हैं। उपन्यास की कथानायिका इरावती देवदासी है। देव-मंदिर के नृत्य गान। एक बार संपर्क उनका बौद्ध भिक्षु से होता है। उसके प्रभाव में उसने मंदिर छोड़ दिया; भिक्षु संघ में बिना दीक्षा-उपसंपदा का निवास है। वहां वह ज्यादातर दिन टिक नहीं पाता है। एक बार एक शैव साधु वहाँ आता है। इरवती संवाद संवाद करना है. वह शैव-साधक के आनंदवाद के दर्शन से अशामत था, फिर भी भिक्षु संघ की ओर से, 'अपरिचित पाखंड की पापमति से प्रभावित' होने के आरोप में प्रायश्चित को कहा जाता है। इरावती प्रायश्चित करने के बजाय संघ से प्रस्थान कर जाती है। [11] यहां भिक्षु के मुंह से, दूसरे भिक्षु के लिए 'पाखंड' की मूर्ति से चौंकने की आवश्यकता नहीं है। जैसे आज अलग-अलग धर्मों में रेस्टोरेंट चलती है, उन दिनों भी चलती थी। बुद्ध ने बाकी सभी धर्मों को 'मिथ्यादृष्टि' कहा है। यही उनके धर्म के बारे में अन्य मतावलम्बियों का विचार था। कथ्य की अनुकूलता 'इरावती' का धनदत्त 'चंद्रगुप्त' के धनदत्त ही धनाढ्य थे। उनके तीन भूगर्भ सोने से मिले थे, 'इरावती' के धनदत्त के पास भी ठीक-ठाक ही मिलता है। 'आजीवक भिक्षु अपने विश्वासी मित्र' थे, 'इरावती' के धनदत्त की भी आजीवक से मैत्री थी। 'चंद्रगुप्त' में धनदत्त की पत्नी मणिमाला कुछ समय के लिए लापता आजिवक की मदद से लौट आती हैं। 'इरावती' में भी ठीक यही घटना है. 'चंद्रगुप्त' का आजीवक-बात पर नियतिवाद की बात कहती है, 'इरावती' का आजीवक भी नियतिवाद की रात रहता है- 'मनुष्य कुछ कर नहीं सकता', 'मैं तो नियतिवादी हूं, जब सोना होगा तो सो जाएगा', 'आगे जाने नियति। 'लाखों योनियों में पर्यटन आकर्षण-कराते जैसे यहां तक ​​ले आए हैं और जहां भी जाएंगे...', जैसा कि ईसा पूर्व पहली-दूसरी शताब्दी में वर्णित है, मक्खी गोसाल के प्रभाव की याद दिलाते हैं। यह स्वाभाविक था, क्योंकि श्रावस्ती से उजड़ने के बाद आजीवकों ने पाटलिपुत्र के दक्षिण में लगभग 70 किमी दूर स्थित बराकर पहाड़ी समूह को अपना गुप्तचर बनाया था। जहां अशोक और उनके पौत्र दशहरा मौर्य ने अपने लिए संगमरमर की छह गुफाओं का निर्माण करवाया था। ऐसा लगता है कि प्रसादजी ने 'चंद्रगुप्त' के तीन दृश्यों में जो उपकथा सृजित की थी, उनका विमोचन का उन्हें मलाल था। इसलिए इरावती में उसे नए मंदिर के विस्तार की कोशिश की गई है। उपन्यास पूरा नहीं हो पाता. कहा जाता है कि 'इरावती' का लेखन कामायनी (1936) के बाद शुरू हुआ था। अगले ही साल उनका देवास हो जाता है। साफ है कि धनदत्त की उपकथा वे लंबे समय तक मानस में सुरक्षित रहे थे। 'इरावती' में भारत की श्रमण परंपरा के विभिन्न स्वरूप सामने आने की कोशिश की जाती है। तरह-तरह के श्रम 'हर्षचरित्र' में राज्यश्री की खोज में हर्ष विभिन्न मतावलंबी श्रमणों और साधुओं से मिलता जुलता है। ऐसे ही इरावती की खोज में निक अग्निमित्र बौद्धों, शैव-साधुओं, पुनर्जन्मवादियों, कॉम्प्लेक्सकों, निर्ग्रंथों और आजीवकों के संपर्क शामिल हैं। इनमें से अधिकांश अंतरिक्ष आजीवक को मिला हुआ है। 'तपस्वी! तीर्थक! बड़ी-बड़ी जटा! 'तारी!' जैसे शब्दों से प्रसादजी आजीवक श्रमण-तीर्थंकर का मनो पूरा बिंब खड़ा कर देते हैं। [12] हालांकि ये सभी उपन्यासों के ऐतिहासिक स्थलों की प्रामाणिकता को प्रमाणित करने के लिए हैं, न कि किसी भी प्रकार की सहानुभूति के आजीवक दर्शन से- तीसरे में एक आजीवक उसी स्थान पर ग्यान चंदन से लगाया गया- 'धर्मशाला कितनी दूर है, उपासक?' धनदत्त कुढ़ रहा था. उन्होंने कहा- 'धर्मशाला होटल हैं आप?' डुबा मगध मंदिर ही तो है. कहाँ रहना चाहिए. पूछो क्या है, यही सुन कर तो सुदूर यवन-देश से बहुत-से मेहमान आ गए हैं।' 'मैं आपकी बात समझ नहीं सका।' 'आश्चर्य. 'इतनी छोटी-सी बात और इस ईश्वरीय सिद्धांत में नहीं आई।' 'नहीं भी हो सकता है. 'वैकल्पिक बात ही है, मुझे तो भोजन चाहिए, न होगा तो इसी सामने वाले चैत्य-वृक्ष के नीचे पड़ रहूँगा।' 'पड़ रहो. मैं पूछता हूं कि मगध में ही ऐसा अभागा देश है, जहां दरिद्र सिद्धांत उत्पन्न होते हैं? कौन सा सामान नहीं मिला। सोच लिया कि मां के गर्भ से क्या कपड़े पहने आए थे। बस एक सिद्धांत बन गया, पर्यटक घूमने लगे। कभी धोखे से कोई मच्छर भी शैतानों से खानदानकर चला गया, बस प्राण-हिंसा हो गई। संघपर वर्कशॉप रनवे लगे। गधा हो गया कांता. ढोंग ने बनाईं चींटियां दबती हैं। फिर तो हाथ में दार्शनिक वाले सिद्धांत! सिर नहीं घुघुआ— जटाधारी गुड़िया हुए, पानी गरम करके पीने लगे; और ये सब सिद्धांत बन गये! वाह रे मगध!' [13] मार्क्सवादी परम्परा के प्रति कतिपय दर्शन देखे जा सकते हैं। आजीवक श्रमों को जटिल (जटाधारी) भी कहा गया है। जीवहत्या न हो इस कारण वे गर्म जल का सेवन करते थे। संघपर प्लास्टिक प्लांट वाले श्रमिकों से लेखक का काम जैन-मुनियों से है। उनके लिए निर्ग्रन्थ शब्द भी उपन्यास में आया है। पर्यटन वाले ईश्वरीय आजीवक और जैन थे। धनदत्त की पसंद अपनी पत्नी से बिछुड़ने की आखिरी तारीख थी। उसे बताया गया कि उसकी पत्नी मणिमाला किसी आजीवक के साथ चली गयी है। कुछ अंतर्विरोध के बाद मणिमाला आजीवक के साथ ही लौटती है— 'मैंने सुना था कि तू एक आजीवक के साथ कहीं चला गया!' 'चली गई नहीं, चली आई कहिए।' वह आजीवक भी साथ है, जापान की रक्षा में तो मैं जीवित रहूँगा।' उसने गाड़ी की ओर देख कर पुकारा, 'आइए आर्य।' गाड़ी से उतरकर एक आजीवक साधु आया। उसे देखते ही पहले आजीवक ने चिल्लाकर कहा— 'अरे मैं यह क्या देख रहा हूँ? मेरे गुरुदेव.' 'धनदत्त मैंने अंग्रेजी में कुछ नहीं लिया, यह सब लो। मैं अपनी नियति का भोगने से बहुत आगे हूं। आओ वत्स!' [14] मणिमाला के आजीवक के साथ रीव्यू के प्रसंग का उल्लेख चंद्रगुप्त नाटक में भी है। वहाँ आजीवक नन्द की सगाई मणिमाला और धनदत्त की संपत्ति से जुड़ी है। [15] आजीवक विरोधी सम्राट आजीवकों को जो स्वतंत्रता नन्द के समय में थी, पुष्यमित्र के समय नहीं थी। बौद्ध मतावलंबियों और आजीवकों के लिए उन्होंने समय का विरोध किया था। कौटिल्य पूर्ण श्रमण परम्परा के आलोचक थे। यह आजीवक, बौद्ध आदि तीर्थयात्रियों को घर पर आमंत्रित कर भोज पर रखने वाले, शत्रु देशों के जासूस हो सकते हैं, 100 पैन का सामान जाने की सजावट 'अर्थशास्त्र' में थी। [16] यह पूरी तरह से आजीवक, जैन, बौद्ध आदि श्रमण परंपरा के दर्शनों को कमजोर करने की नीति का हिस्सा था। जो गुप्तचर आजीवक, जैन आदि श्रमणों के वेश में जासूसी कर सकते थे, वे ब्राह्मण वेश में भी जासूसी कर सकते थे। अजातशत्रु के मंत्री वस्सकार ब्राह्मण वेष में ही अजातशत्रु की जासूसी हुई थी। 'अर्थशास्त्र' के उस समय के शिल्पकार वर्ग का अनुमान यह भी लगाया जा सकता है, जहां के बीच आजीवकों का बड़ा समर्थक वर्ग था—राज्य की सेवा के लिए मात्र 48 पैन वार्षिक वेतनमान था। मगध में उस समय आजीवकों को लेकर प्रत्यक्ष विधान लागू था। ब्राह्मण पुष्यमित्र को आजीवकों के सफाये के लिए लगातार प्रोत्साहित करते रहे। उन्हें रास्ते का कांता बताया जा रहा था- ' सेनापति! पाखंड छद्यमवेशियों से तारा राजपुरी भरा हुआ है... यदि आप इन कंटकों का उपाय न करोगे तो विनाश में संदेह नहीं। ' [17] उसके बाद महानायक अग्निमित्र के आदेश पर आजीवकों को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके पिता सेनापति पुष्यमित्र आजीवकादि श्रमणों को भिक्षा देने पर दीक्षित हुए थे। राज्य के दबाव में धनदत्त को अजिवकोपासक के रूप में भी देखा जाता है- 'वह कुकुरव्रती सिद्धांत तो हटता ही नहीं।' एक ही तरह की गेंददुरी मारे दोनों केहुनियों के बल कुत्ते की तरह मिलती है।' 'पड़ा रहना दो.' अन्यमनस्क भाव से धनदत्त ने कहा। 'किंतु सेनापति की आज्ञा क्या भूल गए? ऐसे ही सस्ते पाखंडियों को अन्न देने के लिए उन्होंने बर्बाद कर दिया है।' चंदन ने कहा. 'हाँ, उनका उद्देश्य है कि ये सब स्वयं नगर के बाहर भोजन न पाएँ...' [18] जैन ग्रंथों में आजीवकों की विचित्र साधनाशैलियों की चर्चा है। नवीन में से एक था भिक्षान्न को पथरी पर लेकर, बिना हाथ के उपकरण के बिना सीधे मुंह से खाना। कुछ ऐसे थे जो भिक्षान्न को जमीन पर रखवा लेते थे, फिर सीधे मुंह से निकलते थे। पहले लोगों को हाथ-चट्टा या पथरी चट्टा और दूसरी श्रेणी के श्रमण कुकुरावती कहे जाते थे। उपन्यास में बौद्धविहार को कुक्कुटाराम नाम दिया गया है। जबकि कुक्कुटाराम, कुक्कुट्टनगर आदि का संबंध बौद्ध धर्म से अधिकांश आजीवकों से था। जिस दौर में प्रसाद ने इन कृतियों की रचना की, वह भी सांस्कृतिक-राजनीतिक उद्घाटित-विस्तार का था। आज़ादी की लड़ाई अपने अंतिम दौर में प्रवेश कर चुकी थी। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रतिष्ठा में जातिवादी ताकतें सत्ता शिखरों को कब्ज़ा लेना चाहती थीं। तत्वज्ञानी एवं बुद्धिजीवियों के विशाल वर्ग का उन्हें समर्थन प्राप्त था। उनकी सारी कोशिश ब्राह्मणधर्म की पुनर्वापसी थी। ब्राह्मणवाद और उनकी उपकृत शक्तियां, बुद्धि और छल-बल विदेशी शासकों के काल में क्षति की भरपाई में लग गई। ऐसे में जाति-वाद विरोधी, विरोधी, वेद और याज्ञिक कर्म कांडों के विरोधी, पाप-पुण्य-तीर्थ-दान के धुर-विरोधी आजीवक दर्शन को, जो युद्ध से पहले यत्न डंक, तरह-तरह के लांछनों के साथ विचार-विमर्श से किया गया था-- सिद्धांत विमर्श के केंद्र में लाना, दूसरों की मेहनत पर पानी फेर देना जैसा था। संभवतः 'चंद्रगुप्त' के लेखक की इच्छा/अनिच्छा से, नाटक का प्रकाशन हो जाने के बावजूद उसे हटा दिया गया/हटाया गया। इस लेखक की उपकथा और उसका गीतकार मोह था, जिसने उसे अप्रकाशित उपन्यास के हिस्सों के रूप में सुरक्षित रखा।

शनिवार, 5 जुलाई 2025

लिंग प्रकरण पर पुलिस खामोश क्यों है?

पैंट उतरवा कर लिंग देखना है लिंग पसंद करने का हिस्सा तो नहीं है। एक संगठन के ऊपर हमेशा आरोप लगते रहे हैं कि वह समलैगिक पसंद का है। कहा जाता है कि जो लोग विवाह नहीं करते हैं उन्हें लिंग देखनै की जिज्ञासा बनी रहती है। कानून के तहत सहमति के आधार पर बालिग समलैंगिक संबंध रख सकते हैं। असहमति के आधार पर किसी व्यक्ति या नाबालिग का लिंग देखना अपराध है। पुलिस विभाग लिंग देखने वालों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं नहीं कर रही है। लगता है कि किसी समलैंगिक राजनेता के दबाव के पुलिस खामोश है।

शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

मोदी पत्रकारों की नजर में

मोदी जी ने सोते समय करवट ली और पत्रकारों की प्रतिक्रिया अर्नब :- The sheer suddenness of the move, the unexpected nature of the move, the unpredictability of the move, the fact that there was no warning and he took a turn. रजत शर्मा :- आज उन्होंने करवट लेकर दिखा दिया, सब हैरान हैं, विश्व चौंक गया है, विपक्ष की बोलती बंद हो गई है, चीन डर गया है, पाकिस्तान कांप रहा है, और क्या चाहिये? सुधीर :- आज हम जानेंगे करवट लेने के पीछे का मास्टरस्ट्रोक, दाएं तरफ करवट लेते तो विपक्ष उंगली उठा सकता था कि लेफ्ट को पीठ दिखाई है, लेकिन छप्पन इंच छाती बाएं तरफ कर ऊपर की पलक से नीचे की पलकें मिला कर सोते हुए प्रधानमंत्री जी ने कड़ा संदेश दिया कि टाइगर अभी ज़िंदा है अमीष देवगन :- सोते समय भी वो सोच रहे थे कि मेरी जनता का भला कैसे कर सकता हूँ? थोड़ी तो मर्यादा विपक्ष को रखनी चाहिये,एक आदमी 18-18 घंटे एक हाथ पर लेटा है तो आखिर किसके लिए? अंजना :- वो गरीब घर का लड़का था, चुपचाप आम चूस के खाता था, कहने को पास एक कुर्ता था,उसे भी छोटा कर पहनता था,चाय बेचते भी सपने देखता मातृभूमि के,उसके चेहरे पर नन्हे बालक की तरह मुस्कान थी, शायद स्वप्न में देश की सेना को मुफ़्त में चाय पिलाई थी चित्रा :- आखिर राहुल गांधी सामने आकर बताते क्यों नही की वो पेट के बल क्यों सोते हैं, गांधी परिवार घबरा क्यों रहा है सवालों से? मोदी जी की करवट पर भटकाने की कोशिश न करें, हम विपक्ष से सवाल करते रहेंगे ताल ठोक के रवीश :- बड़ी विडंबना है, निद्रा का माहौल है, सवर्ण तबका चैन की नींद सोता है तब क्या हम पूछते हैं कि गरीब मज़दूर कैसे आज सोया होगा? आज उसे रोटी मिली होगी या खाली पेट ही लेटा है? ये गोदी मीडिया ज़हर बन चुका है, टीवी देखना बंद कर दीजिये, कोशिश कीजिये आपको भी नींद आ जाए, आप भी चैन की नींद सो सकें, क्योंकि चौकीदार सो चुका है, और यही इस देश की विडंबना है रुबिका लियाकत :- बिलकुल शेर की तरह लेटे हैं प्रधानमंत्री जी, लेटने में भी राष्ट्रहित सोच रहे हैं, मेरी बहनें, भाइयों, ये ऑपोज़िशन के लोग करवट को भी हिन्दू-मुस्लिम में बाँटना चाहते हैं! शर्म आनी चाहिए इन्हें श्वेता सिंह :- वास्तव में अगर आप इस करवट का एरियल व्यू देखें तो उसमें आपको इंडिया का मैप दिखेगा,यह एक इत्तेफाक नहीं, ये संयोग नहीं प्रयोग है,ये करवट नहीं, अधिकार का विस्तार है अमन चोपड़ा :- अब देखिए न, करवट भी ऐसी ली कि पिलो (तकिया) तक ने सलाम ठोंक दिया! लेकिन ये टुकड़े-टुकड़े गैंग अब कहेंगे कि ये लोकतंत्र की करवट है, शर्मनाक है ये बयानबाज़ी सौरभ द्विवेदी :- देखिए भइया, बात सीधी है जब प्रधानमंत्री करवट लेते हैं, तो देश की राजनीति करवट लेती है,अब आप कहोगे अरे सौरभ भइया, ये कौन-सी बात हुई? तो मैं कहूँगा भइया, बात वही है जो हमारे गाँव की बड़की माई कहती थी 'जो बिसेसा लोटे, ओकरा खरिहान में पगडंडी बनती है' अब इसे आप समझ लो करवट भी अगर प्रधानमंत्री की है, तो पगडंडी बन जाएगी अब आप रविश को सुनो वो कहेंगे, "चौकीदार सो गया",अरे भइया, हमारे गाँव में तो चौकीदार कभी सोता ही नहीं था, वो ठकुराई का आदमी था, रातभर दारू पीकर हल्ला करता था,लेकिन यहाँ दिल्ली में, करवट लेने भर से लोग बवाल काट रहे हैं मैं कह रहा हूँ ये कोई पहली बार नहीं हुआ है कि नेता लेटे हैं,अरे मुलायम सिंह यादव तो खटिया पर पंचायत कर देते थे! हमारे गाँव में तो बाबूलाल कक्का आज भी लेटे-लेटे मछली मारते हैं बगल में जाल, पेट पर बीड़ी अब आप मुझसे पूछिए कि क्या ये करवट चुनावी रणनीति थी? तो मैं कहूँगा भइया, ककहरा में भी 'क' पहले आता है, 'ख' बाद में,राजनीति में भी करवट पहले आती है, बयान बाद में कुछ लोग कहेंगे सौरभ मोदी जी की तरफ है, भइया, हम वो लोग हैं जो गाँव के पोखरे में सबको नहलाने भेजते थे, लेकिन साबुन किसी को न देते थे लखनऊ में जब मैं था.... (माना जाता है कि सौरभ अभी तक प्रतिक्रिया ही दे रहा है, लोग सो चुके हैं) साभार :- असीम त्रिवेदी

गुरुवार, 3 जुलाई 2025

लिंग देखो अभियान - शर्मनाक

लिंग देखो अभियान - शर्मनाक ढाबे पर पैंट उतरवाने की कोशिश में छह हिंदूवादी नेताओं को नोटिस, जानें यशवीर महाराज ने क्या कहा रथेडी चौराहे के पास स्थित वैष्णो शुद्ध ढाबे पर चार दिन पहले यशवीर महाराज और समर्थक पहुंचे थे। आरोप है कि इसी दौरान एक कर्मचारी की पैंट उतारकर उसका धर्म जानने की कोशिश की गई। पुलिस ने जांच शुरू कर दी है। दिल्ली-दून हाईवे पर पंडित वैष्णो शुद्ध ढाबे पर हंगामे और एक कर्मचारी के साथ अभद्रता के मामले में पुलिस ने सख्ती शुरू कर दी है। ढाबे पर कर्मचारी के कपड़े उतारने के प्रयास के मामले में पुलिस ने हिंदू संगठनों के आधा दर्जन कार्यकर्ताओं को बयान के लिए नोटिस जारी कर दिए हैं। चार दिन पहले कांवड़ मार्ग की दुकानों की नेम प्लेट के प्रकरण में रथेडी चौराहे के पास स्थित वैष्णो शुद्ध ढाबे पर बघरा आश्रम के संचालक यशवीर महाराज व अन्य हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ता पहुंचे थे। उन्होंने ढाबे पर कर्मचारियों से ढाबे के मालिक के बारे में जानकारी की थी। उनका कहना था कि ढाबा संचालक का नाम सनव्वर है। यशवीर महाराज ने ढाबे का नाम बदलने के लिए कहा था। आरोप है कि इसी दौरान कुछ कार्यकर्ताओं ने एक कर्मचारी का नाम पूछने के दौरान उसके कपड़े उतारने का प्रयास किया था।

बुधवार, 2 जुलाई 2025

धर्म में ग़लती बताने पर सिर भी क़लम , विज्ञान में नोबेल पुरस्कार - गौहर रजा

तकनीक का इस्तेमाल कर अवैज्ञानिकता को बढ़ावा - गौहर रज़ा संजीव स्मृति व्याख्यान और पत्रकारों का अंतर्संवाद संपन्न इंदौर। धर्म में ग़लती बताने पर फ़तवा दे दिया जाता है, सिर भी क़लम किया जा सकता है, जबकि विज्ञान में अपने से बड़े या पूर्ववर्ती वैज्ञानिक की ग़लती निकालने पर किसी को नोबेल पुरस्कार भी मिल सकता है। विज्ञान के सवाल फिजिकल फोर्स से नहीं बल्कि वैज्ञानिक पद्धति से हल किकिये जाते हैं। धर्म में सवाल 'क्यों' से शुरू होते हैं जबकि विज्ञान में सवाल 'कैसे' से शुरू होते हैं। विज्ञान और धर्म के इस बुनियादी फ़र्क़ को कवि और वैज्ञानिक डॉ. गौहर रज़ा (दिल्ली) ने अपने व्याख्यान में विस्तारपूर्वक बताया। वे वंचित तबकों के हितों के लिए निरंतर सक्रिय रहे पत्रकार संजीव माथुर की स्मृति में आयोजित तीसरे स्मृति दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में "वैज्ञानिक नज़रिये की ज़रूरत" विषय पर बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि सृष्टि में मानव के पैदा होने की अनेक कहानियाँ प्रचलित है। सभी धर्मों की अपनी-अपनी मान्यताएँ हैं। मान्यता अंधविश्वास तब बनती है उसे अक्ल के पैमाने पर कसा नहीं जाता। इसीलिए बुद्ध कहते हैं कि स्वयं परखना ज़रूरी है। दुनिया को बदलना आसान काम नहीं है, लेकिन नये तथ्य सामने आने पर दुनिया के बारे में अपनी मान्यताओं को बदलना पड़ता है। बदलने के संघर्ष की शुरुआत विचारों के संघर्ष से होती है। हमने अपने बड़ों से कभी न कभी यह सवाल ज़रूर पूछे होंगे, ब्रह्माण्ड क्या है, हम क्यों हैं? हम कहाँ से आये हैं? समाज में हमारे बड़े-बुज़ुर्ग अक्सर जटिल सवालों को भगवान की मर्जी कह कर टाल देते हैं। भगवान है अथवा नहीं, ऐसा दावा विज्ञान का नहीं है। जब आप भगवान, अल्लाह, या गॉड जैसी किसी दैवीय शक्ति में यक़ीन करते हैं तो सामान्य नियम वहाँ टूटते हैं। विज्ञान में सामान्य घटनाओं से नियम बनते हैं। हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि आम आदमी जब स्कूल कॉलेज से बाहर निकलता है तो उसका साइंस से रिश्ता टूट जाता है। उन्होंने कहा कि उदारीकरण के बाद समाज में बड़ा बदलाव आया है। अस्पतालों और डॉक्टरों के क्लिनिक में धार्मिक प्रतीक नज़र आने लगे। वर्ष 2014 के बाद तकनीक का इस्तेमाल ज़रूर बढ़ा लेकिन इसका इस्तेमाल कट्टरपंथी ताक़तों ने भी किया। नतीजतन कल तक जो तोता लेकर पटरी पर बैठे थे, आज वह हवाई जहाज में उड़ रहे हैं। देश में वर्ष 2014 से धर्म की बरसात हो रही है। शिक्षण संस्थाओं, अस्पतालों सहित अनेक सार्वजनिक स्थलों में शायद ही कोई संस्थान होगा जहाँ धार्मिक संरचनाएँ, तस्वीरें आदि नहीं हों। बच्चों के पैदा होने से उसकी मृत्यु तक व्यक्ति को धार्मिक संदेश, उपदेश मिलते रहते हैं। दुनिया में सर्वाधिक बिक्री धार्मिक पुस्तकों की ही होती है, बावजूद इसके युद्ध, हिंसा, अनैतिकता में कोई कमी नहीं आई है। गौहर रज़ा ने कहा कि विज्ञान और तकनीक के बिना कोई भी धार्मिक आयोजन सफल नहीं होता। तमाम संत-महात्मा, पीर- फकीर बिना लाउड स्पीकर के उपयोग के अपनी बात ही हज़ारों-लाखों भक्तों से नहीं कर सकते। विडंबना है कि विज्ञान से पैदा हुई तकनीक का उपयोग करके ही वे विज्ञान को कटघरे में खड़ा करते हैं और अवैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देते हैं। उन्होंने अपनी विख्यात नज़्म "जब सब ये कहें ख़ामोश रहो, जब सब ये कहें कुछ भी न कहो, आवाज़ उठाना लाज़िम है, हर कर्ज़ चुकाना लाज़िम है" सुनाई। कौन थे संजीव पत्रकार, एक्टिविस्ट, कवि और नाट्यकर्मी संजीव का निधन 2023 की 28 जून को 48 वर्ष की आयु में हो गया था। वे शुरुआत में आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) और सीपीआई से जुड़े थे। प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से अंत तक जुड़े रहे। उन्होंने कुछ वर्ष इंदौर में भी काम किया था और पत्रकारों का संगठन बनाने का प्रयास भी किया था। अपने अंतिम वर्षों में उनके प्रयास ग़रीब बच्चों को वैज्ञानिक शिक्षा देने और मज़दूरों और दलितों को एकसाथ जोड़कर मोर्चा बनाने पर था। इस वर्ष उन्हें याद करने के लिए संजीव के दोस्तों ने संदर्भ केंद्र, प्रगतिशील लेखक संघ, जन नाट्य संघ (इप्टा), स्टेट प्रेस क्लब आदि के सहयोग से इंदौर में 28 जून को अभिनव कला समाज में कार्यक्रम का आयोजन किया था। मीडिया पर दिनभर हुआ संवाद शाम छः बजे से हुए गौहर रज़ा के व्याख्यान के पहले दिन भर क़रीब पाँच घंटे संजीव को मीडिया पर वैचारिक मंथन के माध्यम से याद किया गया। देश के विभिन्न अंचलों से आये संजीव के मित्र, पत्रकार अन्य प्रबुद्ध जन इंदौर में एकत्र हुए और मीडिया पर अंतर्संवाद के तहत "क्रांतिकारी बदलाव में मीडिया की भूमिका" विषय पर खुलकर चिंतन-मनन हुआ। वरिष्ठ पत्रकार हरनाम सिंह ने कहा कि भारत में मुख्यधारा मीडिया के पतन का दौर 1957 से ही प्रारंभ हो गया था जब देश और दुनिया की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार को सीआईए की मदद से गिराया गया था। उस दौरान समाचार पत्रों की भूमिका बेहद शर्मनाक थी। उन्होंने झूठे, आक्रामक प्रचार के माध्यम से सरकार के खिलाफ माहौल बनाया। पीत पत्रकारिता से होते हुए भारतीय पत्रकारिता वर्तमान में प्रोपेगेंडा पत्रकारिता में तब्दील हो चुकी है। आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के कारण मीडिया संस्थानों पर औद्योगिक समूहों का क़ब्ज़ा हो गया है। मीडिया से गाँव, ग़रीब, आदिवासी, मज़दूर के मुद्दे ग़ायब कर दिए गए हैं। संजीव के साथ पत्रकारिता में साथी रहे बिज़नेस स्टैंडर्ड के वरिष्ठ पत्रकार संदीप कुमार संजीव को याद करते हुए बताया कि संजीव तकनीक का विरोधी न होकर भी अपने संपादक के आदेश के खिलाफ गया और पेज सेटिंग करने कर दिया क्योंकि उससे पेज सेटिंग करने वाले की नौकरी चली जाने वाली थी। उन्होंने मीडिया की भूमिका में आ रहे बदलाव और मीडिया कर्मियों में वैचारिक विचलन को लेकर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि बिना विचार का पत्रकार चैट जीपीटी की तरह केवल कमांड फॉलो करता है जो अपने आप में एक खतरनाक बात है। भोपाल की वरिष्ठ पत्रकार पूजा सिंह ने तहलका में नौकरी के दौरान संजीव के साथ अपने अनुभव बाँटे। उन्होंने मीडिया में व्याप्त लैंगिक असमानता और समाचारों तथा न्यूज़ रूम पर इसके दुष्प्रभावों को उदाहरणों के साथ सामने रखा और मीडिया के भीतर लैंगिक ढाँचे में बदलाव की ज़रूरत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि विभिन्न मीडिया संस्थानों और मीडिया स्कूल्स को जेंडर सेंसिटिव बनाये बिना मीडिया के भीतर लैंगिक संवेदनशीलता नहीं आएगी। रायपुर से आये संपादक और नाट्यकर्मी सुभाष मिश्र ने इस सन्दर्भ में रायपुर में किये गए प्रयोग की जानकारी दी जब उन्हों ने अपने एक चैनल में सिर्फ़ महिला पत्रकारों को नौकरी पर रखा था और उन्हें ढूँढ़-ढूँढ़कर उनसे फ़ील्ड रिपोर्टिंग भी करवाई थी। इस पहल में उन्होंने एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को भी शामिल किया था। बाद में वह चैनल संसाधनों के अभाव में चल नहीं पाया और बंद हो गया। भोपाल से आये एनडीटीवी के मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कार्यकारी संपादक अनुराग द्वारी ने कहा कि हम अपने हिस्से की ईमानदारी बरतें तो ही मीडिया में बदलाव आ सकता है। वर्तमान में खबरों की सच्चाई को रेटिंग से मापा जाता है। हम अपनी इंसानियत को बचाए रखकर ही कर्तव्य पालन कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि जब समूचा मीडिया टीआरपी के लिए मुसलमानों को ईद पर सड़कों पर नमाज़ पढ़ते दिखाने पर आमादा था तो उन्होंने भोपाल के लिए यह कहकर इसकी रिपोर्टिंग से मना कर दिया था कि भोपाल में बहुत बड़ी मस्जिद है और यहाँ लोग सडकों पर नमाज़ नहीं पढ़ते तो मैं क्यों दिखाऊँ। उनका कहना था कि अगर हमने अपने भीतर सच बचाये रखा है तो चाहे मेनस्ट्रीम हो या कोई और माध्यम, हम सच को ही दिखाएँगे। नौकरियों का दबाव होता है, उससे इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन अपना ईमान भी होता है। वरिष्ठ पत्रकार और आउटलुक हिंदी के कुछ समय पूर्व तक संपादक रहे अभिषेक श्रीवास्तव ने कहा कि क्रांतिकारी बदलाव में वर्तमान मुख्यधारा मीडिया की भूमिका नकारात्मक ही होगी। इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। भारतीय मीडिया का चरित्र जन विरोधी है। वह राज्य और वैश्विक पूंजी का हित चिंतक हैं। मीडिया के मालिकों और उद्योगपतियों में गठजोड़ है। वैकल्पिक मीडिया के नाम पर भी अनेक संस्थान एनजीओ बनाकर दुकान चला रहे हैं। मेरा मानना है कि चाहे हम मेनस्ट्रीम में हों या वैकल्पिक पत्रकारिता में या ब्लॉगिंग आदि किसी भी क्षेत्र में, हमें अपनी पत्रकारिता को जन आंदोलन के साथ जोड़कर रखना ज़रूरी है तभी हमारी पत्रकारिता क्रान्तिकारी बदलाव में अपनी छोटी-बड़ी भूमिका निभा सकती है। आयोजन का संचालन करते हुए संजीव के दोस्त रहे प्रलेसं के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी ने कहा कि इस विषय को रखने के पीछे उद्देश्य यह था कि संजीव चाहे कविता लिखता हो, या नाटक करता हो, या शिक्षा के आंदोलन में काम करता हो या पत्रकारिता में नौकरी कर रहा हो, वह सब करते हुए उसकी खोज दरअसल एक बदलावकारी काम करने की थी। जब क्रान्तिकारी बदलाव में मीडिया की भूमिका की बात होगी तो ज़ाहिर है कि वह मीडिया भी मुख्यधारा का पूंजीपतियों के नियंत्रण वाला मीडिया न होकर क्रन्तिकारी मीडिया होगा जो जनता के मुद्दों को प्रमुखता से उठाएगा। रूस, चीन, जर्मनी, क्यूबा आदि अनेक देशों के अंदर क्रांति के और भारत में स्वतंत्र आंदोलन के दौर में, या हाल के वक़्त में नेपाल, वेनेज़ुएला, श्रीलंका आदि देशों में मीडिया की भूमिका को देखकर हम आज की मुश्किलों का हल ढूँढने में इतिहास के अनुभवों और मौजूदा प्रयोगों की मदद ले सकते हैं। ज़रूरत है क्रांति के ख़्वाब को साकार करने की। कविता, गीत प्रस्तुति और पोस्टर प्रदर्शनी भोपाल से आये कवि अनिल करमेले ने "गोरे रंग का मर्सिया" कविता का पाठ किया। आयोजन का शुभारंभ शर्मिष्ठा घोष द्वारा गाये गीतों से हुआ, तबले पर संगत विनय कुमार राठौर ने की। उन्होंने हबीब जालिब कि नज़्म "दस्तूर" और भूपेन हज़ारिका के गीत "ओ गंगा बहती हो क्यों" की प्रस्तुति दी। इस मौके पर रूपांकन की ओर से पत्रकारिता पर आधारित एक पोस्टर प्रदर्शनी और युद्ध विरोधी पोस्टरों की प्रदर्शनी भी लगायी गई थी। परिचर्चा में अभय नेमा, विनोद बंडावाला, जयप्रकाश गूगरी, अशोक शर्मा, चुन्नीलाल वाधवानी, जया मेहता, मौली शर्मा, जयप्रकाश, सुभाष मिश्रा, संजय वर्मा, सारिका श्रीवास्तव, चक्रेश जैन, अथर्व शिंत्रे आदि ने भाग लिया। अतिथियों को बुद्ध की प्रतिमा का स्मृति चिह्न दिया संजीव की जीवन साथी रहीं रश्मि शशि और संजीव के दोस्तों कपिल स्वामी, खुशीराम, मोहिनी, मोहित (दिल्ली) आदि ने और आभार प्रदर्शन बालकराम (दिल्ली) ने किया। कार्यक्रम में दिल्ली, गाज़ियाबाद, जामिया, उज्जैन, रायपुर, बुलढाणा, भोपाल, देवास आदि स्थानों से लोग शामिल हुए। - हरनाम सिंह

मंगलवार, 1 जुलाई 2025

प्रधानमंत्री के क्षेत्र में भी गौरक्षक तस्करी कर रहे हैं

प्रधानमंत्री के क्षेत्र में भी गौरक्षक तस्करी कर रहे हैं प्रदेश में पशु तस्करी का मामला थमने के बजाए और बढ़ता ही जा रही है। आए दिन पुलिस ट्रक में मवेशियों को पकड़ रहे हैं। इसी बीच एक बार फिर पुलिस ने पशु तस्करी का भंडाफोड़ किया है। जहां पुलिस ने 4 लोगों को गिरफ्तार कर 58 गोवंश बरामद किए हैं। गिरफ्तार तस्करों की पहचान शुभम भारती निवासी टिकरी चितईपुर, रतन लाल राजभर निवासी खनाव रोहनिया, विजय शंकर यादव ऊर्फ भोला यादव निवासी नेवादा सुंदरपुर और सत्यपाल सिंह निवासी बैरमपुर अहरौरा मिर्जापुर के रूप में हुई। मामला वाराणसी का है। दरअसल, यहां गौशाला की आड़ में पशु तस्करी हो रहा था। बताया जा रहा है कि यह गिरोह वाराणसी से बिहार के दुर्गावती तक तस्करी कर रहा था। इस बात की जब पुलिस को जानकारी हुई तो पुलिस ने तत्काल एक्शन लेते हुए यहां छापेमार कार्रवाई की और 58 गोवंश बरामद कर लिया। इनमें 38 गायें, 17 बछिया और 3 सांड शामिल हैं। पुलिस ने मौके से चार तस्करों को गिरफ्तार किया है। साथ ही पुलिस ने टाटा एस गोल्ड वाहन और एक मोटरसाइकिल भी जब्त कर ली गई है।

सोमवार, 30 जून 2025

पाखंडी बाबा गिरफ्तार - आश्रम में सेक्स टायज भी बरामद

पाखंडी बाबा के आश्रम से मिले सेक्स टॉयज, इंजेक्शन-वियाग्रा:डोंगरगढ़ में गोवा जैसा आश्रम, कई प्रॉपर्टी; योग सिखाने के नाम पर युवाओं को टारगेट प्रज्ञागिरी पहाड़ी के पास तरुण अग्रवाल उर्फ सोनू (45 साल) जटाधारी साधु के वेश में रहकर आश्रम चलाता था। प्रज्ञागिरी पहाड़ी के पास तरुण अग्रवाल उर्फ सोनू (45 साल) जटाधारी साधु के वेश में रहकर आश्रम चलाता था। पुलिस की कार्रवाई में आश्रम से 2 किलो गांजा, सेक्स टॉय, नशीली गोलियां, वियाग्रा टेबलेट और इंजेक्शन मिले हैं। बताया जा रहा है, तरुण 20 साल से गोवा में था, वहीं से उसने योग सिखा, वहां विदेशियों को योग सिखाता था, डोंगरगढ़ में पिछले डेढ़ साल से साधु के वेश में रह रहा है। आश्रम के वॉशरूम में सेक्स टॉय बरामद किया गया है। तरुण 20 साल तक गोवा में रहा। वहां उसने विदेशी पर्यटकों को योग सिखाने के नाम पर एक नेटवर्क बनाया था। डोंगरगढ़ में भी वह इसी तरह का मॉडल शुरू करना चाहता था। उसने यहां एक आश्रम बनाया और लोगों को बताया कि वह गोवा जैसा हेरिटेज योग सेंटर खोल रहा है। पूछताछ में आरोपी ने खुद को 100 देशों में घूम चुका अंतरराष्ट्रीय योगगुरु बताया। उसने 10 से अधिक एनजीओ का डायरेक्टर होने और विदेशी फंडिंग का दावा भी किया है। पुलिस अब इन एनजीओ, उसके पासपोर्ट, बैंक खातों और सोशल नेटवर्क की जांच कर रही है। आरोपी के पास अलग-अलग देश के योग के सर्टिफिकेट भी हैं। गोवा में भी तरुण की कई प्रॉपटी है। 2 साल पहले वह डोंगरगढ़ आया, यहां जमीन खरीदी और फॉर्म हाउस बनाकर साधु के भेष में रह रहा था, वे लोग फार्महाउस को आश्रम कहते थे। पुलिस के मुताबिक, आश्रम में जब उसे हैवी नशा करने वाले लड़के नहीं मिले तो वह गांजा रखने लगा। योग सिखाने के नाम पर युवाओं को निशाना बनाया। आश्रम में रोजाना रात में लड़कों का जमघट रहता था। लंबे समय से पुलिस को शक था। कई बार रात में पेट्रोलिंग के दौरान भी युवकों को आते जाते देखा गया था। जिसके बाद पुलिस ने 24 जून को रेड मारी। फिलहाल आश्रम को सील कर दिया गया है। बताया जा रहा है कि आरोपी आश्रम को सर्वसुविधायुक्त बना रहा था। अंदर बने रूम बाथरुम में टाइल्स मार्बल लग गए थे। एसडीओ आशीष कुंजाम के मुताबिक, आरोपी के फार्महाउस से करीब कुछ वीडियो उपकरण और विदेश से मंगाए गए बॉक्स भी बरामद हुए हैं। साइबर सेल इनकी जांच कर रही है। सेठ श्री बालकिशन प्रसाद अग्रवाल मेमोरियल फाउंडेशन के नाम से है आश्रम। आरोपी का परिवार डोंगरगढ़ का मूल निवासी है। शहर में सेठ परिवार के नाम से जाना जाता है। उनका आश्रम भी सेठ श्री बालकिशन प्रसाद अग्रवाल मेमोरियल फाउंडेशन के नाम से है। आरोपी ने डेढ़ साल पहले 6 करोड़ में इस आश्रम को खरीदा था। जो अब भी अंडर कंस्ट्रक्शन है। उनके बड़े भाई ठेकेदारी करते है जो अग्रवाल समाज के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। पिता का बहुत पहले देहांत हो चुका है। एक मंझले भाई की फॉर्चून की दुकान है। वर्तमान में आरोपी तरुण कथित गुरु के नाम से प्रचलित है।

शुक्रवार, 27 जून 2025

आजादी के क्रांतिकारी

लाल रंग वाले कम्युनिस्ट आजादी आंदोलन में क्या कर रहे थे? ------------‐------------------------------------------------------ लाल रंग वाले कम्यूनिस्टों की भूमिका और जबाब १. मुजफ्फर अहमद: मेरठ षड्यंत्र मामले में ब्रिटिश सरकार द्वारा उम्र कैद। जेल में कटी पूरी जवानी। कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य। २.गणेश घोष: चटगांव शस्त्रागार की लूट के नायक, जलालाबाद के पहाड़ों में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ सूर्य सेन के नेतृत्व मे लड़ाई। 16 साल सेलुलर जेल में कैद। छूटने के बाद 1952,1957 और 1962 में कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक और 1967 में माकपा के सांसद। ३.कल्पना दत्त: सूर्य सेन और प्रितीलता वाद्देदार की सहयोगीनी, चटगांव विद्रोह के प्रमुख चेहरों में से एक। कालापानी की सजा मिली। 6 साल सेलूलर जेल में । मुक्ति के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से चुनाव में उम्मीदवार बनी। कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव पूरणचंद जोशी की जीवनसंगीनी। ४. सुबोध रॉय: चटगांव शस्त्रागार की लूट और जलालाबाद की मुक्ति संग्राम के युवा सैनिक। सेलुलर जेल में 10 साल सश्रम कैद। मुक्ति के बाद 1940 से मृत्यु पर्यंत कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य। माकपा के पश्चिम बंगाल राज्य समिति सदस्य। ५. अंबिका चक्रवर्ती: चटगांव विद्रोह के लिए 16 साल सेलुलर जेल में कैद। 1947 मे मुक्ति के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य। 1952 मे भाकपा से पश्चिम बंगाल के विधायक। ५. अनंत सिंह: चटगांव विद्रोह के लिए सेलुलर जेल में 20 साल की कैद। 1946 मे मुक्ति के बाद वह कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। ६.शिव वर्मा: भगत सिंह के सहयोगियों में से एक। लाहौर षड्यंत्र मामले में भगत सिंह के साथ गिरफ्तारी। भगत को फांसी और शिव सिंह वर्मा आजीवन के लिए अंडमान सेलुलर जेल में निर्वासित्। मुक्ति के बाद कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव रहे। ७.हरेकृष्ण कोनार: ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के लिए 6 साल, अंडमान सेलुलर जेल में कैद। जेल में क्रांतिकारियों के साथ कम्युनिस्ट ग्रुप का गठन किया। बाद में, कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्य नेतृत्व में से एक रहे। 1957,1962, 1967, 1969 व 1971 मे पश्चिम बंगाल के विधायक चुने गए। बंगाल मे भूमि सुधार आंदोलन के जनक। 1967 और 1969 मे भूमि व राजस्व मंत्री के कार्यकाल मे जमींदारो की लाखो एकड़ बेनामी जमीन अधिग्रहित की जो बाद मे 24 लाख भूमिहीन और गरीब किसानो मे बांटी। ८. लक्ष्मी सहगल: नेताजी आजाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजिमेंट की कप्तान। इम्फाल और कोहिमा फ्रंट में ब्रिटिश फौज से लडी। मृत्यु पर्यंत मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य। माकपा से राज्यसभा सदस्य रही। ९. जयदेव कपूर: भगत सिंह के सहयोगी। आजीवन के लिए अंडमान सेलुलर जेल में निर्वासित्। मुक्ति के बाद कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल। १०. अजय घोष: लाहौर मामले में भगत सिंह के साथ। अंडमान में आजीवन कारावास की सजा। जेल मे ही 1931 मे वह कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। बाद में कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं में से एक। पार्टी के महासचिव भी बने। ११.किशोरी लाल: भगत सिंह के सहयोगी। लाहौर षड्यंत्र मामले को एक साथ गिरफ्तार किया गया और आजीवन कारावास की सजा। जेल मे ही 1942 मे वह कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। 1946 मे मुक्ति के बाद पार्टी के निर्देश पर मजदूर संगठन का नेतृत्व। 1952 मे गोवा मुक्ति आंदोलन मे हिस्सेदारी। माकपा के पंजाब राज्य समिति सदस्य। १२.सतीश पाकडाशी: कोलकाता मेछुआ बाजार बम मामले में 10 साल की सजा के साथ सेलुलर जेल भेजे गए। मुक्ति के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक। १३. पूरणचंद जोशी: मेरठ षड्यंत्र मामले में आजीवन कारावास। कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव। १४.अरुणा आसफ अली: 1942 मे भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत का तिरंगा फहराने वाली नायिका। 1946 की नौसेना विद्रोह के आयोजकों में से एक। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में 66 युद्ध पोतों और 10,000 नौसेना बलों की ब्रिटिश विरोधी सेना की नायिका। भारत रत्न से सम्मानित। १५. बीटी रणदिवे: 1925 से 1942 तक अपने सर ब्रिटिश सरकार के गिरफ्तारी वारंट के साथ सत्रह वर्ष किसानों और श्रमिकों को संगठित किया। साम्राज्यवाद के खिलाफ नौसेना विद्रोह के समर्थन में, पूरे भारत ने पहली हड़ताल का आयोजन किया। कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख चेहरे में से एक। माकपा के पहले पोलिटब्यूरो के सदस्य। १६. ईएमएस नंबूदिरीपाद: 1934 से 1942 तक उन्होंने लगभग अपनी पूरी जवानी ब्रिटिश सरकार के गिरफ्तारी वारंट के साथ भूमिगत कार्य दिया। बाद में, केरल में भारत की पहली कम्युनिस्ट सरकार के मुख्यमंत्री बने। १७. हरकिशन सिंह सुरजीत: 14 साल की उम्र मे भगत सिंह के नौजवान भारत सभा मे शामिल। 16 साल की उम्र मे होशियारपुर कचहरी पर यूनियन जैक उतार तिरंगा फहराया। गिरफ्तार होकर अदालत लाए गए तो नाम पूछने पर अपना नाम लंदन तोड़ सिंह बताया। जेल की सजा हुई। 1936 मे कम्युनिस्ट पार्टी मे शामिल। दसवी की परीक्षा के फॉर्म मे अपनी जन्मतिथी भगत सिंह के शहादत की तिथी 23 मार्च लिखवाई। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश राज के खिलाफ भूमिगत रहकर आंदोलन तो 1940 मे गिरफ्तार। लाहौर लाल किले मे एकांत कारावास। अग्रणी कम्युनिस्ट नेता। माकपा के पहले पोलिटब्यूरो के सदस्य। १८.वीरेन्द्रनाथ दासगुप्ता: छात्र के रूप मे जर्मनी जाने के बाद भारतीय क्रांतिकारियों को हथियार भेजा तो हिटलर की टुकड़ी द्वारा गिरफतार कर कारावास की सजा दी गई। बाद में आजीवन कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य। १९.सौरीन्द्रनाथ ठाकुर: जब छात्र थे तब ही जर्मनी भाग गए। भारतीय स्वतंत्रता लीग के बर्लिन इंडिपेंडेंट लीग के सदस्य के रूप में, उन्होंने भारत के क्रांतिकारियों को हथियार देने का कार्यभार संभाला। हिटलर की नाजी सेना ने कब्जा कर लिया और कैद किया। कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। २०. शौकत उस्मानी: मेरठ षड्यंत्र मामले में मुख्य आरोपी। कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य। आजादी की लड़ाई के दौर मे प्रमुख षड्यंत्र मामलो- पेशावर षड्यंत्र मामला, लाहौर षड्यंत्र मामला, मेरठ षड्यंत्र मामला, कानपुर षड्यंत्र मामला और कोलकाता (मेछुआ बाजार) षड्यंत्र मामले मे लगभाग सभी अभियुक्त कम्युनिस्ट थे। इन मामलो के सरकारी आरोप पत्र बार बार इस बात की तसदीक करते है की ब्रिटिश हुकूमत को ये कम्युनिस्ट षड्यंत्रकारी उखाड़ फेंकना चाहते है। लाहौर मामले मे अभियुक्त शिव वर्मा, जयदेव कपूर, किशोरीलाल आजीवन कालापानी भेजे गए। रिहा होने के बाद ये सभी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बने। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को फांसी हुयी। अगर ये जीवित रहते तो निश्चित ही यह तीनों भी कम्युनिस्ट पार्टी मे ही शामिल होते। अंडमान सेलूलर जेल मे कैद की सजा पाए गणेश घोष, हरेकृष्ण कोनार, कल्पना दत्त, सुबोध रॉय, अंबिका चक्रवर्ती, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, अजय घोष, किशोरी लाल, सतीश पाकडाशी आदि ने सेल्युलर जेल मे कम्युनिस्ट ग्रुप बनाकर आगे का रास्ता तय किया। इनमे अधिकांश देश की आजादी के बाद ही छूटे। बीसियों और ऐसे है जो जेल मे ही कालकलवित हो गए,

गुरुवार, 26 जून 2025

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 24 सीटों पर दावेदारी, तेजस्वी यादव - डी. राजा मिले

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 24 सीटों पर दावेदारी, तेजस्वी यादव - डी. राजा मिले : कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव डी. राजा ने 26 जून को राजद नेता तेजस्वी यादव से मुलाकात हुई . बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गई है. इसी क्रम में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव डी. राजा की पटना में नेता प्रतिपक्ष एवं महागठबंधन समन्वय समिति के संयोजक तेजस्वी प्रसाद यादव से मुलाकात हुई . भाकपा ने बिहार में 24 सीटों पर चुनाव लड़ने की इच्छा जताई है. भाकपा की ओर से जिन दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की दावेदारी की गई है, उनमें तेघड़ा, बखरी, बछवाड़ा, हरलाखी, झंझारपुर, रूपौली, फुलवारीशरीफ, डुमरांव, गोह, बांका, बेलदौर, केसरिया, चनपटिया, मोतिहारी, जाले, बारिसनगर, सिकन्दरा, खजौली और करगहर शामिल हैं.
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