शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

सुविधा और दलबदल की राजनीति के जनक डा. लोहिया...

सुविधा और दलबदल की राजनीति के जनक डा. लोहिया... आजाद भारत की राजनीति के नैतिक पतन की शुरूआत .. आईये चलते है १९६७ में... सुविधा और दलबदल की राजनीति जिसने 1967 के चुनावों से भारत के राजनीतिक जीवन को त्रस्त कर दिया है और भारतीय लोकतंत्र को आपदा के कगार पर ला दिया है, बिहार के साथ शुरू हुआ । डॉ. लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बिहार में 1967 के चुनाव में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी थी, जिसमें 68 सीटें पायी थीं। जनसंघ और भाकपा को 25-25 मिले। कांग्रेस हालांकि अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनी रही, लेकिन वह स्पष्ट बहुमत हासिल करने में नाकाम रही । इससे डॉ लोहिया को बिहार राज्य में सबसे पहले अपनी एक गैर-कांग्रेसी गठबंधन मंत्रालय के प्रस्ताव को लागू करने की कार्रवाई की कोशिश करने के लिए प्रोत्साहित किया , जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी और जनसंघ दोनों को भागीदार होना चाहिए था। ऐसी अनैतिक कोशिश को जनसंघ और वामपंथियों द्वारा एकमुश्त अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए था, जिस जनसंघ ने तो अप्रैल १९६६ में जलंधर में आयोजित अपने पूर्ण सत्र में कम्युनिस्ट पार्टी के साथ किसी भी आकार के रूप में सहयोग के खिलाफ मतदान किया था । यह कम्युनिस्ट पार्टी के लिए भी उतना ही प्रतिकूल था कि फासिस्ट सोच वालों के साथ कैसे दे सकते हैं । लेकिन वामपंथियों में घुसपैठ करने या उन्हें खाने की वस्तु के साथ बिल्कुल अलग और विपरीत दलों के साथ संयुक्त मोर्चों का गठन कम्युनिस्ट पद्धति का एक अच्छी तरह से मान्यता प्राप्त हिस्सा है जो "साधनों को न्यायोचित ठहराने के सिद्धांत" पर आधारित है। इसके अलावा प्रस्तावित गठबंधन के सरगना एस. एस. पी .के साथ भाकपा के संबंध काफी सौहार्दपूर्ण माने जाते थे और उन्होंने चुनाव में भी सहयोग किया था। लेकिन जहां तक जनसंघ का सवाल था, एस.एस.पी .के लिए भी उसका कोई प्यार खत्म नहीं हुआ था ( प्रीत पुरातन लखई न कोई .. वाली स्थिति ) । इसने एस.एस.पी . को कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशित क्षय और विघटन से उत्पन्न वैक्यूम को भरने की दौड़ में अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानता था । इसलिए जब यह घोषणा की गई कि बिहार जनसंघ प्रस्तावित गठबंधन में शामिल होगा तो सभी डेमोक्रेट्स के लिए यह दुखद आश्चर्य की बात थी . यह जानकर और ज्यादा हैरानी जनसंघ के उस समय के अध्यक्ष को हुई कि इस निर्णय को आरएसएस आलाकमान का आशीर्वाद भी मिला है । बिहार मे हरी झंडी मिलते ही पंजाब, उ. प्र. और हरियाणा , मध्य प्रदेश में गठबंधन सरकार का रास्ता खुल गया। लेकिन कम्यनिस्टों के साथ मिलने पर भी उ.प्र. , मध्य प्रदेश, हरियाणा और पंजाब मे विरोधियों की सरकार नहीं बन पा रही थी तो इसका उपाय कांग्रेस पार्टी में जयचंद खोजकर किया गया। उ.प्र. से चौ. चरण सिंह, मध्य प्रदेश से जी.एन .सिंह और हरियाणा से राव वीरेंद्र सिंह, बंगाल मे अजय मुखर्जी जय चंद मिले और जाहिर है सभी जयचंद मुख्य मंत्री बन गये , महान लोहिया के कृपा से। लोहिया की नेहरू, इंदिरा के घृणा का परिणाम भारतीय राजनिति के लिये बड़ा भयावह साबित हुआ। आज की दिल्ली की सरकार उसी लोहिया के महानता का परिणाम है। इस पंचमेल गठबंधन सरकार का आधार कोई वैचारिक धरातल तो था नहीं, यह ईर्ष्यां , द्वेष , घृणा, रूपया और कुर्सी के लोभ का परिणाम था। अत: बहुत ही जल्दी इसके आंतरिक अंतर्विरोध सामने आने लगे और एक -एक करके सभी सरकारे गिरने लगी। गठबंधन सरकार की सफलता की जो भी कंडीशन थी उसे कभी भी पूरा नहीं किया गया और गठबंधन के विभिन्न विचार के दल एक दूसरे की टांग खीचने का कोई मौका जाया नही करते थे। सबको पता था कि मध्यावधि चुनाव कभी भी हो सकते थे, अत: सभी अपने को मजबूत और दूसरे को कमजोर करने का कोई मौका हाथ से जाने नही देते थे। सरकार गिरने पर जब मध्यावधि चुनाव हुआ तो सबसे ज्यादा नुकसान जनसंघ का हुआ , सभी जगह उसकी सीटे घट गयी, उदाहरण के तौर पर U.P. में जनसंघ कि ९८ सीटें थी , चौ. चरन सिंह १६ विधायक लेकर आये थे , चुनाव में वे भारतीय क्रांति दल बनाकर लड़े । जनसंघ ९८ से ४७ पर सिमट गयी और चौ. चरन सिंह ९९ पाकर मुख्य विरोधी दल बन गये। इस प्रकार लोहिया सुविधा की राजनिति और दल बदल के गेम के जनक बन गये और चौ. चरण सिंह उसके महान खिलाड़ी बनकर प्रधान मंत्री की कुर्सी तक उसी रास्ते से प्राप्त किया। नयी पीढ़ी को इन महान लोगों के बारे में कुछ पता नहीं ..... drbn singh.

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सुमन
लोकसंघर्ष