वर्तमान विश्व संकट: कारण और स्वरूप
पिछले लगभग एक सदी में ओद्योगिक अर्थव्यवस्था में भारी परिवर्तन हो गए है। वित्त पूँजी उत्पादक पूँजी से अलग होकर स्वतन्त्र स्वरूप धारण कर चुकी है। विश्व दो महायुद्धो से गुजर चुका है । और उसका बहुत बड़ा आर्थिक कारण वित्त पूँजी है । 19 वी सदी के अंत तथा 20 वी के आरंभ में पश्चिम में विशाल इजारेदारियो एवं एकाधिकारियो का विकास हुआ। कार्टेल ,ट्रस्ट ,कारपोरेशन इत्यादि ने अर्थतंत्र को अपने हित में इस्तेमाल करना शुरू किया । अर्थात आर्थिक साम्राज्यवाद का जन्म हुआ। ऐसी ही कंपनिया आगे चलकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों ( ऍम .एन .सी ) में रूपांतरित हो हो गई।
इजारेदारी और साम्राज्यवाद का एक महत्वपूर्ण आधार है 'वित्त पूँजी' इस शब्द का प्रयोग अक्सर ही लोग बिना सोचे समझे कहते है। लेकिन यह एक वैज्ञानिक सिद्धांत है। पश्चिम में हॉब्सन ,हिल्फर्डिंग ,लेनिन ,रोजा , लाक्सेम्बर्ग ,कार्ल कॉउस्की ने वित्त पूँजी और साम्राज्यवाद की अवधारणाएं विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ।जब ओद्योगिक पूँजी बैंकिंग की पूँजी के साथ मिल जाती है तो वह एक शक्तिशाली ताकत अर्थात वित्त पूँजी बन जाती है। वह समूचे अर्थतंत्र पर छा जाती है।
अर्थतंत्र की गति -
ओद्योगिक विकास सीधी रेखा में गमन नही करता है। उसमें उतार-चढाव आते है। लेकिन ये उतार चढाव बेतरतीब नही होते उनकी एक निश्चित बारंबारता होती है जिसकी कालिक भविष्यवाणी की जा सकती है। अर्थतंत्र में उभार उच्चतर बिन्दु पर होता है । यह आर्थिक चक्र या चक्रीय विकास मार्क्स की खोजो में एक था।
एकाधिकार कारोबार और वित्त पूँजी इस चक्र को विकृत करते है । अब उसकी बारम्बारता में स्वाभाविकता नही रह जाती है। 1929 -33 की महामंदी ने सारे विश्व ,खास तौर पर यूरोप और अमेरिका को अपनी चपेट में ले लिया था । उत्पादन में भारी गिरावट ,मुद्रा का अवमूल्यन ,स्टॉक बाजारों का धराशाई होना ,और बेकारी इसकी विशेषताएं थी ।
यह वित्त पूँजी का दबदबा था जिसके ओद्योगिक और कृषि उत्पादों की कीमतें धराशाई हो गई ,खासकर छोटे एवं व्यक्तिगत उत्पादक बरबाद हो गए और ओद्योगिक व्यवस्था बिखर गई , इस प्रकार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा ,वित्त पूँजी, अपने ही एक आत्म हिस्से ,ओद्योगिक अंश को नष्ट करने लगती है ।
-अनिल राजिमवाले
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