अभी हाल ही में (जून 2009 में) रूस के येकातेरिनबर्ग नामक शहर में ‘ब्रिक’ देशों का शिखर सम्मेलन हुआ। ‘ब्रिक’ का अर्थ है: ब्राजील, रूस, इण्डिया (भारत) और चीन। इन देशों के अंगे्रजी नामों के पहले अक्षरों को मिलाकर ब्रिक बनता है। इसके अलावा शिखर सम्मेलन के तुरंत बाद ही शंघाई सहयोग समिति (एस0सी0सी0) की बैठक भी हुई। यह देशों का मिलाजुला संगठन हैं जिसमें रूस, चीन और भारत शामिल हैं।
उपर्युक्त सम्मेलन आज के विश्व और वैश्विक अर्थतंत्र में विकासमान देशों की बढ़ती भूमिका दर्शाते हैं। द्वितीय विश्व यु़द्ध के बाद साम्राज्यवादी संकट के फलस्वरूप अधिकतर पिछड़े देश आजाद होते चले गये। लेकिन इन नये आजाद देशों के सामने सबसे बड़ी समस्या थी आर्थिक पिछड़ेपन की, जो उन्हें राजनैतिक तौर पर भी स्थिर नहीं होने दे रही थी।
पिछड़े और विकासमान देशों की एक सम्पूर्ण श्रेणी ही उभर आई जिन्हें सबसे बड़ा खतरा साम्राज्यवाद से था। इन पिछड़े देशों के सामने कृषि, उद्योगों, भारी मशीनों, यातायात, बाजार, अर्थतंत्र इत्यादि के विकास की समस्याएं मँुंह बाए खड़ी थीं। संसाधन, स्रोत, धन एवं पूँजी तथा तकनीक कहाँ से आयेगी? ऐसे में समाजवादी देश सहायता को आगे आये। गुट निरपेक्ष आंदोलन का जन्म हुआ।
विकास की रणनीति:-
अपने अर्थतंत्रों का विकास करने के लिए पिछड़े देशों ने नई रणनीति अपनाई। इसलिए उन्हें विकासमान देश भी कहते हैं। कुल मिलाकर यह रणनीति समाजवादी देशों के साथ मिलकर अपने पैरों पर खड़े होने की अर्थात आत्मनिर्भरता की रणनीति थी। इसलिए यह साम्राज्यवाद विरोधी नीति थी और है। साम्राज्यवाद, खासकर अमरीकी साम्राज्यवाद, कभी भी नहीं चाहता है कि कोई भी विकासमान देश आर्थिक तौर पर मजबूत हो और आत्म निर्भर बने। इन विकासमान देशों में भारत भी शामिल है। उसकी आर्थिक और विदेश नीति हमेशा ही साम्राज्यवाद विरोध की रही है।
युद्धोत्तर काल में पिछले लगभग पाँच से छह दशकों में विकासमान देशों में भारी परिवर्तन आया है। यह गुणात्मक परिवर्तन है, बिल्कुल जमीन आसमान का। एक समय था जब इन पिछडे़ देशों को कर्जों और सहायता की भारी जरुरत हुआ करती थी। दुनिया में उनकी छवि सहायता माँगने वालों की थी। लोगों को विश्वास तक नहीं था कि वे कभी इस स्थिति से निकल भी पाएंगे।
बदलती भूमिका-
लेकिन आज समय बदला हुआ है। आज भी विकासमान देशों के सामने कई समस्याएँ हैं, लेकिन आज वे न सिर्फ सहायता पाते है बल्कि कई देशों को सहायता देने भी लगे है। आज विकासमान देश बड़े पैमाने पर निर्यात कर रहे हैं जबकि कुछ ही समय पहले तक वे बड़े पैमाने पर आयात करते थे। आज वे न सिर्फ कच्चे मालों का बल्कि मशीनों तथा अन्य तैयार मालों का बड़े पैमाने पर निर्यात करने लगे हैं। भारत के कम्प्यूटर प्रोग्राम, कारें, मशीनें, कपड़े तथा अन्य सामान यूरोप और अमरीका के बाजारों में छाए हुए हैं, इसी प्रकार चीन के भी विकासमान देशों की पूँजी दूसरे देशों में लग रही है। विकासमान देश डब्लू0टी0ओ0 का महत्वपूर्ण गुट बनाते हुए अमरीका के विरूद्ध एकता कायम कर रहे हैं। इस कार्य में ब्राजील, भारत, चीन समेत कुल बीस देशों का गुट विश्व अर्थतंत्र में प्रभावी भूमिका अदा कर रहा है।
आज विकासमान देशों की विकास दर विकसित देशों से कही आगे निकल गई है। जहाँ विकसित देशों की दरें 2 प्रतिशत से 4 प्रतिशत के बीच हैं वहीं भारत चीन तथा कुछ अन्य विकासमान देश 6 प्रतिशत से 9 प्रतिशत की दर से विकास कर रहे हैं।
आज अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर विकासमान देश विश्व अथंतत्र में उचित कीमतों, बाजार तथा निर्यात में हिस्सेदारी उनके सामानों पर पाबंदियाँ हटाने और शुल्क कम करने इत्यादि और सामात्यतः भेद भाव समाप्त करने की माँग कर रहे है। आज विकासमान देश विश्व अर्थतंत्र में एक महत्वपूर्ण शक्ति बनते जा रहे हैं।
विकासमान देशों का परस्पर सहयोग-
जी-20 और 8$5 के बाद ‘ब्रिक’ और शंघाई स0स0 महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। ब्रिक ने माँग की? कि एक अधिक न्यायपूर्ण विश्व आर्थिक व्यवस्था कायम की जाये। सम्मेलन में खाद्य सुरक्षा से लेकर अधिक विविध मुद्रा प्रणाली की माँग की गयी। विकासमान देशों तथा विश्व के इतिहास में यह एक नई घटना है। अब तक विश्व अर्थतंत्र अमरीकी, ब्रिटिश तथा अन्य उच्च औद्योगीकृत देशों की मुद्राओं से चल रहा था। लेकिन इन विकासमान देशों ने अपनी-अपनी मुद्राओं को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राएं बनाने की दिशा में कुछ कदम उठाना शुरू कर दिया है।
भारत समेत अन्य देशों ने ‘संरक्षणवाद’ का विरोध किया है अर्थात् साम्राज्यवाद के पक्ष में संरक्षण का। भारत एवं अन्य देशों के नेताओं ने विश्व आर्थिक मंदी के दौर में उचित कदम् उठाने की माँग की हैं। उन्होंने निर्णय लिया है कि संकट की इस घड़ी में वे एक दूसरे की मदद करेंगे। उन्होंने तय किया है कि वास्तविक अर्थतंत्र में परस्पर सहयोग बढ़ाया जाये। इस दिशा में सम्बद्ध देशों ने संयुक्त संगठन भी बना लिया है।
ब्राजील के नेता लूई इनासियों लूला का कहना है कि आज बदलते विश्व में उचित भूमिका अदा करना ‘ब्रिक’ राष्ट्रों के सामने बड़ी चुनौती है, उन्होंने ‘दोहा राउंड’ की समुचित समाप्ति की माँग की।
आज ‘ब्रिक’ देश विश्व अर्थतंत्र के विकास का 65 प्रतिशत पैदा करते हैं। दुनिया की लगभग आधी जनता इन देशों में रहती है ये देश विश्व का लगभग 40 प्रतिशत उत्पादन करते हैं।
उनके विकास की गति दुनिया में सबसे अधिक हैं, फलस्वरूप वे एशिया तथा विश्व के नये विकास इंजन हैं। अब ये देश कृषि प्रधान नहीं रह गये। वे अब अधिकाधिक औद्योगिक इलेक्ट्रानिक तथा अन्य आधुनिकतम क्षेत्रों में विकास कर रहें हैं।
विकासमान देशों में अब इतना आत्मविश्वास पैदा हो गया है कि वे ‘ब्रेटन वुड्स’ के जवाब में अपनी अलग मुद्रा व्यवस्था की बात कर रहे हैं। वास्तव में यह एक समानांतर व्यवस्था नहीं बल्कि बहु दिशावाद का विकास करके ‘ब्रिक’ तथा ऐसे अन्य देशों की मुद्राओं का विकसित देशों की अन्तराष्ट्रीय मुद्राओं के समकक्ष लाने तथा विश्व बाजार और मुद्रा व्यवस्था में अन्य के साथ कार्यशील मुद्रा विकसित करने का प्रयत्न हैं।
आज विकासशील देश बहुत बड़े परिवर्तन की कगार पर खड़े हैं।
-अनिल राजिमवाले
09868525812
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित
उपर्युक्त सम्मेलन आज के विश्व और वैश्विक अर्थतंत्र में विकासमान देशों की बढ़ती भूमिका दर्शाते हैं। द्वितीय विश्व यु़द्ध के बाद साम्राज्यवादी संकट के फलस्वरूप अधिकतर पिछड़े देश आजाद होते चले गये। लेकिन इन नये आजाद देशों के सामने सबसे बड़ी समस्या थी आर्थिक पिछड़ेपन की, जो उन्हें राजनैतिक तौर पर भी स्थिर नहीं होने दे रही थी।
पिछड़े और विकासमान देशों की एक सम्पूर्ण श्रेणी ही उभर आई जिन्हें सबसे बड़ा खतरा साम्राज्यवाद से था। इन पिछड़े देशों के सामने कृषि, उद्योगों, भारी मशीनों, यातायात, बाजार, अर्थतंत्र इत्यादि के विकास की समस्याएं मँुंह बाए खड़ी थीं। संसाधन, स्रोत, धन एवं पूँजी तथा तकनीक कहाँ से आयेगी? ऐसे में समाजवादी देश सहायता को आगे आये। गुट निरपेक्ष आंदोलन का जन्म हुआ।
विकास की रणनीति:-
अपने अर्थतंत्रों का विकास करने के लिए पिछड़े देशों ने नई रणनीति अपनाई। इसलिए उन्हें विकासमान देश भी कहते हैं। कुल मिलाकर यह रणनीति समाजवादी देशों के साथ मिलकर अपने पैरों पर खड़े होने की अर्थात आत्मनिर्भरता की रणनीति थी। इसलिए यह साम्राज्यवाद विरोधी नीति थी और है। साम्राज्यवाद, खासकर अमरीकी साम्राज्यवाद, कभी भी नहीं चाहता है कि कोई भी विकासमान देश आर्थिक तौर पर मजबूत हो और आत्म निर्भर बने। इन विकासमान देशों में भारत भी शामिल है। उसकी आर्थिक और विदेश नीति हमेशा ही साम्राज्यवाद विरोध की रही है।
युद्धोत्तर काल में पिछले लगभग पाँच से छह दशकों में विकासमान देशों में भारी परिवर्तन आया है। यह गुणात्मक परिवर्तन है, बिल्कुल जमीन आसमान का। एक समय था जब इन पिछडे़ देशों को कर्जों और सहायता की भारी जरुरत हुआ करती थी। दुनिया में उनकी छवि सहायता माँगने वालों की थी। लोगों को विश्वास तक नहीं था कि वे कभी इस स्थिति से निकल भी पाएंगे।
बदलती भूमिका-
लेकिन आज समय बदला हुआ है। आज भी विकासमान देशों के सामने कई समस्याएँ हैं, लेकिन आज वे न सिर्फ सहायता पाते है बल्कि कई देशों को सहायता देने भी लगे है। आज विकासमान देश बड़े पैमाने पर निर्यात कर रहे हैं जबकि कुछ ही समय पहले तक वे बड़े पैमाने पर आयात करते थे। आज वे न सिर्फ कच्चे मालों का बल्कि मशीनों तथा अन्य तैयार मालों का बड़े पैमाने पर निर्यात करने लगे हैं। भारत के कम्प्यूटर प्रोग्राम, कारें, मशीनें, कपड़े तथा अन्य सामान यूरोप और अमरीका के बाजारों में छाए हुए हैं, इसी प्रकार चीन के भी विकासमान देशों की पूँजी दूसरे देशों में लग रही है। विकासमान देश डब्लू0टी0ओ0 का महत्वपूर्ण गुट बनाते हुए अमरीका के विरूद्ध एकता कायम कर रहे हैं। इस कार्य में ब्राजील, भारत, चीन समेत कुल बीस देशों का गुट विश्व अर्थतंत्र में प्रभावी भूमिका अदा कर रहा है।
आज विकासमान देशों की विकास दर विकसित देशों से कही आगे निकल गई है। जहाँ विकसित देशों की दरें 2 प्रतिशत से 4 प्रतिशत के बीच हैं वहीं भारत चीन तथा कुछ अन्य विकासमान देश 6 प्रतिशत से 9 प्रतिशत की दर से विकास कर रहे हैं।
आज अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर विकासमान देश विश्व अथंतत्र में उचित कीमतों, बाजार तथा निर्यात में हिस्सेदारी उनके सामानों पर पाबंदियाँ हटाने और शुल्क कम करने इत्यादि और सामात्यतः भेद भाव समाप्त करने की माँग कर रहे है। आज विकासमान देश विश्व अर्थतंत्र में एक महत्वपूर्ण शक्ति बनते जा रहे हैं।
विकासमान देशों का परस्पर सहयोग-
जी-20 और 8$5 के बाद ‘ब्रिक’ और शंघाई स0स0 महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। ब्रिक ने माँग की? कि एक अधिक न्यायपूर्ण विश्व आर्थिक व्यवस्था कायम की जाये। सम्मेलन में खाद्य सुरक्षा से लेकर अधिक विविध मुद्रा प्रणाली की माँग की गयी। विकासमान देशों तथा विश्व के इतिहास में यह एक नई घटना है। अब तक विश्व अर्थतंत्र अमरीकी, ब्रिटिश तथा अन्य उच्च औद्योगीकृत देशों की मुद्राओं से चल रहा था। लेकिन इन विकासमान देशों ने अपनी-अपनी मुद्राओं को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राएं बनाने की दिशा में कुछ कदम उठाना शुरू कर दिया है।
भारत समेत अन्य देशों ने ‘संरक्षणवाद’ का विरोध किया है अर्थात् साम्राज्यवाद के पक्ष में संरक्षण का। भारत एवं अन्य देशों के नेताओं ने विश्व आर्थिक मंदी के दौर में उचित कदम् उठाने की माँग की हैं। उन्होंने निर्णय लिया है कि संकट की इस घड़ी में वे एक दूसरे की मदद करेंगे। उन्होंने तय किया है कि वास्तविक अर्थतंत्र में परस्पर सहयोग बढ़ाया जाये। इस दिशा में सम्बद्ध देशों ने संयुक्त संगठन भी बना लिया है।
ब्राजील के नेता लूई इनासियों लूला का कहना है कि आज बदलते विश्व में उचित भूमिका अदा करना ‘ब्रिक’ राष्ट्रों के सामने बड़ी चुनौती है, उन्होंने ‘दोहा राउंड’ की समुचित समाप्ति की माँग की।
आज ‘ब्रिक’ देश विश्व अर्थतंत्र के विकास का 65 प्रतिशत पैदा करते हैं। दुनिया की लगभग आधी जनता इन देशों में रहती है ये देश विश्व का लगभग 40 प्रतिशत उत्पादन करते हैं।
उनके विकास की गति दुनिया में सबसे अधिक हैं, फलस्वरूप वे एशिया तथा विश्व के नये विकास इंजन हैं। अब ये देश कृषि प्रधान नहीं रह गये। वे अब अधिकाधिक औद्योगिक इलेक्ट्रानिक तथा अन्य आधुनिकतम क्षेत्रों में विकास कर रहें हैं।
विकासमान देशों में अब इतना आत्मविश्वास पैदा हो गया है कि वे ‘ब्रेटन वुड्स’ के जवाब में अपनी अलग मुद्रा व्यवस्था की बात कर रहे हैं। वास्तव में यह एक समानांतर व्यवस्था नहीं बल्कि बहु दिशावाद का विकास करके ‘ब्रिक’ तथा ऐसे अन्य देशों की मुद्राओं का विकसित देशों की अन्तराष्ट्रीय मुद्राओं के समकक्ष लाने तथा विश्व बाजार और मुद्रा व्यवस्था में अन्य के साथ कार्यशील मुद्रा विकसित करने का प्रयत्न हैं।
आज विकासशील देश बहुत बड़े परिवर्तन की कगार पर खड़े हैं।
-अनिल राजिमवाले
09868525812
लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित
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