मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

हड्डियों से यहां कोठियां सजें

कृषक और मजदूर हमारे तरसें दाने-दाने को,

दिनभर खून जलाते हैं वो, रोटी, वस्त्र कमाने को,

फिर भी भूखों रहते बेचारे, अधनंगे से फिरते हैं,

भूपति और पूंजीपतियों की कठिन यातना सहते हैं,

भत्ता-वेतन सांसद और मंत्रियों के बढ़ते जाते हैं,

हम निर्धन के बालक भूखे ही सो जाते हैं।


शव निकल रहा हो और शहनाइयां बजें।

दुखियों की हड्डियों से यहां कोठियां सजें।।


-मुहम्मद शुऐब एडवोकेट

1 टिप्पणी:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

कविता ऐसी ही होनी चाहिए
जो आमजन की पीड़ा सामने ला सके
क्या हुआ कि उसमें शब्द तिलस्म नहीं
क्या हुआ कि उसमें भाषा का सौंदर्य नहीं
....
जिससे किसी का भला न हो
जो कोई प्रेरणा न दे सके
जिसे पढ़कर कोई सकून न मिले
उस कविता का क्या करना
भले ही महाकवि द्वारा लिखित हो
भले ही पुरस्कारों से सम्मानित हो।
कविता ऐसी ही होनी चाहिए
--बधाई।

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