घर हो, सड़क हो, दुकान हो, दफ्तर हो, कचहरी हो, अस्पताल हो वो कुछ भी हो आजकल हर जगह देश बचाओ अभियान जोर पकड़ रहा है। इस देश बचाओ अभियान का उद्भव कहां से हुआ, कब हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ किसी को कुछ पता नहीं लेकिन लगे हैं सब के सब देश बचाओ अभियान में। एक जमाने में नारी उत्थान आन्दोलन ने जोर पकड़ा और वह आन्दोलन आज भी वजूद में है। बिल्कुल उसी तरह से देश बचाओ आन्दोलन चल रहा है और उस पर चर्चा हो रही है।
देश को बचाने में सरकार अपनी भूमिका निभाने में सबसे आगे है। सरकार एन0डी0ए0 की रही हो, कांग्रेस की रही हो या फिर यू0पी0ए0 की रही हो सब के सब बढ़ चढ़कर अपना नाम देश बचाओ आन्दोलन में आगे रखने के लिए प्रयासरत हैं और इनसे अधिक आगे रहना चाहते हैं नौकरशाह। वह नौकरशाह सुरक्षा से संबंधित हों, आन्तरिक सुरक्षा से संबंधित हों, विदेश मामले से संबंधित हों, खूफिया तंत्र से संबंधित हों या फिर प्रशासनिक अधिकारी हो। आखिर क्या है जो सब के सब देश बचाओ अभियान में एक-दूसरे के कंधे पर चढ़कर आगे बढ़ रहे हैं।
देश क्या है? सीमाओं से बंधा भूभाग या उसमें बसने वाले लोग, सरकार या संप्रभुता। जहां तक मैने पढ़ा और समझा है इन चारों अवयवों को मिलाने के बाद देश की संरचना होती है। यदि इसमें से कोई भी अवयव छोड़ दिया जाए तो उसे देश नहीं कहा जा सकता। लेकिन देश बचाओ की जो दौड़ चल रही है उस दौड़ में देश की परिभाषा शायद सीमाओं में बंधा हुआ भूभाग मात्र है। देश में एक ऐसा संगठन है जो मात्र सीमाओं में बंधे हुए भूभाग को देश मानकर उसे मां की संज्ञा देता है और उसकी स्तुति करते हुए नहीं थकता। यह सत्य है कि बिना भूभाग के या भूभाग को अलग करके देश, देश नहीं हो सकता और सचमुच यही भूभाग मां स्वरूप है। यह इसलिए कि हम उसी की गोद में पलते-बढ़ते और आगे बढ़ते हैं और यह भी सच है कि मां का सम्मान, मां की सेवा, मां की हर प्रकार से रक्षा, मां को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए अथक प्रयास हमारा धर्म है। जहां सुख और समृद्ध बनाने का प्रयास आता है वहीं पर हमारा धर्म हो जाता है कि हम इसकी ओर बुरी निगाह उठाने वाले, इसको दासता की बेड़ियां पहनाने का प्रयास करने वाले को मुंह तोड़ जवाब दें और मुंह तोड़ जवाब ही नहीं बल्कि निगाह का रूख मोड़ दें यही है सार्वभौमिकता। अगर हमारी मातृभूमि पर कोई बुरी निगाह डालता है या उसकी सम्पदा का दोहन करने के लिए आगे बढ़ता है तो हमारा परम कर्तव्य बनता है कि उसके प्रयास को सफल न होने दें।
मां सम्प्रभू हो और उसका ही शासन चले और वो शासन जो मां का अपनी गोद में बसने वालों के लिए होगा, वो ऐसा होगा कि मां का कोई लाडला दुख न उठाए। अगर एक बच्चा दस रोटियां खाता है तो उसकी भूख भी मां को मिटाना होगा और एक रोटी खाने वाले बेटे की भी भूख वही मां मिटाने का प्रयास करेगी लेकिन मां का दिल ऐसा कभी नहीं होने देगा कि अपने एक बेटे की रोटियां भी उठाकर दूसरे बेटे को दे दे, एक बेटा भूखा रहे भूख से दम तोड़ दे और दूसरा खाए और बर्बाद करे ऐसा तो मां कभी नहीं होने देगी। आज हमारी माता को कुछ लोगों ने मजबूर कर दिया है उसे कैद करके कि वह अपने सारे बच्चों का दर्द न देख सके। शासन तंत्र में शामिल राजनीति करने वाला, प्रशासन चलाने वाला, सुरक्षा में लगा हुआ या दूसरों से सम्पर्क बनाने वाला हो सब के सब मां की सम्पदा को लूट कर अपनी तिजोरियों में कैद रखना चाहते हैं। मां की औलादों के बीच सम्प्रदाय के नाम पर, जाति के नाम पर, ऊंच-नीच के नाम पर घृणा फैला रहे हैं और ये घृणा मात्र इसलिए फैला रहे हैं ताकि उसका लाभ उठाकर अपनी तिजोरियां भर सकें।
प्रशासन तंत्र ने खुद तो अपनी तिजोरियां भरीं ही साथ में शासन चलाने वाले लोगों को भी बेईमानी का रास्ता दिखाया। इस तरह मां की दौलत की लूट में दोनों ही बराबर के हिस्सेदार हैं। प्रशासन में रहने वाले लोग शासन चलाने वालों को लाभ पहुंचाकर अपना वेतन भत्ता बढ़वाते हैं और शासन तंत्र में शामिल लोग अपना वेतन भत्ता जब चाहते हैं बढ़ा लेते हैं लेकिन ये वेतन भत्ता कहां से पूरा होता है, इस पर हम आप भी नहीं सोचते।
धरती माता हमारी है, हम सब की है लेकिन शक्तिशाली लोग कमजोरों को मां की गोद में पलते बढ़ते नहीं देख सकते और सारे संसाधन चंद घरानों तक सीमित करने के प्रयास में लगे हैं। यह घराने अब धीरे-धीरे कृषि उत्पाद पर अपना कब्जा करना चाहते हैं और हमें केवल मजदूर के रूप में रहने देना पसंद करते हैं। बिल्कुल उसी तरह जैसे तमाम सारे उद्योगों में होता चला आ रहा है। मेहनत मजदूरों की मुनाफा उद्योगपतियों का। अब यह औद्योगिक घराने तमाम उ़द्योगों की तरह खेती को भी एक उद्योग के रूप में विकसित कर रहे हैं ताकि मेहनत हमारी हो और मेहनत का फल उनकी तिजोरियों मंे बंद हो।
इन औद्योगिक घरानों को सरकारें हमारा पेट काटकर संसाधन मुहैया कराती हैं, हमारी ऊपर कर का बोझ लादकर उसका लाभ औद्योगिक घरानों के खाते में डालती है। हम जिस भूभाग पर बसे हैं वहां से हमें हटाकर औद्योगिक घरानों को दे दिए हैं। यही नहीं धरती माता के गर्भ में जो खजाना छिपा हुआ है उस पर भी शासन तंत्र और प्रशासन तंत्र अपने लाभ के लिए औद्योगिक घरानों से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी सौदा कर लेते हैं। फिर एक बार लौटता हूं सम्प्रभूता की ओर, सम्प्रभूता बनाये रखने की जिम्मेदारी शासन और प्रशासन तंत्र की होती है जो अपने लाभ के लिए विदेशों से उसका भी सौदा कर रहे हैं। सुरक्षा के नाम पर अपने सुरक्षा तंत्र पर कुछ विदेशी राज्यों प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कब्जा दे दिया है। उनके इशारे पर हम अपनी आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा तय करते हैं। दूसरे देशों से हमारे क्या संबंध हों इसका निर्धारण भी हम उनके दबाव मंे करते हैं। अपने देश में होने वाली घटनाओं की विवेचना भी हम स्वतंत्रता पूर्वक नहीं करते, इसलिए अपनी भूमि पर होने वाली अनेक घटनाओं की विवेचना सही ढंग से नहीं होती। यह सब कुछ हो रहा है देश बचाओं के नाम पर और हम स्वामी तुलसीदास की सूक्ति पर चल रहें -
............क्रमशः
देश को बचाने में सरकार अपनी भूमिका निभाने में सबसे आगे है। सरकार एन0डी0ए0 की रही हो, कांग्रेस की रही हो या फिर यू0पी0ए0 की रही हो सब के सब बढ़ चढ़कर अपना नाम देश बचाओ आन्दोलन में आगे रखने के लिए प्रयासरत हैं और इनसे अधिक आगे रहना चाहते हैं नौकरशाह। वह नौकरशाह सुरक्षा से संबंधित हों, आन्तरिक सुरक्षा से संबंधित हों, विदेश मामले से संबंधित हों, खूफिया तंत्र से संबंधित हों या फिर प्रशासनिक अधिकारी हो। आखिर क्या है जो सब के सब देश बचाओ अभियान में एक-दूसरे के कंधे पर चढ़कर आगे बढ़ रहे हैं।
देश क्या है? सीमाओं से बंधा भूभाग या उसमें बसने वाले लोग, सरकार या संप्रभुता। जहां तक मैने पढ़ा और समझा है इन चारों अवयवों को मिलाने के बाद देश की संरचना होती है। यदि इसमें से कोई भी अवयव छोड़ दिया जाए तो उसे देश नहीं कहा जा सकता। लेकिन देश बचाओ की जो दौड़ चल रही है उस दौड़ में देश की परिभाषा शायद सीमाओं में बंधा हुआ भूभाग मात्र है। देश में एक ऐसा संगठन है जो मात्र सीमाओं में बंधे हुए भूभाग को देश मानकर उसे मां की संज्ञा देता है और उसकी स्तुति करते हुए नहीं थकता। यह सत्य है कि बिना भूभाग के या भूभाग को अलग करके देश, देश नहीं हो सकता और सचमुच यही भूभाग मां स्वरूप है। यह इसलिए कि हम उसी की गोद में पलते-बढ़ते और आगे बढ़ते हैं और यह भी सच है कि मां का सम्मान, मां की सेवा, मां की हर प्रकार से रक्षा, मां को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए अथक प्रयास हमारा धर्म है। जहां सुख और समृद्ध बनाने का प्रयास आता है वहीं पर हमारा धर्म हो जाता है कि हम इसकी ओर बुरी निगाह उठाने वाले, इसको दासता की बेड़ियां पहनाने का प्रयास करने वाले को मुंह तोड़ जवाब दें और मुंह तोड़ जवाब ही नहीं बल्कि निगाह का रूख मोड़ दें यही है सार्वभौमिकता। अगर हमारी मातृभूमि पर कोई बुरी निगाह डालता है या उसकी सम्पदा का दोहन करने के लिए आगे बढ़ता है तो हमारा परम कर्तव्य बनता है कि उसके प्रयास को सफल न होने दें।
मां सम्प्रभू हो और उसका ही शासन चले और वो शासन जो मां का अपनी गोद में बसने वालों के लिए होगा, वो ऐसा होगा कि मां का कोई लाडला दुख न उठाए। अगर एक बच्चा दस रोटियां खाता है तो उसकी भूख भी मां को मिटाना होगा और एक रोटी खाने वाले बेटे की भी भूख वही मां मिटाने का प्रयास करेगी लेकिन मां का दिल ऐसा कभी नहीं होने देगा कि अपने एक बेटे की रोटियां भी उठाकर दूसरे बेटे को दे दे, एक बेटा भूखा रहे भूख से दम तोड़ दे और दूसरा खाए और बर्बाद करे ऐसा तो मां कभी नहीं होने देगी। आज हमारी माता को कुछ लोगों ने मजबूर कर दिया है उसे कैद करके कि वह अपने सारे बच्चों का दर्द न देख सके। शासन तंत्र में शामिल राजनीति करने वाला, प्रशासन चलाने वाला, सुरक्षा में लगा हुआ या दूसरों से सम्पर्क बनाने वाला हो सब के सब मां की सम्पदा को लूट कर अपनी तिजोरियों में कैद रखना चाहते हैं। मां की औलादों के बीच सम्प्रदाय के नाम पर, जाति के नाम पर, ऊंच-नीच के नाम पर घृणा फैला रहे हैं और ये घृणा मात्र इसलिए फैला रहे हैं ताकि उसका लाभ उठाकर अपनी तिजोरियां भर सकें।
प्रशासन तंत्र ने खुद तो अपनी तिजोरियां भरीं ही साथ में शासन चलाने वाले लोगों को भी बेईमानी का रास्ता दिखाया। इस तरह मां की दौलत की लूट में दोनों ही बराबर के हिस्सेदार हैं। प्रशासन में रहने वाले लोग शासन चलाने वालों को लाभ पहुंचाकर अपना वेतन भत्ता बढ़वाते हैं और शासन तंत्र में शामिल लोग अपना वेतन भत्ता जब चाहते हैं बढ़ा लेते हैं लेकिन ये वेतन भत्ता कहां से पूरा होता है, इस पर हम आप भी नहीं सोचते।
धरती माता हमारी है, हम सब की है लेकिन शक्तिशाली लोग कमजोरों को मां की गोद में पलते बढ़ते नहीं देख सकते और सारे संसाधन चंद घरानों तक सीमित करने के प्रयास में लगे हैं। यह घराने अब धीरे-धीरे कृषि उत्पाद पर अपना कब्जा करना चाहते हैं और हमें केवल मजदूर के रूप में रहने देना पसंद करते हैं। बिल्कुल उसी तरह जैसे तमाम सारे उद्योगों में होता चला आ रहा है। मेहनत मजदूरों की मुनाफा उद्योगपतियों का। अब यह औद्योगिक घराने तमाम उ़द्योगों की तरह खेती को भी एक उद्योग के रूप में विकसित कर रहे हैं ताकि मेहनत हमारी हो और मेहनत का फल उनकी तिजोरियों मंे बंद हो।
इन औद्योगिक घरानों को सरकारें हमारा पेट काटकर संसाधन मुहैया कराती हैं, हमारी ऊपर कर का बोझ लादकर उसका लाभ औद्योगिक घरानों के खाते में डालती है। हम जिस भूभाग पर बसे हैं वहां से हमें हटाकर औद्योगिक घरानों को दे दिए हैं। यही नहीं धरती माता के गर्भ में जो खजाना छिपा हुआ है उस पर भी शासन तंत्र और प्रशासन तंत्र अपने लाभ के लिए औद्योगिक घरानों से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी सौदा कर लेते हैं। फिर एक बार लौटता हूं सम्प्रभूता की ओर, सम्प्रभूता बनाये रखने की जिम्मेदारी शासन और प्रशासन तंत्र की होती है जो अपने लाभ के लिए विदेशों से उसका भी सौदा कर रहे हैं। सुरक्षा के नाम पर अपने सुरक्षा तंत्र पर कुछ विदेशी राज्यों प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कब्जा दे दिया है। उनके इशारे पर हम अपनी आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा तय करते हैं। दूसरे देशों से हमारे क्या संबंध हों इसका निर्धारण भी हम उनके दबाव मंे करते हैं। अपने देश में होने वाली घटनाओं की विवेचना भी हम स्वतंत्रता पूर्वक नहीं करते, इसलिए अपनी भूमि पर होने वाली अनेक घटनाओं की विवेचना सही ढंग से नहीं होती। यह सब कुछ हो रहा है देश बचाओं के नाम पर और हम स्वामी तुलसीदास की सूक्ति पर चल रहें -
कोउ नृप होए हमैं का हानि, चेरी छांड़ि न होइ रानी।
मुहम्मद शुऐब
............क्रमशः
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