देश की आजादी से पहले ‘‘लोक’’ की महत्ता नहीं थी। महत्ता थी तो मात्र शाह की। शाह यानी बादशाह और जहां बादशाहत चलती है उसे हम नाम देते हैं राजशाही का। आजादी से पहले बादशाहत थी वह चाहे ब्रिटेन की महारानी रही हों, मुगल शासक रहे हों या पूरे देश में टुकड़ों-टुकड़ों में बंटे हुए राजा। कुल मिलाकर हम यह कहेगें कि अपने देश में खण्डित राजशाही की और छोटा-छोटा राज्य लेकर पूरे देश में राजाओं की भरमार। जो अपने-अपने राज्य के विस्तार के लिए आये दिन आपस में लड़ते रहते थे। तब राजा छत्रपति बनने की आकांक्षा संजोए एक-दूसरे पर हमला करता था। इसी का लाभ उठाकर विदेशी आक्रमणकारी भी हमला करते रहते थे। कुछ हमलावर विजय प्राप्त करने के बाद इस देश को अपना देश समझकर इसके विकास के लिए और देश को एक करने के लिए प्रयासरत रहे। कुछ को सफलता मिली और वह महान कहलाए।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी आयी पहले उसका मकसद केवल व्यापार था। कच्चा माल और बेगार करने वाले या सस्ते मजदूरों के सहारे उसने अपने को बढ़ाया और मौका पाकर अपना पैर जमाया। टीपू जैसे बहादुर अपनों के निकम्मेपन, लालच, चापलूसी करने वालों और सत्ता लोलुप लोगों के कारण अंग्रेजों के सामने टिक नहीं सके और देश अंग्रेजों गुलामी की जंजीर में जकड़ गया।
गोस्वामी तुलसीदास के कथन से उत्प्रेरित होकर कुछ संघर्षशील लोग आगे बढ़े, वो चाहे अपना राज्य बनाये रखने का संघर्ष रहा हो या फिर लोक द्वारा संचालित लोक संघर्ष रहा हो। राजाओं द्वारा किया गया संघर्ष अंग्रेजों द्वारा दबा दिया गया लेकिन लोक द्वारा संचालित लोक संघर्ष रंग लाया और 15 अगस्त 1947 को भारतीय मूल के प्रतिनिधियों अंग्रेजों द्वारा सत्ता सौंप दी गई, वह भी देश को खण्डित करके।
26 जनवरी 1950 को सिद्धान्त रूप में सत्ता लोक के हाथों सौंप दी गई और लोक का बहुमत प्राप्त करने वाले सत्ता में आये लेकिन पहले तो लगा था कि सत्ता में लोक की भागीदारी है लेकिन धीरे-धीरे लोक की भागीदारी खत्म होती सी दिखने लगी। देश को फिर खण्डित करने का प्रयास तथाकथित लोक प्रतिनिधियों द्वारा किया जाने लगा। इन तथाकथित प्रतिनिधियों ने लोक को सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र, भाषा, भूषा आदि के नाम पर लोक को बांट दिया। लोक को बांटने वाले लोगों ने यह सब कुछ अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए किया। जो लोग सम्प्रदाय और धर्म के नाम पर सत्ता में पहुंचना चाहते थे या पहुंचना चाहते हैं उन्होंने साम्प्रदायिक भावना भड़का कर लोक को विभाजित किया। जो लोग जाति के नाम पर सत्ता में पहुंच सकते थे उन्होंने जाति के नाम पर लोक को विभाजित किया। कुछ ऐसे हैं जो क्षेत्रीयता के नाम पर लोक को बांटकर देश की धरती को भी बांटने के लिए प्रयासशील हैं। कुल मिलाकर हर समीकरण अपनाया जा रहा है।
देश के घटक (अवयव) को बांटकर तथाकथित लोक प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के राजा बन बैठे हैं। लोकहित को परे रखकर स्वहित में लगे हुए हैं। लोक को असुरक्षित कर अपनी सुरक्षा के लिए कानून बनाते हैं। बड़े लोक प्रतिनिधि स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप में आये और हर एक को कोई न कोई सुरक्षा कवच शासन ने मुहैया कराया। यह सुरक्षा कवच में रहने वाले लोग लोक प्रतिनिधि होते हुए लोक से अलग लोक की सुविधा का ध्यान न रखकर सुरक्षा कवच में रहकर लोकहित के विपरीत काम करते हैं। इन लोक प्रतिनिधियों में भू-माफिया भी हैं, शिक्षा माफिया भी हैं, एन0जी0ओ0 माफिया भी हैं, उद्योग माफिया हैं, सरकारी ठेकों पर कब्जा देने वाले हैं या पूरी-पूरी सरकारी सहायता और सरकारी धन डकार जाने वाले लोग हैं या फिर ऐसे लोगों के हित साथक बनकर उनके हिस्सेदार लोग हैं।
बड़े उद्योगों को सरकार से यही लोक प्रतिनिधि सुविधा दिलाते हैं, सस्ते दर पर भूमि और पूंजी का अंश दिलाते हैं और लोक के हिस्से में आती है तो केवल विवशता और भूख। अगर लोग अपने प्रतिनिधियों के इस कृत्य से क्षुब्ध होकर विरोध में उतरते हैं तो उन्हें अतिवादी कहकर जेलों में डाल दिया जाता है और इस लोकशाही में लोक की आवाज दबा दी जाती है। लोक की आवाज दबाने में लोक प्रतिनिधि, उद्योगपति और नौकरशाहों की सांठ-गांठ चलती है। नौकरशाह खुद सुरक्षा कवच में रहते हैं, इन्हीं लोक प्रतिनिधियों से अपनी सुरक्षा सम्बंधी कानून बनवाकर लोक प्रतिनिधियों से अपना वेतन और सुविधायें बढ़वाते हैं और ये लोक प्रतिनिधि अपने वेतन और सुविधा के लिए कानून बना लेते हैं। इस तरह पिसता है तो जग साधारण, न वह भर पेट भोजन की व्यवस्था कर पाता है, न वह शिक्षा में आगे बढ़ पाता है और नतीजे में बेसहारा यह बेचारा मूक होकर रह गया है। अगर इस मूकता को वाणी न मिली तो लोक फिर से बेगार करेगा, जानवरों की तरह काम के बदले आधा पेट भोजन या आधा शरीर ढकने को कपड़ा मिल गया तो बहुत है वरना हमारे लोक प्रतिनिधि देश बचाओ अभियान चला कर स्वयं को बचाने में लगे हुए हैं।
मोहम्मद शुऐब
...........क्रमशः
ईस्ट इण्डिया कम्पनी आयी पहले उसका मकसद केवल व्यापार था। कच्चा माल और बेगार करने वाले या सस्ते मजदूरों के सहारे उसने अपने को बढ़ाया और मौका पाकर अपना पैर जमाया। टीपू जैसे बहादुर अपनों के निकम्मेपन, लालच, चापलूसी करने वालों और सत्ता लोलुप लोगों के कारण अंग्रेजों के सामने टिक नहीं सके और देश अंग्रेजों गुलामी की जंजीर में जकड़ गया।
गोस्वामी तुलसीदास के कथन से उत्प्रेरित होकर कुछ संघर्षशील लोग आगे बढ़े, वो चाहे अपना राज्य बनाये रखने का संघर्ष रहा हो या फिर लोक द्वारा संचालित लोक संघर्ष रहा हो। राजाओं द्वारा किया गया संघर्ष अंग्रेजों द्वारा दबा दिया गया लेकिन लोक द्वारा संचालित लोक संघर्ष रंग लाया और 15 अगस्त 1947 को भारतीय मूल के प्रतिनिधियों अंग्रेजों द्वारा सत्ता सौंप दी गई, वह भी देश को खण्डित करके।
26 जनवरी 1950 को सिद्धान्त रूप में सत्ता लोक के हाथों सौंप दी गई और लोक का बहुमत प्राप्त करने वाले सत्ता में आये लेकिन पहले तो लगा था कि सत्ता में लोक की भागीदारी है लेकिन धीरे-धीरे लोक की भागीदारी खत्म होती सी दिखने लगी। देश को फिर खण्डित करने का प्रयास तथाकथित लोक प्रतिनिधियों द्वारा किया जाने लगा। इन तथाकथित प्रतिनिधियों ने लोक को सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र, भाषा, भूषा आदि के नाम पर लोक को बांट दिया। लोक को बांटने वाले लोगों ने यह सब कुछ अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए किया। जो लोग सम्प्रदाय और धर्म के नाम पर सत्ता में पहुंचना चाहते थे या पहुंचना चाहते हैं उन्होंने साम्प्रदायिक भावना भड़का कर लोक को विभाजित किया। जो लोग जाति के नाम पर सत्ता में पहुंच सकते थे उन्होंने जाति के नाम पर लोक को विभाजित किया। कुछ ऐसे हैं जो क्षेत्रीयता के नाम पर लोक को बांटकर देश की धरती को भी बांटने के लिए प्रयासशील हैं। कुल मिलाकर हर समीकरण अपनाया जा रहा है।
देश के घटक (अवयव) को बांटकर तथाकथित लोक प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के राजा बन बैठे हैं। लोकहित को परे रखकर स्वहित में लगे हुए हैं। लोक को असुरक्षित कर अपनी सुरक्षा के लिए कानून बनाते हैं। बड़े लोक प्रतिनिधि स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप में आये और हर एक को कोई न कोई सुरक्षा कवच शासन ने मुहैया कराया। यह सुरक्षा कवच में रहने वाले लोग लोक प्रतिनिधि होते हुए लोक से अलग लोक की सुविधा का ध्यान न रखकर सुरक्षा कवच में रहकर लोकहित के विपरीत काम करते हैं। इन लोक प्रतिनिधियों में भू-माफिया भी हैं, शिक्षा माफिया भी हैं, एन0जी0ओ0 माफिया भी हैं, उद्योग माफिया हैं, सरकारी ठेकों पर कब्जा देने वाले हैं या पूरी-पूरी सरकारी सहायता और सरकारी धन डकार जाने वाले लोग हैं या फिर ऐसे लोगों के हित साथक बनकर उनके हिस्सेदार लोग हैं।
बड़े उद्योगों को सरकार से यही लोक प्रतिनिधि सुविधा दिलाते हैं, सस्ते दर पर भूमि और पूंजी का अंश दिलाते हैं और लोक के हिस्से में आती है तो केवल विवशता और भूख। अगर लोग अपने प्रतिनिधियों के इस कृत्य से क्षुब्ध होकर विरोध में उतरते हैं तो उन्हें अतिवादी कहकर जेलों में डाल दिया जाता है और इस लोकशाही में लोक की आवाज दबा दी जाती है। लोक की आवाज दबाने में लोक प्रतिनिधि, उद्योगपति और नौकरशाहों की सांठ-गांठ चलती है। नौकरशाह खुद सुरक्षा कवच में रहते हैं, इन्हीं लोक प्रतिनिधियों से अपनी सुरक्षा सम्बंधी कानून बनवाकर लोक प्रतिनिधियों से अपना वेतन और सुविधायें बढ़वाते हैं और ये लोक प्रतिनिधि अपने वेतन और सुविधा के लिए कानून बना लेते हैं। इस तरह पिसता है तो जग साधारण, न वह भर पेट भोजन की व्यवस्था कर पाता है, न वह शिक्षा में आगे बढ़ पाता है और नतीजे में बेसहारा यह बेचारा मूक होकर रह गया है। अगर इस मूकता को वाणी न मिली तो लोक फिर से बेगार करेगा, जानवरों की तरह काम के बदले आधा पेट भोजन या आधा शरीर ढकने को कपड़ा मिल गया तो बहुत है वरना हमारे लोक प्रतिनिधि देश बचाओ अभियान चला कर स्वयं को बचाने में लगे हुए हैं।
मोहम्मद शुऐब
...........क्रमशः
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