(पंखहीन बुलबुल)
जैसा कि ऊपर बताया गया ज़फ़र को मुल्क व दौलते-बादशाही बस नाम को ही मिली थी, वे सूरत ए हाल से बखूबी वाकिफ़ थे लेकिन उनके पास करने को कुछ नहीं था क्योंकि उस अहद में ज़माने ने ख़ासतौर पर हिन्दुस्तान के लिए और आमतौर पर आलमे मशरिक़ के लिए कुछ ऐसी करवट पलटी थी जैसा कि आजकल मौजूदा दौर में फिर पलटने लगा है। उसको सँभालना उन बुलबुले बे बालो पर के लिए ना मुमकिन था क्योंकि वे एक ऐसी हालत में थे कि दस्ते दुआ भी दराज़ करें कज़ाए इलाही को नहीं बदल सकते थे:-
दिखाती है जो शमशीर-ए- कज़ा अपनी जबरदस्ती।
नहीं दस्ते दुआ की काम आती, है सिपर दस्ती। (ढाल)
ज़फ़र की उल्टी क़िस्मत इतनी बिगड़ी हुई थी कि कज़ा ए इलाही के सामने उनकी दुआएँ कुछ काम न आने के साथ-साथ जिनसे उनकी उम्मीदे वाबस्ता थीं वे उनसे कह रहे थे ‘‘पहले तुम मर तो लो फिर तुम्हारी उम्मीदें पूरी हो जाएँगी।’’
मैंने कहा कहो तो मसीहा तुम्हें कहूँ।
कहने लगे कि कहना अभी पहले मर तो लो।।
दरअसल वह अपनी इस हालत पर सरापा एहतेजाज है और कभी कभार उनका यह अन्दरूनी एहतेजाज (असंतोष) यूँ जाहिर होता है और वे सोने के पिंजड़े को टुकड़े-टुकड़े करना चाहते हैं और कहते हैं:-
क़फ़स के टुकड़े उड़ा दूँ, फड़क-फड़क कर आज।
इरादा मेरा असीरान-ए-(कैदी) हम नफस यूँ हैं।
लेकिन उनके पास लब-बस्ता (बँधे होठों से) एहतेजाज के सिवा कुछ भी नहीं है और वे बस एहतेजाज-ए मख़्फ़ी (गुप्त) कर पाते हैं क्योंकि वे किसी और के यानी अंग्रेजों के बस में हैं और उनके पेंशन ख़्वार, जिसकी याद दहानी अंग्रेज हर मौके पर कराया करते हैं। ज़फ़र खून के आँसू बहाते हुए कहते हैं-
जो उनकी जान पर गुज़रे है वह वही जाने।
ख़ुदा किसी को जहाँ में किसी के बस न करे।
किसी के बस होने को न चाहने के बावजूद उनको अपनी बेचारगी का सख्त एहसास है। वैसे भी ये बे बालो पर बुलबुल अपने पिंजड़े से निकलेगा तो क्या करेगा? उसमें उड़ने तक की हिम्मत व सलाहियत बाक़ी नहीं है-
ऐ असीरों अब न पर में ताक़ते परवाज़ है
क्या करोगे तुम निकल कर दाम से, बैठे रहो।
फिर उसी मानी में कहते हैं-
खोल दे सैय्याद तू खिड़की क़फ़स की शौक़ से।
बुलबुले बे-बालो-पर ज़ालिम किधर उड़ जाएगी।
बिल्कुल इसी तरह ज़फ़र की मुन्दरजाज़ील (निम्नलिखित) खूबसूरत ग़ज़ल में उस बुलबुले बे-बालो-पर की उदासी, बेचारगी और हालते पुर मलाल की उम्दा तस्वीर कसी की गईं है, वे यूँ फरमाते हैं -
सूफियों में हूँ न रिन्दो में न मय-ख़्वारों में हूँ।
ऐ बुतो बन्दा खुदा का हूँ, गुनहगारों में हूँ।।
मेरी मिल्लत है मोहब्बत मेरा मजहब इश्क है।
ख़्वाह हूँ मैं काफ़िरों में ख़्वाहदींदारों में हूँ।
सफ-ए-आलम पे मानिन्दे नगीं मिसले क़लम।
या सियह रूयों में हूँ या सियह कारों में हूँ।
न चढँू सर पर किसी के, न, मैं पाँवों पर पड़ूँ,
इस चमन के न गुलों में हूँ न मैं ख़ारों में हूँ।
सूरत ए तस्वीर हूँ मैं मयक़दा में दहर के,
कुछ न मदहोशों में हूँ मैं और न होशियारों में हूँ।
न मेरा मोनिस है कोई और न कोई ग़मगु़सार,
ग़म मेरा ग़मख़्वार है मैं ग़म के ग़मख़्वारों में हूँ।
जो मुझे लेता है फिर वह फेर देता है मुझे,
मैं अजब इक जिन्से नाकारा खरीदारों में हूँ।
खान-ए-सैय्याद में हूँ मैं तायर-ए-दार
पर न आज़ादों में हूँ न मैं गिरफ्तारों में हूँ,
ऐ ज़फ़र मैं क्या बताऊँ तुझसे जो कुछ हूँ सो हूँ,
लेकिन अपने फ़ख्र-ए-दीं के क़फ़स बरदारों में हूँ।
जफ़र एहतेजाज और तक़दीरे ए इलाही पर रज़ा के आलम में पेंचओ ताब खाते थे कि 1857 ई0 में अचानक हिन्दुस्तान में अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ एक तूफान बरपा हुआ। मेरठ से बग़ावत करके अपने अंग्रेज अफसरों को क़त्ल करने वाले सिपाही देहली चले आए और देहली पर काबिज होने के बाद उन्होंने बहादुर शाह ज़फ़र को अपनी तह़रीक का लीडर मुक़र्रर किया। ज़फ़र सिन रशीदा (वयोवृद्ध) थे और बाद में उड़ाने वाली अफवाहों के मुताबिक अक़्ली लिहाज से माज़ूर भी थे लेकिन उसके बावजूद वह इस तहरीक के अंजाम का अंदाजा बखूबी कर रहे थे क्योंकि उन्हें अंग्रेजों की ताक़त और अपने आसपास में मौजूद इलाही बख्श जैसे लोगों के काबिले यक़ीन न होने का इल्म था इसलिए उन्होंने शुरू में बग़ावत करने वालों को रोकने की कोशिश की लेकिन जब उन्होंने देखा कि इस सैलाब को रोकना नामुमकिन हैं तो वे भी उसमें बेअख़्तियार बहने लगे। फिर बेशुमार लड़ाइयाँ र्हुइं। बहुत सारे मासूमों का खून बहाया गया, अंग्रेजों ने देहली पर कब्जा कर लिया और मुग़ल खानदान को नेस्तानाबूद करके हिन्दुस्तान पर हुक्मरानी करने लगे और बहादुर शाह की औलाद को क़त्ल करके शहर दिल्ली को बर्बाद कर दिया।
-ख़लील तौक़आर
अनुवादक-मो0 जमील शास्त्री
साभार-चहारसू पत्रिका
प्रकाशित-रावलपिण्डी, पाकिस्तान
( क्रमश: )
5 टिप्पणियां:
...प्रभावशाली पोस्ट!!!
post to achhi hai hi...thoda time lag gaya waise samajhne mein :)
ye kaafi achha laga
मैंने कहा कहो तो मसीहा तुम्हें कहूँ।
कहने लगे कि कहना अभी पहले मर तो लो।।
वत्स
तुम सम्माननीय ढंग से ब्लागिंग कर रहे हो।
आचार्य जी
nice.
बहुत अच्छी पोस्ट है ! अगली कड़ी का इंतज़ार है !
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