सोमवार, 28 जून 2010

भोपाल मामले से कुछ सीख - सेवानिवृत्त न्यायधीश उच्चतम न्यायालय


इस सम्बंध में कोर्ट के निर्णय से ऐसा लगता है कि भारत अब भी विक्टोरियन साम्राज्यवादी, सामन्ती दौर में है, और जो सोशलिस्ट सपनों से बहुत दूर है।
उन वर्षों में जिन राजनैतिक दलों के हाथों में सत्ता थी, वे इस भारी अपराधिक लापरवाही के लिये दोषी है। इस घटना से सम्बंधित असाधारण बात तो यह है कि यूनियन कारबाइड में संलिप्त सब से बड़ा अधिकारी वारेन एंडरसन तो पिक्चर में लाया ही नहीं गया।
2 दिसम्बर 1984 को भोपाल में जो बड़े पैमाने पर हत्याकाण्ड हुआ वह एक अमरीकी बहुराष्ट्रीय कार्पोरेशन की भारी गलती का परिणाम था। जिसने भारतीयों की जिन्दगियों को अश्वारोही क्रूर योद्धाओं के समान रौंदा। इसमें लगभग 20,000 लोगों की गैस हत्या हुई फिर भी 26 वर्षों की मुकदमें बाजी के बाद अपराधियों को केवल 2 वर्ष की सश्रम कारावास की सजा दी गई। ऐसा तो केवल अफरातफरी वाले देश भारत ही में घटित हो सकता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति एवं श्वेत संसार तथा श्यामल भारतीय, प्रधानमंत्री, तालिबान एवं माओवादी नक्सलवाद पर कर्कश आवाजे उठाते हैं। मगर यह नहीं देखते कि इस जन संहार पर जो, भारत के एक पिछड़े इलाके में अमेरिकन ने किया, अदालती फैसला आने में 26 वर्ष लग गये।
चूँकि भारत एक डालर प्रभावित देश है, इसीलिये गैसजन संहार को एक मामूली अपराध जाना गया। लगता है कि भारत पर मैकाले की विक्टोरियन न्याय व्यवस्था अब भी लागू है। हमारी संसद और कार्यपालिका को उनके जीवन और उस नुकसान से लगता है कोई वास्ता ही नहीं है। न्यायपालिका का भी यही हाल है, वह भी अहम मामलों में तुरन्त फैसला देने के अपने मूल कर्तव्य के प्रति लापरवाह है। संसद को भला इतना समय कहां कि वह अपने नागरिकों के जीवन को सुरक्षित करने के कानून बनाये। वह तो कोलाहल में ही बहुत व्यस्त हैं। इस प्रकार के अपराध के लिये जो तफ़तीशी न्यायिक विलम्ब हुआ वह अक्षम्य है।
अगर कार्यपालिका के पास जरूरी आजादी, तत्परता एवं निष्ठा हो, अगर सही जज नियुक्त हो और सही प्रक्रिया में अपनाई जाये तो भारतीय न्यायालय भी सही न्याय करने में सक्षम होंगे।

विश्वास भंग हुआ
यह भी हुआ कि आम आदमी के लिये यह समाजवादी लोकतंत्र बराबर एक निराशा का कारण बना रहा। यह विरोधाभास समाप्त होना चाहिये। हमारे पास असीमित मानव संसाधन हैं, जिससे हम अपने राष्ट्रपिता की प्रतिज्ञा की पुर्नस्थापना कर सकते हैं, उनकी यह प्रबल इच्छा थी कि हर आंख के आंसू को पोछा जाये। परन्तु भारतीय प्रभु सत्ता के इस विश्वास को भोपाल ने हास्यास्पद ढंग से भंग कर दिया गया। एक समय था जब हर वह गरीब आदमी जो भूखा और परेशान था और ब्रिटिश सामा्रज्य का विरोध कर रहा था, वह कांग्रेसी कहा जाता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब कांग्रेसी सत्ता में आये, फिर प्रत्येक भूखा लड़ाकू कम्युनिस्ट कहा गया। जब अनेक राज्यों में कम्युनिस्ट सत्ता में आये, और वहां बहुत से भूखे थे, वह भूखे गरीब नक्सलवादी कहे गये। क्या भारत का कुछ भविष्य भी है? हां जरूर है। शर्त यह है कि यहां के गौरवपूर्ण संविधान और अद्भुत सांस्कृति परम्पराओं में कार्ल माक्र्स एवँ महात्मा गाँधी के दष्टिकोण को शमिल करने की समझ पैदा की जाय। क्या हमारे पास इतना विचार-बोध हैं ? क्या न्यायाधीश ऐसी लालसा रखते हैं? भोपाल पर दिया निर्णय तो यही ज़ाहिर करता है कि भारत अब भी साम्राज्यवादी सामंती विकटोरियन युग मे है, और समाजवादी स्वप्नों से कोसों दूर है।
इस परिणाम की असाधारण बात यही है कि युनियन कारबाइड में संलिप्त सब से बड़ा अफ़सर वारेन एनडरसन को मामलो से बाहर रक्खा गया। यह तो इन्साफ का मज़ाक बनाया गया। मुख्य अपराधी को तो व्युह रचना से अलग हीं रक्खा गया। अब जो छोटों को अभियुक्त बनाया तो इससे यही प्रतीत हुआ कि उन लाखों का मज़ाक बना जिन लोगों को भुगतान पड़ा। अपराध क्षेत्र से शक्तिशालियों को मुक्त कर देने का अर्थ क़ानून को लंगड़ा कर देना। क्या एक अमेरिकी अपराधी की भारतीय कोर्ट के आर्डर के अन्र्तगत जांच नहींे की जा सकती ? इस प्रकार के भेद-भाव से न्याय हास्यास्पद बनता है। जब मूल अधिकारों का हनन हो तो जजों के कार्यक्षेत्र कें ऐसे केसों की सुनवाई निहित है, 26वर्ष बीत गये, इतने जज होते हुए भी सुप्रीम कोर्ट नें अब तक क्या किया ? तुरन्त सुनवाई हेतु भारत-सरकार भी कोर्ट तक नहीं गई ? अब क़ानून मंत्री कहते है कि जो दो वर्ष की सश्रम करावास की सज़ा दी गई है, उससे वह प्रसन्न नहीं है। इस 26 वर्ष की अवधि में भारतीय दण्ड विधान की धारा 300 से 304 में कोई संशोधन न प्रस्तावित किया गया न ही किया गया और न सख्त दण्ड का प्रावधान किया गया। यह बात भी संसद एवँ कार्यपालिका की अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाही की द्योतक है। उन दिनों में जो भी राजनैतिक दल सत्ता में रहे वह भी इस अपराधिक चूक के लिये दोषी हैं। क्योंकि भारतीय मानव पर अपराधिक कृत्य हुआ और वे सोते रहे। भुक्त भोगियों को मुनासिब मुआवज़ा तक नहीं दिया गया। यूनियन कारबाइड द्वारा वित्त-पोषित एक बड़े अस्पताल का निर्माण भोपाल में जरूर करवाया गया, लेकिन यह भी गरीबों के लिये नहीं अमीरों के लिए था। यह समझने कि अस्पताल लशों पर बना फिर भी वंचितो की पहुँच वहाँ तक नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट बजाय इसके कि निचले कोर्ट से मुकदमा मंगा कर तुरन्त निर्णय देता, वह अपने ही भत्ते और सुविधायें बढ़ाने में तल्लीन रहा।
यू0एस0 के लिये वारेन एंनडरसन एक बन्द अध्याय है। इस अत्यंत शक्तिशाली परमाणु राष्ट्र की न्याय अध्याय करने की अलग सोच है। इस बात से भारतीय जन मानस में इतना साहस होना चाहिये कि वह ‘डालर-उपनिवेशवाद‘ का कड़ा विरोध करे। अमेरिकन विधि के शासन से मुक्त हैं ? जब बहुं राष्ट्रीय निगम अधिनायकों के दोष की बात आ जाए तब श्यामल भारत को श्वेत-न्याय से संतुष्ट होना ही हैं ? हालांकि वाशिंगटन हमेशा व्यापक मानवाधिकार घोषणा-पत्र के प्रति वफ़ादारी की क़समें खाता है, परन्तु पब परमाणु-सन्धि की बात आती है तो उसकी डंडी अपने हितों की तरफ़ झुका देता है। भारत में यह साहस भी नहीं होता कि वह धोके के विरोध में कोई आवाज़ उठाये। हमारे पास बहुराष्ट्रीय निगम है जिसका वैश्विक अधिकार क्षेत्र है। एंडरसन एक अमेरिकी है और यूनियन कारबाइड थी ?
इसके आज्ञापत्र एशियाई ईधन के लिए ही हैं, भारतीय न्याय व्यवस्था लगता है कि केवल नगर पालिकाओं एवँ पंचायतों के लिये ही है, इससे आगे नहीं।


-वी0आर0 कृष्णा अय्यर
सेवानिवृत्त न्यायधीश
उच्चतम न्यायलय

the hindu से साभार
अनुवादक: डॉक्टर एस.एम हैदर

9 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

sसार्थक और ग्यानपरक आलेख है। धन्यवाद इसे पढवाने के लिये।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

एक-एक वाक्य अक्षरशः सत्य है। पर अनुवाद बहुत अच्छा नहीं है। इस पर और श्रम करने की आवश्यकता है।
समाजवाद को तो नेहरू के बाद ही तिलांजली दे दी गई थी। इन्दिरा ने समाजवाद शब्द को संविधान में स्थान जरूर दिया पर उन का संबंध समाजवाद के साथ वैसा ही था जैसा कि हिटलर का था।
वर्तमान तंत्र पूरी तरह से अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के समक्ष समर्पण कर चुका है। भोपाल मामला यही सिद्ध करता है।

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

काफ़ी महत्वपूर्ण टिप्पणी है...

drishtipat ने कहा…

मैं आदरणीय दिनेश राय द्विवेदी जी की बैटन का समर्थन करता हूँ, जज साहब की के कथन को भी सही मानता हूँ, लेकिन मुझे दुःख है और खेद की अपने देश में जब कोई ,मंत्री , उच्छाधिकारी , जज, या फिर राष्ट्रपति , सरकारी पद पर विराजमान होते हैं तब उन्हें देश में किसी प्रकार की गैर क़ानूनी हरकत नजर नहीं आती, भ्रष्टाचार नजर नहीं आता लेकिन जैसे ही वो अपने पद से हट्टे हैं, उन्हें सब कुछ साफ साफ दिखने लगता है की देश में कानून टूट रहा है, भ्रष्टाचार चरम पर हैं. आदि, आदि, मुझे तो लगता है की देश की दुर्गति में भारत की एक एक जनता का सहयोग जाने अनजाने रहता हैं, जैसे महफ़िल में बैठे हुए हर आदमी भ्रष्टाचार का रोना रोते हुए नजर आता है, जबकि वो वयक्ति उतना ही भ्रष्टाचार में लिप्त होता है, मेरे एक मित्र है, लेखक हैं, बड़े ओहदे पर सरकारी पद पर हैं, ८ घंटा में मुश्किल से महोदय १ घंटा सरकार का कम करते होंगे, बाकि समय में अपने कार्यालय में मित्रो को बुलाकर गप्पे हांकते नजर आयेंगे या फिर किताब पढ़ते नजर आयेंगे, जब उनसे मिलिए तो वो महोदय भ्रष्टचार पर सबसे ज्यादा चिंतित आयेंगे नेता को अफसर को गली देने से चुकेंगे नहीं, यह तो प्रसंग वश मैंने कहा, मुद्दा भोपाल को लेकर हमारी चिंता वजब है, न्याय का देर से मिलना महा अन्याय है, ये जज महोदय लोग को समझना चाहिए, जो अपने देश में खूब अन्याय हो रहा है.
www.drishtipat.com
www.drishtipatmagazine.blogspot.com

drishtipat ने कहा…

priy pathak bandhu unicode (HINDI) men likhne karan kuchh truti rah gayi hai. kripaya use sudhar kar padhenge, asuvidha ke liye mujhe khed hai,

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) ने कहा…

एक बात आज तक समझ में न आयी कि ये सारी समझ इन न्यायाधीशों और सी.बी.आई.प्रमुखों में पद पर रहते क्यों नहीं आती?ये सब के सब एक नंबर के धूर्त और महामक्कार हैं वरना जब सिस्टम में थे तब उसे क्यों नहीं रिपेयर करा अब जब सिस्टम से बाहर हैं तो उसके दोष गिनाते हैं बताते हैं कि कितने छेद हैं,ये सब दोषी हैं इन्हें जुतियाना चाहिये अगर ये इस तरह के बयान दें। जैसे कि वो बालाकृष्णन अंबानियों का फ़ैसला देकर रिटायर हआ और घर भर लिया होगा अब मानवधिकार आयोग में मरने तक बैठ कर उपदेश देगा,जब ये सिस्टम में था तो इसने बयान दिया था कि जुडीशियरी में कोई भ्रष्ट नहीं है अब इसे भी दिखने लगा होगा जैसे कि कृष्णा अय्यर को दिख रहा है।

उन्मुक्त ने कहा…

आपने लिखा है,
'वी0आर0 कृष्णा अय्यर, पूर्व मुख्य न्यायधीश, उच्चतम न्यायलय'
कृपया चेक करें कि क्या यह सही है। यदि यह सही न हो और हिन्दू में भी यह लिखा हो तो उन्हें भी सही करने के लिये लिखें।

हमारीवाणी ने कहा…

बढ़िया जानकारी!



क्या आपने हिंदी ब्लॉग संकलन के नए अवतार हमारीवाणी पर अपना ब्लॉग पंजीकृत किया?



हिंदी ब्लॉग लिखने वाले लेखकों के लिए हमारीवाणी नाम से एकदम नया और अद्भुत ब्लॉग संकलक बनकर तैयार है।

अधिक पढने के लिए चटका लगाएँ:

http://hamarivani.blogspot.com

Kirti Vardhan ने कहा…

suman ji achche tatha gyan parak lekh se hi samaj ko sahi disha milati hai tatha satya ki jankari bhi.
yah lekh bhopal gas trashadi ki sahi tasvir pash karata hai
dr a kirtivardhan
09911323732

Share |