चूँकि खुद भारत में ही 1980 का दशक आते-आते तेजी से राजनीति पर ऐसे तबके का कब्जा हो गया जो देश की पूँजी के हितों का प्रतिनिधित्व करता था न कि जनता के, इसलिए भी नेपाल के साथ अपने पारंपरिक संबंधों का और अपनी ताकतवर हैसियत का इस्तेमाल भारतीय शासकों ने कभी निजी स्वार्थों से हटकर या क्षेत्र में एक स्वस्थ, जनकेन्द्रित और जनतांत्रिक राजनीति की स्थापना के लिए करने के बजाय नेपाल की कमजोर स्थिति का शोषण करने में ही किया। सत्तर के दशक में सिक्किम को भारत का हिस्सा बनाने के लिए की गई कार्रवाई से भी भारत के प्रति एक शंका का भाव नेपाल के शासकों के मन में था। बावजूद इसके चीन की तरफ की प्रतिकूल भौगोलिक स्थितियों की वजह से चीन से नेपाल की नजदीकी उतनी नहीं बढ़ सकी। चीन से नेपाल को जोड़ने वाली मात्र एक सड़क है जबकि भारत के साथ नेपाल का जो हिस्सा जुड़ा हुआ है वह आवागमन, परिवहन और व्यापार के लिए अधिक उपयुक्त है। गौरतलब है कि 1950 के दशक में नेपाल के कुल विदेश व्यापार का 90 प्रतिशत व्यापार भारत के साथ होता था। इसी वजह से भले ही माओवादी नेतृत्व की सरकार रही या कोई और, भारत के साथ नेपाल का व्यापार दो-तिहाई के करीब बना रहा है जबकि चीन के साथ यह 10 फीसदी तक ही पहुँच सका है।
भारत के संदर्भ में नेपाल के माओवादियों की स्थिति चीन से भी ज्यादा जटिल लगती है। भारत की सत्ताधीश पूँजीवादी ताकतों का यह भय आधारहीन नहीं है कि नेपाल का माओवाद भारत के माओवाद को अगर सरकार में आ जाने पर कोई ठोस मदद न भी करे लेकिन उनके हौसलों को तो मजबूत करेगा ही। नेपाल की शक्ल में भारतीय माओवादी भी राज्य सत्ता पर कब्जा करने के छापामार अभियान में तेजी ला सकते हैं और पहले से माओवादियों को पाकिस्तान से बड़ा खतरा प्रचारित कर रही सरकार के लिए वाकई बड़ा खतरा बन सकते हैं। नेपाल के माओवाद से भारत की मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियाँ भी, खासकर माकपा काफी विचलित है। दरअसल भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों के आपसी संघर्षों का भी एक रक्तरंजित इतिहास रहा है और नंदीग्राम और लालगढ़ जैसे संघर्षों के जरिये वर्तमान में भी उसका खून सूखा नहीं है। जाहिर है कि संसदीय राजनीति के जरिए वाम राजनीति कर रहीं इन वामपंथी पार्टियों के लिए नेपाल के उस कामयाब उदाहरण को ‘बचकाना’ या ‘अतिवादी’ या ‘अव्यावहारिक’ वाम कहकर खारिज करना संभव नहीं होगा। इसलिए इन आरोपों को भी पूरी तरह खारिज करना मुश्किल है कि भारत की मुख्य धारा वाली प्रमुख वामपंथी पार्टियों ने भी माओवादियों को नेपाल में राज्य सत्ता पर पूरी तौर पर काबिज होने से रोकने की ही कोशिशें कीं और अपनी विश्वसनीयता व जनाधार खो चुकीं नेपाल की अन्य राजनैतिक पार्टियों के साथ गठबंधन बनाने का दबाव डाला।
दूसरी ओर भारत के माओवादियों में भी नेपाल के माओवादियों द्वारा संसदीय राजनीति में आने को लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाएँ रहीं। दोनों देशों की विशिष्ट परिस्थितियों को नजरंदाज करके भारत के माओवादियों के लिए भी यह नजीर दी जाने लगी कि जिस तरह नेपाल के माओवादियों ने सशस्त्र विद्रोह की अव्यावहारिकता को समझकर मुख्यधारा में आने का फैसला किया है वैसे ही भारत के माओवादियों व नक्सलवादियों को भी छापामार संघर्ष का रास्ता छोड़कर संसदीय राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होकर जनता के हित की लड़ाई लड़नी चाहिए।
नेपाल के पानी और बिजली पर नजर भारत और चीन, दोनों की ही नजर नेपाल में मौजूद जलविद्युत की अपार संभावनाओं का दोहन करने पर भी है। लगभग 3 करोड़ की आबादी और क्षेत्रफल के लिहाज से दुनिया के 93वें देश का दर्जा रखने वाले इस देश में दुनिया के दस सबसे ऊँचे पर्वत शिखरों में से आठ मौजूद हैं जिसकी वजह से तेज बहाव वाली अनेक नदियाँ यहाँ हैं। कोसी, गंडकी, करनाली जैसी नदियाँ ऊँचे हिमालयी ग्लेशियरों से निकलती हैं और नीचे आकर गंगा में मिल जाती हैं। ये योजनाएँ अब तक साकार होने के करीब होतीं अगर सब कुछ बेरोक-टोक चल रहा होता। लेकिन ये परियोजनाएँ 1995 से ही ठंडे बस्ते में हैं क्योंकि उस वक्त 1.1 अरब डाॅलर लागत और 402 मेगावाट अनुमानित क्षमता वाली अरुण-3 बाँध परियोजना से विश्व बैंक ने 1995 में ही अपना हाथ पीछे खींच लिया था क्योंकि परियोजना मानकों के मुताबिक दुरुस्त नहीं पाई गई थी और उसका लाभ स्थानीय समुदायों को नहीं मिलने वाला था। तब से नेपाल में कोई बड़ा बाँध नहीं बना है। हालाँकि भारत और नेपाल ने 2008 में अरुण-3 और अपर करनाली बाँध बनाने के लिए नये सिरे से एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए थे। दोनों का कार्य भारतीय कंपनियों को ही मिला था। यह बात भी सामने आई थी कि वेस्ट सेती परियोजना का पूरा खर्च नेपाल वहन करेगा लेकिन अधिकांश बिजली का इस्तेमाल भारत करेगा। माओवादियों का कहना है कि दिवंगत गिरिजा प्रसाद कोइराला के इन फैसलों से वे पूरी तरह सहमत नहीं हैं और सरकार बनने के बाद इनकी समीक्षा की जाएगी। भारत की ओर से चल रहे अपर करनाली परियोजना के कार्य को माओवादियों ने रोकने की बात भी कही थी। उनकी ओर से जल संसाधन मामलों के प्रमुख श्री लीला मणि पोखरेल ने पत्रकारों से स्पष्ट कहा कि जब तक सरकार बनने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती और जब तक प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की सही नीति नहीं बन जाती, तब तक कोई भी बाँध आगे नहीं बढ़ाने दिया जाएगा।
-विनीत तिवारी
लोकसंघर्ष पत्रिका सितम्बर 2010 अंक में प्रकाशित
दूसरी ओर भारत के माओवादियों में भी नेपाल के माओवादियों द्वारा संसदीय राजनीति में आने को लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाएँ रहीं। दोनों देशों की विशिष्ट परिस्थितियों को नजरंदाज करके भारत के माओवादियों के लिए भी यह नजीर दी जाने लगी कि जिस तरह नेपाल के माओवादियों ने सशस्त्र विद्रोह की अव्यावहारिकता को समझकर मुख्यधारा में आने का फैसला किया है वैसे ही भारत के माओवादियों व नक्सलवादियों को भी छापामार संघर्ष का रास्ता छोड़कर संसदीय राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होकर जनता के हित की लड़ाई लड़नी चाहिए।
नेपाल के पानी और बिजली पर नजर भारत और चीन, दोनों की ही नजर नेपाल में मौजूद जलविद्युत की अपार संभावनाओं का दोहन करने पर भी है। लगभग 3 करोड़ की आबादी और क्षेत्रफल के लिहाज से दुनिया के 93वें देश का दर्जा रखने वाले इस देश में दुनिया के दस सबसे ऊँचे पर्वत शिखरों में से आठ मौजूद हैं जिसकी वजह से तेज बहाव वाली अनेक नदियाँ यहाँ हैं। कोसी, गंडकी, करनाली जैसी नदियाँ ऊँचे हिमालयी ग्लेशियरों से निकलती हैं और नीचे आकर गंगा में मिल जाती हैं। ये योजनाएँ अब तक साकार होने के करीब होतीं अगर सब कुछ बेरोक-टोक चल रहा होता। लेकिन ये परियोजनाएँ 1995 से ही ठंडे बस्ते में हैं क्योंकि उस वक्त 1.1 अरब डाॅलर लागत और 402 मेगावाट अनुमानित क्षमता वाली अरुण-3 बाँध परियोजना से विश्व बैंक ने 1995 में ही अपना हाथ पीछे खींच लिया था क्योंकि परियोजना मानकों के मुताबिक दुरुस्त नहीं पाई गई थी और उसका लाभ स्थानीय समुदायों को नहीं मिलने वाला था। तब से नेपाल में कोई बड़ा बाँध नहीं बना है। हालाँकि भारत और नेपाल ने 2008 में अरुण-3 और अपर करनाली बाँध बनाने के लिए नये सिरे से एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए थे। दोनों का कार्य भारतीय कंपनियों को ही मिला था। यह बात भी सामने आई थी कि वेस्ट सेती परियोजना का पूरा खर्च नेपाल वहन करेगा लेकिन अधिकांश बिजली का इस्तेमाल भारत करेगा। माओवादियों का कहना है कि दिवंगत गिरिजा प्रसाद कोइराला के इन फैसलों से वे पूरी तरह सहमत नहीं हैं और सरकार बनने के बाद इनकी समीक्षा की जाएगी। भारत की ओर से चल रहे अपर करनाली परियोजना के कार्य को माओवादियों ने रोकने की बात भी कही थी। उनकी ओर से जल संसाधन मामलों के प्रमुख श्री लीला मणि पोखरेल ने पत्रकारों से स्पष्ट कहा कि जब तक सरकार बनने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती और जब तक प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की सही नीति नहीं बन जाती, तब तक कोई भी बाँध आगे नहीं बढ़ाने दिया जाएगा।
-विनीत तिवारी
लोकसंघर्ष पत्रिका सितम्बर 2010 अंक में प्रकाशित
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