शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

दलित उत्पीड़न-झज्जर, गोहाना और अब मिर्चपुर, भाग 2


पूरे मामले में राज्य सरकार अपने कर्तव्यों को निभाने में कितनी कमजोर रही इसका आकलन इस बात से कर सकते हैं कि 21 अप्रैल को घटना होती है और 27 अप्रैल को मुख्यमंत्री हुड्डा मिर्चपुर गाँव का दौरा करने का वक्त निकाल पाते हैं। जबकि कांग्रेस पार्टी की तरफ से दलित को एकजुट करने के अभियान में जुटे राहुल गाँधी 29 अप्रैल को मिर्चपुर गाँव के दौर पर पहुँचते हैं। राहुल गाँधी के प्रस्तावित दौरे के मद्देनजर ही मुख्यमंत्री हुड्डा ने मिर्चपुर गाँव का दौरा कर तमाम भारी भरकम घोषणाएँ कर डालीं, ताकि स्थिति को सुधारते हुए राहुल गांधी के समक्ष अच्छी तस्वीर पेश की जा सके। मुख्यमंत्री की कार्यप्रणाली से साफ है कि वे आला कमान और खाप पंचायतों के दबाव में अपने फैसले कर रहे हैं, नहीं तो इस बात की वजह नहीं बनती है कि मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा खाप पंचायतों को सामाजिक संस्था करार देते हुए,उन्हें जायज ठहराते, जबकि खाप पंचायतों के फैसले बड़े पैमाने पर कानून-व्यवस्था का संकट पैदा कर रहे हैं।
मिर्चपुर घटना के बाद दलित अधिकारों से जुड़े संगठनों ने 20 मई को जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया और एक स्वर में खाप पंचायतों के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए उस पर प्रतिबंध लगाने की माँग की। गौरतलब है कि हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खाप पंचायतें कभी झूठी शान और इज्जत के नाम पर प्रेमी युवक-युवतियों की हत्या का फरमान जारी करती हैं, तो कभी गोत्र विवाद दिखाकर पति-पत्नी को भाई-बहन बनाने का हुक्म देने के चलते चर्चा में रहती हैं। यही नहीं दलितों के सामूहिक उत्पीड़न के मामले में खाप पंचायतें अहम किरदार के रूप में दिखाई देती हैं। खाप पंचायतों का निर्णायक और असरदार भूमिका में होना लोकतांत्रिक राजनीति की विफलता के सिवाय कुछ नहीं है। अफसोस की बात तो यह है कि गोत्र विवाद के मुद्दे पर राजनेता खाप पंचायतों के पक्ष में बयानबाजी करते हुए पाए गए। जिसे भारतीय लोकतंत्र की मर्यादाओं के लिहाज से शर्मनाक ही कहा जाएगा।
दलितों का उत्पीड़न जारी है। इसमें आजादी के बाद का लंबा समय बीतने के बाद से कोई खास बदलाव नहीं आया है। क्योंकि बदलाव की सियासत को अवसरवादिता और वोट बैंक की राजनीति ने हड़प लिया है। दलित उत्पीड़न के ताजा मामलों में एक खास प्रवृत्ति देखी जा रही है। जिसके तहत उन दलितों को निशाना बनाया जा रहा है, जो आर्थिक रूप से मजबूत होने की प्रक्रिया में हैं। हरियाणा का मिर्चपुर गाँव भी ऐसा है, जहाँ गाँव के बाल्मीकि परिवारों ने अपने पुराने पेशे को छोड़ दिया है। बाल्मीकि परिवारों के बच्चे पढ़ाई लिखाई कर रहे हैं। जिस लड़की की मौत हुई है, वह विकलांग होने के बावजूद संघर्ष के साथ अपनी पढ़ाई जारी रखे हुए थी। कहने का मतलब साफ है कि एक वर्ग जो कल तक सामंती शोषण का शिकार रहा है, सिर उठाकर जीने की कोशिश कर रहा था, यही बात गाँव के दबंगों को नापसंद थी। मिर्चपुर हमले में जो बातें सामने आईं उसमें घरों में रखी पानी की टंकियों को तोड़ दिया गया या उन्हें तालाब में फेंक दिया गया, घर के कीमती सामानों जैसे फ्रिज, कूलर, टीवी और मोटरसाइकिल आदि साधनों को आग के हवाले कर दिया गया। आगजनी के पीछे का संघर्ष केवल प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि एक सुनियोजित हमला था जो बाल्मीकि परिवारों की आर्थिक बहाली के उपायों पर चोट करने के लिए किया गया था। हरियाणा में दलित उत्पीड़न यह बताने के लिए काफी हैं कि वहाँ पर कानून-व्यवस्था खाप पंचायतों के पक्ष में खड़ी है। कुल मिलाकर आजादी के बाद हरियाणा में बन रहे हालात न केवल दलितों के उत्पीड़न के लिहाज से बल्कि लोकतांत्रिक अधिकारों की मजबूती के लिहाज से चिंताजनक हैं, क्योंकि देश का संविधान सभी को अवसर और रोजगार के चयन की स्वतंत्रता के साथ जीवन की सुरक्षा की गारंटी देता है। बावजूद इसके राजनीति और इससे निर्देशित सरकारें जनता के
संवैधानिक हितों की रक्षा कर पाने में विफल हो रही हैं।

-ऋषि कुमार सिंह
संपर्कः 09313129941
लोकसंघर्ष पत्रिका के सितम्बर अंक में प्रकाशित

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

नइस सर!

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

देश का संविधान सभी को अवसर और रोजगार के चयन की स्वतंत्रता के साथ जीवन की सुरक्षा की गारंटी देता है। बावजूद इसके राजनीति और इससे निर्देशित सरकारें जनता के संवैधानिक हितों की रक्षा कर पाने में विफल हो रही हैं।

सफल आज के दौर में जिससे पैसे की कमाई हो, उसे समझा जाता है, फिर बाकि कामों में सफल होने की मगज मरी कौन करे...............

असफल है तो क्या हुआ, सत्ता में तो हैं..............

चन्द्र मोहन गुप्त

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