बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

विदेशी शैक्षणिक संस्थान (प्रवेश एवं संचालन कानून विधेयक 2010) भाग 1

मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश को लेकर बहुत उत्साहित हैं। कैबिनेट ने इस बिल को पास कर दिया है और अब इसे दोनों सदनो में पेश किया जाना है। लेकिन सरकार की इस मंशा पर कुछ सवाल खड़े हो रहे हैं। इस सम्बंध में सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि भारत के संदर्भ में किसी विदेशी विश्वविद्यालय की कितनी प्रासंगिकता होगी। सबसे पहले कुछ उन बड़े फायदों पर नजर डालते हैं जिन्हें विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में आने के समर्थन में पेश किया जा रहा है। कपिल सिब्बल का मत है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में आने से न सिर्फ करोड़ों डालर की भारतीय मुद्रा की बचत होगी जो भारतीय छात्र विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए खर्च करते हैं बल्कि इससे भारत में उच्च शिक्षा में विकल्पों की संख्या और शिक्षा की गुणवत्ता भी बढे़गी। अब अगर यह देखा जाए कि कि भारत में शिक्षा की मूल समस्या क्या है तो इस बात का जवाब खुद-ब-खुद मिल जाएगा। भारत में शिक्षा की पद्धति अब भी वही है जो औपनिवेशिक शासकों ने भारतीय जनता के लिए अपनी जरूरतों के हिसाब से बनाई थी। प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर हम जो शिक्षा ग्रहण करते हैं, वह हमें कहीं से भी अपने स्थानीय परिवेश से नहीं जोड़ती है। विज्ञान के विषयों में हम फार्मूले रटते हैं और गणित में जोड़ने घटाने की प्रैक्टिस करते हैं। उच्च शिक्षा में हम विशेषीकरण की ओर बढ़ते हैं और किसी एक विषय की मोटी-मोटी किताबों के तथ्य याद कर लेते हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि बचपन से लेकर बडे़ होने तक जो किताबें हम पढ़ते हैं वे हममें कभी समाज और जीवन की अच्छी समझ क्यों पैदा नहीं कर पाती हैं। यह बात इस संदर्भ में और महत्वपूर्ण हो जाती है जब हम देखते हैं कि दिल्ली और दिल्ली से सटे नोएडा गाजियाबाद जैसे शहरों में ऐसे ही प्रोफेशनल और उच्च शिक्षा प्राप्त लड़कों की एक बड़ी जमात आजकल चोरी, छिनैती, चैन स्नेचिंग आदि तरह के अपराधों में लिप्त पाई जा रही है।
कपिल सिब्बल कह चुके हैं कि विदेशी विश्वविद्यालयों में कोटा जैसे कोई कानून लागू नहीं होंगे और वे स्वायत्त होंगे। ऐसे में सवाल यह है कि अगर ये संस्थान अपनी फीसों का ढाँचा बड़ा रखेंगे तो उनमें कितने भारतीय छात्र पढ़ पाएँगे। जाहिर है कि उनमें वही छात्र दाखिला ले पाएँगे जो आर्थिक रूप से पर्याप्त सम्पन्न हैं। ऐसे तमाम छात्र जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और सिर्फ इसी वजह से अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख पाते या फीस देने की कूबत नहीं रखते उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होगा। ऐसे छात्र किसी नामी भारतीय संस्थान में ही दाखिला नहीं ले पाते तो विदेशी संस्थांनो में कैसे पढ़ पाएँगे।
लेकिन इन सब से इतर यहाँ एक बड़ा सवाल यह भी है कि कोई नामी विदेशी विश्वविद्यालय भारत में क्यों आना चाहेगा। आक्सफोर्ड ने तो ऐसी किसी संभावना से इंकार भी कर दिया है और जबकि ऐसे संस्थान अपनी अर्जित कमाई अपने घर नहीं ले जा सकेंगे तो आखिर वे किस लोभ में भारत में अपनी शाखा खोलना चाहेंगे।
इन सबके बीच सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जो विदेशी विश्वविद्यालय यहाँ आएँगे क्या सिर्फ उनके भारत में कैंपस खोलने से ही शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हो जाएगा? जितने भी प्रसिद्ध अमेरिकी या यूरोपीय विश्वविद्यालय आज अपनी शिक्षा के लिए मशहूर हैं उसका कारण यह है कि उन विश्वविद्यालयों में बहुत ही बेहतरीन शिक्षक हैं और उन विश्वविद्यालयों में हर साल विश्व के कुछ बेहतरीन शोधकार्य होते हैं। चूँकि अच्छे शिक्षको के बाहर जाने से उनका अपना रिसर्च प्रभावित होता है ऐसे में कोई भी विश्वविद्यालय अपने बेहतरीन शिक्षकों को देश से बाहर नहीं भेजना चाहेगा। अगर सिर्फ विश्वविद्यालय की बिल्डिंग बनाने से शिक्षा में सुधार हो सकता तो शायद नतीजे कुछ और होते। ऐसे में स्वाभाविक है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के नाम के भरोसे तो कम से कम शिक्षा में सुधार नहीं होने वाला है। चीन और सिंगापुर का उदाहरण हमारे सामने है जहाँ विदेशी विश्वविद्यालयों के कैंपसों में क्वालिटी एजुकेशन नहीं मिलने से इन देशों ने अपने यहाँ विदेशी विश्वविद्यालयों के कैंपसों को बंद कर दिया।

-अविनाश राय
मो0: 09910638355
क्रमश:

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