मंगलवार, 2 नवंबर 2010

यह सेकुलर पार्टियों के स्टैंड लेने का वक़्त है- जस्टिस राजिंदर सच्चर

राम जन्मभूमि विवाद महज एक धार्मिक मसला नहीं है मगर पिछले दो दशकों से यह भारत के राजनीतिक मानसपटल पर काबिज है. इस फैसले को आप किस तरह देखते हैं?
इस फैसले का सार दो शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है: अपराध कथा. 1992 में एक अपराध हुआ था. बारी मस्जिद गिराई गई थी. मगर फ़र्ज़ करिए कि अपराध न हुआ होता और मामला अदालत में चला जाता. क्या आपको लगता है कि फिर किसी भी सूरत में अदालत के लिए भूमि के बँटवारे का फैसला देना संभव होता? साफ़ साफ़ कहें तो संगठित हिंदुत्व के मुद्दई जिस आधार पर ज़मीन मांगने पहुंचे थे, तब क्षतिपूर्ति की बिना पर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए था. देखिये बाबरी मस्जिद वहाँ सोलहवीं सदी से थी. और उन्होंने मुक़दमा (ऐतिहासिक कालखंडों के हिसाब से) अभी अभी दाखिल किया.परिसीमन कानून कहता है कि मुकदमा विवाद की तारीख से लेकर बारह वर्षों तक दायर किया जा सकता है.
अगर बाबरी मस्जिद बनाने के लिए मंदिर तोड़ा गया था तब भी, कानूनी तौर पर, संघ परिवार का कोई हक नहीं बनता क्योंकि मस्जिद परिसीमन की अवधि से पहले मौजूद थी.
मैं 2003 से लिखता रहा हूँ कि इस मुकदमे के लिए एक नज़ीर मौजूद है. (अपने एक शोध-पात्र से उद्धृत करते हैं), "1940 में प्रिवी कौंसिल ने फैसला किया लाहौर में शहीद गंज नाम की मस्जिद थी.उस मुक़दमे में, वहां 1722 से सचमुच मस्जिद मौजूद थी. मगर 1762 के आते आते, वह इमारत महाराजा रणजीत सिंह के सिख शासन के अधीन हो गई और गुरूद्वारे के तौर पर इस्तेमाल की जाने लगी. 1935 में जाकर मुकदमा दायर किया गया कि जिसमें वह इमारत जो एक मस्जिद थी उसे मुसलमानों को लौटा दिया जाए. प्रिवी कौंसिल ने, यह मानते हुए कि 'उनकी बादशाहत धार्मिक भावना के प्रति हर वह संवेदना रखती है जो किसी उपासना स्थल को पवित्रता और अनुल्लंघनीयता प्रदान करती है, वह परिसीमन कानून के अंतर्गत यह दावा नहीं स्वीकार कर सकती कि ऐसी इमारत का इसके प्रतिकूल रूप में कब्ज़ा नहीं रखा जा सकता' यह फैसला दिया कि 'वक्फ और उसके अंतर्गत आने वाले सभी हितों के विपरीत विवादित संपत्ति पर सिखों का बारह सालों से अधिक समय से कब्ज़ा होने से, परिसीमन कानून के अनुसार वक्फ के प्रयोजन से मुतवली का अधिकार समाप्त होता है'".
उस समय अदालत ने माना था कि वह स्थल बेशक एक गुरुद्वारा था. वह विध्वंस का सवाल नहीं था. बाबरी मस्जिद उस से कहीं अधिक राजनीतिक और संवेदनशील स्थल है जैसा कि उसे बना दिया गया.
अगर मान भी लें कि वहां चार सौ सालों पहले मस्जिद की इमारत की जगह मंदिर था, तब भी तर्क के हिसाब से विश्व हिन्दू परिषद और अन्यों के कानूनी मुक़दमे को हारना चाहिए. पर इसके विपरीत अदालत ने सुन्नी वक्फ बोर्ड की याचिका खारिज कर दी जो परिसीमन कानून के अंतर्गत वैध थी.
फिर एक दूसरा पहलू है. ऐसा कोई स्पष्ट शोध नहीं हुआ है कि मस्जिद के नीचे किसी मंदिर का अस्तित्व था. कई लोगों ने बताया है कि वहाँ किसी मंदिर के अवशेष हो सकते हैं. देश की राज्यव्यवस्था का दायरा पांच हज़ार वर्षों का है. हिन्दू मंदिरों और मस्जिदों को बनाने के लिए कई बौद्ध मंदिरों को तोड़ा गया था. हिन्दू राजाओं द्वारा कुछ मस्जिदें भी तोड़ी गई थीं. किसी धार्मिक निमित्त से नहीं बल्कि उस समय की राजनीतिक विशेषताओं के चलते ऐसा किया गया.क्या इसका मतलब यह है विध्वंस और वापिस मांग कर उन सबका शुद्धीकरण किया जाएगा?
बाबरी मस्जिद के मामले में कई इतिहासकारों का परस्पर विरोधी मत है की वहाँ कभी कोई मंदिर नहीं था. किसी विवाद का फैसला अदालत इस हिन्दू आस्था के आधार पर कैसे कर सकती है कि वह राम का जन्मस्थान है? अदालत में आस्था के लिए कोई जगह नहीं है.
फिर एक तीसरा पहलू भी है. मुसलमान मस्जिद बनाते हैं या नहीं यह एकदम अलग प्रश्न है. वह मुसलमानों का चुनाव है. पर चूंकि मस्जिद तोड़ी गई थी, ज़मीन मुसलमानों को लौटाई जानी चाहिए थी. कई नौजवान निराश हैं. कई मुसलमानों ने कहा कि वे उस स्थान पर एक स्कूल बनाते या सभी समुदायों के लिए कोई अस्पताल बना देते पर ज़मीन का बंटवारा नहीं किया जाना चाहिए था. ज़मीन मुसलमानों के पास वापिस नहीं जानी चाहिए यह तर्क समझ से परे है. कहा जाता है कि कुरान में तक यह कहा गया है कि राम और कृष्ण पैगम्बर थे और मुहम्मद साहब आखिरी पैगम्बर. यह कई मुस्लिम विद्वानों का निष्कर्ष है.
यह फैसला बेतुका है. चलिए एएसआई की विवादास्पद रिपोर्ट को मान लेते हैं कि वहाँ मंदिर था. मुसलमान भी उसे मान लेते. वे वहाँ मस्जिद न बनाने का निर्णय ले सकते थे मगर ज़मीन उन्हें दी जानी चाहिए थी. वे वहाँ कुछ भी बनवाते. यह उनका मानवीय और सामुदायिक अधिकार है. अगर मंदिर तोड़ा गया था तब भी एक पांच सौ साल पुरानी इबादतगाह से मुसलमानों को हटाने में भला क्या तुक है? अदालत ऐतिहासिक घटनाओं का आकलन करने में अदालत असमर्थ है.

न्यायाधीशों ने व्यापक तौर पर आस्था को उद्धृत किया है. आपकी टिप्पणी.

यही तो मैं कह रहा था. उनका निष्कर्ष यह है कि हिन्दू ऐसा मानते हैं कि विवादित स्थल राम का जन्मस्थान था. और इस जतन में उन्होंने दक्षिणपंथी इतिहास को वैध साबित कर दिया जो ऐतिहासिक पौलेमिक्स के बारे में अत्यंत विवादग्रस्त रहा है.
धार्मिक आस्था का लिहाज करें तब भी इतिहास को दुरुस्त करने के लिए आप कितना पीछे जा सकते हैं? हमारे जैसे सेकुलर देश में इसकी बिलकुल इजाज़त नहीं दी जा सकती. मैं कठोर शब्द इस्तेमाल नहीं करना चाहता पर यह सियासी बेईमानी है. हमारी सियासी पार्टियों ने स्टैंड लेने से इनकार कर दिया. अगर सरकार ने स्टैंड लिया होता तो (मस्जिद का) विध्वंस होता ही नहीं. अब हरेक पार्टी कह रही है कि अदालत फैसला करे. यह सियासी मुद्दा है. सियासी पार्टियाँ कहती हैं कि शासन के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अदालत दखलअंदाज़ी न करे. पर अब हर पार्टी के लिए यह कह देने में सुभीता है कि अदालत फैसला कर सकती है. सियासी पार्टियों को स्टैंड लेना होगा. आखिरकार यह सेकुलर भारत है. अदालत मुक़दमे की सुनवाई करेगी, और निष्कर्ष देगी. पर इस मामले में न तो क़ानूनी नज़ीरों को और न ही सामान्य विधि (common law) पर ध्यान दिया गया है. इन्साफ करने की बजाय न्यायाधीशों ने निगहबानों जैसा बर्ताव किया है.

संघ परिवार ने इशारा किया है कि वह राम जन्मभूमि आन्दोलन को पुनरुज्जीवित करेगा. इस से धार्मिक समुदायों का ध्रुवीकरण हो सकता है.क्या इस निर्णय ने न्यायिक तटस्थता और वस्तुनिष्ठ तार्किकता के सिद्धांत को चोट पहुँचाई है?

बिलाशक यह फैसला बहुसंख्यावादी (majoritarian) दृष्टिकोण की ओर झुका हुआ और राम जन्मभूमि के पक्ष में है. संघ परिवार इसमें अपनी जीत महसूस कर रहा है. मगर समूची न्यायपालिका को इस तरह बुरा-भला कहना ठीक न होगा. इससे न्यायपालिका की प्रतिष्ठा पर आंच तो आई है. सच्चाई यह है कि रामलला की मूर्तियाँ वहां 1949 में रखी गई थीं. यह चोरी का मामला था. मुसलमान वहां लम्बे समय से इबादत करते रहे थे. वह एक मस्जिद थी. जब एक हिन्दू मूर्ति स्थापित की गई तो मुसलमानों के लिए यह स्वाभाविक था कि वे वहां इबादत न करें क्योंकि मूर्तिपूजा उनके मज़हब के खिलाफ है. इसलिए उन्होंने बाबरी मस्जिद में जाना छोड़ दिया. इसका यह मतलब नहीं कि वहां उनका अधिकार नहीं रहा. 1949 में अदालत ने वहां किसी भी प्रकार के पूजापाठ पर रोक लगाई थी. मगर अब उसने फैसला दिया है कि 1528 में एक मंदिर तोड़ा गया था और इस तरह एएसआई की विवादास्पद रिपोर्ट को वैध ठहराया है. अगर मंदिर तोड़ा गया था तब भी यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि मस्जिद अवैध थी.


यह भूस्वामित्व विवाद का एक दीवानी मामला था. मगर मुद्दा राजनीतिक तौर पर इतना संवेदनशील है कि यह फैसला अप्रत्यक्ष रूप से बाबरी मस्जिद विध्वंस को, जो एक आपराधिक कृत्य था, उचित ठहराता है. इस बारे में आपका क्या कहना है?

हाँ, इस फैसले ने कई चीज़ों को नुकसान पहुँचाया है और भारत के सेकुलर नीतिशास्त्र को चोट पहुँचाई है. यह तो ऐसा हुआ कि कहा जाए: मस्जिद तोड़ो और हिन्दुओं को दे दो. असलियत में ज़मीन का दो-तिहाई हिस्सा हिन्दुओं को ही मिल रहा है. न्यायालय में किसी निर्णय पर पहुँचने का आधार आस्था नहीं हो सकती.
मीडिया लोगों से 'मूव ऑन' करने को कह रहा है. किधर 'मूव' करें? किसकी ओर 'मूव' करें? किसी अपराध को भुलाया नहीं जा सकता. यह न्यायालय की ज़िम्मेदारी है कि अपराध करने के बाद दोषी बच न जाए. मुसलमानों का संपत्ति के प्रति अधिकार छीना जा रहा है. कॉमन लॉ के अनुसार अगर पुत्र पिता की हत्या करता है तो वह पिता की संपत्ति का अधिकारी नहीं रहता. मगर यहाँ जिन गुंडों ने मस्जिद गिराई उन्हें वह मिल गया जो वे चाहते थे.

सच्चर कमिटी रिपोर्ट के लेखक के तौर पर आपने मुसलमानों की गरीब हालत को दर्ज किया है. इस तरह के फैसले से अल्पसंख्यक समुदाय को क्या सन्देश जाएगा?

यह बेशक एक बहुत खतरनाक सन्देश होगा. यह सेकुलर पार्टियों के स्टैंड लेने का वक़्त है. 1946 में बिहार जल रहा था. हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़के हुए थे. पं. नेहरू ने एक सार्वजनिक पत्र लिखकर कहा था कि अगर दंगे नहीं रुके तो वे दिल्ली के दंगाइयों पर बम बरसाएंगे. बिहार मुस्लिम लीग का संसदीय क्षेत्र था और लीग दंगा भड़का रही थी. मगर राजनीतिक पार्टियों की वृहत्तर विज़न ने बहुत ज्यादा गड़बड़ी न होने दी. राज्य को स्टैंड लेना पड़ा और संविधान द्वारा प्रद्दत सेकुलर एथिक्स की पुनःपुष्टि करनी पड़ी. मगर मुसलमानों के संगठित मत की दुरुस्त एप्रोच देखकर अच्छा लगा. पर जैसा कि मीडिया कह रहा है उस तरह उनसे सब कुछ भुलाने को नहीं कहा जा सकता. यह भारत की कार्यप्रणाली और राज्यव्यवस्था में एक समुदाय के भरोसे का मामला है. यह अच्छी बात है कि उनकी प्रतिक्रिया बेहद संयत रही है. मुसलमानों से ही 'मूव ऑन' करने को क्यों कहा जा रहा है? यही सवाल संघ परिवार के समक्ष भी रखा जा सकता है. वे क्यों नहीं 'मूव ऑन' करते? इस फैसले से वे विजयी तो महसूस कर रहे हैं पर संतुष्ट नहीं. वहाँ की समूची ज़मीन पर वे राम मंदिर बनाना चाहते हैं. अगर यह हिन्दू पवित्रता का मामला है तो क्या ये मुस्लिम पवित्रता का मामला भी नहीं? मेरे लिए तो यह फैसला उग्र सांप्रदायिक भावनाओं के समक्ष समर्पण है. अयोध्या की इस गड़बड़ स्थिति के लिए सिर्फ एक ही चीज़ ज़िम्मेदार है- राजनीतिक इच्छाशक्ति का कमज़ोर होना.

(दि हिन्दू और फ्रंटलाइन से साभार)
हिंदी में अनुवाद- भारत भूषण तिवारी

साभार
http://ek-ziddi-dhun.blogspot.com/

1 टिप्पणी:

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

shoeb bhaayi schchr saahb ka yeh lekh to ujhe bhut bhut psnd aya or is lekh ko dekh kr kuch khush honge kuch schchaayi smjhenge or bhut log hen jo is schchaayi se bhdk uthenge. akhtar khan akela kota rajsthan

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