इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा सुनाया गया निर्णय (सितंबर 2010), भारत के न्यायिक इतिहास में एक मील का पत्थर है। एक अर्थ में यह बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने की घटना का समापन पर्व है क्योंकि अदालत ने इस गैर-कानूनी कृत्य को विधिक स्वीकृति प्रदान कर दी है।
इस निर्णय का न तो भारतीय संविधान में निहित मूल्यों से कोई लेना देना है और न ही संविधान में वर्णित नीति निदेशक तत्वों से। इस निर्णय की जड़ें भारत के कानून में ही नहीं हैं।
यह सही है भारत के अधिकांश लोग, इस निर्णय पर अपनी प्रतिक्रिया देने से बचे। जो आलोचना हुई भी वह अत्यंत दबी जुबान में हुई। ऐसा दावा किया जा रहा है कि यह एक संतुलित निर्णय है जिससे सभी पक्ष प्रसन्न और संतुष्ट हैं। यह भी कहा जा रहा है कि वर्तमान परिस्थितियों में इससे बेहतर निर्णय नहीं दिया जा सकता था।
निर्णय के पहले, देश के वातावरण में तनाव, अनिश्चय व आशकाएँ व्याप्त थीं। हिन्दुओं को डर था कि अगर हिंसा होती है और उसके शिकार वे या उनके प्रियजन होते हैं तो यह एक बड़ी मुसीबत होगी। मुस्लिम अल्पसंख्यक भी डरे हुए थे। उन्हें डर था कि हिंसा में उनकी संपत्ति को नुकसान पहुँचाया जाएगा और उनकी जानें जाएँगी।
सौभाग्यवश-उन तत्वों ने, जो कि विभिन्न दंगा जाँच आयोगों के अनुसार हिंसा के लिए जिम्मेदार रहे हैं- निर्णय का जश्न मनाने के लिए हिंसा का सहारा नहीं लिया, जैसा कि उन्होंने सन् 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद किया था। इस बार, शायद संघ परिवार व समाज का सांप्रदायिक तबका, सन् 1992 की तुलना में कहीं अधिक खुश था परंतु उसने अपनी खुशी को प्रकट करने के लिए हिंसा का सहारा नहीं लिया।
सतही तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि मुसलमानों ने इस निर्णय के बाद चैन की साँस ली है क्योंकि उन्हें 1992 जैसी हिंसा नहीं झेलनी पड़ी। परंतु यह भी उतना ही सच है कि अदालत के निर्णय ने उन्हें निराश किया है। उन्हें ऐसा लगा कि यह निर्णय, हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की दिशा में पहला कदम है। मुसलमानों के एक बड़े तबके का मानना है कि कानून भी उनके न्यायपूर्ण अधिकार की रक्षा नहीं कर सका। गहरी कुंठा, गुस्सा और निराशा का भाव इस निर्णय पर उन मुसलमानों की प्रतिक्रिया का केन्द्रीय तत्व है, जिन्होंने अपनी बात कहने की “हिम्मत“ दिखाई। सांप्रदायिक दुष्प्रचार के जरिए हाशिए पर धकेल दिए गए मुसलमानों का एक बड़ा तबका मन मसोस कर “आइए, हम आगे बढ़ंे“ के आह्वान को तवज्जो दे रहा है। दोनों पक्षों के बीच का विरोधाभास स्पष्ट है। जहाँ एक पक्ष को वह मिल गया है जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता था, वहीं दूसरे पक्ष में यह भावना प्रबल है कि उसके साथ एक बार फिर धोखा हुआ है।
संघ परिवार आह्लादित है कि भव्य राम मंदिर के निर्माण का पथ प्रशस्त हुआ है और उसकी मुसलमानों से यह अपेक्षा है कि इस “राष्ट्रीय संकल्प“ की पूर्ति में वे सहयोग करें।
स्पष्टतः यह राष्ट्रीयता की भिन्न व परस्पर विरोधी परिभाषाओं का मामला है। जिस राष्ट्रीयता की बात संघ परिवार कर रहा है वह धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र, स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों व हमारे संविधान में निहित सिद्धांतों का विरोधी है। वैसे भी, हम आर0एस0एस0 जैसे संगठन से और कोई अपेक्षा कर भी कैसे सकते हैं। संघ तो आधुनिक वेशभूषा में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का पैरोकार है। संघ की दृष्टि में अदालत के निर्णय ने सन् 1949 में विवादित ढाँचे में मूर्तियों की स्थापना और सन् 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाने के घोर गैर-कानूनी कृत्यों को विधिक मान्यता प्रदान कर दी है। भारतीय समाज ने भी इन दोनों जघन्य अपराधों को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी है।
कांग्रेस की प्रतिक्रिया अत्यंत शर्मनाक रही है। हम सब जानते हैं कि कांग्रेस, सांप्रदायिक हिंसा के तांडव की मूकदर्शक रही है। कई मौकों पर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों व शीर्ष नेताओं ने सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए कुछ नहीं किया। कांग्रेस ने निर्दोंषों का खून बहते चुपचाप देखा है।
हालिया निर्णय पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया ढुलमुल रही है। कांग्रेस सिर्फ इसलिए खुश है क्योंकि देश में शांति बनी हुई है। उसके लिए इस तथ्य का कोई महत्व नहीं है कि यह शांति, सौहार्द से नहीं उपजी है वरन् आमजनों के एक बड़े तबके द्वारा अन्याय और अपमान के घूँट को चुपचाप पी जाने का नतीजा है। कांग्रेस ने तो संवैधानिक मूल्यों व कानून के राज के पक्ष में बोलना बहुत पहले ही छोड़ दिया था। उसके लिए तो चुनावी गणित अधिक महत्वपूर्ण है। सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता, कांग्रेस की अवसरवादी सांप्रदायिक नीतियों से मेल नहीं खाती।
इन सबके बावजूद, इस देश में ऐसे लोग हैं जो इस निर्णय से व्यथित हैं और इसका खुलकर विरोध कर रहे हैं। ये लोग यह मानते हैं कि यह निर्णय बहुवाद, प्रजातंत्र व भारतीयता के विरुद्ध है।
नौकरशाही व राज्यतंत्र के अन्य हिस्से संतुष्ट हैं क्योंकि सतही तौर पर ही सही पंरतु देश में शांति बनी हुई है। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि न्याय हो रहा है या नहीं, देश की व्यवस्था कानून के अनुरूप चल रही है या नहीं। वैसे भी, व्यवस्था के एक बड़े हिस्से पर संकीर्ण सांप्रदायिक विचारधारा का रंग चढ़ गया है और उसने हिन्दुत्व की विचारधारा को आत्मसात कर लिया है। भारतीय राज्य के इस्पाती ढाँचे को घुन लग गया है। उसका एक छोटा हिस्सा तो खुलकर हिन्दू राष्ट्र की वकालत कर रहा है और एक बड़ा हिस्सा प्रजातांत्रिक मूल्यों के क्षरण को चुपचाप देख रहा है। प्रजातांत्रिक मूल्यों के क्षरण के पीछे कई कारक हैं। इनमें शामिल हैं अनवरत जारी सांप्रदायिक दुष्प्रचार, वैश्वीकरण के कुप्रभाव व इनके कारण हो रहे सांस्कृतिक परिवर्तन।
जाहिर है कि हमारे सामने एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठ खड़ा हुआ है और वह यह है कि इन परिस्थितियों में भारतीय संविधान की रक्षा कौन करेगा? राजनैतिक नेतृत्व केवल सतही शांति से संतुष्ट है और उसे इस बात की कोई फिक्र नहीं है कि देश के सभी नागरिकों के साथ न्याय हो रहा है या नहीं। इससे भारतीय संविधान के मूल्यों और न्याय के सिद्धांतों को गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है।
अयोध्या मामले में अदालती निर्णय और उस पर प्रतिक्रिया उन सबके लिए अत्यंत गहन व गंभीर चिंता का विषय है जो भारतीय संविधान में आस्था रखते हैं और हिन्दू राष्ट्र का झंड़ा नहीं थामे हुए हैं। आज समाज में साम्प्रदायिक सोच का बोलबाला है। भारत की संवैधानिक और विधिक नींव की चूलें हिला देने वाला यह निर्णय, भारतीय गंणतंत्र पर इसके पूर्व हुए हमलों से कहीं अधिक गंभीर व ंिचंताजनक है। महात्मा गांधी की हत्या, सिक्ख-विरोधी दंगे, बाबरी मस्जिद का विध्वंस, पाॅस्टर ग्राहम स्टेन्स की हत्या, गुजरात कत्लेआम और कंधमाल हिंसा से भी अधिक चिंताजनक हैं यह निर्णय, उसका निहितार्थ व उसपर प्रतिक्रियाएँ। सिक्ख-विरोधी हिंसा को छोड़कर धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक भारत की अवधारणा पर हुए अन्य सभी हमलों के मूल में हिन्दू राष्ट्र की विचारधारा थी और संविधान पर संघ परिवार द्वारा प्रायोजित व अंजाम दिए गए इन हमलों के दौरान कांग्रेस ने घोर अवसरवादिता का प्रदर्शन किया। उसने इन सभी मामलों में केवल दर्शक की भूमिका निभाई। एक तरह से उसने भारतीय राष्ट्र के संस्थापकों के सिद्धांतों की इन खुली अवहेलनाओें में सहायक की भूमिका का निर्वहन किया। इस घटनाक्रम को हम क्रिकेट की दुनिया के एक उदाहरण से समझ सकते हैं। भारतीय संवैधानिक मूल्य बल्लेबाज हैं, आर0एस0एस0- हिन्दुत्व राजनीति गेंदबाज हैं, कांग्रेस फील्डर है और सामूहिक साम्प्रदायिक सोच वह अम्पायर है जो गेंदबाज की हर अपील पर अपनी अँगुली उठाकर बल्लेबाज को आउट करार दे देता है। राज्यतंत्र का एक बड़ा हिस्सा इस मैच के लिए ऐसी पिच तैयार करता है जो गेंदबाज के लिए सबसे उपयुक्त व सुविधजनक हो। यह घटनाक्रम हमें नाजी जर्मनी की याद भी दिलाता है जहाँ यहूदियों, कम्युनिस्टों और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं का दानवीकरण कर देश का वातवरण ऐसा बना दिया गया था कि फासीवादी मूल्य राज्यतंत्र और आमजनों के दिलो दिमाग पर छा गए और अल्पसंख्यकों व अन्य कमजोर वर्गों के दमन को सामाजिक स्वीकृति मिल गई।
हिंसा की हर घटना साम्प्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देती है। अयोध्या मामले में जो निर्णय आया है वह तो दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण है ही उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि निर्णय का सभी संबंधित पक्षों ने स्वागत किया है।
प्रगतिशील ताकतों और धर्मनिरपेक्ष आंदोलन को गंभीर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है। एक ओर संघ परिवार हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को ध्वस्त करने के लिए एक के बाद एक हमले किए जा रहा है और दूसरी ओर सत्ताधारी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए ईमानदारी से प्रयास नहीं कर रही है। ऐसे में भारतीय धर्मनिरपेक्षता की रक्षा कौन करेगा? भारत के संविधान और स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों को कौन बचाएगा? समय आ गया है कि प्रगतिशील, उदारवादी और प्रजातान्त्रिक ताकतें खुलकर मैदान में आएँ। यह उनके लिए करो या मरो का संघर्ष है। समाज में व्याप्त साम्प्रदायिकता, प्रजातांत्रिक सिद्धांतों पर हमले और अदालतों द्वारा भारतीय कानून की अवहेलना अत्यंत गंभीर चिंता का विषय हैं।
-राम पुनियानी
मोबाइल: 09322254043
(लेखक आई0आई0टी0 मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
इस निर्णय का न तो भारतीय संविधान में निहित मूल्यों से कोई लेना देना है और न ही संविधान में वर्णित नीति निदेशक तत्वों से। इस निर्णय की जड़ें भारत के कानून में ही नहीं हैं।
यह सही है भारत के अधिकांश लोग, इस निर्णय पर अपनी प्रतिक्रिया देने से बचे। जो आलोचना हुई भी वह अत्यंत दबी जुबान में हुई। ऐसा दावा किया जा रहा है कि यह एक संतुलित निर्णय है जिससे सभी पक्ष प्रसन्न और संतुष्ट हैं। यह भी कहा जा रहा है कि वर्तमान परिस्थितियों में इससे बेहतर निर्णय नहीं दिया जा सकता था।
निर्णय के पहले, देश के वातावरण में तनाव, अनिश्चय व आशकाएँ व्याप्त थीं। हिन्दुओं को डर था कि अगर हिंसा होती है और उसके शिकार वे या उनके प्रियजन होते हैं तो यह एक बड़ी मुसीबत होगी। मुस्लिम अल्पसंख्यक भी डरे हुए थे। उन्हें डर था कि हिंसा में उनकी संपत्ति को नुकसान पहुँचाया जाएगा और उनकी जानें जाएँगी।
सौभाग्यवश-उन तत्वों ने, जो कि विभिन्न दंगा जाँच आयोगों के अनुसार हिंसा के लिए जिम्मेदार रहे हैं- निर्णय का जश्न मनाने के लिए हिंसा का सहारा नहीं लिया, जैसा कि उन्होंने सन् 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद किया था। इस बार, शायद संघ परिवार व समाज का सांप्रदायिक तबका, सन् 1992 की तुलना में कहीं अधिक खुश था परंतु उसने अपनी खुशी को प्रकट करने के लिए हिंसा का सहारा नहीं लिया।
सतही तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि मुसलमानों ने इस निर्णय के बाद चैन की साँस ली है क्योंकि उन्हें 1992 जैसी हिंसा नहीं झेलनी पड़ी। परंतु यह भी उतना ही सच है कि अदालत के निर्णय ने उन्हें निराश किया है। उन्हें ऐसा लगा कि यह निर्णय, हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की दिशा में पहला कदम है। मुसलमानों के एक बड़े तबके का मानना है कि कानून भी उनके न्यायपूर्ण अधिकार की रक्षा नहीं कर सका। गहरी कुंठा, गुस्सा और निराशा का भाव इस निर्णय पर उन मुसलमानों की प्रतिक्रिया का केन्द्रीय तत्व है, जिन्होंने अपनी बात कहने की “हिम्मत“ दिखाई। सांप्रदायिक दुष्प्रचार के जरिए हाशिए पर धकेल दिए गए मुसलमानों का एक बड़ा तबका मन मसोस कर “आइए, हम आगे बढ़ंे“ के आह्वान को तवज्जो दे रहा है। दोनों पक्षों के बीच का विरोधाभास स्पष्ट है। जहाँ एक पक्ष को वह मिल गया है जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता था, वहीं दूसरे पक्ष में यह भावना प्रबल है कि उसके साथ एक बार फिर धोखा हुआ है।
संघ परिवार आह्लादित है कि भव्य राम मंदिर के निर्माण का पथ प्रशस्त हुआ है और उसकी मुसलमानों से यह अपेक्षा है कि इस “राष्ट्रीय संकल्प“ की पूर्ति में वे सहयोग करें।
स्पष्टतः यह राष्ट्रीयता की भिन्न व परस्पर विरोधी परिभाषाओं का मामला है। जिस राष्ट्रीयता की बात संघ परिवार कर रहा है वह धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र, स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों व हमारे संविधान में निहित सिद्धांतों का विरोधी है। वैसे भी, हम आर0एस0एस0 जैसे संगठन से और कोई अपेक्षा कर भी कैसे सकते हैं। संघ तो आधुनिक वेशभूषा में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का पैरोकार है। संघ की दृष्टि में अदालत के निर्णय ने सन् 1949 में विवादित ढाँचे में मूर्तियों की स्थापना और सन् 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाने के घोर गैर-कानूनी कृत्यों को विधिक मान्यता प्रदान कर दी है। भारतीय समाज ने भी इन दोनों जघन्य अपराधों को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी है।
कांग्रेस की प्रतिक्रिया अत्यंत शर्मनाक रही है। हम सब जानते हैं कि कांग्रेस, सांप्रदायिक हिंसा के तांडव की मूकदर्शक रही है। कई मौकों पर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों व शीर्ष नेताओं ने सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए कुछ नहीं किया। कांग्रेस ने निर्दोंषों का खून बहते चुपचाप देखा है।
हालिया निर्णय पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया ढुलमुल रही है। कांग्रेस सिर्फ इसलिए खुश है क्योंकि देश में शांति बनी हुई है। उसके लिए इस तथ्य का कोई महत्व नहीं है कि यह शांति, सौहार्द से नहीं उपजी है वरन् आमजनों के एक बड़े तबके द्वारा अन्याय और अपमान के घूँट को चुपचाप पी जाने का नतीजा है। कांग्रेस ने तो संवैधानिक मूल्यों व कानून के राज के पक्ष में बोलना बहुत पहले ही छोड़ दिया था। उसके लिए तो चुनावी गणित अधिक महत्वपूर्ण है। सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता, कांग्रेस की अवसरवादी सांप्रदायिक नीतियों से मेल नहीं खाती।
इन सबके बावजूद, इस देश में ऐसे लोग हैं जो इस निर्णय से व्यथित हैं और इसका खुलकर विरोध कर रहे हैं। ये लोग यह मानते हैं कि यह निर्णय बहुवाद, प्रजातंत्र व भारतीयता के विरुद्ध है।
नौकरशाही व राज्यतंत्र के अन्य हिस्से संतुष्ट हैं क्योंकि सतही तौर पर ही सही पंरतु देश में शांति बनी हुई है। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि न्याय हो रहा है या नहीं, देश की व्यवस्था कानून के अनुरूप चल रही है या नहीं। वैसे भी, व्यवस्था के एक बड़े हिस्से पर संकीर्ण सांप्रदायिक विचारधारा का रंग चढ़ गया है और उसने हिन्दुत्व की विचारधारा को आत्मसात कर लिया है। भारतीय राज्य के इस्पाती ढाँचे को घुन लग गया है। उसका एक छोटा हिस्सा तो खुलकर हिन्दू राष्ट्र की वकालत कर रहा है और एक बड़ा हिस्सा प्रजातांत्रिक मूल्यों के क्षरण को चुपचाप देख रहा है। प्रजातांत्रिक मूल्यों के क्षरण के पीछे कई कारक हैं। इनमें शामिल हैं अनवरत जारी सांप्रदायिक दुष्प्रचार, वैश्वीकरण के कुप्रभाव व इनके कारण हो रहे सांस्कृतिक परिवर्तन।
जाहिर है कि हमारे सामने एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठ खड़ा हुआ है और वह यह है कि इन परिस्थितियों में भारतीय संविधान की रक्षा कौन करेगा? राजनैतिक नेतृत्व केवल सतही शांति से संतुष्ट है और उसे इस बात की कोई फिक्र नहीं है कि देश के सभी नागरिकों के साथ न्याय हो रहा है या नहीं। इससे भारतीय संविधान के मूल्यों और न्याय के सिद्धांतों को गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है।
अयोध्या मामले में अदालती निर्णय और उस पर प्रतिक्रिया उन सबके लिए अत्यंत गहन व गंभीर चिंता का विषय है जो भारतीय संविधान में आस्था रखते हैं और हिन्दू राष्ट्र का झंड़ा नहीं थामे हुए हैं। आज समाज में साम्प्रदायिक सोच का बोलबाला है। भारत की संवैधानिक और विधिक नींव की चूलें हिला देने वाला यह निर्णय, भारतीय गंणतंत्र पर इसके पूर्व हुए हमलों से कहीं अधिक गंभीर व ंिचंताजनक है। महात्मा गांधी की हत्या, सिक्ख-विरोधी दंगे, बाबरी मस्जिद का विध्वंस, पाॅस्टर ग्राहम स्टेन्स की हत्या, गुजरात कत्लेआम और कंधमाल हिंसा से भी अधिक चिंताजनक हैं यह निर्णय, उसका निहितार्थ व उसपर प्रतिक्रियाएँ। सिक्ख-विरोधी हिंसा को छोड़कर धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक भारत की अवधारणा पर हुए अन्य सभी हमलों के मूल में हिन्दू राष्ट्र की विचारधारा थी और संविधान पर संघ परिवार द्वारा प्रायोजित व अंजाम दिए गए इन हमलों के दौरान कांग्रेस ने घोर अवसरवादिता का प्रदर्शन किया। उसने इन सभी मामलों में केवल दर्शक की भूमिका निभाई। एक तरह से उसने भारतीय राष्ट्र के संस्थापकों के सिद्धांतों की इन खुली अवहेलनाओें में सहायक की भूमिका का निर्वहन किया। इस घटनाक्रम को हम क्रिकेट की दुनिया के एक उदाहरण से समझ सकते हैं। भारतीय संवैधानिक मूल्य बल्लेबाज हैं, आर0एस0एस0- हिन्दुत्व राजनीति गेंदबाज हैं, कांग्रेस फील्डर है और सामूहिक साम्प्रदायिक सोच वह अम्पायर है जो गेंदबाज की हर अपील पर अपनी अँगुली उठाकर बल्लेबाज को आउट करार दे देता है। राज्यतंत्र का एक बड़ा हिस्सा इस मैच के लिए ऐसी पिच तैयार करता है जो गेंदबाज के लिए सबसे उपयुक्त व सुविधजनक हो। यह घटनाक्रम हमें नाजी जर्मनी की याद भी दिलाता है जहाँ यहूदियों, कम्युनिस्टों और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं का दानवीकरण कर देश का वातवरण ऐसा बना दिया गया था कि फासीवादी मूल्य राज्यतंत्र और आमजनों के दिलो दिमाग पर छा गए और अल्पसंख्यकों व अन्य कमजोर वर्गों के दमन को सामाजिक स्वीकृति मिल गई।
हिंसा की हर घटना साम्प्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देती है। अयोध्या मामले में जो निर्णय आया है वह तो दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण है ही उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि निर्णय का सभी संबंधित पक्षों ने स्वागत किया है।
प्रगतिशील ताकतों और धर्मनिरपेक्ष आंदोलन को गंभीर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है। एक ओर संघ परिवार हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को ध्वस्त करने के लिए एक के बाद एक हमले किए जा रहा है और दूसरी ओर सत्ताधारी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए ईमानदारी से प्रयास नहीं कर रही है। ऐसे में भारतीय धर्मनिरपेक्षता की रक्षा कौन करेगा? भारत के संविधान और स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों को कौन बचाएगा? समय आ गया है कि प्रगतिशील, उदारवादी और प्रजातान्त्रिक ताकतें खुलकर मैदान में आएँ। यह उनके लिए करो या मरो का संघर्ष है। समाज में व्याप्त साम्प्रदायिकता, प्रजातांत्रिक सिद्धांतों पर हमले और अदालतों द्वारा भारतीय कानून की अवहेलना अत्यंत गंभीर चिंता का विषय हैं।
-राम पुनियानी
मोबाइल: 09322254043
(लेखक आई0आई0टी0 मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें