विश्व विख्यात वैज्ञानिक स्टेफ़न हाकिंग का दावा है कि ब्रह्माण्ड ईश्वर की रचना नहीं है, इसकी उत्पत्ति स्वतः स्र्फूत है, यानी वे ब्रह्माण्ड की रचना में ईश्वर की भूमिका को, दूसरे रूप में उसके अस्तित्व की अवधारणा को ही चुनौती दे रहे हैं। यह वह समय है जब हमारे प्रिय देश की विकास दर के लगातार ऊपर उठने का भी दावा किया जा रहा है, वातावरण में दूर तक माॅडर्निज़्म की एक चमकीली पर्त जमती हुई दिखाई दे रही है लेकिन यही वह समय भी है जब आधुनिक चेतना और रूढ़िवाद व अंधविश्वास के बीच संघर्ष निरन्तर सघन व जटिल होता गया है। रूढ़ियों, अंधविश्वास तथा कर्मकाण्डों का आज जैसा भव्य महिमा मण्डन पहले शायद ही किसी ने देखा हो। जातीय संरचनाओं की टूटन उस दूरी तक नहीं जा पा रही है जितनी कि खा़प पंचायतों के क्रूर फैसलों से निकली मासूमों की गहरे लाल रक्त की धार, जिन्दा जलाए जा रहे इंसानों की चीखें़, पँूजीवाद के सर्वाधिक वीभत्स साधन धर्मवाद की राजनीति से विपुल शक्ति व प्रेरणा ग्रहण करने वाला भ्रष्टाचार, नित नये कीर्तिमान बना रहा है। मानवीय मूल्य व सामाजिक मर्यादाएँ जहाँ अप्रासंगिक यथार्थ की हैसियत में हंै, ठीक ऐसे समय में जब सामान्य भारतीय जन के प्रति असंवेदन शीलता सरकारों की विशिष्टता बन गई हो तब 61 वर्ष पुराने बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि विवाद के सम्बन्ध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के तीन विद्वान न्यायाधीशों द्वारा दिए गए चिरप्रतीक्षित ऐतिहासिक फैसले में धार्मिक आस्था को प्रमुख आधार बनाना देश की बड़ी आबादी को गहरे तक आहत व विचलित करता है। आबादी के इस हिस्से में किसी एक धार्मिक समुदाय के लोग ही नहीं हैं बल्कि इनमें खासी संख्या में वे लोग भी शामिल हैं, जिनकी भारतीय लोकतंत्र, जनवाद, धर्मनिरपेक्षता, संविधान एवम् न्याय व्यवस्था में गहरी आस्था है, इनमें सभी वर्गों के लोग शामिल हैं।
संभवतः ऐसा पहली बार घटित हुआ है, जब भू स्वामित्व के किसी विवाद को निपटाने के लिए आस्था को केन्द्रीयता प्राप्त हुई है। प्रशांत भूषण ठीक कहते हैं कि यह फैसला राजनैतिक है, कानूनी नहीं
क्योंकि इससे भावनात्मक उग्रवाद को बढ़ावा मिलेगा, इस कारण यह फैसला कांग्रेस, भाजपा व बसपा के बीच फैसले को लेकर रणनीतिक समझदारी होने की आशंका को भी जन्म देता है।
वही गोश-ए-क़फ़स है, वही फ़स्ले गुल का मातम।
वह आस्था जिसे अपनी राजनीति तथा सामाजिक आधार के विस्तार के लिए इस्तेमाल करने वाली शक्तियाँ न्यायालयों से बाहर हल नहीं कर सकतीं, ऐसी आस्था जिसके उन्मादी आवेग में 6 दिसम्बर 1992 को पाँच सौ वर्ष पुरानी मस्जिद को जब़रन् प्रशासन के संरक्षण मे ढहा दिया गया, उसी आस्था को प्रदेश के यादगार परम्पराओं वाले उच्च न्यायालय की एक पीठ से मान्यता मिल गई, बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने का अपराध स्वतः कमज़ोर पड़ गया, कई अनैतिकताओं को नैतिकता का आवरण मिल गया। बावजूद इस स्पष्टीकरण के यह फैसला बाबरी मस्जिद ध्वंस के अपराध की गंभीरता को कम नहीं करता। दीपंकर इस स्थिति को बाबरी मस्जिद का न्यायिक विध्वंस कहते हैं। वे मानते हैं कि इलाहाबाद उच्चन्यायालय का यह निर्णय न्याय के बुनियादी सिद्धांतों व कानून के शासन की बुनियादी स्थापनाओं पर भी खरा नहीं उतरता और आधुनिक भारत के धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक विचार को ही चुनौती देता है। दीपंकर के इन शब्दों के भीतर से जो चिंता उभरती है वह यह कि साम्प्रदायिक फासीवादी शक्तियों को जिन्होंने इस देश को व्यापक क्षति पहुँचाई है, तर्क का सम्बल प्राप्त हो गया है। इससे यह तात्पर्य नहीं लेना चाहिए कि मुसलमानों के बीच सक्रिय ऐसी शक्तियों ने केवल खोया ही खोया है, एक तिहाई हिस्से पर सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड की दावेदारी मौलाना बुख़ारी जैसे लोगो को समय बे समय ताल ठोंकने का अवसर तो देती ही है। समय भी कैसी विरल विडम्बनाओं का साक्षी बनता है, 6 दिसम्बर 1992 को जिन लोगों ने आश्वासन देकर भी दिन दहाड़े कानून तथा संविधान की धज्जियाँ उड़ाईं अब वे कानून के सम्मान की बात करेेंगे, भले जस्टिस राजेन्द्र सच्चर कहते रहंे कि कोर्ट में आस्था का कोई अर्थ नहीं है।
अधिकांश विद्वानों, बुद्धिजीवियों की स्थापना है कि यह फैसला बहुसंख्यक की विजय है, इस स्थापना को जस का तस स्वीकार करते हुए भी कहा जा सकता है कि यह भारतीय राजनीति की विशिष्ट कूटनीति तदर्थवाद की भी विजय है अर्थात संकट को किसी तरह टालो। कामनवेल्थ गेम्स, बिहार के चुनाव, ओबामा की संभावित भारत यात्रा, कश्मीर में विस्फोटक होती जाती स्थिति तथा प्रधानमंत्री की विदेश यात्राएँ, फैसले के क्षण, संशय की कितनी छायायों से घिर हुए थे, इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि फैसले को प्रभावित किया गया है बल्कि हमें बहुत पुरानी कहावत पर भरोसा कर लेना चाहिए कि ‘‘कभी बिल्ली के भाग्य से भी छींका टूटता है।’’
न्याय के लिए आस्था को महत्व देने के समान ही रामलला विराजमान को विधि सम्मत मानकर देवकी नन्दन अग्रवाल के अभिभावकत्व को वैधानिकता मिलना भी कई चिंताएँ पैदा करता है।
इस परिस्थिति ने जनवादी आधुनिक सोच को सहसा गहरे ख़तरे में डाल दिया है। कँटीले बाड़ांे की परिधि से जैसे वह जकड़ गई है। मध्ययुगीन प्राचीनतावादी जीवन दृष्टि, सामंतवाद प्रभावित चेतना, तमाम तरह की अनैतिकताओं पर आधारित पूँजीवादी लूट, व्यावसायिक प्रतिस्पद्र्धा की नित नई गति पकड़ती मर्यादा विहीन होड़, वैश्वीकरण के फ़ासीवादी इरादों, राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण व अपराध के राजनीतिकरण एवम् रूढ़िवाद, धार्मिक अंधविश्वास, कर्मकाण्ड तथा दूसरों को रौंदते आगे बढ़ जाने की जीवन शैली को परास्त करने के संघर्ष की तीव्र होती जाती ज़रूरत के प्रकाश में देखंे तो गहरी निराशा होती है। पंचायती फैसला कहते हुए राजीव धवन के शब्दों में जो एक दर्द की तरह उभरती है। फै़ज़ याद आते हैं-
-शकील सिद्दीक़ी
(लेखक हिन्दी, उर्दू अदब के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं)
मोबाइल- 09839123525
लोकसंघर्ष परिवार की तरफ से चिट्ठाजगत के सभी चिट्ठाकारों को नव वर्ष की शुभकामनाएं
संभवतः ऐसा पहली बार घटित हुआ है, जब भू स्वामित्व के किसी विवाद को निपटाने के लिए आस्था को केन्द्रीयता प्राप्त हुई है। प्रशांत भूषण ठीक कहते हैं कि यह फैसला राजनैतिक है, कानूनी नहीं
क्योंकि इससे भावनात्मक उग्रवाद को बढ़ावा मिलेगा, इस कारण यह फैसला कांग्रेस, भाजपा व बसपा के बीच फैसले को लेकर रणनीतिक समझदारी होने की आशंका को भी जन्म देता है।
इसे विरल विडम्बना ही कहा जा सकता है कि यह एक ऐसा फैसला है जो न्यायाधीशों की मेधा व निष्ठा पर समूचेपन से विश्वास के बावजूद फैसले से ज्यादा फैसले की भ्रान्ति की अवधारणा को विकसित करता है। यानी कि वह वादियों को ऐसी जगह ला खड़ा करता है जहाँ से नये विवादों की अनेकानेक राहें खुलती हैं, जो पहले से अधिक सँकरी व कंकरीली है। यही वजह है कि वादियों के अतिरिक्त इस विवाद से भावना, संवेदना या चेतना के स्तर पर जुड़े अधिकांश लोगों के मन में फैसले की अंतर्वस्तु से अवगत होते ही एक दूसरे फैसले की इच्छा जन्म लेती है। जो असहमति की तीव्रता की ही अभिव्यक्ति है इसे आकस्मिकता की नितांतता ही मानिए कि यह इच्छा चीख़ की नहीं आह की अनुभूति देती है।
लो सुनी गई हमारी, यूँ फिरे हैं दिन कि फिर से,वही गोश-ए-क़फ़स है, वही फ़स्ले गुल का मातम।
अधिकांश विद्वानों, बुद्धिजीवियों की स्थापना है कि यह फैसला बहुसंख्यक की विजय है, इस स्थापना को जस का तस स्वीकार करते हुए भी कहा जा सकता है कि यह भारतीय राजनीति की विशिष्ट कूटनीति तदर्थवाद की भी विजय है अर्थात संकट को किसी तरह टालो। कामनवेल्थ गेम्स, बिहार के चुनाव, ओबामा की संभावित भारत यात्रा, कश्मीर में विस्फोटक होती जाती स्थिति तथा प्रधानमंत्री की विदेश यात्राएँ, फैसले के क्षण, संशय की कितनी छायायों से घिर हुए थे, इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि फैसले को प्रभावित किया गया है बल्कि हमें बहुत पुरानी कहावत पर भरोसा कर लेना चाहिए कि ‘‘कभी बिल्ली के भाग्य से भी छींका टूटता है।’’
न्याय के लिए आस्था को महत्व देने के समान ही रामलला विराजमान को विधि सम्मत मानकर देवकी नन्दन अग्रवाल के अभिभावकत्व को वैधानिकता मिलना भी कई चिंताएँ पैदा करता है।
इस परिस्थिति ने जनवादी आधुनिक सोच को सहसा गहरे ख़तरे में डाल दिया है। कँटीले बाड़ांे की परिधि से जैसे वह जकड़ गई है। मध्ययुगीन प्राचीनतावादी जीवन दृष्टि, सामंतवाद प्रभावित चेतना, तमाम तरह की अनैतिकताओं पर आधारित पूँजीवादी लूट, व्यावसायिक प्रतिस्पद्र्धा की नित नई गति पकड़ती मर्यादा विहीन होड़, वैश्वीकरण के फ़ासीवादी इरादों, राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण व अपराध के राजनीतिकरण एवम् रूढ़िवाद, धार्मिक अंधविश्वास, कर्मकाण्ड तथा दूसरों को रौंदते आगे बढ़ जाने की जीवन शैली को परास्त करने के संघर्ष की तीव्र होती जाती ज़रूरत के प्रकाश में देखंे तो गहरी निराशा होती है। पंचायती फैसला कहते हुए राजीव धवन के शब्दों में जो एक दर्द की तरह उभरती है। फै़ज़ याद आते हैं-
रविश-रविश है वही इन्तिज़ार का मौसम।
नहीं है कोई भी मौसम, बहार का मौसम।।
जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद को वास्तविक रुप में देखा है, उन्हें बायीं दर के सामने वाली दीवार पर कोयले से शहीद भगत सिंह का स्केच अवश्य नज़र आया होगा, मस्जिद के साथ वह स्केच भी ध्वस्त हो गया, यह एक संकेत है कि किस तरह साम्प्रदायिक फासीवादी शक्तियाँ मस्जिद के बहाने जाने कब से मूल्यगत संघर्ष-शील चेतना के ध्वंस का स्वपन दे रही हैं। 30 सितम्बर को उनके स्वपन को नए रंग मिले हैं।नहीं है कोई भी मौसम, बहार का मौसम।।
-शकील सिद्दीक़ी
(लेखक हिन्दी, उर्दू अदब के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं)
मोबाइल- 09839123525
लोकसंघर्ष परिवार की तरफ से चिट्ठाजगत के सभी चिट्ठाकारों को नव वर्ष की शुभकामनाएं
1 टिप्पणी:
नया साल शुभा-शुभ हो, खुशियों से लबा-लब हो
न हो तेरा, न हो मेरा, जो हो वो हम सबका हो !!
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