मंगलवार, 4 जनवरी 2011

वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-२०१० (भाग-४)


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अत्यल्प को छोड़कर पूरे ब्लॉगजगत का लेखन स्तरहीन है
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चौंक गए न आप ? आपकी ही तरह मैं भी चौंक गया था , जब इस टिप्पणी को पढ़ा ......!


आज हम मुद्दों की बात करने वाले थे , कौन-कौन से मुद्दों पर हिंदी ब्लॉगजगत ने कैसी रणनीति बनायी, सार्वजनिक रूप से क्या कहा और भ्रष्टाचार आदि मुद्दों पर क्या प्रतिक्रिया रही हिंदी ब्लॉग जगत की, किन्तु कल साहित्यिक गतिविधियों की चर्चा पर अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी की तीखी प्रतिक्रया आई । उन्होंने मूल्यांकन के साथ-साथ पूरे हिंदी ब्लॉगजगत के लेखन को ( अत्यल्प बेहतर लेखन को छोड़कर ) स्तरहीन की संज्ञा से नवाज़ा
उन्होंने कहा कि -"मठाधीसी , आंतरिक 'सेटिंग' , छपास-रोग का अन्धानुराग , विपरीत-लैंगिक खिंचाव में फालतू पोस्टों पर अधिक संख्या में फेंचकुर फेंकती टिप्पणियाँ , ठीक टीपों का खामखा 'डिलीटीकरण' , प्रतिशोधात्मक कीचड-उछौहल , मूल्यहीनता के साथ सम्मान वितरण और तज्जन्य वाहवाही .........आदि नकारात्मक सक्रियताएं हिन्दी ब्लॉग-जगत की मुख्यधारा की सच हैं ।"


मूल्यांकन को सतही कहने की उनकी टिप्पणी को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता, किन्तु उनकी टिपण्णी में ब्लॉगजगत और उससे जुड़े लेखकों के प्रति जो उत्तेजना परिलक्षित हुई है वह कहीं से भी जायज नहीं है । उन्होंने अत्यल्प की बात कही और यह दर्शाने की कोशिश भी की कि हिंदी ब्लॉगजगत में उन जैसे कुछ लेखकों के सिवा हर कोई स्तरहीन लिखता है ...यह आत्ममुग्धता नहीं तो और क्या है ?


खैर ये तो रही उनकी अपनी बात , अब ज़रा इन मुद्दों पर कुछ और ब्लोगरों की राय देखिये ....यानी वर्ष-२०१० में हिंदी ब्लोगिंग ने क्या खोया क्या पाया ?


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हिंदी के नए सूर और तुलसी ब्लोगिंग के जरीय ही पैदा होंगे यक़ीनन : रवि रतलामी

हिन्दी ब्लॉगिंग शैशवा-वस्था से आगे निकल कर किशोरावस्था को पहुँच रही है। अलबत्ता इसे मैच्योर होने में बरसों लगेंगे। अंग्रेज़ी के गुणवत्ता पूर्ण (हालांकि वहाँ भी अधिकांश - 80 प्रतिशत से अधिक कचरा और रीसायकल सामग्री है,), समर्पित ब्लॉगों की तुलना में हिन्दी ब्लॉगिंग पासंग में भी नहीं ठहरता. मुझे लगता है कि तकनीक के मामले में हिन्दी कंगाल ही रहेगी. बाकी साहित्य-संस्कृति से यह उत्तरोत्तर समृद्ध होती जाएगी - एक्सपोनेंशियली. हिन्दी के नए सूर और तुलसी ब्लॉगिंग के जरिए ही पैदा होंगे, यकीनन।

अगर आप फ़ालतू के हल्ला मचाते ब्लॉगों-पोस्टों से निगाह हटा लें, तो आप पाएंगे कि हर स्तर पर स्तरीय सामग्री, बल्कि बेहद प्रयोगधर्मी सामग्री की प्रचुरता है। लोग उपहास में कहते फिरते हैं कि जो चीजें प्रिंट में छपने लायक नहीं होतीं वो ब्लॉग में अवरतिर होती हैं। मगर दरअसल प्रिंट में छापने वाले कमजोर - कोवार्ड होते हैं जो ऐसी चीजें छाप ही नहीं सकते। ब्लॉग तो भाषाई एक्सपेरीमेंट का प्लेटफ़ॉर्म है जहाँ हर रूप और विचारधारा के लिए समान प्लेटफ़ॉर्म सदैव उपलब्ध रहेगा. देरी है तो इसके पूरे दोहन की।

रवि रतलामी
http://raviratlami.blogspot.com/
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ब्लॉग में कम से कम इमानदार अभिव्यक्ति तो पढ़ने को मिलती है : घनश्याम मौर्या
हिंदी ब्लोगिंग में ऐसे श्रमसाध्‍य और साहसिक प्रयास शायद पहले कभी नहीं किया गया इसके लिए आप बधाई के पात्र है । अमरेन्‍द्र जी की टिप्‍पणी भी पढ़ी उनकी बातें कुछ हद तक सही हो सकती हैं किन्‍तु अंतत: इस बात को स्‍वीकार करना पडेगा कि ब्‍लाग अभिव्‍यक्ति के एक सशक्‍त माध्‍यम के रूप में उभर कर सामने आ चुका हैा इसकी व्‍यापक पहुँच एवं उपयोगिता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता । रही बात गुणवत्‍ता की तो प्रिंट मीडिया में जो छप रहा है वह क्या है, ब्लॉग में कम से कम आपको ईमानदार अभिव्यक्ति तो पढ्ने को मिलती हैा

घनश्याम मौर्य
http://gmaurya.blogspot.com/
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हिंदी ब्लोगिंग तो फिर भी ठीक है ,साहित्य में तो आलोचना के नाम पर माफियागिरी होती है : गिरीश पंकज

कोईभी विधा या लेखक तभी चर्चा में आता है, जब उसे आलोचक मिलता है. साहित्य में अलोचना का बड़ा महत्त्व है. दुर्भाग्यवश हिंदी साहित्य में आलोचनके नाम पर माफियागीरी हो रही है. अच्छे लेखक जानबूझ कर किनारे कर दिए जाते है, और औसत दर्जे के ''प्रभावशाली'' (अपने पदों के कारण) लेखक चर्चा में रहते है. सौभाग्य की बात है कि ब्लॉग-जगत को रविन्द्र प्रभात जैसा आलोचक-विश्लेषक मिला है, जो माफिया नहीं है. सबकी खबर रखना और जिसका जो योगदान है, उसको उस रूप में रेखांकित करना, यही प्रयास है प्रभात भाई का. दावे के साथ कहा जा सकता है, कि अभी तक इतनी गहराई के साथ किसी ब्लॉगर ने मेहनत नहीं की है. तमाम ब्लॉगों तक पहुँचाना, उनके लिंक देना, यह घंटों मेहनत करने के बाद ही संभव हो सकता है. कोई एक शख्स अगर कर रहा है, तो उसकी सराहना मेरी तरह सभी जन करेंगे. और यह काम होना चाहिए. हिंदी ब्लॉग-जगत को एक तटस्थ ''ब्लागालोचक'' मिल गया है, यह अच्छी बात है. चिटठा-चर्चाओं के माध्यम से कुछ अन्य साथी भी यह काम कर रहे है. ये भी ''ब्लागालोचक'' है. इन सब के कारण ब्लाग-लेखन का उन्नयन होगा. ''परिकल्पना' का विशिष्ट योगदान इसलिये भी है, कि प्रभात भाई, एक साथ सैकड़ों ब्लागों के बारे में बताते है, उनका सटीक विश्लेषण करते है. मुझे उम्मीद है, इस बहाने अनेक ब्लागर प्रोत्साहित होंगे और नए लोगों को प्रेरणा भी मिलेगी.
गिरीश पंकज
http://sadbhawanadarpan.blogspot.com/

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आप जिस तरह का चश्मा पहनेंगे आपको वैसा ही दिखाई देगा : अविनाश वाचस्पति
साहित्‍य-संस्‍कृति और समाज का वर्तमान स्‍वरूप अनेक मायनों में बेहतर है और कई मायनों में बदतर है और ऐसा सदा ही होता है। कुछ चीजें सदैव अतीत की उत्‍तम प्रतीत होती हैं जबकि कुछ निरर्थक यानी कूड़ा। पर यह सब देखने उपयोग करने वाले और महसूसने वाले की नजर पर अधिक निर्भर होता है और तय होता है तत्‍कालीन स्थितियों और परिस्थितियों पर। वर्तमान में इसमें ब्‍लॉगिंग की भूमिका भी दिखलाई दे रही है। पहले जो अपनापन समाज में मौजूद रहा है, वो उस समय की साहित्‍य और संस्‍कृति में समाहित मिलता है परन्‍तु आज की स्थिति जैसी है, उसे वर्णन करने की जरूरत नहीं है। सब उसकी असलियत से परिचित हैं। फिर भी ब्‍लॉगिंग के आने से अजनबी संबंधों में गहन मधुरता आ रही है जबकि ब्‍लॉगिंग पर यह आरोप इसके आरंभ होने से ही लगने लगे हैं कि इससे साहित्‍य-संस्‍कृति और समाज में उच्‍श्रंखलता बढ़ रही है। पर मैं इसका विरोध करता हूं। सदैव तकनीक अपने साथ दोनों पक्ष लेकर चलती है। अब आप जिस तरह का चश्‍मा पहन कर देखेंगे, आपको तो वैसा ही दिखलाई देगा।

अविनाश वाचस्पति
http://avinash.nukkadh.com/

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ब्लोगिंग का उपयोग मर्यादित ढंग से होना चाहिए : डा दिविक रमेश
ब्लोगिंग एक नयी विधा है , इसीलिए इसमें साहित्य सृजन को लेकर काफी विवाद की स्थिति है , सृजन को लेकर बहुत सारे प्रश्नों का उभरना ऒर शंकाओं का जन्म लेना स्वाभाविक हॆ । यूं भी संस्कृति में बदलाव ज़रूर आता हॆ लेकिन उन बदलावों को आसानी से स्वीकार कर लेना आसान नहीं होता । ब्लोगिंग के कारण आज विश्व एक दूसरे की संस्कृति की पहुंच में हॆ अत: संस्कृतियों का एक दूसरे से प्रभावित होना सहज हॆ । सूचना का विस्फ़ोट भी कम उत्तरदायी नहीं हॆ । आज किसी भी संस्कृति की शुचिता की बात करना बेमानी ऒर ग़ॆरजरूरी हॆ ।हमें अपनी ऒर अपने आस-पास की जीवन शॆली पर भी ध्यान देना होगा ।।उसके तिरस्कार ऒर स्वीकार करने वालों के मंसूबों को समझना ऒर परखना होगा । यूं भी आज राजनीति पूरी तरह हावी हॆ ऒर उसका अधिकांश स्वार्थी ऒर मॊकापरस्त हॆ । उसने तो संन्यासियों तक को लपेटे में ले लिया हॆ । आदमी की तो क्या ऒकात हॆ। ऎसे में आदमी का क्या ठीक हॆ ऒर क्या गलत हॆ के द्वन्द्व में फंस जाना स्वाभाविक हॆ । अत: संस्कृति और सृजन के बारे में दो टूक बात करना असंभव सा हॆ । हां हमारे साहित्य, संस्कृति ऒर समाज की आशान्वित सोच हमारी बह्त बड़ी पूंजी हॆ । इसे हमें नहीं छोड़ना हॆ ।

हिन्दी ब्लोगिंग अभी, मेरी निगाह में, शिशु हॆ जिसे परवरिश की दरकार हॆ । इसे बहुत स्नेह चाहिए ऒर प्रोत्साहन भी ।अच्छी बात यह हॆ कि इसे पालने-पोसने वाले मॊजूद हॆं । मेरा स्वयं का ब्लाग हॆ ऒर उसे देखा-पढ़ा भी जा रहा हॆ । दशा अच्छी हॆ । गति भी दिशाहीन नहीं हॆ ।भविष्य बहुत उज्ज्वल हॆ । इसका अधिक से अधिक प्रयोग ही इसकी सफलता की कुंजी हॆ । हां इसका उपयोग मर्यादित होना चाहिए । मर्यादा मिल जुल कर निर्धारित की जा सकती हॆ । जानकारों ऒर विशेषज्ञों को सेवा भाव से भी सामने आना होगा । अभी तो खुलकर उपयोग हो । हिदी का महत्त्व जितना बढ़ेगा, हिन्दी का ब्लाग भी बढ़ेगा ।
डा0 दिविक रमेश
(सुपरिचित हिंदी कवि )
http://divikramesh.blogspot.com/


रवीन्द्र प्रभात

परिकल्पना ब्लॉग से साभार



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