क्रांति हौव्वा नही ; भगत सिंह को दो तरह का हौव्वा बनाकर पेश किया जाता रहा है |एक तो व्यहारिकता का कि भगत सिंह पड़ोसी के घर ही अच्छा लगता है -अपने घर में उसका होना आज कि परिस्थितियों में वांछित नही |दूसरा आदर्श का कि विचारो -कार्यशालाओ से भगत सिंह को नही अपनाया जा सकता -उसके लिए जेल और मृत्यु की कामना करने की जरूरत होती हैं |इन दोनों पूर्वाग्रहों के पीछे भगतसिंह की वह छवि काम कर रही होती है जो उनके दो बेहद प्रचलित प्रकरणों -साड्स -वध और असेम्बली -बम धमाका -को एकान्तिक रूप से देकने से बनी हैं | क्योंकि येही प्रकरण उनकी लोकप्रिय छवि का आधार भी बनाए जाते है ,लिहाज़ा उपरोक्त पूर्वाग्रहों को सार्वजनिक रूप से मीन-मेख का सामना प्राय ; नही करना पड़ता |
पर भगतसिंह को पुरवाग्रहो से नही ,तर्क से जानना होगा -एकान्तिक रूप से नही परिपेक्ष में देखना होगा | वे क्रन्तिकारी थे, आतंकवादी नही -तभी उन्होंने कभी भी सांडर्स -वध को ग्लोरिफाई नही किया और असेम्बली में बम फोड़ते समय यह सावधानी भी रखी कि किसी की जान न जाये |वे हाड -मांस के ऐसे मनुष्य थे जिसके प्रेम ,स्वप्न ,जीवन ,राजनीत ,देश -प्रेम गुलामी और धर्म जैसे विषयों पर बेहद लौकिक विचार थे |तभी उन्होंने मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के हर स्वरूप -साम्राज्यवाद ,साम्प्रदायिकता ,जातिवाद ,असमानता ,भाषा वाद ,भेदभाव इत्यादि का पुरजोर विरोध किया |फांसी से एक दिन पूर्व साथियों को अंतिम पत्र में उन्होंने लिखा -स्वाभाविक है कि जीने कि इच्छा मुझमे भी होनी चाहिए ,मैं इसे छिपाना नही चाहता |जब उन्होंने मृत्यु को चुना तब भी लौकिकता और तार्किकता के दम पर ही |अगर वे सिर पर कफन बांधे मृत्यु के आलिंगन को आतुर कोई अलौकिक सिरफिरे मात्र होते तो सांडर्स -वध के समय ही फांसी का वरण कर लेते |सांडर्स -वध के बाद फरारी और असेम्बली बम कांड के बाद ,जब वे भाग सकते थे ,समपर्ण उनकी अदम्य तार्किकता का ही परिचायक है |भगतसिंह से दोस्ती का मतलब उनकी इसी लौकिकता और तार्किकता को आत्मसात करना भी है |इन अर्थो में यह कठिन रास्ता है -न कि जेल ,पुलिस ,मौत जैसे सन्दर्भ में | क्या हम ईमानदारी ,सच्चाई ,साहस ,भाईचारा ,बराबरी और देशप्रेम को अपने जीवन का अंग बनाना चाहते हैं ? क्या हम शोषण के तमाम रूपों को पहचानने और फिर उनसे लोहा लेने कि शुरुवात खुद से ,अपने परिवार से ,अपने परिवेश से कर सकते है ?
यदि हाँ ,तो घर -घर में भगत सिंह होंगे ही जो शोषण के तमाम पारिवारिक ,सामाजिक ,जातीय ,लैगिक ,राजनैतिक ,साम्राज्यवादी व आर्थिक रूपों कि पहचान करेंगे और उनसे लोहा लेंगे |जेल से भगत का कहा याद रखिए -'क्रन्तिकारी को निरर्थक आतंकवादी कारवाइयो और व्यकितगत आत्म -बलिदान के दूषित चर्क में न डाला जाये |सभी के लिए उत्साह वर्धक आदर्श ,उद्देश्य के लिए मरना न होकर उद्देश्य के लिए जीना -और वह भी लाभदायक तरीके से योग्य रूप में जीना -होना चाहिए |
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत ने २२ दिसम्बर १९२९ को जेल से लिखे 'माडर्न रिव्यू 'के सम्पादक को प्रति -उत्तर में इन्कलाब जिंदाबाद नारे को परिभाषित करते हुए क्रांति से जोड़ा -दीर्घकाल से प्रयोग में आने के कारण इस नारे को एक ऐसी विशेष भावना प्राप्त हो चुकी है ,जो सम्भव है भाषा के नियमो एवं कोष के आधार पर इसके शब्दों से उचित तर्कसम्मत रूप में सिद्ध न हो पाए ,परन्तु इसके साथ ही इस नारे से उन विचारो को पृथक नही किया जा सकता ,जो इसके साथ जुड़े हुए हैं |ऐसे समस्त नारे एक ऐसे स्वीकृत अर्थ का घोतक हैं ,जो एक सीमा तक उनमे पैदा हो गये हैं तथा एक सीमा तक उनमे निहित है |क्रांति (इन्कलाब )का अर्थ अनिवार्य रूप में सशस्त्र आन्दोलन नही होता |बम और पिस्टल कभी कभी क्रांति को सफल बनाने के साधन मात्र हो सकते है |इसमें भी सन्देह नही है कि कुछ आंदोलनों में बम एवं पिस्टल एक महत्त्व पूर्ण साधन सिद्ध होते है ,परन्तु केवल इसी कारण से बम और पिस्टल क्रांति के पर्यायवाची नही हो जाते |विदोढ़ को क्रांति नही कहा जा सकता ,यद्धपि यह हो सकता है कि विदोढ़ का अंतिम परिणाम क्रांति हो |.........क्रांति शब्द का अर्थ 'प्रगति के लिए परिवर्तन कि भावना एवं आकाक्षा है |लोग साधारण तया जीवन कि परम्परा गत दशाओं के साथ चिपक जाते है और परिवर्तन के विचार से ही कापने लगते है |
यह एक अकर्मण्यता कि भावना है , जिसके स्थान पर क्रन्तिकारी भावना जागृत करने कि आवश्यकता हैं।
'क्रांति कि इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा स्थाई तौर पर ओतप्रोत रहनी चाहिए ,जिससे की रुदिवादी शक्तिया मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने के लिए संगठित न हो सके |यह आवश्यक है की पुराणी व्यवस्था सदैव न रहे वह नई व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहे ,जिससे की एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके |यह है हमारा वह अभिप्राय जिसको ह्रदय में रखकर हम इन्कलाब जिंदाबाद का नारा ऊँचा करते है |
साभार भगतसिंह से दोस्ती पुस्तक से
सुनील दत्ता
09415370672
पर भगतसिंह को पुरवाग्रहो से नही ,तर्क से जानना होगा -एकान्तिक रूप से नही परिपेक्ष में देखना होगा | वे क्रन्तिकारी थे, आतंकवादी नही -तभी उन्होंने कभी भी सांडर्स -वध को ग्लोरिफाई नही किया और असेम्बली में बम फोड़ते समय यह सावधानी भी रखी कि किसी की जान न जाये |वे हाड -मांस के ऐसे मनुष्य थे जिसके प्रेम ,स्वप्न ,जीवन ,राजनीत ,देश -प्रेम गुलामी और धर्म जैसे विषयों पर बेहद लौकिक विचार थे |तभी उन्होंने मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के हर स्वरूप -साम्राज्यवाद ,साम्प्रदायिकता ,जातिवाद ,असमानता ,भाषा वाद ,भेदभाव इत्यादि का पुरजोर विरोध किया |फांसी से एक दिन पूर्व साथियों को अंतिम पत्र में उन्होंने लिखा -स्वाभाविक है कि जीने कि इच्छा मुझमे भी होनी चाहिए ,मैं इसे छिपाना नही चाहता |जब उन्होंने मृत्यु को चुना तब भी लौकिकता और तार्किकता के दम पर ही |अगर वे सिर पर कफन बांधे मृत्यु के आलिंगन को आतुर कोई अलौकिक सिरफिरे मात्र होते तो सांडर्स -वध के समय ही फांसी का वरण कर लेते |सांडर्स -वध के बाद फरारी और असेम्बली बम कांड के बाद ,जब वे भाग सकते थे ,समपर्ण उनकी अदम्य तार्किकता का ही परिचायक है |भगतसिंह से दोस्ती का मतलब उनकी इसी लौकिकता और तार्किकता को आत्मसात करना भी है |इन अर्थो में यह कठिन रास्ता है -न कि जेल ,पुलिस ,मौत जैसे सन्दर्भ में | क्या हम ईमानदारी ,सच्चाई ,साहस ,भाईचारा ,बराबरी और देशप्रेम को अपने जीवन का अंग बनाना चाहते हैं ? क्या हम शोषण के तमाम रूपों को पहचानने और फिर उनसे लोहा लेने कि शुरुवात खुद से ,अपने परिवार से ,अपने परिवेश से कर सकते है ?
यदि हाँ ,तो घर -घर में भगत सिंह होंगे ही जो शोषण के तमाम पारिवारिक ,सामाजिक ,जातीय ,लैगिक ,राजनैतिक ,साम्राज्यवादी व आर्थिक रूपों कि पहचान करेंगे और उनसे लोहा लेंगे |जेल से भगत का कहा याद रखिए -'क्रन्तिकारी को निरर्थक आतंकवादी कारवाइयो और व्यकितगत आत्म -बलिदान के दूषित चर्क में न डाला जाये |सभी के लिए उत्साह वर्धक आदर्श ,उद्देश्य के लिए मरना न होकर उद्देश्य के लिए जीना -और वह भी लाभदायक तरीके से योग्य रूप में जीना -होना चाहिए |
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत ने २२ दिसम्बर १९२९ को जेल से लिखे 'माडर्न रिव्यू 'के सम्पादक को प्रति -उत्तर में इन्कलाब जिंदाबाद नारे को परिभाषित करते हुए क्रांति से जोड़ा -दीर्घकाल से प्रयोग में आने के कारण इस नारे को एक ऐसी विशेष भावना प्राप्त हो चुकी है ,जो सम्भव है भाषा के नियमो एवं कोष के आधार पर इसके शब्दों से उचित तर्कसम्मत रूप में सिद्ध न हो पाए ,परन्तु इसके साथ ही इस नारे से उन विचारो को पृथक नही किया जा सकता ,जो इसके साथ जुड़े हुए हैं |ऐसे समस्त नारे एक ऐसे स्वीकृत अर्थ का घोतक हैं ,जो एक सीमा तक उनमे पैदा हो गये हैं तथा एक सीमा तक उनमे निहित है |क्रांति (इन्कलाब )का अर्थ अनिवार्य रूप में सशस्त्र आन्दोलन नही होता |बम और पिस्टल कभी कभी क्रांति को सफल बनाने के साधन मात्र हो सकते है |इसमें भी सन्देह नही है कि कुछ आंदोलनों में बम एवं पिस्टल एक महत्त्व पूर्ण साधन सिद्ध होते है ,परन्तु केवल इसी कारण से बम और पिस्टल क्रांति के पर्यायवाची नही हो जाते |विदोढ़ को क्रांति नही कहा जा सकता ,यद्धपि यह हो सकता है कि विदोढ़ का अंतिम परिणाम क्रांति हो |.........क्रांति शब्द का अर्थ 'प्रगति के लिए परिवर्तन कि भावना एवं आकाक्षा है |लोग साधारण तया जीवन कि परम्परा गत दशाओं के साथ चिपक जाते है और परिवर्तन के विचार से ही कापने लगते है |
यह एक अकर्मण्यता कि भावना है , जिसके स्थान पर क्रन्तिकारी भावना जागृत करने कि आवश्यकता हैं।
'क्रांति कि इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा स्थाई तौर पर ओतप्रोत रहनी चाहिए ,जिससे की रुदिवादी शक्तिया मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने के लिए संगठित न हो सके |यह आवश्यक है की पुराणी व्यवस्था सदैव न रहे वह नई व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहे ,जिससे की एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके |यह है हमारा वह अभिप्राय जिसको ह्रदय में रखकर हम इन्कलाब जिंदाबाद का नारा ऊँचा करते है |
साभार भगतसिंह से दोस्ती पुस्तक से
सुनील दत्ता
09415370672
4 टिप्पणियां:
khalid a khan
भाई सबसे पहले आप को बधाई दे चाहूगा क़ि आप के अच्छे लेख के लिए ..इस के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ..दुश्री बात ये है क़ि आज के समय में भाहूत सिंह क़ि जरुरत पहले से कही जादा है ....उसे भी जादा जरुरी है क़ि आज हम भगत सिंह को सही तरह से समझे . कोइकी आज जिस तरह से भगत सिंह को परचरित किया जता है जाता है वोह इस्त्थी बहुत ही खराब है उनेक बिचर पर कोई बात नहीं कर ना चाहत है .आज क़ि युवा पीडी उनेह जानती तो हो पर उनके बिचारो से बहुत ही दूर है . और इस लिए हमें एक बार फिर से उनेह समझना होगा ..........khalid a khan
बन्धक आजादी खादी में,
संसद शामिल बर्बादी में,
बलिदानों की बलिवेदी पर,
लगते कहीं नही मेले हैं!
जीवन की आपाधापी में,
झंझावात बहुत फैले हैं!!
आपने लेख तो अच्छा लिखा ही है, साथ में दिए गए अखबार के कतरनों ने इसको ओर भी अच्छा बना दिया है
अब कोई ब्लोगर नहीं लगायेगा गलत टैग !!!
Haardik Naman.
होली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं।
धर्म की क्रान्तिकारी व्यागख्याै।
समाज के विकास के लिए स्त्रियों में जागरूकता जरूरी।
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