रविवार, 29 मई 2011

....... मेरे मरने के बाद - लोहिया भाग-2

दलित चेतना से वर्ग चेतना
दलित चेतना की चर्चा किये बगैर यह परिचर्चा पूरी नहीं होगी। डा. अम्बेडकर का राजनीतिक चिंतन भी जाति व्यवस्था से उत्पन्न परिस्थितियों से प्रभावित था। 1920 के दशक में ही वे दलितों के लिये पृथक मतदान की मांग करने लगे थे, जिसे उन्होंने 1932 में पूना पैक्ट के बाद वापस ले लिया। जेएनयू के प्राध्यापक और दलित चिंतक डा. तुलसी राम लिखते हैं: ”डा. अम्बेडकर 1920 और 30 के दशक में जाति व्यवस्था के विरूद्ध उग्ररूप धारण किये हुए थे। वाद में उन्होंने ‘सत्ता में भागीदारी’ के माध्यम से दलित मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने की कोशिश की। कांसीराम ने सत्ता में भागीदारी को ‘सत्ता पर कब्जा’ में बदल दिया। इस उद्देश्य से उन्होंने नारा दिया - ‘अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो’।“
इस नारे के तहत विभिन्न दलित एंव पिछड़ी जातियों के अलग-अलग सम्मेलन होने लगे। इस प्रकार सत्ता पर कब्जा करने के लिये जातीय समीकरण का नया दौर आरंभ हुआ। मंडल कमीशन लागू होने के बाद इस जातीय ध्रुवीकरण का बेहद उग्र रूप सामने आया। इससे उत्तर प्रदेश में बसपा को और बिहार में लालू प्रसाद की पार्टी को बहुत फायदा हुआ। मायावती ने 1993 में पिछड़ा-दलित गठबंधन और 2007 में दलित-ब्राम्हण एकता समीकरण के सहारे उत्तर प्रदेश विधान सभा में प्रचंड बहुमत प्राप्त किया। इसी तरह बिहार में लालू ने मुस्लिम-यादव समीकरण के सहारे वर्षों राज किया।
इन परिघटनाओं पर दलित चिंतक डा. तुलसी राम सवाल उठाते हैं: ”जातीय ध्रुवीकरण के आधार पर चुनाव जीतकर सत्ताधारी तो बना जा सकता है, किन्तु जाति उन्मूलन की विचारधारा को मूर्तरूप नहीं दिया जा सकता है।“ डा. तुलसी राम यहीं नहीं रूकते हैं। वे और आगे बढ़कर लिखते हैं कि ”बुद्ध से लेकर अम्बेडकर तक ने जातिविहीन समाज में ही दलित मुक्ति की कल्पना की थी, किन्तु आज का भारतीय जनतंण पूर्णरूपेण जातीय, क्षेत्रीय और साम्प्रदायिक जनतंत्र में बदल चुका है। ऐसा जनतंत्र राष्ट्रीय एकता के लिए वास्तविक खतरा है।“ डा. तुलसी राम अपने आलेख का समापन डा. अम्बेडकर की प्रसिद्ध उक्ति से करते हैं: ”जातिविहीन समाज की स्थापना के बिना स्वराज प्राप्ति का कोई महत्व नहीं है।“
पर जातिविहीन समाज की स्थापना कैसे हो? इस प्रश्न का उत्तर चर्चित दलित लेखक चन्द्रभान प्रसाद निम्न प्रकार से देते हैं: ”भारत को अगर जाति विहीन समाज बनाना है तो लाखों दलितों को पूंजीपति बनकर गैरदलितों को नौकरी पर रखना होगा। लाखों दलितों को प्रतिवर्ष गैर दलित साले-सालियां, सढुआइन एंव गैर दलित सास-ससुर बनाने चाहिये। इसी प्रक्रिया से जाति व्यवस्था टूटेगी, दलित-गैर दलित का भेद समाप्त होगा, समाज में भाईचारा बढ़ेगा तथा भारत एक सुपर पावर के रूप में दुनियां में अपनी पहचान बनायेगा। यही होगा डा. अम्बेडकर के सपनों का भारत।“ (राष्ट्रीय सहारा, 14 अप्रैल 2011)
कैसे लाखों दलित पूंजीपति बनेंगे और किस प्रकार लाखों दलित प्रतिवर्ष गैर दलितों को साले-सालियां, सढुआइन और सास-ससुर बनायेंगे? डा. अम्बेडकर के जन्मदिन के मौके पर लिखे अपने आलेख में चन्द्र भान प्रसाद इस प्रश्न के उत्तर में अमरीका का उदाहरण देते हैं, जहां उनकी राय में ”अश्वेत पूंजीवाद का उदय“ हुआ है। प्रसाद सूचित करते हैं कि ”ओबामा को राष्ट्रपति बनने के समय अमरीका में अश्वेतों के पास करीब दस लाख श्वेत साले, पांच लाख श्वेत सालियां एवं सरहज घूम रहीं थीं।“ (राष्ट्रीय सहारा, 14 अप्रैल 2011)
अमरीका के अश्वेतों के पास कितने श्वेत साले-सालियां हैं, इससे भारत को कोई लेना देना नहीं है। हां, अमरीका में सफेद पूंजीवाद है या काला, इस पर बहस हो सकती है, किन्तु यह निर्विवाद है कि अमरीका में जो कुछ है वह निःसंदेह नंगा पूंजीवाद है। प्रसाद अपने आलेख में इसका कोई संकेत नहीं देते हैं कि भारत में ‘दलित पूंजीवाद’ कायम करने की उनकी क्या योजना है? और यह भी वे कैसे गैर दलितों को साले-सालियां, सढुआइन और सास-ससुर बनायेंगे?
इस संदर्भ में अपने देश में घटित हाल की कतिपय घटनाओं पर विहंगम दृष्टि डालना प्रासंगिक होगा।
 दक्षिण का ब्राम्हण-विरोधी आन्दोलन किस प्रकार दलित बनाम थेवर-बनियार में बदल गया? और यह भी कि यहां ब्राम्हण उद्योगपति बने तथा दलित-पिछड़े उनके कर्मचारी?
 पश्चिम भारत का गैर-ब्राम्हण आन्दोलन क्यों दलित बनाम मराठा का रूप ले चुका है? इधर शिवसेना और आरपीआई के चुनावी तालमेल का ताजा समाचार भी प्राप्त हुआ है।
 बिहार अगड़ा-पिछड़ा झगड़ा अब क्यों पिछड़ा बनाम अति पिछड़ा और दलित बनाम महा दलित के झगड़े में बदल चुका है। यद्यपि लालू और राम विलास पासवान ने दलितों और पिछड़ों का पुराना समीकरण बनाने में अपनी सम्पूर्ण ताकत झोंक दी फिर भी वे इस नये समीकरण के सामने बुरी तरह पिट गये।
 उत्तर प्रदेश में 1993 की सम्पूर्ण शूद्र एकता (दलित पिछड़ा मिलन) आज क्यों शूद्र बनाम अतिशूद्र शत्रुता (मुलायम बनाम मायावती) में परिणत हो गयी? और यह भी कि मनुवाद विरोधी दलित नेताओं का मनुवादी ब्राम्हणों से कैसी भली दोस्ती चल रही है। क्या यहां मगध शूद्र सम्राट महानंद द्वारा नियुक्त ब्राम्हण मंत्री कात्यायन और वररूचि का इतिहास दोहराया जा रहा है?
 क्यों राजस्थान में लड़ाकू गुर्जर आदिवासी बनना चाहते हैं और क्यों गैरद्विज बलशाली भूस्वामी जाट पिछड़ा वर्ग में नाम लिखाने को बेताब हैं?
इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने का समय चन्द्रभान प्रसाद को नहीं है क्योंकि पूंजीवाद की विविधता का गुणगान करने के लिये उन्हें अक्सरहां अमरीका में व्यस्त रहना पड़ता है। वे क्यों भारत की विविधताओं में माथा खपायें? उनकी राय में पूंजीवाद का अमरीकी माॅडल ही भारत के लिये आदर्श है। उनके लिये यह समझना कठिन है कि पूंजीवाद किसी का भला नहीं करता। न तो दलितों का, न ही पिछड़ों का, न ही अगड़ों का और न आम आदमी का भला पूंजीवाद में है, चाहे वह ‘दलित पूंजीवाद’ ही क्यों न हो। पूंजीवाद का मकसद मुनाफा कमाना होता, जिसका श्रोत इंसान द्वारा इंसान का शोषण है। दलित पूंजीपति दलितों को भी नहीं बख्सता। दलित मुक्ति का मुद्दा आम आदमी की मुक्ति के साथ जुड़ा है। पूंजीवादी फ्रेमवर्क में दलित मुक्ति तलाशना मरूभूमि में पानी तलाशने का भ्रम पालना है। जातीय ध्रुवीकरण और उसके बनते-बिगड़ते समीकरणों से जो बात साफ तौर पर परिलक्षित होती है, वह यह कि रोजी-रोटी का प्रश्न हल करने में मौकापरस्त तात्कालिक गठबंधन पूरी तरह नाकाम है। इसलिये आगे आने वाले दिनों में भारतीय लोकतंत्र का निर्णायक एजेंडा रोटी-कपड़ा-मकान होगा। जाहिर है, उपर्युक्त घटनाओं में जाति बोध से वर्ग बोध की ओर जनचेतना अभिमुख हो रही है।

- सत्य नारायण ठाकुर

क्रमश:

3 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

अच्छी श्रंखला है।

Urmi ने कहा…

बहुत सुन्दर और शानदार पोस्ट !

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

क्योंकि हम लोग अपनी बात जनता को उसकी भाषा में नहीं बता सके इसीलिये सत्ता-लोभी लोग विभिन्न हथकंडे अपना कर जनता को मूढ़ रहे हैं.जनता स्वतः वर्ग विरोध पर नहीं आ सकेगी उसे ऐसा करने हेतु प्रेरित करने के उपाए करने होंगे.

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