लोकतंत्र का प्रश्न
भारतीय संविधान में राज्य के तीन स्तम्भ हैं - लोकतंत्र, समाजवाद और संप्रदाय निरपेक्षता। अर्थात देश को चलाने के लिये एक ऐसी सरकार हो, जिसे देश की जनता चुने, वह सरकार समाजवादी हो जो समाज में सुख-चैन स्थापित करे और वह सरकार संप्रदाय निरपेक्ष हो अर्थात किसी संप्रदाय विशेष की तरफदारी किये बगैर सभी जन सम्प्रदायों के प्रति समभाव का बर्ताव करे।देश की जनता ने पूंजीवादी, उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी शोषण एवं दमन के खिलाफ लड़कर आजादी हासिल की थी। इसलिये यह स्वाभाविक ही था कि भारतीय संविधान का मूल चरित्र गैर-पूंजीवादी बनाया गया। देश की संपदा कुछेक व्यक्तियों के हाथों में सिमटने पर पाबंदी लगाने का प्रावधान संविधान के एक अनुच्छेद में किया गया। इस प्रावधान को मजबूती और स्पष्टता प्रदान करने के लिये बयालिसवें संशोधन के माध्यम से समाजवाद को संविधान का महत्वपूर्ण स्तम्भ घोषित किया गया।
भारतीय संविधान की विशेषता है कि सरकार को जनहित में क्या करना है, उसकी सूची राज्य के लिये निदेशक सिद्धान्तों के अध्याय में दी गयी है। इस अध्याय में राज्य के लिये स्पष्ट संवैधानिक निदेश है कि वह जनता की खुशहाली मुकम्मिल करने के लिए सबको रोजगार, जीने लायक आमदनी, आवास, स्वास्थ्य, चिकित्सा, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा आदि प्रदान करेगा और बेरोजगार, अपंग, वृद्ध एंव अशक्त होने की स्थिति में सामाजिक सहायता का उपाय करे।
पर संविधान का कमजोर पक्ष यह है कि अनुच्छेद 37 में निदेशक सिद्धान्तों में वर्णित बातों का नागरिक अधिकार के रूप में न्यायालय में कानूनी दावा करने से मना कर दिया गया है। इसी अनुच्छेद का फायदा उठा कर शासक वर्ग ने जनता को संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर रखा है। अब समय आ गया है कि अनुच्छेद 37 को विलोपित किया जाये और संविधान के निदेशक सिद्धांतों का कार्यान्वयन सरकार के लिए बाध्यकारी बनाया जाये।
आजाद भारत में विकास की जो योजना बनायी गयी वह गैर-पूंजीवादी योजना नहीं थी। उसे मिश्रित अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया। देश के पूंजीपतियों के दवाब में निजी पूंजी की भूमिका निर्धारित कर दी गयी। शुरू में मूल उद्योगों में पूंजीपति निजी पूंजी लगाने को उत्सुक नहीं थे, क्योंकि गेस्टेशन पीरियड लम्बा होने के कमारण रिटर्न देर से मिलता था। इसलिए सरकार ने मूल उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में रखकर पूंजीवादी विकास पथ का इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया और उपभोक्ता वस्तुओं को निजी पूंजीपतियों के हवाले कर दिया।
आजादी के दूसरे और तीसरे दशक तक आते-आते पूंजीवाद की विफलता उजागर हुई। सरकार जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने में नाकाम रही। जनता का आक्रोश उबल पड़ा। साठ के दशक में आठ राज्यों से कांग्रेसी राज का खात्मा, सत्तर के दशक में आपातकाल की घोषणा, केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार और 1980 में कांग्रेस की वापसी आदि इतिहास की बातें हैं।
पूंजीवाद और लोकतंत्र एक राह के सहयात्री नहीं हो सकते। पूंजीवाद जमींदार और पूंजीपतियों का अत्यंत अल्पमत लोगों का शासन होता है। पूंजीवाद में शोषितों-पीडि़तों का विशाल बहुमत शासित होता है।
इसके विपरीत लोकतंत्र बहुमत लोगों का शासन होता है। इसलिए सच्चा लोकतंत्र का भय हमेशा पूंजीपतियों को सताता है। भयातुर पूंजीपति छल, बल और धन का इस्तेमाल करके शोषितों-पीडि़तों के समुदाय को एक वर्ग के रूप में संगठित होने से रोकता है और उन्हें अपने पीछे चलने को विवश करता है। देश की वर्तमान संसद में साढ़े तीन सौ करोड़पति चुने गये, जबकि देश में 77 प्रतिशत गरीब लोग बसते हैं। ऐसा धनवानों के अजमाये तिकड़मों के चलने संभव होता है।
1980 और 90 के दशक में जातियों एवं सम्प्रदायों की उग्र गोलबंदी देखी जाती है। इस अवधि में जातियों और संप्रदायों की अस्मिता के हिंसक टकराव होते हैं, जनता की आर्थिक खुशहाली का एजेन्डा पृष्ठभूमि में ओझल हो जाता है और मंदिर-मस्जिद और मंडल-कमंडल के छलावरण में नग्न पूंजीवाद की नव उदारवादी नीति बेधड़क आगे बढ़ती है। जातियों, सम्प्रदायों और क्षेत्रों में विभाजित मतदाताओं ने मतदान करते समय अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि जाति सरदारों, धर्माधिकारियों और क्षेत्र के फैसलों का अनुशरण किया। यह सच्चा लोकतंत्र नहीं है। पूंजीवादी शक्तियां जातीयता, सम्प्रदायिकता और क्षेत्रीयता को हवा देकर संसद पर हावी हैं। इसी तरह संविधान को समाजवादी आदर्शों की बलि देकर प्रारम्भ हुआ है नग्न पूंजीवाद का वैश्वीकृत युग। नग्न पूंजीवाद भारतीय लोकतंत्र और संविधान में स्थापित मूल्यों का निषेध है। अगर इस प्रक्रिया को रोका नहीं गया तो दलित चिंतक डा। तुलसी राम की चेतावनी बिल्कुल सामयिक है कि इससे देश की राष्ट्रीय एकता को वास्तविक खतरा है।
- सत्य नारायण ठाकुर
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2 टिप्पणियां:
यह पूंजी का लोकतंत्र है, इसे तोड़ना ही होगा। हमें जनता का लोकतंत्र चाहिए।
सत्य नारायण ठाकुर साहब ने डा. लोहिया के विचारों के विरोधाभास को उजागर करते हुए तीन कड़ियों में विस्तार से बताया है उस पर ध्यान देने की पर्मावाश्यक्ता है.
वस्तुतः डा.लोहिया ने १९३० में 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी'की स्थापना १९२५ में स्थापित भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी'और इसके आंदोलन को विफल करने हेतु की थी.
स्वामी दयानंद के नेतृत्व में 'आर्य समाज'के माध्यम से देश की आजादी की जो मांग १८७५ में उठी थी उसे दबाने हेतु १८८५ में कांग्रेस की स्थापना रिटायर्ड आयी.सी.एस.श्री ह्यूम द्वारा वोमेश बेनर्जी की अध्यक्षता में हुयी थी जिसमें आर्य समाजियों ने घुस कर आजादी की मांग उठाना शुरू कर दिया था.बाद में कम्यूनिस्ट भी कांग्रेस में घुस कर ही स्वाधीनता आंदोलन चला रहे थे.
१९२० में स्थापित हिन्दू महासभा के विफल रहने पर १९२५ में आर.एस.एस. की स्थापना अंग्रेजों के समर्थन और प्रेरणा से हुयी जिसने आर्य समाज को दयानंद के बाद मुट्ठी में कर लिया तब स्वामी सहजानंद एवं गेंदा लाल दीक्षित सरीखे आर्य समाजी कम्यूनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गए थे.
सी.एस. पी की वजह से जनता भ्रमित रही और क्रांतिकारी ही कम्यूनिस्ट हो सके.
डा.लोहिया ने अपनी पुस्तक'इतिहास चक्र'में साफ़ लिखा है 'साम्यवाद' और पूंजीवाद'सरीखा कोई भी वाद भारत के लिए उपयोगी नहीं है .
हम कम्यूनिस्ट जनता को यह नहीं समझाते थे -कम्यूनिज्म भारतीय अवधारणा है जिसे मैक्समूलर साहब की मार्फ़त महर्षि मार्क्स ने ग्रहण करके 'दास केपिटल'लिखा था.हमने धर्म को अधर्मियों के लिए खुला छोड़ दिया और कहते रहे-'मैन हेज क्रियेटेड गाड फार हिज मेंटल सिक्यूरिटी आनली'.हम जनता को यह नहीं समझा सके -जो शरीर को धारण करे वह धर्म है.नतीजा यह रहा जनता को भटका कर धर्म के नाम पर शोषण को मजबूत किया गया. डा.लोहिया भी रामायण मेला आदि शुरू कराकर जनता को जागृत करने के मार्ग में बाधक रहे.
आज यदि हम धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करके जनता को स्वामी दयानद,विवेकानंद,कबीर और कुछ हद तक गौतम बुद्ध का भी सहारा लेकर समझा सकें तो मार्क्सवाद को भारत में सफल कर सकते हैं जो यहीं सफल हो सकता है.यूरोपीय दर्शन जो रूस में लागू हुआ विफल हो चुका है.केवल और केवल भारतीय दर्शन ही मार्क्सवाद को उर्वर भूमि प्रदान करता है,यदि हम उसका लाभ उठा सकें तो जनता को राहत मिल सके.व्यक्तिगत स्टार पर मैं अपने 'क्रन्तिस्वर'के माध्यम से ऐसा ही कर रहा हूँ.परन्तु यदि सांगठनिक-तौर पर किया जाए तो सफलता सहज है.
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