किसानो के लिए कर्ज़ का बदलता स्वरूप
( यह सरकारों द्वारा पहले के जनहित में कर्ज़ और फिर बाद में सरकारी महाजनी कर्ज़ और अब सरकारों द्वारा अनुमोदित प्राइवेट माइक्रोफाइनेंस कम्पनियों द्वारा किये जा रहे कर्ज़ के रूप में बदलाव )
1950 में किसानो एवं अन्य ग्रामवासियों के लिए कर्ज़ का मुख्य स्रोत निजी महाजन ही था | हालाकि कोआपरेटिव सोसायटी की शुरुवात ब्रिटिश शासनकाल में ही हो गयी थी , पर उनकी पहुंच बहुत कम थी | 1950 में भी सरकारी या सरकार द्वारा संचालित कोआपरेटिव संस्थाओं के जरिये कृषि क्षेत्र के लिए आवश्यक कर्ज़ मात्र तीन प्रतिशत ही मिल पाता था | 97% कर्ज़ महाजनों से ही मिलता था | बताने की जरूरत नही की महाजनों के दिये कर्ज़ पर न केवल व्याज दर ज्यादा थी , बल्कि उसको वसूलने का तरीका भी निहायत जालिमाना था | उसमे आज भी बहुत अन्तर नही आया है | लेकिन आज महाजनी के कर्ज़ों की जगह सरकारी कर्जे प्रमुख हो गये है | सरकारी कर्जो के बढाने की वजह किसानो को सहायता देने के साथ - साथ उन्हें महाजनी कर्जो के जाल से मुक्त करना भी बताया जाता रहा है | इसकी शुरुआत 1950 के बाद कोआपरेटिव सोसाइटी के विस्तार से किया गया | 1950 - 55 तक कोआपरेटिव क्रेडिट सोसाइटीयो द्वारा दिये गये कर्ज़ की कुल रकम 23 करोड़ थी | इसे 1960 - 61 में बढाकर 200 करोड़ तथा 2000-01 में बढाकर 34520 करोड़ रुपया कर दिया गया | इसमें कोई दो राय नही थी कि कोआपरेटिव सोसाइटीयो के जरिये लघु एवं सीमांत किसानो को कर्ज़ मिलने में भारी सहूलियत हुई | महाजनों की धकड़ -पकड कमजोर पड़ी | 2010 तक कोआपरेटिव सोसाइटीयो का व्याज दर 6% निर्धारित था | साल भर तक कर्ज़ न चुका पाने पर 7% की व्याज दर और दो साल बाद 10% की व्याज दर निर्धारित कर दिया है | साल भर बाद कर्ज़ वापस न करने पर 6% का व्याज दर निर्धारित किया गया है | एक तरफ सरकार सोसायटी कर्ज़ पर व्याज दर घटा रही है | दूसरी तरफ बहुतेरी कोआपरेटिव सोसाइटी बंद हो चुकी है |
कोआपरेटिव क्रेडिट सोसाइटीयो को कम करने की शरुआत 1970 -71 से कर दी गयी थी | उदाहरणार्थ 1960 - 61 में इन सोसाइटीयो की कुल संख्या दो लाख बारह हजार थी , जो 1970 - 71 में घटकर एक लाख इकसठ हजार रह गयी |मार्च 2006 तक इनकी संख्या एक लाख छ हजार हो गयी | इसका कारण वैसे तो कोआपरेटिव सोसाइटीयो में व्याप्त भ्रष्टाचार और उनकी दिवालिया होती स्थिति को बताया जाता है |यह भी एक कारण है | पर असली कारण यह है कि 1969 में बैंको के राष्ट्रीयकरण और उनकी शाखाओं व ग्रामीण बैंको के बढ़ते फैलाव के बाद सरकारों ने कोआपरेटिव सोसाइटीयो को भ्रष्ट व दिवालिया होने भी दिया |उन पर अंकुश लगाने और बेहतर बनाने की जगह उन्हें भ्रष्ट व बद्दतर होकर बंद होने के लिए छोड़ दिया | यह काम इसलिए भी किया गया ताकि किसान अब सोसायटियो को छोड़ कर बैंको से कर्ज़ लें | लेकिन इन बैंको से कर्ज़ पाना हर छोटे व सीमान्त किसानो के लिए कोआपरेटिव सोसायटी से कर्ज़ ले पाने जैसा आसान नही था | ग्रामीण अंचलो के बैंको की बढती शाखाओं के वावजूद छोटी स्थिति के लोगो द्वारा कर्ज़ ले पाना आज भी आसान नही है ,हालाकि सरकारे इन्ही कर्जो का विस्तार करती रही है | वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में किसानो की कर्ज़ सहायता और प्राइवेट महाजनी से मुक्ति के नाम पर इनका विस्तार 'स्पेशल क्रेडिट प्लान ' के तहत किया जाता रहा |
इसकी शुरुआत 1994 - 95 के वित्तीय वर्ष में 8225 करोड़ के निर्धारण से शुरू किया गया | वर्ष 2003 - 04 में इसे बढाकर 44 हजार करोड़ रुपया कर दिया गया और 2006 - 07 यह रकम तेज़ी से बढाकर 2 लाख 57 हजार करोड़ कर दी गयी | चालू वित्त वर्ष 2011 - 12 के लिए इसे 3 लाख 75 हजार करोड़ निर्धारित किया गया है | यह कोआपरेटिव सोसायटियो को उपेक्षित करके बैंको को बढ़ावा देना मात्र नही है | बल्कि , दरअसल यह आम ग्रामीणों की पहुच की कर्ज़दात्री संस्थाओं को उनकी पहुंच से बाहर कर देना है | इसके आकलन व आकंडे आते रहते है कि 50 % ग्रामीणों , खासकर छोटे व सीमान्त किसानो का बड़ा हिस्सा बैंको का कर्जदार नही है | इसलिए नही की उसे कर्ज़ की जरूरत नही है , बल्कि वह कर्जदार इसलिए नही है कि उसकी बेंको तक पहुंच नही है या बहुत कम है | बढ़ते कृषि कर्ज़ की रकमों के संदर्भ में यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि किसानो के लिए सरकारी कर्ज़ को बढावा देने का काम 1960 के दशक से शुरू हुई आधुनिक बीज -खाद की खेती के साथ किया जाता रहा | क्योंकि अब किसानो को बीज खाद व अन्य कृषिगत लागत के सामानों संसाधनों को खरीदने के लिए नकद पैसो की जरूरत हुई | यह काम सोसायटियो व बैंको के जरीए बढाया गया | प्राइवेट महाजनी कम होती जा रही थी लेकिन अभी भी ज्यादा ही थी | इसके वावजूद 70-80 के दशक में किसानो के कर्जो में बुरी तरह फसने और फसकर आत्महत्या करने की खबर आमतौर पर सुनाई पड़ती थी | क्योंकि अभी भी खेती घाटे का सौदा नही थी | कृषि को मिलती सरकारी सहायताओ , अनुदानों आदि के चलते ही कृषि लागत अभी भी सस्ती थी | फलत: किसान कर्ज़ में फसा भी कम था और बहुत हद तक उसकी वापसी भी कर देता था | लेकिन 1991 से वैश्वीकरणवादी नीतियों तथा बाद के डंकल - प्रस्ताव के लागू होने के पश्चात सरकारी सहायताए , छूटे व अनुदान के घट जाने के फलस्वरूप कृषि लागत में भारी वृद्धि होती रही | कृषि उत्पादों की बिक्री को बाज़ार से पूरा कर पाना मुशिकल होता गया | फलत: किसान सरकारी व गैरसरकारी कर्जो को लेने और उसे वापस न कर पाने के दुश्चक्र में फसता गया | कर्जो में फंसे किसान आत्महत्या करने के लिए विवश होते गए | यह साफ़ बात है कि किसानो के बढ़ते संकट व आत्महत्याए मुख्यत: महाजनी कर्ज़ के चलते नही हुई है , जैसा कि प्रचार है | बल्कि वह खेती - किसानी के बढ़ते खर्च तथा सरकारी कर्ज़ के बदलते उद्देश्य के चलते हुई है |
1950 में शुरू किए सहकारी कर्ज़ का उद्देश्य मुख्यत: जनहित व किसान हित के कर्ज़ का था | अब वह सरकारी महाजनी के रूप में बदलता जा रहा है | यह बदलाव , किसानो की छूटो , सहायताओ को काटकर उन्हें कम या ज्यादा व्याज पर सरकारी व गैर सरकारी कर्जदारी में फसाते जाने का बदलाव है | इसका एक बड़ा सबूत हमारे सामने है | चूकि छोटे व सीमांत किसानो का खासा हिस्सा एवं ग्रामीणों मजदूरों एवं छोटे दस्तकारो का बहुसंख्यक हिस्सा अभी भी बांको में अपनी पहुंच नही रखता | इसलिए सरकारों ने माइक्रोफाइनेंस कम्पनियों की सरकार द्वारा अनुमोदित संरचनाये खड़ी कर दी है | यह सरकार के संरक्षण में सरकारी बैंको के सहयोग से प्राइवेट महाजनी की वापसी है | उसकी स्थापना है | प्राइवेट महाजनों द्वारा लिए जाने वाले शुल्क की दर 24% है जबकि फाइनेन्स कम्पनियों की दर 26% है | सरकारी बैंको की व्याज दर 5% से 12% तक है | लेकिन उन्ही की पूंजीगत सहायता से चलाई जा रही माइक्रोफाइनेंस कम्पनियों को 26% तक व्याज लेने की सरकारी छूट है | साफ़ बात है कि सरकारी बैंको से कर्ज़ लेने में सक्षम ग्रामीण समाज के थोड़ी बेहतर स्थिति वालो को कर्ज़ पर सरकारी सूद दर कम है , पर माइक्रोफाइनेंस के जाल में फसने वाले छोटे व निचले गरीब हिस्से के लिए यह कई गुना ज्यादा है | इसके बावजूद माइक्रोफाइनेंस कम्पनियों को निचले लोगो के लिए वरदान स्वरूप प्रचारित किया जाता रहा है | यह सरकारों द्वारा पहले के जनहित में कर्ज़ और फिर बाद में सरकारी महाजनी कर्ज़ और अब सरकारों द्वारा अनुमोदित प्राइवेट माइक्रोफाइनेंस कम्पनियों द्वारा किये जा रहे कर्ज़ के रूप में बदलाव है | कम व्याज के कर्जो से लेकर अधिक और अधिक व्याज वाले कर्जो के रूप में बदलाव | जीविकोपार्जन के सहयोगी कर्ज़ की जगह आत्महत्या के लिए मजबूर कर देने वाले कर्ज़ के रूप में बदलाव है |
एक और ध्यान देने योग्य बात किसानो की आत्महत्याओं की आज जैसी घटनाए उस दौर में नही थी , जब किसान व अन्य ग्रामीणजन पूरी तरह महाजनी कर्जो पर निर्भर थे | लेकिन अब जबकि प्राइवेट महाजनी पहले से कही कम है और सरकारी महाजनी बढती जा रही है तो किसानो की आत्महत्याओं की संख्या भी तेज़ी से बढती जा रही है |साफ़ बात है कि किसानो कि आत्महत्याओं का मामला उस कृषि संकट से जुडा हुआ है , जिसमे घाटे में जाती रही खेती से कर्ज़ वापस करना मुश्किल दर मुश्किल होता जा रहा है | यह मुश्किल मात्र कर्ज़ की नही बल्कि खेती की सरकारी सहायता - अनुदानों के कटने के बाद बढती लागत की है |कृषि उत्पादों के कम , अनिश्चित डावाडोल स्थितियों की अधिक है |इन्ही के चलते सरकारी व गैर सरकारी कर्जो की अदायगी मुश्किल होती गयी है | क्या देश के लोग इन बातो पे ध्यान देंगे कि आखिर किसान आत्महत्या क्यों कर रहे है ?इन आत्महत्याओं को रोकने की कोई सार्थक पहल होगी क्या ?
सुनील दत्ता
पत्रकार
पत्रकार
09415370672
2 टिप्पणियां:
सार्थक लेख...
chintaneey prashn hai Dada!
aakhir mudda anndata kisaan ka hai!
kab tak yun sarkaari sadyantra ka shikaar hota rahega hamaare desh ka gareeb kisaan??
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