भारत 13 जुलाई 2011 को मुंबई में हुए आतंकी हमले के सदमे से उबरा भी नहीं था कि दूरस्थ नार्वे में एक और भयावह आतंकी हमला हो गया। शुक्रवार 22 जुलाई को नार्वे की राजधानी ओस्लो के बीचो-बीच स्थित एक गगनचुंबी इमारत पर हमला हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री का दफ्तर है। कुछ खिड़कियों के कांच फूट गए और आसपास की कुछ इमारतों को मामूली नुकसान पहुंचा। इसके कुछ ही घंटों बाद, पुलिस की वर्दी पहने एक बंदूकधारी ने, सत्ताधरी लेबर पार्टी द्वारा उल्योवा द्वीप पर अपनी पार्टी के युवा समर्थकों के लिए आयोजित समर कैंप पर गोलीबारी की। इन दोनों आतंकी हमलों में, कुल मिलाकर, लगभग 100 निर्दोष लोग मारे गए।
इस कायराना हरकत के बारे में विस्तृत जानकारी सामने आने के पहले ही इसके लिए जिम्मेदार संगठनों के नामों का खुलासा कर दिया गया। हमेशा की तरह, मीडिया और आतंकवाद “विशेषज्ञों“ ने इसके लिए मुसलमानों को दोषी ठहराया। पूर्वाग्रहग्रस्त टिप्पणीकारों, विशेषज्ञों और मीडिया के एक हिस्से ने नार्वे की घटना के लिए अलकायदा के नवनियुक्त प्रमुख आयमान अल जवाहरी को जिम्मेदार बताया। सैकड़ो बार यह दोहराया गया कि इस हमले के पीछे अल्कायदा के नेतृत्व वाले इस्लामिक जेहादी आतंकवादी हैं। ज्ञातव्य है कि नार्वे भी अफगानिस्तान में पश्चिमी गठबंधन सेनाओं द्वारा चलाए जा रहे अभियान में शामिल है।
बाद में यह सामने आया कि यह हमला नार्वे के ही एक नागरिक ने किया था। लगभग 32 साल का आंद्रेज बेहरिक बे्रविक एक किसान है और घोर दक्षिणपंथी है। वह बहुसंस्कृतिवाद, इस्लाम और मुसलमानों का कट्टर विरोधी है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने नार्वे के प्रधानमंत्री की उदारवादी नीतियों के प्रति अपना विरोध दर्ज कराने के लिए यह हरकत की। आंदे्रज, नव-नात्सीवादी व नस्लवादी है और मुसलमानों के प्रति घृणा से लबरेज है। उसका ब्लाग, उसकी अतिवादी सोच को प्रतिंिबंबित करता है। वह यूरोपियन यूनियन का विरोधी है, बहुसंस्कृतिवाद में यकीन नहीं रखता और नार्वे की परंपराओं और पहचान का महिमामंडन करता है। उसका यह मानना है कि मुसलमान अल्कायदा के समर्थक और आतंकवादी हैं।
इस त्रासद आतंकी हमले और उसके बाद हुए इसके “विश्लेषण“ ने एक बार फिर पूरी दुनिया और विशेषकर भारत जैसे देशों की विकृत सामाजिक सोच को रेखांकित किया है। पूरी दुनिया के साथ भारत में भी हर आतंकी हमले के लिए मुस्लिम आतंकी समूहों को दोषी बता दिया जाता है। कुरान की कुछ आयतों को संदर्भ से हटाकर उद्धत कर उनका इस्तेमाल इस्लाम के विरूद्ध घृणा फैलाने के लिए किया जा रहा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दंक्षिणपंथी अलकायदा और तालिबान का जनक अमेरिका है। अमेरिका ने अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को खदेड़ने के लिए अल्कायदा को खड़ा किया था। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सोवियत सेनाएं, वहां अफगानिस्तान की कम्युनिस्ट सरकार के निमंत्रण पर आई थीं परंतु अमेरिका तो अफगानिस्तान को रूस का वियतनाम बनाने पर तुला हुआ था। अमेरिका चाहता था कि रूस को अफगानिस्तान में उसी तरह मुंह की खानी पड़े जैसी उसने वियतनाम में खाई थी।
चूंकि वियतनाम में धूल चाटने के कारण अमेरिकी सेनाओं का मनोबल बहुत गिरा हुआ था इसलिए अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपनी सेना भेजने की बजाए दूसरा रास्ता चुना। सीआईए ने आईएसआई के साथ मिलकर पाकिस्तान में मदरसों की स्थापना की। इन मदरसों में युवा मुस्लिम युवकों को इस्लाम के अतिवादी संस्करण में रंगा जाने लगा। इसके लिए कुरान की उन आयतों का इस्तेमाल किया गया जो तत्समय नए-नए मुसलमान बने लोगों पर हो रहे हमलों के संदर्भ में कही गई थीं। इनमें नव-मुसलमानों का आव्हान किया गया था कि वे उन काफिरों से अपनी रक्षा करें जो उनपर हमले कर रहे थे। हिंसा का इस्तेमाल अंतिम अस्त्र के तौर पर करने की सलाह भी दी गई थी। अगर इन आयतों को उनके संदर्भ से अलग करके पढ़ा जाए तो ऐसा लगता है कि इस्लाम अपने मानने वालों को निर्दोषो के विरूद्ध अकारण हिंसा करने की षिक्षा देता है। जबकि सच यह है कि उक्त आयतें, युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी गई थीं और उनमें भी रक्षात्मक लड़ाई लड़ने पर जोर दिया गया था। इस्लाम की असली शिक्षाओं को तोड़-मरोड़कर अमेरिका ने मदरसों को आतंकी तैयार करने के कारखानों में बदल दिया। अलकायदा भी अमेरिकी नीतियों के नतीजे में अस्तित्व में आया। ओसामा, जिसे अमेरिका ने ही चुना था, को अलकायदा का नेतृत्व सौंपा गया और उसे 800 करोड़ अमेरिकी डालर और 7000 टन हथियारों की मदद उपलब्ध कराई गई। अलकायदा व तालिबान के लड़ाकों का काम था अफगानिस्तान में रूसी फौजों से लड़ रहे तत्वों का साथ देना और उन्हें इतना ताकतवर बना देना कि वे सोवियत सेनाओं को अफगानिस्तान से बाहर धकेल सकें।
9/11 के बाद से अमेरिकी मीडिया ने बड़े पैमाने पर “इस्लामिक आतंकवाद“ शब्द का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। यह मुसलमानों और इस्लाम के दानवीकरण का प्रयास था जिसका उद्धेश्य था अफगानिस्तान और फिर ईरान पर हमला करने के लिए जमीन तैयार करना। भारत में भी कई छोटे-छोटे ओसामा उग आए। स्वामी दयानंद पाण्डे, असीमानंद व उनके साथियों के दिमाग में यह भर दिया गया कि वे हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के पवित्र युद्ध के महान योद्धा हैं और “बम के बदले बम“ की नीति पर चलकर वे अपने साहस का प्रदर्शन कर सकते हैं। भारत में भी इस्लाम और मुसलमानों को आतंकवाद का पर्याय मान लिया गया और ऐसे बम विस्फोटों के मामलों में भी, जो मस्जिदों के आसपास या ऐसे स्थानों पर हुए जहंा भारी संख्या में मुसलमान इकट्ठा थे, जांच एजेन्सियां मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार कर प्रताडि़त करने लगीं। 13 जुलाई 2011 के मुंबई हमले के बाद भी वही सब बातें पुनः दुहराई गईं। हम केवल उम्मीद कर सकते हंै कि जांच एजेन्सियां बिना किसी पूर्वाग्रह के इन हमलों की जांच करेंगी।
जहां तक यूरोप और अमेरिका का सवाल है, वहां के लिए आतंकवाद और आतंकवादी कोई नई चीज नहीं हैं। आईआरए ने अभी कुछ ही वर्ष पहले यह घोषणा की है कि वह आतंकवाद का सहारा लेना बंद कर रहा है। टिमोथी मेकवे ने ओकलेहोमा में बम विस्फोट कर 200 लोगों की जान ली थी। पूरी दुनिया में और विषेषकर यूरोप में असहिष्णु दक्षिणपंथी विचारधारा के उदय के पीछे अमेरिका का दुनिया की एकमात्र विश्वशक्ति के रूप में उभरना है। अमेरिका दुनिया पर अपनी दादागिरी कायम करना चाहता है। अपने आर्थिक हितों, विषेषकर तेल के भंडारों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए, वह कुछ भी करने को तैयार है। नार्वे में हुए हालिया हमले से यह पता चलता है कि किस तरह लिप्सा से प्रेरित अमेरिकी रणनीति ऐसी विचारधारा का पोषण कर रही है जो हर “बाहरी“ व्यक्ति से घृणा करती है और सामाजिक मसलों में घोर असहिष्णु है। नार्वे का आतंकी बहुसंस्कृतिवाद का विरोधी था और सरकार की मुसलमानों के प्रति नीति उसे पसंद नहीं थी।
स्वीडन के दैनिक एक्सपो ने यह दावा किया है कि आंद्रेज, नोरडिस्क नामक एक नव-नात्सी संगठन का सदस्य है। यह संगठन राजनैतिक आतंकवाद का हामी है। वह ईसाई कट्टरपंथियों के प्रति भी झुकाव रखता है। उसके हमले का उद्धेश्य सरकार को यह चेतावनी देना था कि वह उदारवादी नीतियों पर चलने से बाज आए। वह नार्वे में बहुसंस्कृतिवाद के उदय और मुसलमानों का विरोधी था क्योंकि उसका मानना था कि वे अल्कायदा के समर्थक हैं।
पूरी दुनिया में आतंकी हमले करने वालों में अनेक समानताएं हैं। नार्वे में ईसाई कट्टरपंथी, अफ-पाक में इस्लामिक कट्टरपंथी और भारत में हिन्दू कट्टरपंथी आतंकवाद का सहारा ले रहे हैं। पूरी दुनिया में उदारवादी मूल्यों और आमजनों की गरिमा और अधिकारों के संघर्ष का स्थान कट्टरपंथी सोच ले रही है। एक धर्म का कट्टरपंथी हमेशा और आवश्यक रूप से दूसरे धर्मों और उनके मानने वालों से नफरत करता है और यही नफरत उसे भयावह हिंसा करने के लिए प्रेरित करती है। दक्षिण एशिया और कुछ हद तक यूरोप में हम धार्मिक कट्टरपंथियों का नंगा नाच देख रहे हैं।
इसके बावजूद भी यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि सामूहिक सामाजिक सोच को इस्लाम और मुस्लिम विरोधी बना दिया गया है। आतंकवादी शब्द सुनते ही एक दाढी वाले मुसलमान का चेहरा सामने आ जाता है। यह मुख्यतः अमेरिका और सीआईए द्वारा मीडिया के जरिए किए गए दुष्प्रचार का नतीजा है। अधिकाँश गैर-मुस्लिम यह मानते हैं कि सभी आतंकवादी मुसलमान हैं। कुछ टिप्पणीकार कहते हैं कि मुसलमानों के आतंकी होने के पीछे इस्लामिक शिक्षाएं हैं वहीं दूसरे धर्मों के लोग राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आतंकवाद का सहारा ले रहे हैं। यह वर्गीकरण कोरी बकवास है। गहराई से सोचने और विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका के कारण ही जेहादी आतंकवाद उभरा और इस्लाम और मुसलमानों के बारे में जहर फैलाने के लिए भी अमेरिका ही जिम्मेदार है।
त्रासदी यह है कि एक कट्टरपंथ, दूसरे कट्टरपंथ को बढ़ावा देता है। अल्कायदा की कुत्सित हरकतों के नाम पर दूसरे धर्मों के अतिवादी और कट्टरपंथी हिंसा कर रहे हैं और उसे उचित बता रहे हैं। नार्वे की घटना के बाद तो कम से कम हमारी दुनिया को जाग जाना चाहिए। हमें समझना होगा कि आतंकवाद के पीछे आर्थिक-राजनैतिक कारण हैं। धर्म का आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं है। नार्वे के घटनाक्रम से यह भी स्पष्ट होता है कि आर्थिक संकट भी असहिष्णुता को जन्म देता है। आज जरूरत इस बात की है कि हम आतंकवाद के असली स्त्रोत को ढूढें और उसे जड़ से खत्म करने का यत्न करें। इसके लिए यह जरूरी है कि हमारी दुनिया, अलग-अलग देषों का प्रजातांत्रिक समुदाय बने। किसी एक देश या कुछ देशों की दुनिया पर राज करने की महत्वाकांक्षा को कुचला जाना जरूरी है। हमें विश्व शान्ति की ओर भी कदम बढ़ाने होंगे। आतंकवाद के कारणों की सही समझ ही आतंकवाद के उन्मूलन की दिशा में पहला कदम होगी।
-राम पुनियानी
इस कायराना हरकत के बारे में विस्तृत जानकारी सामने आने के पहले ही इसके लिए जिम्मेदार संगठनों के नामों का खुलासा कर दिया गया। हमेशा की तरह, मीडिया और आतंकवाद “विशेषज्ञों“ ने इसके लिए मुसलमानों को दोषी ठहराया। पूर्वाग्रहग्रस्त टिप्पणीकारों, विशेषज्ञों और मीडिया के एक हिस्से ने नार्वे की घटना के लिए अलकायदा के नवनियुक्त प्रमुख आयमान अल जवाहरी को जिम्मेदार बताया। सैकड़ो बार यह दोहराया गया कि इस हमले के पीछे अल्कायदा के नेतृत्व वाले इस्लामिक जेहादी आतंकवादी हैं। ज्ञातव्य है कि नार्वे भी अफगानिस्तान में पश्चिमी गठबंधन सेनाओं द्वारा चलाए जा रहे अभियान में शामिल है।
बाद में यह सामने आया कि यह हमला नार्वे के ही एक नागरिक ने किया था। लगभग 32 साल का आंद्रेज बेहरिक बे्रविक एक किसान है और घोर दक्षिणपंथी है। वह बहुसंस्कृतिवाद, इस्लाम और मुसलमानों का कट्टर विरोधी है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने नार्वे के प्रधानमंत्री की उदारवादी नीतियों के प्रति अपना विरोध दर्ज कराने के लिए यह हरकत की। आंदे्रज, नव-नात्सीवादी व नस्लवादी है और मुसलमानों के प्रति घृणा से लबरेज है। उसका ब्लाग, उसकी अतिवादी सोच को प्रतिंिबंबित करता है। वह यूरोपियन यूनियन का विरोधी है, बहुसंस्कृतिवाद में यकीन नहीं रखता और नार्वे की परंपराओं और पहचान का महिमामंडन करता है। उसका यह मानना है कि मुसलमान अल्कायदा के समर्थक और आतंकवादी हैं।
इस त्रासद आतंकी हमले और उसके बाद हुए इसके “विश्लेषण“ ने एक बार फिर पूरी दुनिया और विशेषकर भारत जैसे देशों की विकृत सामाजिक सोच को रेखांकित किया है। पूरी दुनिया के साथ भारत में भी हर आतंकी हमले के लिए मुस्लिम आतंकी समूहों को दोषी बता दिया जाता है। कुरान की कुछ आयतों को संदर्भ से हटाकर उद्धत कर उनका इस्तेमाल इस्लाम के विरूद्ध घृणा फैलाने के लिए किया जा रहा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दंक्षिणपंथी अलकायदा और तालिबान का जनक अमेरिका है। अमेरिका ने अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को खदेड़ने के लिए अल्कायदा को खड़ा किया था। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सोवियत सेनाएं, वहां अफगानिस्तान की कम्युनिस्ट सरकार के निमंत्रण पर आई थीं परंतु अमेरिका तो अफगानिस्तान को रूस का वियतनाम बनाने पर तुला हुआ था। अमेरिका चाहता था कि रूस को अफगानिस्तान में उसी तरह मुंह की खानी पड़े जैसी उसने वियतनाम में खाई थी।
चूंकि वियतनाम में धूल चाटने के कारण अमेरिकी सेनाओं का मनोबल बहुत गिरा हुआ था इसलिए अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपनी सेना भेजने की बजाए दूसरा रास्ता चुना। सीआईए ने आईएसआई के साथ मिलकर पाकिस्तान में मदरसों की स्थापना की। इन मदरसों में युवा मुस्लिम युवकों को इस्लाम के अतिवादी संस्करण में रंगा जाने लगा। इसके लिए कुरान की उन आयतों का इस्तेमाल किया गया जो तत्समय नए-नए मुसलमान बने लोगों पर हो रहे हमलों के संदर्भ में कही गई थीं। इनमें नव-मुसलमानों का आव्हान किया गया था कि वे उन काफिरों से अपनी रक्षा करें जो उनपर हमले कर रहे थे। हिंसा का इस्तेमाल अंतिम अस्त्र के तौर पर करने की सलाह भी दी गई थी। अगर इन आयतों को उनके संदर्भ से अलग करके पढ़ा जाए तो ऐसा लगता है कि इस्लाम अपने मानने वालों को निर्दोषो के विरूद्ध अकारण हिंसा करने की षिक्षा देता है। जबकि सच यह है कि उक्त आयतें, युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी गई थीं और उनमें भी रक्षात्मक लड़ाई लड़ने पर जोर दिया गया था। इस्लाम की असली शिक्षाओं को तोड़-मरोड़कर अमेरिका ने मदरसों को आतंकी तैयार करने के कारखानों में बदल दिया। अलकायदा भी अमेरिकी नीतियों के नतीजे में अस्तित्व में आया। ओसामा, जिसे अमेरिका ने ही चुना था, को अलकायदा का नेतृत्व सौंपा गया और उसे 800 करोड़ अमेरिकी डालर और 7000 टन हथियारों की मदद उपलब्ध कराई गई। अलकायदा व तालिबान के लड़ाकों का काम था अफगानिस्तान में रूसी फौजों से लड़ रहे तत्वों का साथ देना और उन्हें इतना ताकतवर बना देना कि वे सोवियत सेनाओं को अफगानिस्तान से बाहर धकेल सकें।
9/11 के बाद से अमेरिकी मीडिया ने बड़े पैमाने पर “इस्लामिक आतंकवाद“ शब्द का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। यह मुसलमानों और इस्लाम के दानवीकरण का प्रयास था जिसका उद्धेश्य था अफगानिस्तान और फिर ईरान पर हमला करने के लिए जमीन तैयार करना। भारत में भी कई छोटे-छोटे ओसामा उग आए। स्वामी दयानंद पाण्डे, असीमानंद व उनके साथियों के दिमाग में यह भर दिया गया कि वे हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के पवित्र युद्ध के महान योद्धा हैं और “बम के बदले बम“ की नीति पर चलकर वे अपने साहस का प्रदर्शन कर सकते हैं। भारत में भी इस्लाम और मुसलमानों को आतंकवाद का पर्याय मान लिया गया और ऐसे बम विस्फोटों के मामलों में भी, जो मस्जिदों के आसपास या ऐसे स्थानों पर हुए जहंा भारी संख्या में मुसलमान इकट्ठा थे, जांच एजेन्सियां मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार कर प्रताडि़त करने लगीं। 13 जुलाई 2011 के मुंबई हमले के बाद भी वही सब बातें पुनः दुहराई गईं। हम केवल उम्मीद कर सकते हंै कि जांच एजेन्सियां बिना किसी पूर्वाग्रह के इन हमलों की जांच करेंगी।
जहां तक यूरोप और अमेरिका का सवाल है, वहां के लिए आतंकवाद और आतंकवादी कोई नई चीज नहीं हैं। आईआरए ने अभी कुछ ही वर्ष पहले यह घोषणा की है कि वह आतंकवाद का सहारा लेना बंद कर रहा है। टिमोथी मेकवे ने ओकलेहोमा में बम विस्फोट कर 200 लोगों की जान ली थी। पूरी दुनिया में और विषेषकर यूरोप में असहिष्णु दक्षिणपंथी विचारधारा के उदय के पीछे अमेरिका का दुनिया की एकमात्र विश्वशक्ति के रूप में उभरना है। अमेरिका दुनिया पर अपनी दादागिरी कायम करना चाहता है। अपने आर्थिक हितों, विषेषकर तेल के भंडारों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए, वह कुछ भी करने को तैयार है। नार्वे में हुए हालिया हमले से यह पता चलता है कि किस तरह लिप्सा से प्रेरित अमेरिकी रणनीति ऐसी विचारधारा का पोषण कर रही है जो हर “बाहरी“ व्यक्ति से घृणा करती है और सामाजिक मसलों में घोर असहिष्णु है। नार्वे का आतंकी बहुसंस्कृतिवाद का विरोधी था और सरकार की मुसलमानों के प्रति नीति उसे पसंद नहीं थी।
स्वीडन के दैनिक एक्सपो ने यह दावा किया है कि आंद्रेज, नोरडिस्क नामक एक नव-नात्सी संगठन का सदस्य है। यह संगठन राजनैतिक आतंकवाद का हामी है। वह ईसाई कट्टरपंथियों के प्रति भी झुकाव रखता है। उसके हमले का उद्धेश्य सरकार को यह चेतावनी देना था कि वह उदारवादी नीतियों पर चलने से बाज आए। वह नार्वे में बहुसंस्कृतिवाद के उदय और मुसलमानों का विरोधी था क्योंकि उसका मानना था कि वे अल्कायदा के समर्थक हैं।
पूरी दुनिया में आतंकी हमले करने वालों में अनेक समानताएं हैं। नार्वे में ईसाई कट्टरपंथी, अफ-पाक में इस्लामिक कट्टरपंथी और भारत में हिन्दू कट्टरपंथी आतंकवाद का सहारा ले रहे हैं। पूरी दुनिया में उदारवादी मूल्यों और आमजनों की गरिमा और अधिकारों के संघर्ष का स्थान कट्टरपंथी सोच ले रही है। एक धर्म का कट्टरपंथी हमेशा और आवश्यक रूप से दूसरे धर्मों और उनके मानने वालों से नफरत करता है और यही नफरत उसे भयावह हिंसा करने के लिए प्रेरित करती है। दक्षिण एशिया और कुछ हद तक यूरोप में हम धार्मिक कट्टरपंथियों का नंगा नाच देख रहे हैं।
इसके बावजूद भी यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि सामूहिक सामाजिक सोच को इस्लाम और मुस्लिम विरोधी बना दिया गया है। आतंकवादी शब्द सुनते ही एक दाढी वाले मुसलमान का चेहरा सामने आ जाता है। यह मुख्यतः अमेरिका और सीआईए द्वारा मीडिया के जरिए किए गए दुष्प्रचार का नतीजा है। अधिकाँश गैर-मुस्लिम यह मानते हैं कि सभी आतंकवादी मुसलमान हैं। कुछ टिप्पणीकार कहते हैं कि मुसलमानों के आतंकी होने के पीछे इस्लामिक शिक्षाएं हैं वहीं दूसरे धर्मों के लोग राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आतंकवाद का सहारा ले रहे हैं। यह वर्गीकरण कोरी बकवास है। गहराई से सोचने और विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका के कारण ही जेहादी आतंकवाद उभरा और इस्लाम और मुसलमानों के बारे में जहर फैलाने के लिए भी अमेरिका ही जिम्मेदार है।
त्रासदी यह है कि एक कट्टरपंथ, दूसरे कट्टरपंथ को बढ़ावा देता है। अल्कायदा की कुत्सित हरकतों के नाम पर दूसरे धर्मों के अतिवादी और कट्टरपंथी हिंसा कर रहे हैं और उसे उचित बता रहे हैं। नार्वे की घटना के बाद तो कम से कम हमारी दुनिया को जाग जाना चाहिए। हमें समझना होगा कि आतंकवाद के पीछे आर्थिक-राजनैतिक कारण हैं। धर्म का आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं है। नार्वे के घटनाक्रम से यह भी स्पष्ट होता है कि आर्थिक संकट भी असहिष्णुता को जन्म देता है। आज जरूरत इस बात की है कि हम आतंकवाद के असली स्त्रोत को ढूढें और उसे जड़ से खत्म करने का यत्न करें। इसके लिए यह जरूरी है कि हमारी दुनिया, अलग-अलग देषों का प्रजातांत्रिक समुदाय बने। किसी एक देश या कुछ देशों की दुनिया पर राज करने की महत्वाकांक्षा को कुचला जाना जरूरी है। हमें विश्व शान्ति की ओर भी कदम बढ़ाने होंगे। आतंकवाद के कारणों की सही समझ ही आतंकवाद के उन्मूलन की दिशा में पहला कदम होगी।
-राम पुनियानी
3 टिप्पणियां:
Nice post.
http://www.hamarivani.com/redirect_post.php?blog_id=1001&post_id=92609&url=islam.amankapaigham.com%2F2011%2F07%2Fblog-post_27.html
bilkul sahi hai ki samasya ke tah tak jaana aur samadhan khojanaa hi samasya ka asali niwaaran hai .....padhawane ke liye bahut bahut aabhar
Bilkul sahi kaha sandhya ji ne
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