हिंदी के सर्वाधिक चर्चित आलोचक नामवर सिंह ८६ वर्ष के हो गए हैं. समकालीन हिंदी साहित्य को जिस एक व्यक्ति ने सबसे अधिक प्रभावित किया उसका नाम नामवर सिंह है. वे अब भी हिंदी के शिखर पुरुष हैं. अब भी उनका लिखना, बोलना और चुप रह जाना वाद – विवाद – संवाद के लिए पर्याप्त है.
उनके शिष्य और मिडिया विशेषज्ञ प्रसिद्ध आलोचक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने एक अध्यापक के रूप में उनकी भूमिका की पड़ताल की है. नामवर सिंह के जीवन, प्रेम और भारतीयता पर उनके विचारों को परखा है.
यह आलेख इस लिए विशिष्ट है कि यह न वन्दना करता है न व्याख्या. नामवर जी के श्वेत-स्याम पर एक आलोचकीय तटस्थता यहाँ है. और अपनी परम्परा के प्रति इतनी निर्-ममता जेएनयू की परम्परा में ही संभव है. आलोचना में नामवर सिंह का मार्क्सवादी प्रेम
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मैं मथुरा से माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय में बेहतरीन विद्वानों से पढ़कर आया था. दर्शन मैंने आचार्य सवलकिशोर पाठक से पढ़ा, सिद्धांत ज्योतिष संकटाप्रसाद उपाध्याय, वेद और धर्मशास्त्र लालनकृष्ण पंड्या, संस्कृत व्याकरण आचार्य बलदेव शास्त्री और संस्कृत साहित्य आचार्य वनमाली शास्त्री, केशवचन्द्र पांडेय, आचार्य कृष्णचन्द्र चतुर्वेदी ने पढ़ाया था. ये सभी अपने विषय के ज्ञाता विद्वान थे. इन सभी ने 13 साल की लंबी अवधि तक यानी प्रथमा से लेकर सिद्धांतज्यौतिषाचार्य पर्यन्त तक मुझे पढ़ाया था. इन विद्वानों से पढ़ते समय कभी महसूस नहीं हुआ कि शिक्षक के सहृदय मन का शिक्षण से कोई संबंध भी होता है. एकदम वस्तुगत शिक्षण की परंपरा से निकलकर जब मैं जे.एन.यू में दाखिला हुआ तो शास्त्र, माहौल, मित्र, मिजाज और शिक्षक सभी बदले हुए थे. मथुरा में मैं आपातकाल में ही एस.एफ.आई से जुड़ गया था. जे.एन.यू. आने के पहले माकपा का पार्टी मेम्बर था और एस.एफ.आई. का जिला सचिव भी था. मेरे मन में कहीं न कहीं इस बात का असर था कि कक्षा में पढ़ाते समय शास्त्र ही प्रमुख है,शिक्षक की भावनाएं और प्राथमिकताएंप्रमुख नहीं हैं.लेकिन जे.एन.यू. में 1979 में जब दाखिला लिया और पहलीबार क्लास करने गया तो नामवर सिंह की पढ़ाने की शैली देखकर बड़ा मजा आया. पहली बार शिक्षक की संवेदनाओं और शास्त्र के बीच चल रही प्रक्रियाओं को देखा,सुना और महसूस किया.
नामवर सिंह की पढ़ाने की शैली में हर दिन
नामवर सिंह की पढ़ाने की शैली में हर दिन
एक नयी तैयारी दिखती थी और उसका सामयिक चीजों और घटनाओं के साथ भी गहरा संबंध हुआ
करता था. उनके पढ़ाने की शैली में युवामन के प्रति सम्मान का भाव होता था. युवामन
को वे अपने प्रति भक्ति, राजनीतिक लगाव और प्रतिबद्धता के आधार पर परखते थे. उनके
सबसे प्रिय छात्र वे ही होते थे जो उनके अनन्यभक्त थे. ये लोग साहित्य ज्यादा हांकते
थे और राजनीति कम करते थे. वे उन छात्रों से कम प्रेम करते थे जो उनके भक्त नहीं
थे, राजनीति और साहित्य ज्यादा करते थे. भारतीय भाषा केन्द्र में अधिसंख्य छात्र
ऐसे थे जो नामवरसिंह के अनन्य भक्त नहीं थे. यह एक विलक्षण बात थी कि वे
मार्क्सवाद का व्यवहार में इस्तेमाल करने वाले छात्रों को कम पसंद करते थे. उन्हें
वे छात्र ज्यादा अच्छे लगते थे, जिनका मार्क्सवाद से प्रयोजनमूलक संबंध होता था.
करता था. उनके पढ़ाने की शैली में युवामन के प्रति सम्मान का भाव होता था. युवामन
को वे अपने प्रति भक्ति, राजनीतिक लगाव और प्रतिबद्धता के आधार पर परखते थे. उनके
सबसे प्रिय छात्र वे ही होते थे जो उनके अनन्यभक्त थे. ये लोग साहित्य ज्यादा हांकते
थे और राजनीति कम करते थे. वे उन छात्रों से कम प्रेम करते थे जो उनके भक्त नहीं
थे, राजनीति और साहित्य ज्यादा करते थे. भारतीय भाषा केन्द्र में अधिसंख्य छात्र
ऐसे थे जो नामवरसिंह के अनन्य भक्त नहीं थे. यह एक विलक्षण बात थी कि वे
मार्क्सवाद का व्यवहार में इस्तेमाल करने वाले छात्रों को कम पसंद करते थे. उन्हें
वे छात्र ज्यादा अच्छे लगते थे, जिनका मार्क्सवाद से प्रयोजनमूलक संबंध होता था.
मेरे लिए यह बात हमेशा रहस्य रही है कि नामवर सिंह जैसा मार्क्सवाद का बेहतरीन विद्वान व्यवहार में, खासकर छात्रों में, प्रयोजनमूलक मार्क्सवादियों को पसंद क्यों करता है ? प्रयोजनमूलक मार्क्सवादी वे थे
जिनका मार्क्सवाद से सिर्फ पाठ्यक्रम तक संबंध था. पाठ्यक्रम में जो मार्क्सवाद था उसे वे तोते की तरह पढ़ते थे ,कभी गुनने और उसे जीवन में लागू करके अपने को मार्क्सवादी के रूप में ढ़ालने का किसी ने प्रयास नहीं किया. यही वजह है कि नामवर सिंह का वरदहस्त उन पर होता था जो प्रयोजनमूलक मार्क्सवादी थे. इनमें से किसी ने भी
कालांतर में मार्क्सवाद पर कभी भी न तो कुछ लिखा और न मार्क्सवाद की अकादमिक परंपरा में उनकी गणना की जाती है. इन प्रयोजनमूलक मार्क्सवादियों की तुलना हिन्दी के प्रयोजनमूलक कार्य व्यापार से जुड़े मेधावियों से की जा सकती है. इन प्रयोजनमूलक मार्क्सवादियों को ही नामवरजी की सभी किस्म की मदद अनायास मिलती रही
है. मार्क्सवादी छात्रों की मदद उन्होंने बहुत कम की है.
यह सच है कि नामवर सिंह बहुत बड़े विद्वान हैं. खूब पढ़ते हैं. खूब सुंदर पढ़ाते हैं. लेकिन सुंदर मेधावी छात्र तैयार करने की कला एकदम नहीं जानते. विद्यार्थी को तरासना और शिक्षित-दीक्षित करना एकदम नहीं जानते.जे.एन.यू. में हर विभाग में ऐसे शिक्षक रहे हैं जिन्होंने अपने शास्त्र के श्रेष्ठतम प्रयोगकर्ताओं कोपैदा किया है. लेकिन नामवरसिंह की यह बड़ी कमजोरी रही है कि वे अपने जैसा परिश्रमी एक भी छात्र तैयार नहीं कर पाए.
एक अन्य चीज जो बार बार खटकती रही है किवे सार्वजनिक तौर पर कुछ भी कहें लेकिन निजीतौर पर वे कभी जे.एन.यू. कैंपस में हिन्दी में मार्क्सवादी चेतना और विचारधारा से लैस छात्र-छात्राओं को निर्मित नहीं कर पाए. एक मार्क्सवादी की सफलता तब मानी जाती है जब वह नई मार्क्सवादी पीढ़ी तैयार करे. नामवर सिंह का यह सबसे कमजोर पक्ष है.वे जाने जाते हैं मार्क्सवादी के रूप में लेकिन अध्यापन के दौरान वे एक भी अच्छा मार्क्सवादी तैयार नहीं कर पाए. नामवर सिंह के सबसे प्रिय और कृपापात्र वे छात्र रहे हैं ,और आज भी हैं,जोमार्क्सवादी नहीं हैं, या प्रयोजनमूलक मार्क्सवादी हैं.फलतः आज जे.एन.यू. के हिन्दी विभाग की कोई विशिष्ट पहचान नहीं है.नामवर सिंह के रहते हुए एक भी बेहतरीन अनुसंधान कार्य विभाग की ओर से सामने नहीं आया. जबकि जे.एन.यू. के अनेक विभाग हैं जहां शिक्षक लगातार अनुसंधान करते रहते हैं और उनके नए शोध कार्य प्रकाशित होते रहते हैं. इसके बावजूद नामवर सिंह सारे देश में मार्क्सवाद के प्रतीक पुरूष के रूप में जाने जाते हैं.
एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उनके जे.एन.यू. कार्यकाल के दौरान उनकी कोई आलोचना कृति सामने नहीं आई. सवाल यह है कि इतने बड़ेओहदे पर लंबे समय तक काम करने के बाद भी नामवरजी को मार्क्सवाद का कोई भी विषयलिखने के लायक महसूस क्यों नहीं हुआ ?जिस पर वे विस्तार से कभी लिखते. उन्होंनेकभी किसी मार्क्सवादी परकिताब नहीं लिखी. किसी मार्क्सवादी सिद्धांतत पर किताबनहीं लिखी. जबकि सारी दुनिया में मार्क्सवादियों ने मार्क्सवादी और मार्क्सवादीसिद्धांत पर किताबें जरूर लिखी हैं. भारत में राहुल सांकृत्यायन, यशपाल,रामविलासशर्मा आदि उदाहरण हैं. नामवरसिंह मार्क्सवाद पर किताब लिखने से क्यों भागते रहे हैं, इसका कोईसंतोषजनक उत्तर आज तक नहीं मिला है. असल में वे मनसा-वाचा मार्क्सवादी हैं, कर्मणा नहीं.
नामवर सिंह की चाह और सच्चाई में विशाल अंतराल है. वे जो चाहते थे वह उनको मिला है.उन्हें नाम, यश, साख, विद्वत्ता, धन, पद आदि सब कुछ मिला है. उनका अकादमिक दर्जा हमेशा से बहुत ऊँचा रहा है. लेकिन उस दर्जे के अनुकूल उन्होंने कम लिखा है.एक अकादमीशियन सिर्फ कक्षा और वक्तृता से नहीं पहचाना जाता बल्कि लेखन और शोध से पहचाना जाता है. बिडम्वना है कि नामवर सिंह ने आलोचना के रूप में बहुत लिखा,आलोचक
नामवर सिंह की चाह और सच्चाई में विशाल अंतराल है. वे जो चाहते थे वह उनको मिला है.उन्हें नाम, यश, साख, विद्वत्ता, धन, पद आदि सब कुछ मिला है. उनका अकादमिक दर्जा हमेशा से बहुत ऊँचा रहा है. लेकिन उस दर्जे के अनुकूल उन्होंने कम लिखा है.एक अकादमीशियन सिर्फ कक्षा और वक्तृता से नहीं पहचाना जाता बल्कि लेखन और शोध से पहचाना जाता है. बिडम्वना है कि नामवर सिंह ने आलोचना के रूप में बहुत लिखा,आलोचक
के रूप में हजारों भाषण दिए, लेकिन एक भी नयी आलोचना की अवधारणा का निर्माण नहीं किया.
आलोचना के नए मानक भी निर्मित नहीं कर पाए.
नामवर सिंह की हिन्दी आलोचना में महत्ता है. वे आज भी 86 साल की उम्र में सबसे ज्यादा सक्रिय विद्वान हैं, देश में चारों ओर उनके दौरे अभी भी होते हैं. उनकी यही सक्रियता सभी को चकित और मुग्ध करती है. मुझे उनका बराबर आशीर्वाद रहा है और उसका मुझे सुफल भी मिला है. वे हमेशा मन से चाहते रहे हैं कि मेरी उन्नति हो. मैं जब भी मिला हूँ उन्होंने खुले मन से मेरे साथ सुंदर हृदयस्पर्शी व्यवहार किया है. यह बात दीगर है कि मैं उनके भक्तछात्रों की टोली में कभी नहीं रहा और न नामवरजी ने ही मुझे भक्तटोली में शामिल करने की कोशिश की. वे हमेशा कहते हैं कि आप शिष्य तो मेरे ही कहलाओगे और मैं हमेशा इसेस्वीकार भी करता रहा हूँ.आलोचना के नए मानक भी निर्मित नहीं कर पाए.
निजी तौर पर नामवर सिंह जब भी बातें करते हैं तो उसमें एक खास का किस्म उदारभाव होता है जो उनकी सामान्य सी बातों के जरिए मन को स्पर्श करता है. मुझे जो चीज सबसे अच्छी लगती है वो है उनकी उदार भाषा.
लिखने और बोलने में उनकी मर्मस्पर्शी उदार भाषा अभी भी मन को छूती है. ईर्ष्या भीहोती है कि ऐसी मर्मस्पर्शी भाषा मेरे पास क्यों नहीं है. मेरे व्यक्तित्व और मानसिक गठन का पूरा काय़ाकल्प करने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका रही है. उनकी कक्षाएं, भाषण, बातचीत और किताबें प्रभावित करती रही हैं. आज भी संकट की अवस्था
में उनका लिखा पढ़ता हूँ और आनंद लेता हूँ, मन ही मन आलोचना करता हूँ कि वे गहराई में जाकर और क्यों नहीं लिखते
एक अन्य पहलू जो काफी विवादास्पद है.जिसकी ओर कभी लिखकर किसी ने ध्यान नहीं खींचा. नामवरसिंह जब भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष थे या भाषा संस्थान के डीन बने या अकादमिक परिषद के सदस्य थे तो उस समय
में उनका लिखा पढ़ता हूँ और आनंद लेता हूँ, मन ही मन आलोचना करता हूँ कि वे गहराई में जाकर और क्यों नहीं लिखते
एक अन्य पहलू जो काफी विवादास्पद है.जिसकी ओर कभी लिखकर किसी ने ध्यान नहीं खींचा. नामवरसिंह जब भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष थे या भाषा संस्थान के डीन बने या अकादमिक परिषद के सदस्य थे तो उस समय
पद रहते हुए अमूमन वे छात्रों के खिलाफ और विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ हुआ करतेथे. प्रशासन के खिलाफ उन्होंने कभी राय जाहिर नहीं की. इसके कारण एक अजीब स्थिति हमेशा रहती थी. हमलोग छात्र प्रतिनिधि के नाते जब भी किसी समस्या पर उनसे समर्थन के लिए अनुरोध करने घर जाते थे तो वे हमेशा सहयोग का आश्वासन देते थे, लेकिन अकादमिक परिषद या प्रशासन के सामने हमेशा छात्रों के खिलाफ राय देते थे. यानी निजी बातचीत में नामवर और प्रशासन में नामवर में अंतर करके देखा जाना चाहिए. निजी बातचीत, सभा,गोष्ठी आदि में वे हमेशा छात्रों के पक्ष में होते थे लेकिन प्रशासनिक मीटिंगों में हमेशा प्रशासन के अ-लोकतांत्रिक
फैसलों के हिस्सेदार रहे हैं. मैं 1980-81 में भाषा संस्थान में कौंसलर था. मैंने अनेक मर्तबा उनको अ-लोकतांत्रिक फैसले लेते देखा है और हमको मजबूर होकर उनके खिलाफ आंदोलन करना पड़ता था और बादमें आंदोलन के दबाव में उन्होंने अपने फैसले बदले भी हैं. इस समूची प्रक्रिया ने एक विलक्षण अनुभव दिया है. मौटे तौर पर जे.एन.यू. में जो लोग सामान्य जीवन में प्रगतिशील हैं, वे जरूर नहीं है कि प्रशासन में भी प्रगतिशील हों. जीवन में प्रगतिशील और प्रशासनिकस्तर पर अलोकतांत्रिक का द्वैत जे.एन.यू.के अधिकांश प्रगतिशील शिक्षकों की सामान्य प्रकृति रहा है. नामवरसिंह में भी यहफिनोमिना था.
नामवरसिंह के मध्यवर्गीय व्यक्तित्व के अनेक रूप हैं. जिस तरह सामान्यतौर पर मध्यवर्ग के पास एकाधिक मुखौटे हैं, वैसे ही नामवर सिंह के पास भी एकाधिक मुखौटे हैं. ये मुखौटे उनके आत्मकथा के अंशों में सहज रूप में व्यक्त हुए हैं. नामवर सिंह के व्यक्तित्व का एक पहलू है उनका सामान्य उदार व्यवहार, लेकिन एक अन्य पहलू भी है जिसमें वे कभी कभी वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रतीक के रूप में भी नजर आते हैं. परिवार नामक संस्था में उनकी अनुपस्थिति और अपने परिवार से लंबे समय तक दूरी के कारण उनके व्यक्तित्व में एक खास किस्म की जटिलता पैदा हुई है. इसने उनके समूचे नजरिए को प्रभावित किया है. परंपरागत नियमों को तोड़ने और साहित्यिक रूढ़ियों को तोड़ने में उनकी खास दिलचस्पी रही है. नियम तोड़ने में वक्तृत्व कला का उन्होंने जमकर इस्तेमाल किया है. जो चीजें वे सामान्य जीवन में अर्जित नहीं कर पाए उसे उन्होंने भाषणकला और लेखन में हासिल करने की कोशिश की है. इस प्रसंग में उनकी किताबों में उद्धरणों के चयन को देखें तो उनके नजरिए को साफतौर पर समझा जा सकता है.नामवरसिंह स्वयं उद्धरणों की एक किताब लिखना चाहते थे. हम सिर्फ यहां उनके यहां से कुछ सामयिक समस्याओं पर उनके नजरिए को व्यक्त करने वाले विचार दे रहे हैं. इससे समस्या के विभिन्न आयामों के साथ सही नजरिए को भी समझने में मदद मिलेगी.फैसलों के हिस्सेदार रहे हैं. मैं 1980-81 में भाषा संस्थान में कौंसलर था. मैंने अनेक मर्तबा उनको अ-लोकतांत्रिक फैसले लेते देखा है और हमको मजबूर होकर उनके खिलाफ आंदोलन करना पड़ता था और बादमें आंदोलन के दबाव में उन्होंने अपने फैसले बदले भी हैं. इस समूची प्रक्रिया ने एक विलक्षण अनुभव दिया है. मौटे तौर पर जे.एन.यू. में जो लोग सामान्य जीवन में प्रगतिशील हैं, वे जरूर नहीं है कि प्रशासन में भी प्रगतिशील हों. जीवन में प्रगतिशील और प्रशासनिकस्तर पर अलोकतांत्रिक का द्वैत जे.एन.यू.के अधिकांश प्रगतिशील शिक्षकों की सामान्य प्रकृति रहा है. नामवरसिंह में भी यहफिनोमिना था.
आत्मकथा
नामवर सिंह ने अपने संबंध में लिखा है "मेरा कोई भी काम बिना बाधाओं के होता ही नहीं, कहने को तो मैं भी
प्रेमचंद की तरह कह सकता हूँ कि मेरा जीवन सरल सपाट है. उसमें न ऊँचे पहाड़ हैं न घाटियाँ हैं. वह समतल मैदान है. लेकिन औरों की तरह मैं भी जानता हूँ कि प्रेमचंद का जीवन सरल सपाट नहीं था. अपने जीवन के बारे में भी मैं नहीं कह सकता कि यह सरल सपाट है. भले ही इसमें बड़े ऊँचे पहाड़ न हों, बड़ी गहरी घाटियाँ न हों. मैंने जिन्दगी में बहुत जोखिम न उठाये हों.ब्रेख्त के एक नाटक गैलीलियो का एक वाक्य अकसर याद आता रहा है कि बाधाओं को देखते हुए दो बिन्दुओं के बीच की सबसे छोटी रेखा टेढ़ी ही होगी. मेरे जीवन की रेखा भी कहीं-कहीं टेढ़ी होगयी है. जहाँ टेढ़ी हुई है, उसका जिक्र करूँगा."
"मैं यह कह रहा हूँ कि मेरी जिन्दगी भी एक हद तक ऊसर है और एक हद तक उसमें उगने वाली नागफनी है जिसमें काँटे होते हैं और सीधे तड़ंगे बाँस होते हैं. यदि प्रकृति कहींन कहीं परिवेश को प्रभावित करती है तो शायद मेरे व्यक्तित्व को- मेरे जीवन को उसने प्रभावित किया हो.""मैं अभागा हूँ कि माँ की मृत्यु हुई तो जोधपुर में था. काशी ने तार भेजा तो तार दिल्लीहोते हुए जोधपुर गया. पिता जी की मृत्यु हुई तो मैं दिल्ली में था. उनका मुँह भी नहीं देख सका. इस मामले में काशी भाग्यशाली है. अंतिम दिनों में माँ की सेवा की और पिता की भी सेवा की. मैंने तो कोई जिम्मेदारी निभायी नहीं उन दोनों के प्रति लेकिन उन्होंने अपने आशीष का हाथ बराबर मेरे सिर पर रखा. "
"अभी भी हमारा संयुक्त परिवार है. अपने को बहुत सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे अनमोल दो भाई मिले. गाँव में ही नहीं, आस-पास के पूरे क्षेत्र में मिसाल दी जाती है हमारी. मुझे खुशी है कि मेरे दोनों भाई आज भी मेरे साथ हैं. मैं कहना चाहता हूँ कि भाइयों का प्यार मैंने जाना. मेरे भाई अगरन होते, तो मेरे जैसा आदमी जो बनारस छोड़ कर जगह-जगह द्घूमता रहा, दिल्ली आया, जोधपुर गया, सागर गया, फिर दिल्ली आया, परिवार कभी साथ नहीं रहा, कैसे कुछ कर पाता. जब मैं बनारस में था तब भी मैंने नहीं जाना कि राशन की दुकान कौन सी है, सब्जी कहाँ
मिलती है, कैसे घर का खर्च चलता है. सारा का सारा काम काशी करते थे जो हमारे साथ रहते थे. हाईस्कूल करके गाँव से आये थे काशी और सारी जिम्मेदारी ले ली थी. कभी-कभी मुझे बहुत अफसोस होता है कि यदि काशी पर वह बोझ न होता तो वह और जाने क्या बन गये होते. लेकिन मैं तो लाचार था. मैं निश्चिन्त हो गया था काशी पर सब कुछ छोड़कर के. माँ साथ रहती थी, मेरी पत्नी थी घर में. मेरा बेटा आ गया था, पिता जी भी आया करते
थे गाँव से, मझले भाई भी आते थे. उनका भी परिवार था. इन तमाम चीजों को बरसों तक काशी ने संभाला. इसीलिए काशी के लिए एक स्नेह तो अनुभव करता हूँ लेकिन एक आँण भी है जो बराबर महसूस करता रहा हूँ. इसे कभी नहीं भूल सकता, हालांकि कभी कहा नहीं, कभी लिखा नहीं." "पिता जी ने मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह किया था, सही है लेकिन उसका दंड मेरी पत्नी भोगे यह उचित नहीं, यह मैं जानता था. और जानता हूँ लेकिन जाने क्यों मन में ऐसी गाँठ थी कि मैं पत्नी को पति का सुख नहीं दे सका."
मिलती है, कैसे घर का खर्च चलता है. सारा का सारा काम काशी करते थे जो हमारे साथ रहते थे. हाईस्कूल करके गाँव से आये थे काशी और सारी जिम्मेदारी ले ली थी. कभी-कभी मुझे बहुत अफसोस होता है कि यदि काशी पर वह बोझ न होता तो वह और जाने क्या बन गये होते. लेकिन मैं तो लाचार था. मैं निश्चिन्त हो गया था काशी पर सब कुछ छोड़कर के. माँ साथ रहती थी, मेरी पत्नी थी घर में. मेरा बेटा आ गया था, पिता जी भी आया करते
थे गाँव से, मझले भाई भी आते थे. उनका भी परिवार था. इन तमाम चीजों को बरसों तक काशी ने संभाला. इसीलिए काशी के लिए एक स्नेह तो अनुभव करता हूँ लेकिन एक आँण भी है जो बराबर महसूस करता रहा हूँ. इसे कभी नहीं भूल सकता, हालांकि कभी कहा नहीं, कभी लिखा नहीं."
"मैंने कभी अपने गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी से पूछा था, 'सबसे बड़ा दुख क्या है?' बोले, 'न समझा जाना.' और सबसे बड़ा सुख ? मैंने पूछा. फिर बोले, 'ठीक उलटा! समझा जाना.' अगर लगे कि दुनिया में सभी गलत समझ रहे हैं लेकिन एक भी आदमी ऐसा हैजिसके बारे में तुम आश्वस्त हो कि वह तुझे समझता है तो फिर उसके बाद किसी और चीज की कमी नहीं रह जाती." "मैं जन्मकुंडली, हस्तरेखा, ज्योतिष किसी में विश्वास नहीं करता और न मृत्युबोध का विलास पालने की कामना है मेरी. दरअसल बीमारियाँ मेरे लिए इसलिए दुखद हैं कि वे पर निर्भर बनातीहैं." "एक चीज याद रखो, विरोध उसी का होता है जिसमें तेज होता है. विरोध से ही शक्ति नापी जाती है. जब छोटी सी चिन्गारी दिखाई पड़ती है तो लोग घी नहीं पानी डालते हैं." "दरअसल हम लेखक लोग मध्यवर्ग के हैं और मध्यवर्ग में जो कुछ ऊपर ठीक-ठाक जगह पर पहुँच जाता है तो लोग अचानक उसको सत्ता और प्रतिष्ठान के प्रतीक के रूप में देखने लगतेहैं. वस्तुतः हम लोग विशाल तंत्र के पुर्जे हैं. कोई छोटा है तो कोई बड़ा है." "मैंने किसी के हाथ के नीचे तो अपना हाथ नहीं रखा. रखा है तो किसी के हाथ पर हाथ रखा है. और रखा है तो उसके बदले में कुछ लिया नहीं है." "मैं पुरस्कारों के मामले में प्रूपफरीडर हूँ जो भूल सुधार का काम करता है. जो लोकमत है, साधुमत है मैंने उसी के अनुसार काम करने की कोशिश की है. इसके बाद भी यदि मुझे अपयश मिलता है तो अपयश भी शिरोधार्य. शमशेर जी
से मैंने किसी का यह शेर सुना थाः
न हंसना
ही सलीके का, न रोना ही सलीके का.
परेशानीन हंसना
ही सलीके का, न रोना ही सलीके का.
में कोई काम जी से हो नहीं सकता
जो होसकता है इससे वह किसी से हो नहीं सकता
मगर देखोतो फिर कुछ आदमी से हो नहीं सकता.
मैं इतना निराशावादी नहीं हूँ कि यह कहूँ कि कुछ आदमी से हो नहीं सकता. क्योंकि 'जो हो सकता है इससे, वह किसी से हो नहीं सकता.' रही बात सलीके की, तो मैंने जो बातें की हैं, चाहता था कि सलीके से कहूँ. क्योंकिएक साहित्यकार, कलाकार के हँसने में, रोने में एक सलीका तो होना ही चाहिए. पता नहीं मेरा यह काम सलीके से हो सका या नहीं! आश्वस्त नहीं हूँ.अंत में पीछे मुड़कर अपने पूरे जीवन का सिंहावलोकन करता हूँ तो अंदर-अंदर वहीं प्रश्न उठता है जिससे मुक्तिबोध बेचैन रहते थेः
अब तक क्याकिया?
जीवनक्या जिया?"
प्रेम
नामवरसिंह ने कभी प्यार नहीं किया, लेकिन प्यार की हिमायत
में खूब लिखा है, वे प्यार के सवालों पर खूब जमकर बोलते भी
हैं, लेकिन वे प्यार करने के मामले में जोखिम उठाने से
कतराते रहे हैं या उनके अंदर एक कायर मन भी रहा है जो उनको प्यार नहीं करने देता.
उनके प्रेम संबंधी नजरिए पर गालिब, एरिक फ्रॉम और
हजारीप्रसाद द्विवेदी का गहरा प्रभाव है. हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास
"अनामदास दास का पोथा" के बहाने लिखा है," प्रेम
पाप नहीं है, बल्कि मनुष्य का 'स्वभाव'
है और इस स्वभाव को स्वीकार करके ही चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जा
सकता है." प्रेम हो तो क्या होता है ? नया जन्म होता
है. प्रेम को वह सबसे बड़ा पुरूषार्थ मानते हैं.
''मानव देह केवल दंड भोगने के लिए नहीं बनी है, आर्य!हैं, लेकिन वे प्यार करने के मामले में जोखिम उठाने से
कतराते रहे हैं या उनके अंदर एक कायर मन भी रहा है जो उनको प्यार नहीं करने देता.
उनके प्रेम संबंधी नजरिए पर गालिब, एरिक फ्रॉम और
हजारीप्रसाद द्विवेदी का गहरा प्रभाव है. हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास
"अनामदास दास का पोथा" के बहाने लिखा है," प्रेम
पाप नहीं है, बल्कि मनुष्य का 'स्वभाव'
है और इस स्वभाव को स्वीकार करके ही चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जा
सकता है." प्रेम हो तो क्या होता है ? नया जन्म होता
है. प्रेम को वह सबसे बड़ा पुरूषार्थ मानते हैं.
यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है. यह नारायण का पवित्र मन्दिर है. पहले इस बात को
समझ गई होती, तो इतना परिताप नहीं भोगना पड़ता. गुरु ने मुझे
अब यह रहस्य समझा दिया है. मैं जिसे अपने जीवन का सबसे बड़ा कलुष समझती थी,
वही मेरा सबसे बड़ा सत्य है. क्यों नहीं मनुष्य अपने सत्य को देवता
समझ लेता आर्य?'' प्रेम में बार बार बंदिशें परेशान करती
हैं. सामाजिक विकास में बंदिशें वैसे भी बड़ी बाधा हैं.
नामवरसिंह बंदिशों के विरोधी हैं. इस मामले में उनके विचार और कर्म में बहुत कम अंतर है.समझ गई होती, तो इतना परिताप नहीं भोगना पड़ता. गुरु ने मुझे
अब यह रहस्य समझा दिया है. मैं जिसे अपने जीवन का सबसे बड़ा कलुष समझती थी,
वही मेरा सबसे बड़ा सत्य है. क्यों नहीं मनुष्य अपने सत्य को देवता
समझ लेता आर्य?'' प्रेम में बार बार बंदिशें परेशान करती
हैं. सामाजिक विकास में बंदिशें वैसे भी बड़ी बाधा हैं.
सामान्यतौर पर प्रेमविवाह करने वालों से वे बड़े खुश होते हैं और यदि उनके किसी
शिष्य ने प्रेमविवाह किया है और दावत –आशीर्वाद पर बुलाया है तो वे जरूर जाते हैं.
सामंती बंदिशों को तोड़ने में वे अपने शिष्यों की मदद भी करते रहे हैं. प्रेम को
वे कमजोरी नहीं मानते. उनका मानना है "मानवीय प्रवृत्तियों का दमन सामन्ती
दमन का ही एक अंग है. अमानवीकरण की यह प्रक्रिया शासक वर्गों के दमन का प्रमुख
अस्त्र रही है. सामन्ती युग में इस दमन-कार्य के लिए शासक वर्ग धर्म का सहारा लेता
था और आधुनिक पूंजीवादी युग में धर्म के अतिरिक्त वैज्ञानिक-तार्किक-व्यावहारिक
नीतिशास्त्र का भी." " कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी में सूरदास आदि
का भक्तिकाव्य इस सामन्ती दमन के विरुद्ध मानवीय विद्रोह था." "इस
पाप-बोध जगाने वाले वर्ग से निपटने के लिए भक्तों के पास सबसे अमोद्घ अस्त्र था-
प्रेम. आश्चर्य नहीं कि पुरोहिती हितों के पोषक पंडितों ने सबसे अधिक कोप इस 'प्रेम' पर ही प्रकट किया. कोप
का एक रूप तो यह है कि इसे अभारतीय कहकर अग्राह्य बना दिया जाय."
आचार्य पुरगोभिल ने कहा है,''अगर निरन्तर व्यवस्थाओंशिष्य ने प्रेमविवाह किया है और दावत –आशीर्वाद पर बुलाया है तो वे जरूर जाते हैं.
सामंती बंदिशों को तोड़ने में वे अपने शिष्यों की मदद भी करते रहे हैं. प्रेम को
वे कमजोरी नहीं मानते. उनका मानना है "मानवीय प्रवृत्तियों का दमन सामन्ती
दमन का ही एक अंग है. अमानवीकरण की यह प्रक्रिया शासक वर्गों के दमन का प्रमुख
अस्त्र रही है. सामन्ती युग में इस दमन-कार्य के लिए शासक वर्ग धर्म का सहारा लेता
था और आधुनिक पूंजीवादी युग में धर्म के अतिरिक्त वैज्ञानिक-तार्किक-व्यावहारिक
नीतिशास्त्र का भी." " कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी में सूरदास आदि
का भक्तिकाव्य इस सामन्ती दमन के विरुद्ध मानवीय विद्रोह था." "इस
पाप-बोध जगाने वाले वर्ग से निपटने के लिए भक्तों के पास सबसे अमोद्घ अस्त्र था-
प्रेम. आश्चर्य नहीं कि पुरोहिती हितों के पोषक पंडितों ने सबसे अधिक कोप इस 'प्रेम' पर ही प्रकट किया. कोप
का एक रूप तो यह है कि इसे अभारतीय कहकर अग्राह्य बना दिया जाय."
का संस्कार और परिमार्जन नहीं होता रहेगा, तो एक दिन
व्यवस्थाएँ तो टूटेंगी ही, अपने साथ धर्म को भी तोड़ देंगी.''
नामवरसिंह के अनुसार मध्यकालीन भक्ति आंदोलन में, खासकर,सूरदास के यहां '' १.व्यवस्थाएँ तो टूटेंगी ही, अपने साथ धर्म को भी तोड़ देंगी.''
प्रेम ही परम पुरुषार्थ है २. भगवान के प्रति प्रेम कौलीन्य से बड़ी चीज है ३.
भक्ति के बिना शास्त्र ज्ञान और पांडित्य व्यर्थ है और ४. भक्त भगवान से बड़ा है.''
''इसका मतलब यह नहीं कि सूरदास स्मार्त पन्थ के विरोधी हैं. वे
भक्ति को सर्वोपरि समझते हैं. अगर भक्ति है तो तीर्थ-व्रत की जरूरत नहीं, अगर भक्ति नहीं है तो तीर्थ-व्रत से कुछ बड़ी चीज की प्राप्ति नहीं होगी.
भगवान की दृष्टि में जाति-पांति, कुल -शील आदि कोई चीज नहीं
है. केवल प्रेम चाहिए, प्रेम से ही वे मिलते हैं.''
भक्ति के बिना शास्त्र ज्ञान और पांडित्य व्यर्थ है और ४. भक्त भगवान से बड़ा है.''
''इसका मतलब यह नहीं कि सूरदास स्मार्त पन्थ के विरोधी हैं. वे
भक्ति को सर्वोपरि समझते हैं. अगर भक्ति है तो तीर्थ-व्रत की जरूरत नहीं, अगर भक्ति नहीं है तो तीर्थ-व्रत से कुछ बड़ी चीज की प्राप्ति नहीं होगी.
भगवान की दृष्टि में जाति-पांति, कुल -शील आदि कोई चीज नहीं
है. केवल प्रेम चाहिए, प्रेम से ही वे मिलते हैं.''
भारतीयता नामवर सिंह
के ही शब्दों में "सवाल यह है कि एक भारतीय लेखक के लिए भारतीयता आज समस्या
क्यों है कहीं यह हमारे मध्यवर्गीय
अपराधबोध का प्रक्षेपण तो नहीं भारतीयता की समस्या को लेकर
सबसे ज्यादा परेशान वह लेखक दिखते हैं जो इस अपराधबोध से सबसे ज्यादा ग्रस्त हैं.
शायद मूल पाप वह है जब भारत ने पहले पहल पश्चिम के ज्ञान का फल चखा. भारत को एकाएक
यह एहसास हुआ कि वह पूर्व है पश्चिम से भिन्न
है और एक भारतीय को पहली बार यह महसूस करना पड़ा कि वह वस्तुतः भारतीय होना
है. भारतीयता अचानक एक समस्या हो गई. अब सहज रूप से भारतीय होना सम्भव न रहा. एक
जमाना था जब हर कलाकार को सहज रूप से भारतीय होने की स्वतंत्राता थी. रवीन्द्रनाथ
ठाकुर ने यह कहा था तो वह अतीत की एक मधुर स्मृति होने के साथ ही वर्तमान की कटु
अनुभूति भी थी.""इतिहास की यह भी एक विडंबना ही है कि जिस पश्चिम ने पुरातन भारत को मारकर उसे दपफन किया
उसी ने बाद में अस्थि-पंजर की खुदाई करके इतिहास से परिचित कराने का दम भी भरा.
समस्यामूलक भारतीयता वस्तुतः इसी उपनिवेशवाद
की सन्तान है और इसी कारण मूलतः उपनिवेशवादी विचारप्रणाली का एक अंग भी-एक ऐसी
मिथ्या चेतना जिसकी अभिव्यक्ति बंकिमचन्द्र से अब तक अनेक रूपों में हुई है.
पश्चिम के द्वारा भारत जैसे भारतीय होने के लिए अभिशप्त था. पश्चिम की चुनौती के
सम्मुख भारतीय होने का हर संभव प्रयत्न एक प्रकार की मिथ्या चेतना बनता गया,
क्योंकि भारतीय होने की हर अदा पश्चिम द्वारा निर्धारित थी.
स्वर्णिम अतीत का गौरवबोध हो या फिर भविष्य में उस अतीत के प्रत्यावर्तन की आशा,
पश्चिम के भौतिकवाद के विरुद्ध भारत के अध्यात्मवाद का औचित्य
स्थापन हो या पाश्चात्य परिवर्तनशीलता के विपरीत अपनी स्थिरता का आत्मतोष- भारतीय
मनीषा द्वारा निर्मित सारे सुरक्षा कवच, वस्तुनिष्ठ रूप से
उपनिवेशवादी विचारप्रणाली के ही अस्त्रा साबित हुए. विडंबना यह है कि जातीय
अस्मिता के ये सारे प्रयत्न आत्मोपार्जित प्रतीत होते थे जबकि सचमुच वे पश्चिम
प्रदत्त थे. दृष्टि इस बात की ओर नहीं गई कि स्वयं पश्चिम और पूर्व की इस द्वैधता
में ही मिथ्या चेतना अन्तर्निहित है."
क्यों है कहीं यह हमारे मध्यवर्गीय
अपराधबोध का प्रक्षेपण तो नहीं भारतीयता की समस्या को लेकर
सबसे ज्यादा परेशान वह लेखक दिखते हैं जो इस अपराधबोध से सबसे ज्यादा ग्रस्त हैं.
शायद मूल पाप वह है जब भारत ने पहले पहल पश्चिम के ज्ञान का फल चखा. भारत को एकाएक
यह एहसास हुआ कि वह पूर्व है पश्चिम से भिन्न
है और एक भारतीय को पहली बार यह महसूस करना पड़ा कि वह वस्तुतः भारतीय होना
है. भारतीयता अचानक एक समस्या हो गई. अब सहज रूप से भारतीय होना सम्भव न रहा. एक
जमाना था जब हर कलाकार को सहज रूप से भारतीय होने की स्वतंत्राता थी. रवीन्द्रनाथ
ठाकुर ने यह कहा था तो वह अतीत की एक मधुर स्मृति होने के साथ ही वर्तमान की कटु
अनुभूति भी थी.""इतिहास की यह भी एक विडंबना ही है कि जिस पश्चिम ने पुरातन भारत को मारकर उसे दपफन किया
उसी ने बाद में अस्थि-पंजर की खुदाई करके इतिहास से परिचित कराने का दम भी भरा.
समस्यामूलक भारतीयता वस्तुतः इसी उपनिवेशवाद
की सन्तान है और इसी कारण मूलतः उपनिवेशवादी विचारप्रणाली का एक अंग भी-एक ऐसी
मिथ्या चेतना जिसकी अभिव्यक्ति बंकिमचन्द्र से अब तक अनेक रूपों में हुई है.
पश्चिम के द्वारा भारत जैसे भारतीय होने के लिए अभिशप्त था. पश्चिम की चुनौती के
सम्मुख भारतीय होने का हर संभव प्रयत्न एक प्रकार की मिथ्या चेतना बनता गया,
क्योंकि भारतीय होने की हर अदा पश्चिम द्वारा निर्धारित थी.
स्वर्णिम अतीत का गौरवबोध हो या फिर भविष्य में उस अतीत के प्रत्यावर्तन की आशा,
पश्चिम के भौतिकवाद के विरुद्ध भारत के अध्यात्मवाद का औचित्य
स्थापन हो या पाश्चात्य परिवर्तनशीलता के विपरीत अपनी स्थिरता का आत्मतोष- भारतीय
मनीषा द्वारा निर्मित सारे सुरक्षा कवच, वस्तुनिष्ठ रूप से
उपनिवेशवादी विचारप्रणाली के ही अस्त्रा साबित हुए. विडंबना यह है कि जातीय
अस्मिता के ये सारे प्रयत्न आत्मोपार्जित प्रतीत होते थे जबकि सचमुच वे पश्चिम
प्रदत्त थे. दृष्टि इस बात की ओर नहीं गई कि स्वयं पश्चिम और पूर्व की इस द्वैधता
में ही मिथ्या चेतना अन्तर्निहित है."
साभार
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