शनिवार, 11 अगस्त 2012

समाजवाद में मूल्य का नियम-2


राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था का संतुलित (सानुपातिक) विकास नियम भी इसी दिशा में काम करता है जिसने उत्पादन में प्रतियोगिता और अराजकता को समाप्त कर दिया है।
हमारी वार्षिक और पंचवर्षीय योजनाएँ भी इसी दिशा में काम करती हैं, जिनकी आर्थिक नीतियाँ आमतौर पर राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था के संतुलित विकास नियम की आवश्यकताओं पर आधारित हैं।
सब मिलाकर परिणाम यह है कि हमारे देश में मूल्य नियम परिचालन का प्रभाव क्षेत्र सीमित है और इसलिए हमारी व्यवस्था में मूल्य नियम उत्पादन का नियामक नहीं बन सकता।
सचमुच यही उस ज्वलंत तथ्य की व्याख्या है कि हमारे देश में इसके बावजूद कि समाजवादी उत्पादन का अनवरत तेज विकास अति उत्पादन का संकट पैदा नहीं करता, वहीं पूँजीवादी देशों में जहाँ इसी मूल्य नियम का प्रभाव-क्षेत्र व्यापक है, उत्पादन के धीमा विकास के बावजूद समय-समय पर अति उत्पादन का संकट पैदा करता है।
कहा गया है कि मूल्य नियम एक ऐसा चिर स्थायी कानून है जो ऐतिहासिक विकास की सही अवधि में लागू होता है। यहाँ तक कि कम्युनिस्ट में भी यह बिल्कुल सच नहीं है। मूल्य नियम की तरह मूल्य भी एक ऐतिहासिक श्रेणी है जिसका सम्बंध माल उत्पादन के अस्तित्व के साथ जुड़ा है। माल उत्पादन के विलुप्त होने के साथ ही मूल्य और इसका स्वरूप तथा मूल्य नियम भी विलुप्त हो जाएगा।
समाजवादी समाज के दूसरे चरण में उत्पादित सामानों पर खर्च किए गए श्रम की गणना मोटा मोटी अनुमानित तरीके से इसके मूल्य और परिणाम के आधार पर नहीं किया जाएगा, जैसा माल उत्पादन प्रक्रिया के अंदर होता है, बल्कि उत्पादित सामानों पर सीधे और तुरन्त खर्च किए गए समय के परिमाण और उसके घंटो की संख्या के आधार पर किया जाएगा। चूँकि श्रम विभाजन, उत्पादन की विभिन्न प्रशाखाओं में इसका वितरण मूल्य नियम से विनियमित नहीं होगा क्योंकि जब तक इसका परिचालक बंद हो गया रहेगा, बल्कि यह सामानों के लिए समाज की बढ़ती माँगों से विनियमित होगा। तब समाज की निरंतर बढ़ती आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पादन प्रक्रिया संचालित होगी। यह ऐसा समाज होगा जब उत्पादन का नियमन समाज की आवश्यकताओं द्वारा होगा। इस तरह समाज की आवश्यकताओं का आकलन करना हमारे योजना निकायों के लिए सबसे बड़े महत्व का कार्य हो जाएगा।
यह अवधारणा भी पूर्णतः गलत है कि हमारी वर्तमान आर्थिक व्यवस्था के अंतर्गत साम्यवादी समाज के प्रथम चरण में उत्पादन की विभिन्न प्रशाखाओं में श्रम विभाजन के अनुपात का निर्धारण मूल्य नियम द्वारा होता है।
अगर यह सच होता तो यह समझ पाना कठिन होता कि आखिर हमारे हल्के उद्योंगों, जो काफी लाभदायक हैं, को पूरी तरह क्यों नहीं विकसित किया जा रहा है, जबकि भारी उद्योगों को प्राथमिकता दी जा रही है जो कम लाभ देने वाले हैं और कुछ तो बिल्कुल घाटे पर चल रहे हैं।
अगर यह सच होता तो इसे भी नहीं समझा जा सकता था कि हमारे अनेक भारी उद्योगों संयंत्रों, जो अभी भी लाभदायक नहीं है, और जहाँ मजदूरों के श्रम का समुचित रिटर्न भी नहीं आता है, को बंद क्यों नहीं कर दिया जाता और उसकी जगह हल्का उद्योग संयंत्रों जो निश्चिय यही लाभदायक होते और जहाँ मजदूरों के श्रम का रिटर्न काफी बड़ा आता, क्यों नहीं चालू कर दिया जाता है?
अगर यह सच होता तो इसे भी समझना मुश्किल होता कि ऐसे संयंत्रों से, जो कम लाभदायक हैं (यद्यपि हमारी अर्थ व्यवस्था के लिये आवश्यक हैं) मजदूरों का स्थानांतरण ऐसे संयंत्रों के क्यों नहीं कर दिया जाता जो मूल्य नियम के मुताबिक ज्यादा लाभदायक हैं और जिनके बारे में माना जाता है कि वह (अर्थात मूल्य नियम) उत्पादन की विभिन्न प्रशाखाओं के बीच श्रम विभाजन का अनुपात निर्धारित करता है।
यह स्पष्ट है कि अगर हम इन कामरेडों का नेतृत्व मान लें तो उपभोक्ता सामानों के उत्पादन के पक्ष में उत्पादन के साधनों के उत्पादन की प्राथमिकता देना हमें रोक देना चाहिए। लेकिन इसका क्या परिणाम होगा जब उत्पादन के साधनों के उत्पादन की प्राथमिकता समाप्त कर दी जाएगी? परिणाम होगा राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था के निरंतर विकास की संभावनाओं को बर्बाद कर देना क्योंकि उत्पादन के साधनों के बगैर उत्पादन के राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था का निरंतर विकास एवं विस्तार नहीं किया जा सकता।
ये कामरेड भूल जाते हैं कि मूल्य नियम केवल पूँजीवाद में उत्पादन का नियामक होता है जहाँ उत्पादन साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व, उत्पादन अराजकता और अति उत्पादन का संकट होता है। वे भूलते हैं कि हमारे देश में उत्पादन साधनों पर सामाजिक स्वामित्व और संतुलित राष्ट्रीय विकास नियम दरअसल मूल्य नियम के प्रभाव क्षेत्र को सीमित करते हैं और हमारे वार्षिक एवं पंचवर्षीय योजनाओं के प्रावधान तदनुसार बने हैं भी, मूल्य नियम के प्रभाव को कटाते हैं।
कुछ कामरेड इससे यह नतीजा निकालते हैं कि राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था का संतुलित विकास नियम और अर्थ नियोजन उत्पादन की लाभदायकता को ही अभिशून्य का देते हैं। यह बिल्कुल सच नहीं है। बल्कि बात उल्टी है। अगर लाभदायकता को प्रत्येक प्लांट और प्रत्येक उद्योग के साथ अलग-अलग नहीं देखें, बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्रीय विकास को दृष्टि में रखते हुए आगामी दस वर्षों को देखें, जो इस मुद्दे पर सही दृष्टिकोरण होगा, तो तात्कालिक और क्षणिक लाभदायकता का प्रश्न नीचे चला जाएगा। राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था के संतुलित विकास नियम और तदनुसार अर्थ नियोजन ;म्बवदवउपब च्संददपदहद्ध से अपेक्षाकृत ऊँचा विकास सुनिश्चित होता हैं और इस राष्ट्र को नुकसान पहुँचाने वाले सामाजिक आर्थिक संकटों से बचते हैं।
संक्षेप में, निःसंदेह यह कहा जा सकता है कि हमारे समाजवादी उत्पादन की वर्तमान अवस्था में उत्पादन की विभिन्न प्रभाखाओं के बीच श्रम विभाजन का ‘अनुपात-नियामक’ मूल्य का नियम कभी नहीं बन सकता।

क्रमश:
अनुवादक- सत्य नारायण ठाकुर

आज जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है और आर्थिक संकट का समाधान नहीं हो पा रहा हैसमाजवादी अर्थ तंत्र के विशेषज्ञ जोजेफ स्तालिन ने अपनी अंतिम रचना में समाजवादी अर्थतंत्र के समस्यायों के निदान के सम्बन्ध में चर्चा की थीइस पुस्तक को जोसेफ स्तालिन के मरने के बाद पुन: प्रकाशित नहीं होने दिया गया थाइस पुस्तक का अनुवाद श्री सत्य नारायण ठाकुर ने किया है जिसके कुछ अंश: यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैंआप के सुझाव विचार सादर आमंत्रित हैं
-सुमन

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