बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

देश में गुम होती हिन्दी

 इस बात को पढ़कर या जानकर ख़ुशी होती है, कि हमारी हिन्दी को विश्व स्तर तक पहुंचाने अर्थात उसे विश्व स्तरीय बनाने की मुहीम जोर-शोर से चल रही है। विदेश मंत्रालय इस ओर अपनी गंभीर भूमिका दिखाते हुए विष्व स्तर पर हिन्दी को एक सम्माननीय दर्जा दिलाने की ओर प्रयासरत है। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषाओँ  में शामिल करने के प्रस्ताव के साथ ही विदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार, हिन्दी वेबसाइटों के संचालन तथा विदेशों में हिन्दी सम्मेलनों के आयोजन जैसे प्रयास द्वारा विदेश मंत्रालय हिन्दी के उत्थान को लेकर अपनी एक अहम भूमिका अदा कर रहा है। साथ ही विश्व के विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी हिन्दी को शामिल किया जा रहा है। मगर दूसरी ओर अपनी ही भूमि, अपनी ही मिट्टी में हिन्दी का रंग फीका पड़ता दिखता है। यह कहने में तो बड़ा अच्छा लगता है और गर्व से हमारी छाती चैड़ी भी हो जाती है कि हिन्दी विश्व में दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है और पूरे विश्व में 340 से 500 मिलियन लोग हिन्दी बोल सकते है साथ ही 800 मिलियन लोग हिन्दी समझ सकते है। मगर जब मैं अपने ही देश में हिन्दी से अपने मास मीडिया स्नातक की बात बताती हूँ तो हिन्दी शब्द  सुनते ही लोगों की प्रतिक्रिया में तुरंत ही बदलाव आ जाता है। एक क्षण में ही लोगों की नज़रो में मैं खुद को अदना सा महसूस करने लगती हूँ । आज हमारे देश में हिन्दी शब्द का समावेश ही किसी को अदना बताने के लिए काफी माना जाता है। अब इसे अपने देश की विडंबना कहे या देश की शर्मनाक स्थिति।
पिछले दिनों पूरे देश में और देश के बाहर भी हिन्दी पखवाड़ा मनाया गया। परिचर्चाएं, भाशण,गोश्ठियों जैसे कार्यकमों का अंबार लगा रहा। इसे देखते हुए एक हिन्दी भाशी को तो गौरवान्वित होना चाहिए, गर्व से उसकी छाती भी चैड़ी हो जानी चाहिए। मगर मुझे ना किसी गर्व का अनुभव हुआ ना ही गर्व से मेरी छाती चैड़ी हुई। एक कड़वी वास्तविकता के आगे दो दिनों की यह चमक-धमक फीकी ही लगती है- ‘चार दिन की चांदिनी फिर अंधेरी रात‘। वर्तमान परिदृष्य में हिन्दी की सच्चाई कुछ यही बंया करती है। साल के एक पखवाड़े में हिन्दी को ‘ओन स्क्रीन‘ लाकर फिर उसे ‘बैक स्टेज‘ की तरफ ढकेल देना उसे अपमानित करने से कम नहीं है।
बहरहाल, जिस प्रकार हमारे देश में आम आदमियों,मध्यम वर्गीय लोगों खासकर गरीबों को अपने अधिकारों के लिए हर मोड़ पर संघर्श का सामना करना पड़ता है, उसी प्रकार हिन्दी भी अपने अस्तिव को लेकर हर मोड़ पर संघर्श के पुलिंदो से घिरी दिखती है। आखिर हिन्दी देश के आम आदमियों का प्रतिनिधित्व जो करती है। जाहिर सी बात है फिर आम आदमी के साथ उसे भी संघर्श में खड़ा होना ही पड़ेगा। अब चाहे 1884 में शिव प्रसाद सितारे हिन्द द्वारा हिन्दी को विष्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में षामिल करने के संघर्श की ही बात क्यों ना की जाए, जिसकी शुरूआत  कलकत्ता के ‘फोर्ट विल्यिम‘ कालेज में हुई और जहां ‘लालू लाल एंव सदल मिश्र‘ अध्यापक के रूप में नियुक्त किए गए। इस संघर्ष में हिन्दी को उर्दू के प्रभुत्व के आगे अपने अस्तिव की लड़ाई के लिए जद्दोजहद करना पड़ा। हालांकि शिव प्रसाद सितारे हिन्द उर्दू और हिन्दी दोनों को साथ लेकर चलना चाहते थे। मगर लक्ष्मण सिंह ने हिन्दी को उर्दू से अलग कर संस्कृत निष्ठ हिन्दी का समर्थन किया। इस बात से वाकि़फ होते हुए भी कि संस्कृत निष्ठ हिन्दी आम जन के करीब ना होकर एक कृत्रिम हिन्दी बनकर रह जाएगी, हिन्दी को संस्कृत के ताम-झाम में रखा गया। हालांकि लक्ष्मण सिंह और उनके समर्थकों का मानना था कि इससे हिन्दी का स्तर बढ़ेगा। मगर हिन्दी के उच्च स्तर के चक्कर में हमारे सामने एक कृत्रिम हिन्दी परोस दी गई। यहां तक कि राजभाषा आयोग के गठन के दौरान भी हिन्दी के उत्थान के लिए यही फ़ॉर्मूला रचा गया जिसका परिणाम आज हमारे सामने है। इसके लिए हमें ज्यादा कुछ नहीं बल्कि सिर्फ सरकारी दफ्तरों एवं उनके हिन्दी कामकाज पर एक दफा निगाह डालने की जरूरत है, जिसे पढ़ते ही हमारा सर चकरा जाए। अब ‘इंजीनियर‘ की जगह ‘अभियंता‘ शब्द का प्रयोग किसी को भी फेरे में डाल दे। हिन्दी की ऐसी क्लिश्टता उसे आम जन से दूर ले जाने और उसे मज़ाक का जरिया बनाने का काम ही करती है। हिन्दी की बदकिस्मती सिर्फ यही नही रही, सबसे दुखद बात तो यह रही कि हिन्दी के उत्थान के लिए चले आंदोलन में लोग हिन्दी के विस्तार की बात को कोने में रखकर अपने अपने हितों में लग गए। इसी क्रम में हिन्दी आंदोलन कब हिन्दू आंदोलन में तब्दील कर दिया गया पता ही नहीं चला। हिन्दी को अपनी जगह बनाने के संघर्श के आंदोलन में हिन्दू और मुस्लिम के बीच एक संघर्श खड़ा कर दिया गया। जिसमें भारतेन्दु हरिषचन्द्र, राजा राममोहन राय, लक्ष्मण सिंह की भूमिका की बात कही जाए तो गलत नहीं होगी। हिन्दी के लिए तो सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि हिन्दी को राजभाशा बनाने और उसके उत्थान के लिए संघर्श की शुरूवात जिस व्यक्ति, शिव प्रसाद सितारे हिन्द ने की उनकी जगह हिन्दी साहित्य में सारा श्रेय भारतेन्दु हरिशचन्द्र को दे दिया गया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी हिन्दी साहित्य का जो इतिहास लिखा उसमें सारा श्रेय भारतेन्दु हरिशचन्द्र को ही दिया। जे.एन.यू के हिन्दी विभाग के प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने अपनी किताब ‘रस्साकशी ‘ में हिन्दी आंदोलन की कुछ ऐसी ही राजनीति की पोल खोलने का काम किया है।
इसके साथ ही हमारे देश में भाषा  की संर्कीण क्षेत्रीय राजनीति भी हिन्दी के विकास या विस्तार की एक और बाधा रही है। दक्षिण भारत में हिन्दी विरोधी लहर ने साफ दर्षा दिया कि हिन्दी को उनपर थोपा नहीं जा सकता। जाहिर सी बात है हिन्दी के विकास के नाम पर किसी की संवेदना को आहत नहीं किया जा सकता। इस कारण भी हम फ्रांस, जापान, चीन जैसे देशों से खुद की तुलना नहीं कर सकते। उन देशों में एक भाषा की प्रभुता होने के कारण पूरे देष में एक ही भाशा का साम्राज्य है। मगर भाशा की विविधता की बात कहते हुए अंग्रेजी का गुलाम होना कोई वाहवाही की बात नहीं है। किसी विदेषी भाशा का तमगा धारण करने से बेहतर अपने देष, अपनी संस्कृति से जुड़ी भाशा के साथ चला जाए। हमारे संविधान में यह प्रावधान है कि ‘देश के सभी सरकारी दफ्तरों में हर रोज वहां काम कर रहे कर्मचारियों को हिन्दी का एक नया शब्द सिखाया जाएगा‘। मगर देखा जाए तो शायद ही किसी दफ्तर में इस नियम का पालन होता है।
अंग्रेजी की चकाचैंध में हिन्दी की धूमिल होती छवि किसी गंभीर विचारणीय विशय से कम नहीं है। हमारे संविधान में केन्द्र सरकार के कामकाज के लिए प्रारंभ में 15 साल तक हिन्दी के साथ अंग्रेजी के प्रयोग की छूट दी गई थी, मगर वह 15 साल तो कबके गुज़र गए और अंग्रेजी की जगह हिन्दी को स्थान मिलने की जगह अंग्रेजी का आधिपत्य अधिकाधिक होता गया। आज यदि लड़की की षादी करनी है तो दहेज के साथ-साथ उसके अंग्रेजी बोल पाने में सक्षम होने की भी मांॅग होने लगी है, भले ही उसके ससुराल वाले उसे घर से बाहर नौकरी करने ना दे। घर की बहू का अंग्रेजी आना उनके रूतबे का कारण बन जाता है। अब जिस देष में इतने खुले और विकृत रूप में अपनी राश्टभाशा की अवहेलना की जा रही हो वहां साल में मनाया जाने वाला पखवाड़ा कुछ ऐसा ही लगता जैसे हमारे यहां किसी की मृत्यु के बाद हम हर साल एक दिन उसकी षोक सभा में उसे याद कर अगले तक के लिए उसे भुला देते हंै। हिन्दी पखवाड़े में षामिल अमूमन लोग भी कार्यक्रम से निकलने के साथ खुद को अंग्रेजी की चादर में लपेट लेते है।  हिन्दी की वर्तमान स्थिति को देखकर तो यही लगता है कि इस देष में हिन्दी बोलने वाले षर्मषार होते रहेंगे और अंग्रेजी बोलने वाले की छाती षान से चैड़ी होती रहेगी।

 -इति शरण

1 टिप्पणी:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

हिन्दी की सेवा मे हम सब अपने अपने तरीके से लगे है ... चिंता न करें ऐसी नौबत नहीं आएगी कि भारत मे हिन्दी ही गुम हो जाये !



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