क्या धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता घोषित करने वाली अवामी लीग के नेतृत्व वाली बांगलादेश की सरकार पिछले दरवाजे से शरीया कानून को लागू करने की योजना बना रही है? अगर हम जमाते इस्लामी संगठन को चेतावनी देते हुए अपनी पार्टी की केन्द्रीय कार्यसमिति में शेख हसीना द्वारा दिए वक्तव्यों को सुनें तो यही ध्वनि सुनाई दे सकती है। गौरतलब है कि अपनी पार्टी की उपरोक्त बैठक में शेख हसीना ने वक्तव्य दिया कि वह शरीया कानून को लागू कर सकती हैं और ॔किसास’ के तहत जमात के कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई कर सकती हैं।
मालूम हो कि पिछले दिनों जमात के कार्यकर्ताओं ने बांगलादेश की राजधानी ाका एवं देश के अन्य हिस्सों में उग्र हिंसक प्रदशर्न किए थे। इन प्रदशर्नों का मकसद था बांगलादेश के मुक्तिसंग्राम के दिनों में पाकिस्तानी हुकूमत का साथ देने वाले जमात के नेताओं पर चल रहे मुकदमों का विरोध करना। भले ही शेख हसीना के समर्थक यह दावा करें कि अपनी पार्टी फोरम में दिए उनके इस वक्तव्य को गम्भीरता से नहीं लिया जाए, मगर वे सभी लोग जो जनतंत्र के हिमायती हैं और दैवी धर्म और जमीनी राजनीति में स्पष्ट भेद चाहते हैं, वे बेहद चिन्तित हैं। इसकी वजह साफ है कि इसी अवामी लीग ने संविधान के 15 वें संशोधन पर मुहर लगा कर राज्य के इस्लामिक स्वरूप पर अपनी सहमति दर्ज करा दी, जिस एजेण्डा को बांगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी एवं जातीय पार्टी ने आगे ब़ाया था। इतना ही नहीं लोग इस बात को नहीं भूले हैं कि इसी अवामी लीग ने वर्ष 2007 के उत्तरार्द्ध में बांगलादेश में इस्लामिक कानून लागू करने के लिए खिलाफत आन्दोलन के साथ लिखित समझौता किया था। राजनैतिक अवसरवाद, किसी भी राजनैतिक पार्टी में किस किस्म के विचारधारात्मक विचलन पैदा कर सकता है, इसका यह एक उदाहरण था।
प्रस्तुत घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए ॔न्यू एज’ (19 नवम्बर 2012) का सम्पादकीय कहता है कि जबकि सभी जनतांत्रिक ताकतें एवं लोग प्रधानमंत्री के बयान से चिन्तित दिखते हैं, जो जमातए-इस्लामी के खिलाफ दिए गए हैं, मगर प्रधानमंत्री शेख हसीना की यह चेतावनी जमात एवं अन्य इस्लामिक पार्टियों को जरूर खुश करती दिखती है क्योंकि जमात एवं अन्य समानधर्मा संगठन कई दशकों से इसी बात के लिए प्रयत्नशील हैं कि वहाँ शरीया लागू हो।’ वह इस बात पर भी जोर देता है कि जहाँ तक जमात की ज्यादतियों का सवाल है तो उन पर कार्रवाई होनी ही चाहिए तथा जमात के आरोपी नेताओं पर मुकदमे चलने ही चाहिए, मगर उसके लिए बांगलादेश के वर्तमान कानून काफी हैं, शरीअत की जरूरत नहीं है।
वैसे बांगलादेश का यह घटनाक्रम अर्थशास्ति्रयों, समाजविज्ञानियों एवं नीतिनिर्धारकों को भी जरूर चिन्तित कर सकता है। याद रहे कि विगत कुछ वर्षों में वहाँ आ रहे बदलावों को लोग बेहद उम्मीद के साथ देख रहे थे। कुछ समय से स्थाई हुई 56 फीसदी की उसकी आर्थिक विकास की दर को अर्थशास्ति्रयों ने ॔विकास का करिश्मा’ कह कर सम्बोधित किया था। वहाँ सार्वजनिक दायरे का विस्तार, सार्वजनिक क्षेत्रों में महिलाओं का बड़ी तादाद में पहुँचना, राजनैतिक, सामाजिक संगठनों की अगुआई में चल रहे सामाजिक अभियान और सबसे महत्वपूर्ण इस्लामिक आतंकवादियों पर नकेल डालने के मामले में उसे मिली सफलता, सभी कुछ उसे एक अलग श्रेणी में रखता प्रतीत होता था। हकीकत है कि इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के पूर्वार्द्ध में बांगलादेश कई मायनों में आज के पाकिस्तान का प्रतिबिम्ब प्रतीत होता था। इस्लामिक आतंकवादियों का जोर इस कदर ब़ा था कि बांगलादेश की मुक्ति के लिए लड़े विचारकों को लगने लगा था कि ॔शोनार बांगला’ का सपना हमेशा के लिए काफूर हो गया।
मालूम हो कि वहाँ सबकुछ ठीक नहीं है, इसके संकेत पहले से ही मिल रहे थे। लगभग डे साल पहले अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइटस वाच ने बांगलादेश सरकार को यह सलाह दी थी कि वह धार्मिक फतवों और विवादों के समाधान के नाम पर जारी पारम्पारिक तरीकों के चलते कानून के दायरे के बाहर जाकर लोगों को दिए जा रहे दण्ड को रोकने के लिए कदम ब़ाए। ;भ्नउंद त्पहीजे ँजबीए श्रनसल 6ए 2011द्ध संस्था की तरफ से बताया गया कि जुलाई 2010 में बांगलादेश की सुप्रीम कोर्ट ने चाबुक से पीटना, सार्वजनिक तौर पर अपमानित करना जैसी अवैध सजाओं पर जो पाबन्दी लगाई थी उसे रोकने में भी सरकार असफल रही है।
मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट का उपरोक्त फैसला बांगलादेश के सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा डाली गई अपील के जवाब में आया था, जिसमें उन्होंने अदालत को सूचित किया था कि हाल के वर्षों में ऐसे फतवों में ब़ोत्तरी हुई थी और उसकी अभिव्यक्ति अधिक हिंसक हुई है और वह उन इलाकों में भी फैलती दिख रही है जहाँ धार्मिक नेताओं की पहले कोई भूमिका नहीं दिखती थी। बांगलादेश महिला परिषद आदि संगठनों ने सरकार पर इस बात के लिए भी जोर डाला था कि वह फतवे को रोकने के लिए एवम स्ति्रयों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाए। दरअसल फतवे से जुड़ी हिंसा इतनी भयंकर थी कि बांगलादेश महिला परिषद द्वारा संग्रहीत आँकड़ों के हिसाब से 2002 में 39 महिलाएँ मार दी गईं, 2003 में 44 स्ति्रयाँ इसका शिकार हुईं, 2004 में 59, 2006 में 66, 2007 में 77, 2008 में 21 तो 2009 में 48 महिलाओं की जीवनलीला फतवाजनित हिंसा में समाप्त हुई थी।
इसके कुछ समय बाद बांगलादेश की संसद ने एक ऐतिहासिक निर्णय में राजनीति में धर्म के प्रयोग पर लगे
संवैधानिक प्रतिबन्धों को हटाने एवं इस्लामिक पार्टियों के कामकाज को जारी रखने पर अपनी मुहर लगा दी। ध्यान रहे कि दो साल पहले बांगलादेश के उच्च न्यायालय ने संविधान के पाँचवें संशोधन को खारिज किया था, जिसने राजनीति में धार्मिक पार्टियों के हस्तक्षेप को सुगम बनाया था, और ऐलान किया था कि बांगलादेश अब फिर एक बार सेक्युलर राज्य बन गया है। यह अलग बात है कि सियासी हालात ऐसे थे कि सरकार ने अदालती आदेश के मद्देनज़र इस्लामिक पार्टियों को प्रतिबन्धित करने की दिशा में कदम नहीं ब़ाए थे।
विडम्बना यही कही जाएगी कि विधेयक पेश करते हुए कानून मंत्री ने कहा था कि बुनियादी अधिकारों, राज्य नीति के बुनियादी सिद्घान्तों के माध्यम से वे दरअसल 1972 के संविधान की सारवस्तु को बहाल करना चाहते हैं। दूसरी तरफ संशोधन
धार्मिक आस्था पर बनी राजनैतिक पार्टियों के कामकाज को जारी रखने और संविधान की प्रीएम्बल में ॔बिस्मिल्लाह’ शब्द को बनाए रखने तथा इस्लाम को राज्य का धर्म घोषित करता है, जो 1972 के संविधान से अनुपस्थित थे और जो बांगलादेश की मुक्तियुद्ध की
धर्मनिरपेक्षजनतांत्रिक भावना के खिलाफ थे।
यह अकारण नहीं था कि संसद में इस बिल पर चर्चा के दौरान जातीय समाजतांत्रिक दल और वर्कर्स पार्टी के सदस्यों ने इन प्रतिबन्धों को हटाने का पुरजोर विरोध किया और 1972 के संविधान द्वारा लादे गए प्रतिबन्धों को बनाए रखने की माँग की। बांगलादेश की मुक्ति के बाद लागू 1972 का संविधान बिल्कुल स्पष्ट था। उसकी धारा 38 के मुताबिक ॔॔किसी भी व्यक्ति को किसी साम्प्रदायिक संगठन या यूनियन का गठन करने, उसका सदस्य होने या ऐसे संगठनों की गतिविधियों में शामिल होने का अधिकार होगा जो धर्म के नाम पर या उसके आधार पर एक राजनैतिक मकसद हासिल करने में मुब्तिला हैं।’’
ध्यान रहे कि जमीनी स्तर पर चीजें कैसे बदल रही हैं इसे चन्द घटनाओं से भी जाना जा सकता था। ाका के पास एक संस्था में कार्यरत एक महिला को जब किसी ने इस बात के लिए टोका कि वह अपना पोशाक बदले और रहनसहन ठीक करे क्योंकि वह ॔॔असली इस्लाम’’ नहीं है तब उसने पलट कर पूछा था ॔॔क्या इसका मतलब सदियों से हमारे पुरखे और उसके पहले उनके पुरखे और उसके पहले वे लोग जिन्होंने इस्लाम को हम तक पहुँचाया क्या वे सभी गलत थे? हम कैसे जान सकते हैं कि आप जिस बात की शिक्षा दे रहे हैं वह भी गलत नहीं है।?’’
-सुभाष गाताडे
मालूम हो कि पिछले दिनों जमात के कार्यकर्ताओं ने बांगलादेश की राजधानी ाका एवं देश के अन्य हिस्सों में उग्र हिंसक प्रदशर्न किए थे। इन प्रदशर्नों का मकसद था बांगलादेश के मुक्तिसंग्राम के दिनों में पाकिस्तानी हुकूमत का साथ देने वाले जमात के नेताओं पर चल रहे मुकदमों का विरोध करना। भले ही शेख हसीना के समर्थक यह दावा करें कि अपनी पार्टी फोरम में दिए उनके इस वक्तव्य को गम्भीरता से नहीं लिया जाए, मगर वे सभी लोग जो जनतंत्र के हिमायती हैं और दैवी धर्म और जमीनी राजनीति में स्पष्ट भेद चाहते हैं, वे बेहद चिन्तित हैं। इसकी वजह साफ है कि इसी अवामी लीग ने संविधान के 15 वें संशोधन पर मुहर लगा कर राज्य के इस्लामिक स्वरूप पर अपनी सहमति दर्ज करा दी, जिस एजेण्डा को बांगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी एवं जातीय पार्टी ने आगे ब़ाया था। इतना ही नहीं लोग इस बात को नहीं भूले हैं कि इसी अवामी लीग ने वर्ष 2007 के उत्तरार्द्ध में बांगलादेश में इस्लामिक कानून लागू करने के लिए खिलाफत आन्दोलन के साथ लिखित समझौता किया था। राजनैतिक अवसरवाद, किसी भी राजनैतिक पार्टी में किस किस्म के विचारधारात्मक विचलन पैदा कर सकता है, इसका यह एक उदाहरण था।
प्रस्तुत घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए ॔न्यू एज’ (19 नवम्बर 2012) का सम्पादकीय कहता है कि जबकि सभी जनतांत्रिक ताकतें एवं लोग प्रधानमंत्री के बयान से चिन्तित दिखते हैं, जो जमातए-इस्लामी के खिलाफ दिए गए हैं, मगर प्रधानमंत्री शेख हसीना की यह चेतावनी जमात एवं अन्य इस्लामिक पार्टियों को जरूर खुश करती दिखती है क्योंकि जमात एवं अन्य समानधर्मा संगठन कई दशकों से इसी बात के लिए प्रयत्नशील हैं कि वहाँ शरीया लागू हो।’ वह इस बात पर भी जोर देता है कि जहाँ तक जमात की ज्यादतियों का सवाल है तो उन पर कार्रवाई होनी ही चाहिए तथा जमात के आरोपी नेताओं पर मुकदमे चलने ही चाहिए, मगर उसके लिए बांगलादेश के वर्तमान कानून काफी हैं, शरीअत की जरूरत नहीं है।
वैसे बांगलादेश का यह घटनाक्रम अर्थशास्ति्रयों, समाजविज्ञानियों एवं नीतिनिर्धारकों को भी जरूर चिन्तित कर सकता है। याद रहे कि विगत कुछ वर्षों में वहाँ आ रहे बदलावों को लोग बेहद उम्मीद के साथ देख रहे थे। कुछ समय से स्थाई हुई 56 फीसदी की उसकी आर्थिक विकास की दर को अर्थशास्ति्रयों ने ॔विकास का करिश्मा’ कह कर सम्बोधित किया था। वहाँ सार्वजनिक दायरे का विस्तार, सार्वजनिक क्षेत्रों में महिलाओं का बड़ी तादाद में पहुँचना, राजनैतिक, सामाजिक संगठनों की अगुआई में चल रहे सामाजिक अभियान और सबसे महत्वपूर्ण इस्लामिक आतंकवादियों पर नकेल डालने के मामले में उसे मिली सफलता, सभी कुछ उसे एक अलग श्रेणी में रखता प्रतीत होता था। हकीकत है कि इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के पूर्वार्द्ध में बांगलादेश कई मायनों में आज के पाकिस्तान का प्रतिबिम्ब प्रतीत होता था। इस्लामिक आतंकवादियों का जोर इस कदर ब़ा था कि बांगलादेश की मुक्ति के लिए लड़े विचारकों को लगने लगा था कि ॔शोनार बांगला’ का सपना हमेशा के लिए काफूर हो गया।
मालूम हो कि वहाँ सबकुछ ठीक नहीं है, इसके संकेत पहले से ही मिल रहे थे। लगभग डे साल पहले अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइटस वाच ने बांगलादेश सरकार को यह सलाह दी थी कि वह धार्मिक फतवों और विवादों के समाधान के नाम पर जारी पारम्पारिक तरीकों के चलते कानून के दायरे के बाहर जाकर लोगों को दिए जा रहे दण्ड को रोकने के लिए कदम ब़ाए। ;भ्नउंद त्पहीजे ँजबीए श्रनसल 6ए 2011द्ध संस्था की तरफ से बताया गया कि जुलाई 2010 में बांगलादेश की सुप्रीम कोर्ट ने चाबुक से पीटना, सार्वजनिक तौर पर अपमानित करना जैसी अवैध सजाओं पर जो पाबन्दी लगाई थी उसे रोकने में भी सरकार असफल रही है।
मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट का उपरोक्त फैसला बांगलादेश के सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा डाली गई अपील के जवाब में आया था, जिसमें उन्होंने अदालत को सूचित किया था कि हाल के वर्षों में ऐसे फतवों में ब़ोत्तरी हुई थी और उसकी अभिव्यक्ति अधिक हिंसक हुई है और वह उन इलाकों में भी फैलती दिख रही है जहाँ धार्मिक नेताओं की पहले कोई भूमिका नहीं दिखती थी। बांगलादेश महिला परिषद आदि संगठनों ने सरकार पर इस बात के लिए भी जोर डाला था कि वह फतवे को रोकने के लिए एवम स्ति्रयों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाए। दरअसल फतवे से जुड़ी हिंसा इतनी भयंकर थी कि बांगलादेश महिला परिषद द्वारा संग्रहीत आँकड़ों के हिसाब से 2002 में 39 महिलाएँ मार दी गईं, 2003 में 44 स्ति्रयाँ इसका शिकार हुईं, 2004 में 59, 2006 में 66, 2007 में 77, 2008 में 21 तो 2009 में 48 महिलाओं की जीवनलीला फतवाजनित हिंसा में समाप्त हुई थी।
इसके कुछ समय बाद बांगलादेश की संसद ने एक ऐतिहासिक निर्णय में राजनीति में धर्म के प्रयोग पर लगे
संवैधानिक प्रतिबन्धों को हटाने एवं इस्लामिक पार्टियों के कामकाज को जारी रखने पर अपनी मुहर लगा दी। ध्यान रहे कि दो साल पहले बांगलादेश के उच्च न्यायालय ने संविधान के पाँचवें संशोधन को खारिज किया था, जिसने राजनीति में धार्मिक पार्टियों के हस्तक्षेप को सुगम बनाया था, और ऐलान किया था कि बांगलादेश अब फिर एक बार सेक्युलर राज्य बन गया है। यह अलग बात है कि सियासी हालात ऐसे थे कि सरकार ने अदालती आदेश के मद्देनज़र इस्लामिक पार्टियों को प्रतिबन्धित करने की दिशा में कदम नहीं ब़ाए थे।
विडम्बना यही कही जाएगी कि विधेयक पेश करते हुए कानून मंत्री ने कहा था कि बुनियादी अधिकारों, राज्य नीति के बुनियादी सिद्घान्तों के माध्यम से वे दरअसल 1972 के संविधान की सारवस्तु को बहाल करना चाहते हैं। दूसरी तरफ संशोधन
धार्मिक आस्था पर बनी राजनैतिक पार्टियों के कामकाज को जारी रखने और संविधान की प्रीएम्बल में ॔बिस्मिल्लाह’ शब्द को बनाए रखने तथा इस्लाम को राज्य का धर्म घोषित करता है, जो 1972 के संविधान से अनुपस्थित थे और जो बांगलादेश की मुक्तियुद्ध की
धर्मनिरपेक्षजनतांत्रिक भावना के खिलाफ थे।
यह अकारण नहीं था कि संसद में इस बिल पर चर्चा के दौरान जातीय समाजतांत्रिक दल और वर्कर्स पार्टी के सदस्यों ने इन प्रतिबन्धों को हटाने का पुरजोर विरोध किया और 1972 के संविधान द्वारा लादे गए प्रतिबन्धों को बनाए रखने की माँग की। बांगलादेश की मुक्ति के बाद लागू 1972 का संविधान बिल्कुल स्पष्ट था। उसकी धारा 38 के मुताबिक ॔॔किसी भी व्यक्ति को किसी साम्प्रदायिक संगठन या यूनियन का गठन करने, उसका सदस्य होने या ऐसे संगठनों की गतिविधियों में शामिल होने का अधिकार होगा जो धर्म के नाम पर या उसके आधार पर एक राजनैतिक मकसद हासिल करने में मुब्तिला हैं।’’
ध्यान रहे कि जमीनी स्तर पर चीजें कैसे बदल रही हैं इसे चन्द घटनाओं से भी जाना जा सकता था। ाका के पास एक संस्था में कार्यरत एक महिला को जब किसी ने इस बात के लिए टोका कि वह अपना पोशाक बदले और रहनसहन ठीक करे क्योंकि वह ॔॔असली इस्लाम’’ नहीं है तब उसने पलट कर पूछा था ॔॔क्या इसका मतलब सदियों से हमारे पुरखे और उसके पहले उनके पुरखे और उसके पहले वे लोग जिन्होंने इस्लाम को हम तक पहुँचाया क्या वे सभी गलत थे? हम कैसे जान सकते हैं कि आप जिस बात की शिक्षा दे रहे हैं वह भी गलत नहीं है।?’’
-सुभाष गाताडे
1 टिप्पणी:
सब की अपनी अपनी परेशानी आम जनता कहाँ सुखी है बंगला देश में राजनीतिक हलचल का अच्छा आलेख लिखा है साझा करने के लिए आभार
एक टिप्पणी भेजें