बुधवार, 30 जनवरी 2013

स्त्री शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे मौलानाआज़ाद

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद स्वाधीनता संग्राम के विशिष्ट सेनानी तो थे ही, अरबी व उर्दू भाषा तथा साहित्य के प्रकाण्डविद्वान भी थे। इस्लाम धर्म के ज़बरदस्त अध्येयता तथा शिक्षाविद् भी। भारतीय कलाओं, भाषा, साहित्य व संस्कृति के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। स्वयं भी वह समर्थ रचनाकार थे और प्रखर पत्रकार भी। देश की आज़ादी के लिये उन्होंने अपनी प्रतिभा व सामथ्र्य का भरपूर इस्तेमाल किया। ग़ुलामों जैसा जीवन जी रही भारतीय, विशेष रुप से मुस्लिम स्त्री की मुक्ति के भी वो ज़बरदस्त हिमायती थे, वह चाहते थे कि उनकी जिन्दग़ी के हालात बदले, वह शिक्षा प्राप्त करें और आगे बढं़े।
    इस मकसद से उन्होंने निबंध इत्यादि तो लिखे ही साथ ही नाटक और कहानी भी लिखे, परन्तु उनके व्यक्तित्व के इस शानदार पक्ष की चर्चा बहुत कम होती है।
    डा0 क़ाज़ी हबीब अहमद का उर्दू में लिखा प्रस्तुत लेख उनके व्यक्तित्व के इस पक्ष पर प्रकाश तो डालता ही है, स्त्री शिक्षा, उनकी जीवन स्थितियों को बदलाने तथा समानता के सिद्धान्त के प्रति उनकी गंभीर चिंता को सामने लाता है।  22 फरवरी को उनकी 55 वीं पुण्य तिथि है।
                                                                                                                                  
    ख़्वातीन की तऱक्की़ और समाज में उसके लिए एक बा-इज़्ज़त मक़ाम बनाने के सिलसिले में मौलाना आज़ाद के ख़यालात बिल्कुल साफ़ और वाज़ेह रहे हैं। उनमें किसी कि़स्म का उलझाव बिल्कुल नहीं पाया जाता. चूंकि मौलाना आज़ाद की शखि़्सयत के कई पहलू थे, वो औरतों के हुकूक़ के लिए ही होकर काम नहीं कर सकते थे। आज़ादी की जद्दो-जहद, सहाफ़त, लिखने-पढ़ने की बेपनाह मस्रूफि़यतों में मौलाना के लिए कौ़म के सुधार की तऱफ तवज्जोह करना मुम्किन न था।
    इसके बावजूद औरतों के हुकूक़ के लिए वक़्तन-फ़वक्तन उनके बयानात और तहरीरों में इ़ज्हारे-बयान की शिद्दत से उनकी फि़क्री सोच का पता चलता है।
    औरतों की तालीम, आजा़दी और हुकू़क़ अलग-अलग उन्वान हैं, जो औरत-मर्द के बराबरी हासिल करने के लिए वसीले और ज़रीए बनते हैं। ळमदकमत न्दइपंेमक तो बहुत बाद की परिभाषा है, लेकिन अस्ल चीज़ औरतों की पसमान्दगी का एहसास है। इस पसमांदगी से निकलने के लिए मौलाना आजा़द और कई दूसरे मुस्लिम रहनुमाओं ने अपने एहसास का इ़ज्हार मुख़्तलिफ़ वसीलों से किया है।
    बराबरी पर मौलाना आजा़द के ख़्यालात जानने से पहले ये निहायत ज़रूरी है कि हम उस दौर की भी स्टडी करें और उस पस-मंज़र को भी नज़र में रखें, जो मौलाना आज़द को बराबर के ह़क पर इ़ज्हारे-ख़याल के लिए मजबूर कर रहा था। 19वीं सदी के आखिर में और 20वीं सदी के शुरू में मुसलमान चिंतकों को औरतों में, खास तौर पर मुसलमान औरतों में समाजी और तालीमी पसमांदगी का एहसास हुआ, तो इज़्हार के जो साधन उनके पास थे, उनको काम में लाकर हरेक ने अपने-अपने अंदाज़ से औरतों में बेदारी का एहसास जगाया। उन्हें उनके हुकूक़ याद दिलाए, मर्दो के साथ कद़म मिला कर चलने का हौसला दिया, डिप्टी नज़ीर अहमद जो उर्दू नाॅवेलनिगारों में सबसे ज़्यादा मुस्लिम समाज के सुधार के लिए फि़क्रमंद नज़र आते हैं, ‘अय्यामी’ और ‘फ़साना-ए-मुब्तला’ में पर्दे के नु़क़्सान, औरतों के दुःख, तालीम की ज़रूरत जैसे विषयों पर कहानियां लिखीं, अब्दुल हलीम शरर का नावेल ‘बदरून्निसा की मुसीबत’ में पर्दे की ख़राबियां बयान कीं, इनके इलावा भी नावेलनिगारों के यहां औरतों के मस्अलों को मौ़जू’ बनाकर औरतों में अपना हक़ मनवाने के लिए संधर्ष करने पर जो़र दिया है। राशिदुल ख़ैरी के नाॅवेलों में औरतों की म़ज्लूमी भी एक शदीद रद्दे-अमल हैं, लेकिन इनमें से किसी ने भी बराबरी की बात नहीं की। औरतों की पसमांदगी इस क़दर बढ़ी हुई थी। लेकिन मौलाना आज़ाद पहले शख़्स हैं जिनके बयानों और तहरीरों में हमें औरत-मर्द की बराबरी का वा़जेह तसव्वुर मिलता है। उनके विचार आईने की तरह साफ़ और चट्टानों की तरह मज़्बूत और अटल हैं। हिचकिचाहट या मस्लहत कभी उनके मिज़ाज का हिस्सा नहीं रहीं। मौलाना आजा़द की एक किताब ‘मुसलमान औरत’ की भूमिका मुलाहजा़ हो, जो अस्ल में फ़रीद वज्दी आफ़न्दी की अरबी किताब का तर्जुमा है।
     ‘‘इस वक़्त तक औरतें इल्मी लज़्ज़त से महज़ ना-आशना हैं और इस तमाम क्लचरल मैदान में मर्दों का क़ब्ज़ा है। इसलिए यह कहना भी सही नहीं कि इनमें मर्दों की तरह दिमाग़ी तरक़्की़ की सलाहियत नहीं है। क्योंकि इस वक़्त तक उन्हें तऱक्की का मौक़ा ही कब दिया गया? आज फि़जियोलाॅजी की तह़कीक़ात ने साबित कर दिया है कि मर्द व औरत दिमा़गी कुव्वतों में बराबर हैं और सुबूत के साथ उन्हें आम आजा़दी भी दे दी है। इसका नतीजा ये है कि यूरोप में कोई काम ऐसा नहीं है, जिसे मर्दो की तरह पश्चिम की औरतें अंज़ाम न देती हों। डाॅक्टर औरतें हैं, प्रोफेसर औरतें हैं और लेक्चरार औरतें हैं। ग़रज़ ये कि हर मैदान में औरतें मर्दों के बराबर तरक़्की कर रही हैं। ये ऩजीर भी बतला रही है कि अगर औरतों को मर्दो की बालादस्ती से नजात मिले और ‘आला तालीम’ से मर्दो की तरह फ़ायदा उठाएं, तो वो किसी च़ीज में मर्दो से कम रुतबा साबित नहीं हो सकतीं।’’
    ये उद्वरण चूंकि किताब की भूमिका से लिया गया है, जो मोैलाना आज़ाद ने खु़द लिखा है। मौलाना आज़ाद की तर्जे़-तहरीर से वाज़ेह है कि किस दो टूक अंदाज में वो औरत-मर्द की बराबरी की हिमायत कर रहे हैं, आम तौर पर जो समझा जाता है कि हर औरत जिस्मानी एतबार से कमजो़र और नाजुक होती है, इसीलिए उन्हें ‘सिन्फे-नाजुक’ भी कहा जाता है, लेकिन मौलाना आजा़द ने इन तमाम बातों को ग़लत सबित किया है। इस उद्वरण में मर्दों की बालादस्ती का लफ़्ज़ भी आया है, जो बहुत बाद में जा कर डंसम क्वउपदंदज ैवबपमजल  की परिभाषा बनी। इससे पता चलता है कि मौलाना आज़ाद अपनी समझ और दूरअंदेशी से मौजूदा ज़माने को नज़र में रखते थे। किताब में मूल लेखक फ़रीद वज्दी ने बडे़ ख़ुलासे से इस मस्अले पर रौशनी डाली है। मोैलाना आज़ाद का नौजवानी का ज़माना था। उनके ख़यालात और तर्जे-अमल में जोश पाया जाता था। अलबत्ता बाद के जमानें में उनके ख़यालात में थोड़ा ठहराव आया।
    मौलाना आज़ाद को पश्चिम और पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति से सख़्त नफ़रत थी औरतों की आज़ादी के नाम पर पश्चिम में जो बेहयाई होती है, वो मौलाना आज़द की नज़रों से पोशीदा नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद वो बराबरी के ह़क में थे। औरतों को मर्दों से किसी भी मुआमले में कमतर समझना ‘हक मारना’ समझते थे। औरतों की आजा़दी के वो इस हद तक हामी थे कि ये हद इस्लामी शरीअत की हद से आगे न जाएं। इस तरह मौलाना आजा़द का नज़रिया भी संतुलित था। वो पुराने रसमो-रवाज़ से कोैम को ऊपर उठाना चाहते थे। लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं कि वो ग़लत बातों के शिकार हो जाते जैसा कि आजकल ळमदकमत न्दइपंेमक के नाम पर हो रहा है।
    मौलाना आजा़द को आज़ादी की जैसी चाह थी, वैसी और किसी चीज़ से नहींे थी। उनकी तहरीरों और तक़्रीरों में इस लफ़्ज़ की आमद के साथ उनके अंदर जैसी खिलावट, कैफ़ व मस्ती पैदा होती है, वो देखने की चीज़ है। उन्होंने पाबंदी को कभी पसंद नहीं किया। लिहा़जा़ ‘तालीमए-निस्वां’ के उन्वान से एक म़ज्मून में लिखते है।
    ‘‘इन्सान फि़तरतन आज़ाद है। ये आजा़दी उसके हर गैर इरादी कामों से सबित         होती                                                                                                                                                                                            अगरचे पुराने ज़माने में इस आजा़दी के समझने में बडी़ ग़लतियां हुई और इन्सान की आजा़दी में अपवाद के समझने में बडी़ ग़लतियां हुई और इन्सान की आजा़दी में अपवाद की गंजाइश रखी गयी। इसी ख़्याल ने गुलामी की नापाक रस्म पैदा की। यूरोप एक मुद्दत  तक इसमें मुब्तला रहा। लेकिन जब इल्म की रौशनी तमाम जाहिलाना अंधेरों पर ग़ालिब आयी, तो इन्सान की फि़तरी आज़ादी हुई और तमाम यूरोपी फि़़लास्फरों ने इन्सान को बिना अपवाद के आज़ाद तस्लीम कर लिया।
    मौलाना आज़ाद सही मानो में आजा़द थे, वो इन्सानों को आजा़द देखने के ख़्वाहिशमंद थे, वो सिवाय शरई हदों के किसी पाबंदी के कभी क़ाइल नहीं थे। भला वो औरतों को जं़जीरों में देखना कब पंसद कर सकते थे। उन्होंने हमेशा औरतों के लिए पर्दे की मुख़ालफ़त की, जो उनकी तरक़्की में बुरी तरह हाजिर हो रहा था। माहनामा‘पर्द-ए-इस्मत’ में 1900 में एक जगह वो यूं लिखते हैं।
    ‘‘शुरू इस्लाम में पर्दा सिर्फ़ मुह़ज्ज़ब-लिबास का नाम है। घरों में रहने का रवाज जो है, उस पर औरतों को मजबूर करना जाय़ज नहीं और सारी ख़राबियां इसी खानानशीनी से पैदा हुई हैं।’’
    मौलाना आज़द ज़माने की रफ़्तार और दीगर कौमों को तेजी से आगे बढ़ते हुए देख रहे थे और दूसरी जानिब मुसलमान कौ़म की पसमांदगी उनके समाने थी। ख़ास तौर पर अशिक्षा के सबब मुसलमान औरतों की हालत मौलाना के लिए बेचैनी का बाइस बनती थी। उन्होंने समझ लिया था कि मुसलमान औरतों का हिजाब ख़ुद उनकी तरक़्की़ के लिए हिजाब (पर्दा) बन रहा है। वो औरतों के लिए ता’लीम की किसी शर्त को भी सही नहीं समझते थे, बल्क् िचाहते थे कि मुसलमान औरतें कौ़मी धारे में शामिल हों। इस सिलसिले में उनके ख़यालात बडे़ माक़ूल और नाका़बिले-तरदीद थे। चुनांचे मौलाना आज़ाद का मज़्मून ‘तालीम-ए-निस्वां’ के उन्वान से अलीगढ़ मंथली, नवम्बर 1903 में शाए’ हुआ है। उसमें औरतों के लिए तालीम की ज़रूरत के विषय में यूं लिखा है।
    ‘‘हम साफ़-साफ़ कह देते हैं और इसे क़तई फै़सला समझ लो, पक्के उसूल की तरह मान लो कि जब तक पर्दा हिंदुस्तान से न उठेगा, जब तक औरतों को जाय़ज आजा़दी और वो आजा़दी जो इस्लाम की तरफ से दी हुई है, न दी जाएगी, गुलामी में रख कर और पर्दे की सीख के साथ तालीम देनी न सिर्फ़ फ़जूल, बल्कि नुक़्सानदेह है।’’
    इस उद्धरण से मौलाना आज़ाद का ये मतलब हरगि़ज नहीं है कि मुसलमान औरतें बेहिजाब और बेपर्दा हो जाएं। वो ये कहना चाहते हैं कि मुसलमान औरतें गोशानशीनी इखि़्तयार करके अपने आप को कुएं की मेंढ़की न बना लें, बल्कि हिजाब में रहकर भी माॅर्डन तालीम हासिल करें और दुनिया के कामकाज में पूरी तरह हिस्सा लें। मौलाना आज़ाद के ये ख़यालात बीसवीं सदी के पहले दहे के हैं। उस ज़माने में पर्दे वाली ता’लीम से मुराद अरबी, फ़ारसी और उर्दू की ता’लीम थी जैसा कि उन्होंने अपने एक और म़ज्मून में ख़ुलासा किया है और बगै़र पर्दे वाली तालीम से नयी तालीम मुराद थी जहां औरतों को स्कूलों और कॅालेजों में मर्दो के साथ खड़ा होना पड़ता था। लेकिन अब ज़माना इस क़दर आगे बढ़ चुका है कि पर्दे के चलन में लचक पैदा हो गयी है। जहां किसी ज़माने में हिजाब और तालीम साथ-साथ नहीं चल सकते थे, अब मुस्लिम ख़्वातीन पूरे हिजाब (स्कार्फ़) और पर्दे में तालीम की हर सत्ह तक रसाई हासिल कर सकती हैं। दोनों को साथ-साथ ले चलने की सहूलतें पैदा हो चुकी हंैेेेेे। मौलाना आज़ाद अगर ये सूरते-हाल देखते, तो यक़ीनन ख़ुश होते मौलाना आजा़द औरतों में हिजाब के मुख़ालिफ़ नहीं थे, वो दरअस्ल पर्दे के खि़लाफ थे, जो औरतों की तऱक्की़ में रुकावट बन रहा था और औरतों की पसमांदगी ने उन्हें बेचैन कर रखा था। अपनी धारणा के लिए उनके पास ठोस दलीलें भी मौजूद थीं, चुनांचे उन्होंने अपने एक मज़्मून में लिखा है।
    ‘‘अगर ये ठीक है कि मर्दो का नेक होना औरतों के नेक होने पर मौ़कूफ़ है, तो पहले इसकी कोशिश करो कि ये पर्दा जो हमारी तऱक़्की में बड़ी रुकावट है, ये औरतों की गुलामी जिसने हमारी औरतों को किसी इल्मी तरक़्क़ी के लाय़क नहीं रखा है जिससे उनके दिमाग को जंग लग गया है, उठा दिया जावे और वो पर्दा क़ायम किया जाए जिसका असली जौहर हुस्ने-अख़्लाक है, जो औरत की इस्मत की ऐसी हि़फ़ाजत करता है जिसे म़ज्बूत से म़ज्बूत हाथ, बडे़ से बड़ा भ्रम डिगा नहीं सकता । इसके बाद तालीम के जेवर से औरतों को आरास्ता करो और उनमें सलाहियत पैदा करो कि वो अपनी औलाद की ख़ुद उम्दा तरबियत कर सकें (तालीम-ए-निस्वां’, अलीगढ़ मंथली, जिल्द अव्वल नं.11 नवम्बर, 1903)’’
    मौलाना आज़ाद ने औरतों को पसमांदगी से निकल कर तरक़्क़ी की शाहराह पर लाने, उन्हें आजा़दी दिलाने, दुनियावी कामकाज में उन्हें मर्दों के साथ खड़ा करने और माॅडर्न तालीमात की रौशन ख़याली से उनके जे़हन व फि़क्र को मुनव्वर करने के लिए आवाज़ उठाने में कोई कसर नहीं रखी वो इस मस्अले के मनोवैज्ञानिक पहलू से नावाकि़फ़ नहीं थे। मर्द और औरत के दरमियान एक फ़ासला क़ायम रखने की एक शर्त पर्दा है जो मौलाना आज़ाद की नज़रों से ओझल नहीं थी। मौलान ये भी जानते थे कि अक्सर औरतों को उनकी ख़्वाहिश के खि़लाफ सात पर्दो के अंदर रखा जाता है, जबकि उनमें से अक्सर तमाम फ़ालतू बातों की ख़बर रखती हैं और जे़हनी बिखराव का शिकार होती हैं और आधे पर्दे के जो नुक़्सान हैं, उन पर अपनी तहरीरों में मौलाना आजा़द ने कई जगह रौशनी डाली है। उनके एक मज़्मून का ये हिस्सा मुलाहज़ा हो।
    अधूरी तालीम से उनमें आज़ादी का ख़याल(जो हर इन्सान में फि़तरतन मौजूद है और जिसे हिंदुस्तानी बाहरी दबाव से दबा दिया गया है) पैदा हो जाता है और फिर जब सोसायटी में जाय़ज आजा़दी की कोई सूरत नहीं मिलती, तो वो नाजायज़ तरीक़े से आज़ादी चाहती हैं और ऐसे वाकि़आत हो जाते हैं जिनको औरतों की तालीम के खि़लाफ लोग तालीम का नतीजा बताते हैं, हालांकि इसकी अस्ल वज्ह ये है कि उनको अधूरी तालीम दी जाती है और गुलामी से नजात नहीं मिलती। बुलबुल को बाग़ की बहार की एक झलक दिखला कर फिर  पिंजरे में क़ैद कर देना, ठीक एक औरत को तालीम देकर उस आजा़दी से, जो फि़तरत ने अता की है, उसका फ़यदा न उठाने देना.......(तालीम-ए-निस्वां)
    मौलाना आज़ाद सिर्फ़ ऩजरीयाती तौर पर ही नहीं, अमली तौर पर भी लौंगिग बराबरी के लिए आखि़री दम तक कोशिश करते रहे। मिस्र के मुफ़्ती-ए-आज़म शैख़ हुसैन मुहम्मद महलूफ ने एक फ़तवा दिया जिसमें कहा गया था कि औरतों को वोट देने और पार्लियामेंट के लिए चुने जाने की इजाज़त देना इस्लाम की रू से जाय़ज नहीं । जब मौलाना आजा़द की तवज्जोह उस फ़तवे की तरफ दिलायी गयी, तो उन्होंने इ़ज्हारे-हैरत करते हुए फ़रमाया।
    ‘‘इस्लामी शरीअत में कहीं इस बात का जि़क्र नहीं है कि औरतों को उनके सियासी और शहरी हुकू़क़ से महरूम रखा जाए, बल्कि इस्लाम में औरतों और मर्दो के दरमियान किसी कि़स्म का फ़कऱ् नहीं पाया जाता ..........मेरे लिए ये बयान हैरत का बाइस है, क्योंकि जब हम इस्लामी का़नून के फ़ल्सफे़ या इस्लामी सोसायटियों की तारीख़ पर नज़र डालते हैं, तो उसके बिल्कुल बरअक्स तस्वीर दिखायी देती है। इस्लाम सियासी या पब्लिक जि़ंदगी में औरतों और मर्दों के फ़कऱ् को तस्लीम नहीं करता। इसका मु़जाहरा उस जद्दो-जहद से होता है, जो तीसरे ख़लीफा़ की शहादत के बाद शुरू हुई है। हज़रत पैगंबर स.व.के साथियों में जो जिंदा थे, इस सवाल पर सख़्त मतभेद रखते थे और इसका सुबूत ‘जमल की जंग’ के सूरत में बरामद हुआ, इस्लामी गु्रप में ये पहला तनाज़ा था, इस जंग में एक ग्रुप के लीडर चैथे ख़ली़फा हज़रत अली थे और दूसरे ग्रुप की रहनुमाई हज़रत पैग़ंम्बर स.व. की बेवा हज़रत आयशा कर रही थीं। हज़रत अली के हिमायती मुख़ालिफ़ ग्रुप की अगरचे शदीद नुक्ताचीनी करते थे और उसमें सेहत का उन्सुर ग़ालिब होता था, लेकिन उन्होेंने हज़रत आयशा की सरबराही पर इस लिए कभी एतराज़ नहीं किया कि वो एक ख़ातून थीं। जो वाकि़आ हुजूर स.व. की वफा़त के तीस साल बाद पेश आया और उनके जो साथी जिंदा थे, चाहे वो किसी ग्रुप से ताल्लु़क़ रखते हों, उन्होंने अपने रवैये से ये सबित कर दिया कि  एक औरत सियासी और फौ़जी कि़यादत की अहल है। (मौलाना आज़ादः एक सियासी डायरी पेजः482)’’
    मौलाना आज़ाद के इस बयान से मिस्र की बिन्त-उल-नील तहरीक को बड़ी ताक़त हासिल हुई। इस तहरीक की सरबराह दुर्रया शफ़ीक ने बाद में हिंदुस्तानी दौरे के दौरान इसको माना। इस तहरीक के असर में मिस्र में बड़ी तादाद में ख़वातीन वकीलों, डाॅक्टरों ओैर इंजीनियरों की मौजूदगी है।
    इसी तरह प्रिंस-आफ-आरकाॅट की कोई नर-औलाद न थी। उनके इंति़काल पर ये सवाल पैदा हुआ कि उनका जा-नशीन कौन हो। चुनांचे मद्रास के वज़ीरे-आला राज गोपालाचार्य ने सिफ़रिश की कि मर्हूम प्रिंस के भाई को जी जा-नशीन मुक़र्रर किया जाए और उसे मर्कज़ी हुकूमत ने मंजूर भी कर लिया। मर्हूम प्रिंस की बेटी फ़जीलत उन्निसा ने मौलाना आजा़द से मुलाका़त की और अपने हक़ में सिफ़ारिश की दरख़्वास्त की। मौलाना आजा़द ने मद्रास के वजी़रे-आ’ला को लिखा।
    ‘‘वाकि़आ ये है कि इस्लाम ने जा-नशीनी के मुआमले में कोई फ़र्क़ लड़के और लड़की में नहीं किया एक प्रिंस की डिग्निटी का वारिस जिस तरह लड़का हो सकता है, लड़की भी हो सकती है। (अबूल कलाम आजा़द और जदीद हिंदुस्तान, ल़े सय्यद अकबर अली तिरमिजी़)
    बहरहाल मौलाना आज़ाद सिर्फ़ अपनी तहरीरों और तक़्रीरों सेें, बल्कि अपने तर्जें़ अमल से भी हमेशा लंैगिक बराबरी के लिए कोशिश करते रहे। सब से ज़्यादा मोैलाना आज़ाद को अगर फि़क्र रहती थी, तो वो औरतों की तालीम के लिए थी। मोेैलाना आजा़द एक मस्रूफ़-तरीन शख़्स थे, इसलिए ओैरतों के हुकूक़ की पासदारी के लिए ज़्यादा वक़्त नहीं दे सकते थे, वर्ना इसके लिए कुछ भी कर सकते थे।
-डा0 क़ाज़ी हबीब अहमद
      प्रस्तुति- शकील सिद्दीक़ी
  
    मो0 नं-09839123525 
   
Share |