बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

गूंगी

भारतीय संस्कृति की संवाहिका गंगा -- यमुना और अदृश्य सरस्वती जनमानस की प्रेरणास्रोत रही है | प्राचीन काल से प्रयाग का संगम तट धर्म , संस्कृति , कला और मानवीय संवेदनाओं का केंद्र रहा है | प्रयाग में भारतीय कला , संस्कृति एवं दर्शन के विविध रूपों का संगम होता है

त्रिवेणी के तट पर 2013 के महाकुम्भ के अवसर पर उत्तर -- मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र , इलाहाबाद द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम '' चलो मन गंगा जमुना तीर '' 2013 में आजमगढ़ की '' सूत्रधार '' नाट्य संस्था द्वारा 8 फरवरी को गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा लिखित कहानी '' गूंगी '' पर आधारित नाटक की प्रस्तुती की गयी |
जिन्दगी बहुत बार ऐसे मोड़ पे ले आती है जहा इंसान के दर्द को समझने वाले एक या दो लोग होते है | ऐसे ही दर्द को समझा था गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने और उस दर्द को अपनी लेखनी से उस दर्द को जिन्दगी के कैनवास पर शब्दों की माणिक -- मोतियों से उकेर कर उसमे रंग भरकर इस दुनिया को अपनी समृद्ध रचना संसार को दिया '' गूंगी '' के रूप में गुरुदेव के समृद्ध रचना संसार में गूंगी सिर्फ एक '' मोती '' के समान है |
कथ्य की दृष्टि से इसका फलक बहुत बड़ा और व्यापक है ....... नदी किनारे के गाँव चण्डीपुर में बाबू वाणीकंठ जिनके दो पुत्रियों के बाद जब तीसरी बेटी पैदा हुई तो उसका नाम उन लोगो ने रखा सुभाषनी | इस नाटक में यही नाम इस कहानी की चरम और मर्म बिंदु है , कारण कि सुभाषनी '' जन्म से ही '' गूंगी '' है ..... ऐसे में वह परिवार के सदस्यों के लिए बोझ है वह इस टीस को लेकर '' गूंगी '' जिए जा रही है |
इस विषाद के साथ ही उसके जीवन में कई छोटी -- छोटी खुशिया समाहित है |
घर के ''बरदउर '' में रहती है उसकी सखिया '' सारो व पारो '' प्रकृति के विराट आगन पे पनप रहा है '' गूंगी '' का अन्तर्मन साथ ही गुसाइयो के लड़के '' प्रताप '' में दिखता है उसे अपने मन का '' मीत |
लेकिन कुदरत का खेल भी बड़ा अजीब होता है उस निरीह '' गूंगी '' का यह सुख ज्यादा दिनों के लिए नही रह जाता |
इस समाज के अलम्बरदारो से डर कर उसके माता -- पिता उसे ब्याह देते है ..... अनजान शहर कलकत्ते में एक अनजान पुरुष के साथ |
विडम्बना यह है कि वह गूंगी है ...................... मौन '' गूंगी '' का दर्द हमारे समाज के अधिकाश बोलती '' गुगियो का भी दर्द है ...... उस दर्द को गुरुदेव ने बड़े सहज और सरल तरीके से उकेरा है | इस नाटक की शुरुआत अभिषेक पंडित द्वारा लिखित गीत से '' सिद्ध सदन हे गजबदन हे गणपति महराज '' से हुआ तीसरी पुत्री गूंगी पैदा होने पर माँ के दर्द को उकेरता यह गीत ''तीन बेर निपूती भइनो तबहु ना कछु कहनो---- कोखिया के काहे कईला गुंग हे विधाता '' की माध्यम से माँ के अभिनय में गीता चौधरी ने अच्छा अभिनय किया '' गूंगी '' के चरित्र में समाज में रह रही बोलती गुगियो के भावनाओं ममता पंडित ने सुभाषिनी के चरित्र में उनकी मन की व्यथा को इन शब्दों में ''' उमड़-- घुमड़ पुरबी बदरिया बुझे ना मन के पीर हो विधाता '' के माध्यम से सम्पूर्ण अभिनय क्षमता का निचोड़ प्रस्तुत कर पूरे पाण्डाल के दर्शको के आँखों को भिगो दिया | और ममता पंडित '' गूंगी ''' की शादी जब हो रही थी तब निर्देशक ने इस गीत से भारतीय परम्परा का अदभुत समावेश से '' काहे के डोलिया हे माई -- आपन गोदिया छोडलईलू हे माई '' से शमा बाँध दिया और नाटक का आखरी दृश्य जिसमे गूंगी '' ने अपने मन की '' व्यथा को सोहन लाल गुप्ता के इस गीत से '' विधना कउने कलमईया से लिखला -- करमवा के पाति हमार '' से नाटक के अंतिम दृश्य से पूरे समाज की व्यथा को सार्थकता प्रदान की ....... इस नाटक का सबसे मजबूत पक्ष संगीत रहा इसके साथ ही इस नाटक के पात्रो ने अपने अभिनय क्षमता का पूरा परिचय दिया निर्देशक द्वारा पूरे नाटक को बाँध के रखा गया | इस नाटक में हरिकेश मौर्य , विवेक सिंह , लक्ष्मण प्रजापति यमुना , अंगद , अमन तिवारी , सलमान , जयहिंद ने अभिनय किया इसके साथ ही संगीत दिया अभिषेक पंडित ने गायकी जमुना मिश्र , दीपक विश्वकर्मा नाटक का आलेख व संगीत परिकल्पना अभिषेक पंडित द्वारा किया गया और निर्देशन ममता पंडित द्वारा किया गया ..............................-सुनील दत्ता

पत्रकार
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