सोमवार, 6 मई 2013

अपना खुदा एक औरत

किताब चर्चा              उपन्यास-नूर जहीर
हार्परकोलिन्स, नई दिल्ली
पृष्ठ:286; मूल्य : रु. 199 (पेपरबैक)
सामाजिक संरचना के भीतर छिपा है स्त्री मुक्ति का सपना

    कथा कृतियां यथार्थ के प्रति आग्रही होने के  बावजूद कल्पना के सहारे की मोहताज रही हैं। खांटी वास्तविकताओं पर आधारित होने पर भी। उपन्यास मेे यह मोहताजी कहानी की अपेक्षा अधिक होती है। यथार्थ अथवा वास्तविकताओं को भी तोड़ना मरोड़ना पड़ता है, उन्हे संवारना बिगाड़ना पड़ता है कि बहुधा उन्हे जस का तस प्रस्तुत नही किया जा सकता। 2011 में प्रकाशित चर्चित लेखिका नूर ज़हीर का उपन्यास ‘अपना खुदा एक औरत’ की भी यही स्थिति है। हार्पर कालिन्ससे आया 286 पृष्ठीय यह उपन्यास दरअस्ल उनके अंगे्रजी उपन्यास ‘माई गाड
इज़ अ वूमन’ का उन्हीं के द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद है। प्रकट न किए जाने के बावजूद उपन्यास उनकी मां रजि़या सज्जाद ज़हीर के जीवन संघर्ष पर आधारित है, जिसका ख़ासा हिस्सा उनके पति यानी नूर के पिता तथा भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के एक बड़े व्यक्तित्व सज्जाद ज़हीर के संघर्ष के साथ जुड़ा हुआ है। उपन्यास के लगभग सवा सौ पृष्ठ दिल्ली में मंच कलाओं का धंधा करने वाली अमृता गोविन्द उससे जुड़े कलाकारों के संघर्ष का विवरण लिए हुए है। इस ग्रुप से जुड़े होने का कारण यह संघर्ष रजि़या का भी है, जो उपन्यास में सफि़या के नाम से प्रस्तुत है। थोड़ा वृहत्तर रूप में देखिये तो यह संघर्ष सफि़या और अमृता से आगे जाते हुए भारतीय स्त्री के संघर्ष का विस्तार ग्रहण करता है। इस रूप मे वह मुखर रूप में इस त्रासदी को उभारता है कि गुलामी से आजा़दी की ओर आये एक देश में स्त्री की बेडि़यां वही हैं, उसकी वंचनाएं और यातना के अवसर उपक्रम भी वही हैं। संसद, न्यायालय, प्रशासन और धर्मगुरू सब उसके खि़लाफ़ एक पंक्ति में है। मुस्लिम स्त्री के लिए शरीअत अतिरिक्त विशिष्ट विपरीतता है। उपन्यास का नायक अब्बास जाफ़री, जो स्पष्ट ही कम्युनिस्ट भी है, इसमें समयानुरूप परिवर्तन का प्रबल समर्थक है। वह मानता है कि ईमान और कानून दो अलग वास्तविकताएं है। ‘अपना खुदा एक औरत’ का कालखण्ड बीसवीं सदी केवे साठ-सत्तर वर्ष हंै, जो घटना पूर्ण तो हैं ही, महत्वपूर्ण भी है, इन वर्षो में बड़ी तब्दीलियां घटित हुई, स्त्री मुक्ति के स्वप्न को ठोस वैचारिक-तार्किक आधार इसी अवधि में प्राप्त हुआ, न्याय के लिए वाजिब संघर्ष भी तेज हुए। यह अवधि है, चैथे दशक से शाह बानो केस का सर्वोच्च न्यायालय के फैसला आने तक यानी 1985-86                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                              तक। इस फैसल ने भारतीय समाज और राजनीति में एक भूचाल सा पैदा कर दिया। शरीअत को लेकर सबसे ज्यादा प्रश्न भी तभी उठे। स्त्री के प्रति शरीअत यानी इस्लाम के रवैये को लेकर अनेक उत्तेजक बहसों ने जन्म लिया। हालत यह थी कि फैसले का विरोध करने वालें को इस्लाम व मुसलमान मुखालिफ़ मान लिया गया। उपन्यासकार ने उन क्षणों की भयावहता को पकड़ने का प्रयास किया है इस क्रम में कई चेहरों की तुच्छता स्वतः उघड़ आयी है-
    ‘फैसला आने में आधा घण्टा लगा। फैसला जिसने एक छिहत्तर साल की औरत को इजज़त से जीने और मरने का हक़ दिया। तक़रीबन उतना ही समय लगा, मुस्लिम दुनिया में कहर बरपा होने में वह क़हर जो सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए पूछ रहा है था कि हम अपनी औरतां का भेड़ बकरियों की तरह क्यों न रखंे, तुम हमें कुछ कहने वाले कौन होते हो।’ (पृ. 246)
    सफि़या इस फैसले के पक्ष में खड़ी होती है, अपनी बेटी सितारा के साथ। वही सफि़या जो लखनऊ के एक अति चर्चित व प्रतिष्ठित परिवार के आक्सफोर्ड रिटर्न सैयदजा़दे अब्बास जाफ़री यानी सज्जाद जहीर की पत्नी है। जो शरीअत में समयानुसार परिवर्तन का प्रबल पक्षधर है। स्त्री मुक्ति का गंभीर समर्थक है। सफि़या शाह बानो का साथ देने के लिए अकेली बीमारी की हालत में दिल्ली से इंदौर जाती है, जहां विषम परिस्थितियांे में उसकी मौत उसके जीवन व संघर्ष का पटाक्षेप करती है। इस तरह चैथे दशक में आरम्भ हुआ स्त्री अस्मिता और आजा़दी का संघर्ष नौवे दशक में दुखद स्थितियों का शिकार होता है। चैथे ही दशक के चैथे वर्ष में विवादास्पद कहानी संग्रह ‘अंगारे’ प्रकाशित हुआ, किसी भी भाषा में स्त्री सरोकारों की, जिसमें मुस्लिम स्त्री के सरोकार प्रमुख है, इतनी शिद्दत भरी अभिव्यक्ति पहली बार हुई थी, इस चैथे दशक में सफि़या का विवाह अब्बास जाफ़री के साथ हुआ और प्रगतिशील लेखक संघ का पहला व दूसरा राष्ट्रीय अधिवेशन भी। नूर ने इसी चर्चित कहानी संग्रह ‘अंगारे’ को लपटें नाम दिया है, इसके प्रकाशन वर्ष को बदलते हुए उन्होने उससे जुड़े अनेक पक्षों को कथा की ज़रूरत के अनुरूप इधर-उधर किया है। ज़्यादा चिंताजनक यह है कि उन्हांेने यह तथ्य प्रतिपादित करना चाहा है कि कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘लपटंे’ लिखने तथा मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहंचाने के आरोप में अब्बास जाफ़री को पार्टी से निकाल दिया था। शाह बानो प्रकरण में भी वह तथ्य रोपती हैं कि सवोच्च न्यायालय के फैसले पर माक्र्सिस्ट पार्टी ने मौन साधे रखा या फैसले का विरोध किया। इसी तरह अमृता गोविन्द के कला संस्थान में बोनस की मांग को लेकर चले कलाकारों के आंदोलन में पार्टी नेताओं के चरित्र को नकारात्मक बताया है। निः संदेह पार्टी या पार्टी नेताओ को इन तमाम नकारात्मकताओं से पूरी तरह मुक्त नहीं माना जा सकता लेकिन यथार्थ को एकदम उलट देने को अवश्य ही कथा साहित्य में तथ्यों की वास्तविकता की पड़ताल गैर मुनासिब है, कुछ लोग इसे कथा विरोधी प्रवृति भी कह सकते है, फिर भी यदि कथानक ऐसे जीवन को लेकर बुना गया है, जिसके तथ्य या घटनाक्रम बहुत सार्वजनिक हों, तब ऐसे सवाल जरूर खड़े हो सकते है। क्योकि इससे धारणाएं बनती या बिगड़ती हैं।
    ‘लपटंे’ ही वह पुस्तक है जो नितांत धार्मिक परिपाटीवादी घराने की सफि़या के अब्बास जाफ़री से शादी का प्रमुख कारण बनी। अब्बास के बाल्दैन ऐसी बहू चाहते थे, जो धार्मिक हो और नास्तिक अब्बास को, भटके हुए अब्बास को सही रास्ते यानी मजहब के रास्ते पर ला सके। हुआ इसके विपरीत। सफि़या काफी हद तक अब्बास के रंग में रंगते हुए आधुनिक, तर्क में विश्वास करने वाली, रूढि़ भंजक महिला बन गयी। अपनी अस्मिता, आत्म निर्णय का अधिकार मुनष्य के रूप में सम्मानजनक जीवन की पूर्णता, आत्म निर्भरता जिसकी प्रमुख चिंताएं बनीं अब्बास हर कदम उसके साथ था। इन चिंताओं को लेकर उसका पहला टकराव अब्बास की वालिदा लेडी ज़ीनत बेगम से हुआ। धार्मिक रूढि़यों और सामंती संस्कारों में लिप्त उनकी हैसियत परिवार में तानाशाह की सी थी, अब्बास और साफि़या ने समवेत रूप में इस तानाशाही को चुनौती दी। यह चुनौती ही बाद में व्यक्त की गयी मजाज़ की इस इच्छा को पूरा करना था कि तेरेे माथे पर यह आंचल बहुत ही खूब है लेकिन तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था। इस तरह औरत से इंसान बनने की जदोजहद शुरू होती है। लेडी जी़नत से टकराव का मतलब है, पराजित मूल्यों, जड़संस्कारों तथा मज़हबी सत्ता से टकराव, कि लेडी जी़नत की इस सत्ता से गहरी साँठ-गाँठ है। इस टकराव की आरंभिक परिणति होती है। ऐतिहासिक शानदार कोठी से तथा सर्वेन्ट क्वार्टर्स में पनाह लेने में जिसे उपन्यास में सागर पेशा, (शागिर्द पेशा) कहा गया है। रशीद जहां की कहानी ‘सिफ़र’ इसी घटना पर आधारित है। संयोग से उपन्यास में रशीद जहां ज़ाहिदा के रूप में मौजूद हैं और सफि़या व अब्बास के संघर्ष में प्रति पल उनके साथ हैं, यही हाल कात्यायनजी के रूप् में राहुल सांकृत्यायन तथा इरफ़ान के रूप में मजाज़ का भी है।
    उपन्यास में कई क्षण ऐसे आए हैं जहां नूर ज़हीर की साहसिकता अभिभूत करती है। इसे उर्दू की महिला कथारों द्वारा व्यक्त बोल्डनेस का अगला पड़ाव भी कह सकते हैं। हिन्दी महिला कथा लेखन में शब्दबद्ध हुई बोल्डनेस से यह थोड़ा अलग इस अर्थ में है कि इसके सरोकार वैचारिक भी हैं और ज़्यादा बड़े फ़लक पर घटित होती है। नकारात्मकताओं के साथ ही सही, अपने खानदान के वैभव का बखान नूर ने भी किया है लेकिन उन्होंने जिस बेबाकी से इस वैभव के स्याह पहलुओं और दमनकारी प्रवृत्ति को तार-तार किया है, वह वास्तव में विरल है। उपन्यास बताता है कि सज्जाद जहीद की प्रसिद्ध ‘दुलारी’ की दुलारी को, जो एक खरीदी हुई लौंडी है, गर्भवती करने वाला कोई और नहीं अब्बास जाफरी का बड़ा भाई ही था। राज़ खुलने पर कुछ रक़म देकर उसे घर से निकाल दिया जाता है। बाद में वह एक जगह मरी हुई पायी जाती । जैसे लेडी ज़ीनत के जस्टिस पति, अब्बास जाफ़री के पिता, सफि़या के ससुर सफ़दर जाफ़री तथा उनकी अंग्रेज प्रेमिका एक जंगल में बुरी तरह घायल अवस्था में पड़े मिलते हैं प्रेमिका तो जान से जाती है और जस्टिस अपाहिज होकर हमेशा के लिए बिस्तरसे लग जाते हैं। कि इस तरह लेडी ज़ीनत का परिवार में एक छत्र साम्राज्य का सपना पूरा हुआ। वह नहीं चाहती थी कि जस्टिस साहब अकूत सम्पत्ति का कोई और हिस्सेदार भी हो और यह कि सैयर ज़ादे पति की संतान किसी फिरंगिन के गर्भ से हो। वह यह भी नहीं चाहतीं कि उनके अधर्मी नस्तिक पुत्र अब्बास जाफरी को जिसके खि़लाफ लखनऊ के शाही इमाम ने सामाजिक बहिष्कार का फ़तवा सादिर किया है, इस जायदद से एक लखौरी या कौड़ी भी दी जाय, अब्बास और सफि़या जिस जायदाद को ठोकर मारने का फैसला पहले से किये हुए हंै। इन क्षणों में लेखिका को पितृ सत्तात्मकता की वर्चस्व वादी मानसिकता के नंगेपन को बेबाकी से उधाड़ पाने का कौशल हासिल है। उन क्षणों में भी जब अब्बास जाफ़री जेल में है और सफि़या पहले प्रसव के लिए अस्पताल में। जिस दिन उसे अस्पताल से छुट्टी मिलती है, उसी दिन सागर पेशे यानी सर्वेन्ट कार्टर में ताला डाल दिया जाता है ताकि सफि़या समझ लें कि प्रतिष्ठित परिवार की विशाल कोठी के दरवाजे उसके लिए हमेशा के लिए बन्द हो गये हैं। यहां तक कि सर्वेनट क्र्वाटर के भी। सफि़या खुले मैदान में पेड़ के साथ में अपनी पहली संतान को, जो एक बेटी है, दूध पिलाती है। यह बेटी ही ‘सितारा’ है, सितारा जो भटके हुए पथिकों का सहारा होता है जो कल मां बनेगी और अगली पीढि़यों की जन्म दात्री जो होगी। योद्धा कल के संघर्षों की-यह जानते हुए, ‘कोई लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जाती, कोई जीत भी तन्हा हासिल नहीं होती। वह युद्ध का परचम चाहे न फहराये, युद्ध होगा तो उसी की वजह से। वह लौ न सही, लेकिन वह शान्त ठहरा हुआ तेल होगी, जो ख़ामोशी से तरक़्क़ी की लो को जलाये रखेगी। उसी की वजह से लौ जिन्दा रहेगी, भभककर बुझ नहीं जायेगी। वह जो बार-बार जन्म लेगी, क्योंकि धरती की गुज़र, बगैर जगत्धात्री के नहीं हो सकती, वह हस्ती जो अंधेरे जज़्ब करके, असाधारण, सर्व शक्तिमान, सर्वव्यापी। अगर कोई खु़दा है और वही जि़म्मेदार है, क़ुदरत की मुतवातिर रफ़्तार का, तो वह ख़ुदा औरत के सिवा कौन हो सकता है।’
    यह शब्द सफि़या के लिए कहे गये हांे या सितारा के लिए इससे क्या अन्तर पड़ता है। चिंतन की यह धार स्त्री मात्र के लिए है।
    आलीशान सफ़दर मंजिल छोड़ते हुए सफि़या सोचती है।
    ‘वह पलट कर उन बेडि़यों को दोबारा तो नहीं पहन सकती, जिन्हें उसने नकार दिया था, क्या कभी वह दिन आयेगा जब शरीअत दोबारा लिखी जायेगी, कभी उसमें औरत की भी आवाज़ शामिल होगी? कब खु़दा यह फैसला करेगा कि वह पुरुषों द्वारा शोषित नहीं होना चाहता? कब किसी मज़हब में कोई औरत पैग़म्बर होगी?
    यहां यह विचार करने की आवश्यता है कि स्त्री के पैग़म्बर बन जाने से अथवा स्त्री प्रभुत्व वाले किसी धर्म के आ जाने से क्या सचमुच स्त्री मुक्ति का सपना साकार हो सकेगा। सामाजिक संरचना में बुनियादी परिवर्तन तथा सम्पत्ति के स्वामित्व की वर्तमान व्यवस्था के रहते और पुरुष की मानसिकता को बदले बिना स्त्री की सामाजिक अवस्था में बड़े ही परिवर्तन संभव नहीं है? आखिर बंगाल में मां दुर्गा की, कुछ दूसरी देवियांे की आराधना भी व्यापकता में होती है। बावजूद इसके पितृ सत्ता की सघनता वहां कई अंचलों की अपेक्षा अधिक जटिल है।
    स्त्री पहले पराधीन हुई या धर्म की उत्पत्ति ने उसे पराधीन किया, बहस तलब है, जिसकी यहां गुंजाइश नहीं।
    शाह बानो प्रकरण को कथा तत्व बनाते हुए आखि़र लेखिका ये कह ही गयीं कि
    ‘शाह बानो की लड़ाई आर्थिक न्याय की लड़ाई है।’
    आर्थिक न्याय की लड़ाई को संभव करने तथा मुक्ति का पूरा चांद पाने के लिए आधुनिक शिक्षा को ज़रूरी माना गया, उत्तर भारत संयुक्त प्रांत में रशीदजहां के पिता शेख़ अब्दुल्लाह अलीगढ़ की कोशिशों के बाद लखनऊ में मौलवी और जस्टिस करामत हुसैन द्वारा स्त्री शिक्षा के पक्ष मंे किए गये प्रयासों का विशिष्ट महत्व है। उपन्यास ऐसे विवरणों से सामाजिक विकास के इतिहास का गवाह भी बना है। लेडी ज़ीनत के प्रबल विरोध के बावजूद सफि़या इस कालेज में नौकरी करती है और आर्थिक आत्मनिर्भरता का संतोष पाती है। धर्म गुरू आधुनिक शिक्षा के इस अभियान के खि़लाफ़ हैं, लेकिन न तो मुज्तबा हुसैन यानी करामत हुसैन हार मानते हैं और न सफि़या। लखनऊ के बड़े आभूषण व्यवसायी झुनझुन जी के साथ समाज में शिक्षा अभियान के समर्थक बढ़ते जाते हैं।
    ‘तो इस तरह, दो दोस्तों, एक उस्तानी जी जो मुज्तबा साहब के रिश्ते की बहन थीं और प्राथमिक गणित और क़ुरआन पढ़ाती थी, एक अंग्रेजी और सांइस की टीचर, एक ड्राइवर,नेक इरादों और बग़ैर ताम झाम के आठ मुसलमान औरदो हिन्दू लड़कियों के साथ साजिदा हुसैन मुस्लिम गल्र्स कालेज खुला। हफ्ते में छह दिन हरे पर्दे वाली भूरी बस, रबड़ भोंपू बजाते ड्राईवर रशीद की निगहबाजी में, नौ बजे की एसेम्बली से पहले पहुंचने की होड़ में लखनऊ में से खड़खड़ाती धूल उड़ाती गुज़रती।’
    कालेज और सफि़या के बीच रिश्तों को लेकर रोचक अप्रिय प्रसंग आते हैं, रूढि़वाद का विस्फोट भी। इस प्रक्रिया में आगे बढ़ने से कतराते एक समाज के कई त्रासद बिम्ब भी उभरते हैं। जिसकी चरम परिणति सफि़या को नौकरी से निकाल देने के रूप में हेाती है। इस बीच देश अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद हो चुका था। सफि़या एक जम्हूरी देश में नौकरी से निकाली गयी क्योंकि लखनऊ के शाही इमाम ने उसके पति के खि़लाफ़ सामाजिक बहिष्कार का फ़तवा जारी कर रखा था।
    ग़ुलामी से आज़ादी की ओर आये देश में समाज कितना मुक्तत हो पाय था। स्त्री के बंधन तो वही थे। धर्म अब भी सामाजिक विकास के पथ की बड़ी बाधा बना हुआ था। अंग्रेज चले गये थे लेकिन पुरूष का आधिपत्य क़ायम था। नूर ज़हीर के शब्दों में कहें तो मुसलमान मर्दों के लिए संभोग अब भ्ीा सबसे सृजनात्मक काम था- सफ़दर मंजिल और मुज्तबा कालेज से निकाली गयी सफिया गोद में नवजात शिशु लिए भविष्य के निश्चय को निहार रही थी, उम्मीद की किसी किरण की तलाश में। पाली के विद्वान, यायावर, अब्बास, जाफ़री के मित्र कात्यायनजी उसे राह दिखाते हैं।
    उनका पत्र लेकर वह दिल्ली गन्धर्व संस्था की मालकिन अमृता गोबिन्द राम से मिलती है। नृत्य व अभिनय कला का धंधा करने वाली इस संस्था में वह एक नये जीवन की ओर बढ़ती है पौरूषी आधिपत्य पूंजी की चमक और कलाकारों के शोषण का नया अनुभव जन्य अध्याय उसके सामने खुलता है। पुरूष आधिपत्य के अधिक भयावह तुच्छ दृश्य उसके सामने आते हैं।
    सफि़या के कानों में कोई जैसे कह रहा था- ‘जिस दिन तुम स्वीाकर कर लोगी कि भाग्य, कि़स्मत जैसा कुछ नहीं है, तुम अपनी जिन्दगी बदलना शुरू करोगी’ बदलती हुई सफि़या ज़़्यादा बदल जाती है। स्त्री बाहरी दबावों से अपनी चेतना और इच्छा से बदलती है, हालात भी बदलते हैं उसे समानता सम्पूर्ण मुक्ति का शिखर उसे न तो धार्मिक क़ानूनों से मिलने वाला है, न संविधान के संरक्षण से। वह मिलेगा उसे नई सामाजिक संरचना और मुक्ति की विवेकपूर्ण वैज्ञानिक समानता से।
    अतीत से जड़ चिन्तन से मुठभेड़ करता यह उपन्यास भविष्य के लिए एक सुन्दर सपना रचता है, और यह हक़ीक़त है कि दुनिया को सर्वाधिक सुन्दरता तथा सुन्दर सपने स्त्री ही ने दिए हैं।
    यथार्थ कथ्य की शक्ति होती हैतो विचारधारा सज्जा तथा कल्पना सौन्दर्य। इस पूर्णता को पाते हुए रचना जहां संघर्ष से जुड़ती है, वहीं मक़ाम है अपना ख़ुदा एक औरत।

    -शकील सिद्दीक़ी
   
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1 टिप्पणी:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत उम्दा, बेहतरीन समीक्षा की आपने "अपना खुदा एक औरत"पुस्तक की ,,,

RECENT POST: दीदार होता है,

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