बुधवार, 5 जून 2013

मुलायम का संघ प्रेम और मुसलमान



      ‘‘जिनका तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे’’। यह कहावत आम है और यह वहाँ कही जाती है जहाँ किसी के साथ धोखा होता है। आज इसी हालात से दोचार उत्तर-प्रदेश का मुसलमान है, जिसने हमेशा मुलायम सिह को अपना हमदर्द व हितैषी माना है।
    पिछले वर्ष के प्रारम्भ में उ0 प्र0 में आम विधानसभा चुनाव की बयार चल रही थी। कांग्रेस पार्टी बड़ी उम्मीदों के साथ अपने परम्परागत वोट बैंक मुसलमान दलित व सवर्णाें पर यह कहते हुए डोरे डाल रही थी कि यदि प्रदेश में विकास की गंगा बहानी है तो कांग्रेस को सत्ता में वापस लाएँ। क्षेत्रीय पार्टियों ने प्रदेश का बहुत नुकसान किया है। राहुल गांधी ने बेनी प्रसाद वर्मा जैसे दिग्गज पिछड़े वर्ग के लीडर को अपनी चुनावी मुहिम में महत्व देकर एक बात का और संकेत दे दिया था कि इस बार कांगे्रस यादव के मुकाबले अन्य पिछड़ी जातियों का भी समर्थन प्राप्त करना चाहती है।
    उधर मायावती के शासन काल में साम्प्रदायिक दंगों तथा आतंकवाद के नाम पर ताबड़तोड़ हुई मुस्लिम नवयुवकों की गिरफ्तारियों से मुसलमान नाराज था। मुलायम के वर्ष 2004 से 2007 के कुशासन से खिन्न होकर मुसलमानों ने अन्य प्रदेश वासियों के साथ मिलकर इस उम्मीद के संग मायावती को स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता सौंपी थी कि प्रदेश में सुशासन एवं कानून का राज्य होगा। परन्तु मायावती के शासन काल में श्रावस्ती, बरेली, मेरठ व अन्य कई जनपदों में एक के बाद एक साम्प्रदायिक दंगों ने मुसलमानों की उम्मीदों को, जो उन्होंने मायावती से लगायी थी, बिल्कुल तोड़ कर रख दिया। अभी इस घाव से मुसलमान उबर भी न सके थे कि आतंकवाद के आरोपों में निरुद्ध कर पढ़े लिखे मुस्लिम नवयुवकों की गिरफ्तारी का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, राजस्थान, आन्ध्र-प्रदेश व कर्नाटक प्रान्तों से एस0टी0एफ0 व ए0टी0एस0 के जत्थे आते और उ0प्र0 से मुसलमानों को यह कहकर पकड़ ले जाते कि ये सब इंडियन मुजाहिदीन व लश्करे तैयबा के गुर्गेे हैं। इस तरह अबूबशर, आरिफ, साजिद, जीशान, सज्जादुर्रहमान, इकबाल, शकील इत्यादि पुलिस के शिकार बने। ये सभी आज भी जेल में बन्द हैं। फिर 23 नवम्बर 2007 में फैजाबाद व लखनऊ न्यायालयों में हुए बम विस्फोटों के बाद मुसलमानों कइर्द-गिर्द कानून का शिकंजा और भी कसना प्रारम्भ हो गया। 12 दिसम्बर 2007 को आजमगढ़ के थाना सरायमीर से डाॅ0 तारिक कासमी को और 16 दिसम्बर की शाम जिला जौनपुर के मडि़याहूँ थाने से मदरसे के शिक्षक खालिद मुजाहिद को नाटकीय ढंग से गिरफ्तार कर उन्हें हूजी (हिजबुल मजाहिदीन) का कमान्डर व कार्यकर्ता बताया गया और उनका सम्बन्ध माले गाँव व मक्का मस्जिद से भी जोड़कर तमाम तरह की झूठी कहानियाँ गढ़ डाली गईं।
      वर्ष 2012 के प्रारम्भ में उ0प्र0 के विधानसभा के चुनावों की घोषणा के बाद मुसलमानों को यह तय करना था कि वे किस दल को अपना समर्थन दंे। राहुल गांधी को मुख्य धारा से जोड़ने की बात कर रहे थे परन्तु बाटला हाउस काण्ड के मामले में वे और उनकी पार्टी अपनी स्थिति स्पष्ट न कर सके। कांग्रेस पार्टी ने अपना अन्तिम दाँव पिछड़े मुस्लिमों के आरक्षण का भी एक अध्यादेश लाकर खेल दिया, लेकिन मुसलमानों ने अपने पुराने मसीहा मुलायम सिंह की बातों और उन पर विश्वास करने में ही अपनी आफियत समझी। उन्होंने यह सोचा कि विकास या आरक्षण की बात तो तब होगी जब उनका वजूद सुरक्षित होगा। मुलायम सिंह व अखिलेश यादव ने मुसलमानों की नब्ज़्ा टटोल कर उन्हें इस बात की गारण्टी दी कि उनकी हुकूमत आएगी तो मुसलमानों को खुली हवा में सांस लेने का अवसर मिलेगा, उनकी बहू बेटियों की इज्जत आबरू व उनकी सम्पत्तियाँ सरेआम लूटी नहीं जाएँगी तथा आतंकवाद के झूठे आरोपों में वर्षों से बंद मुस्लिम नवयुवकों को रिहा कर दिया जाएगा।
    मुसलमान मुलायम पर इस उम्मीद से विश्वास कर बैठे कि यह वही मुलायम सिंह हैं जिन्होंने वर्ष 1991 में बाबरी मस्जिद की हिफाजत करते हुए मस्जिद के गुम्बदों पर चढ़कर उसे ध्वस्त करने वाले कारसेवकों पर गोलियाँ चलवा दी थीं। यह वही मुलायम सिंह हैं जिन्होंने उर्दू शिक्षकों की तैनाती कर मुसलमानों को रोजी दी थीं। यह वही मुलायम सिंह हंै कि जिनके शाासनकाल में साम्प्रदायिक शक्तियाँ यह सोचकर भयभीत होकर दुबक जाती थीं कि यदि जरा भी  उन्होंने सिर उठाया तो कारसेवकों की भाँति उन पर भी मुलायम गोलियाँ चलवाने से तनिक भी संकोच न करेंगे।
    मार्च के प्रथम सप्ताह में वोट पड़े और मुसलमानों का अपार जनसमर्थन मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के पक्ष में उमड़ पड़ा। बेनी प्रसाद वर्मा, दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद व राहुल गांधी के दिखाए सुनहरे सपनों को दर किनार कर मुसलमान मुलायम सिंह के ऊपर विश्वास कर बैठा कि मुलायम वादा खिलाफ लीडर नहीं हैं।
    परिणाम स्वरूप समाजवादी पार्टी को पहली बार स्पष्ट बहुमत उसी प्रकार मुसलमानों ने दिलवा दिया जैसा कि 2007 में मायावती को उन्होंने दिलवाया था।
    परन्तु अखिलेश यादव के शासन काल में एक के बाद एक जिस तरह साम्प्रदायिक दंगे होने प्रारम्भ हुए और फैजाबाद व प्रतापगढ़ के अस्थान गाँव में जिस तरह मुसलमानों की सम्पत्तियाँ पुलिस की आँखों के सामने तबाह व बर्बाद की गईं उसने मुसलमानों के उस विश्वास को हिला कर रख दिया जो उन्होंने मुलायम सिंह व सपा सरकार पर किया था।
    बात यहीं पर समाप्त नहीं हुई मुसलमानों के साथ सबसे बड़ा धोखा जो मुलायम सिंह व उनके पुत्र अखिलेश की सपा सरकार ने किया वह अपने उस वायदे से फिर जाने का था, जो उन्होंने निर्दोष मुस्लिम नवयुवकों की रिहाई का मुसलमानों से भरी चुनावी सभाओं में किया था।
    तारिक कासमी व खालिद मुजाहिद की रिहाई पर जो नीति अखिलेश सरकार ने अपनाई वह किसी के गले के नीचे नहीं उतर रही है। मुसलमानों को आशा थी कि सपा सरकार के आते ही वह आर0डी0 निमेष कमीशन जो मायावती ने मुसलमानों के बेहद दबाव पर अभियुक्तों की गिरफ्तारी के चंद माह बाद बनाया था, की रिपोर्ट जो अखिलेश सरकार को कमीशन द्वारा 31 अगस्त 2012 को सौंपी जा चुकी थी, को आधार बनाकर निर्दोष तारिक कासमी व खालिद मुजाहिद की रिहाई का प्रयास सरकार करेगी, परन्तु अखिलेश सरकार ने बावजूद मुसलमानों के तमाम दबाव व प्रयासों के आर0डी0 निमेष कमीशन की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया। यहाँ तक कि कई समाचार पत्रों व स्वयं सेवी संगठनों ने इस रिपोर्ट को बेनकाब कर दिया, इससे लोगों को पता चला कि क्यों अखिलेश सरकारनिमेष कमीशन को आम नहीं कर रही थी। निमेष कमीशन ने जहाँ एक ओर तारिक कासमी व खालिद मुजाहिद के निर्दोष होने के साक्ष्य अपनी रिपोर्ट में दिए थे तो वहीं उसने इस बात के सुझाव भी सरकार को दिए थे कि ऐसे केसों में जहाँ जाँच एजेन्सियाँ न्याय कानून के विरुद्ध कार्य करंे तो उनके विरुद्ध कठोर विधिक कार्रवाई कर निर्दोषों को पुनर्वास हेतु क्षतिपूर्ति भी दी जानी चाहिए तथा फास्टट्रेक कोर्ट से कम अवधि में न्याय भी दिया जाना चाहिए।
    अखिलेश सरकार ने बेहद दबाव में मात्र खानापूर्ति के उद्देश्य से तारिक कासमी व खालिद मुजाहिद के केस वापसी की पहल गोरखपुर के उस मुकदमे से की जिसमें चार्जशीट तक जाँच एजेन्सी नहीं लगा सकी। उसके पश्चात लखनऊ, फैजाबाद कचेहरी बम ब्लास्ट के आरोपों के सम्बंध में मुकदमे की वापसी की कवायद बाराबंकी में वर्ष 2013 के प्रारम्भ में शुरू की गईं।
        13 बिन्दुओं पर आधारित रिपोर्ट शासन ने जिला प्रशासन व अभियोजन से तलब की। इसमें जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक तथा अभियोजन ने मुकदमा वापसी के विरोध में अपना मत दिया। फिर 18 अप्रैल 2013 को विशेष सचिव न्याय अनुभाग राजेन्द्र कुमार का एक पत्र जिला मजिस्ट्रेट बाराबंकी को भेजा गया जिसमें महामहिम राज्यपाल की अनुमति का हवाला देकर मु0अ0सं0 891/2007 धारा 121, 121ए, 122, 124ए, 332 भा0द0वि0 एवं 4/5 विस्फोटक पदार्थ अधिनियम 16, 18, 20 व 23 विधि विरुद्ध क्रिया-कलाप निवारण
अधि0 नगर कोतवाली बाराबंकी राज्य बनाम तारिक कासमी व खालिद मुजाहिद की वापसी के निर्णय के साथ उन्हें निर्देशित किया गया था कि वह अभियोजन द्वारा न्यायालय को सरकार के इस मत से अवगत करा दें।
    अखिलेश सरकार की कार्य प्रणाली इस मामले में प्रारम्भ से ही ऐसी रही कि जिससे अभियुक्तों को लाभ कम, उनका विरोध करने वाले तबके को लाभ अधिक मिले। उदाहरण स्वरूप बाराबंकी जिला प्रशासन से आशय प्राप्त करने का पत्र दूसरे दिन ही जाँच एजेन्सियों ने मीडिया में लीक कर दिया जिससे सरकार के इस कृत्य का विरोध करने वालों को अवसर प्राप्त हो सके। फिर मुकदमा वापसी की प्रक्रिया में जो रुख अभियोजन द्वारा अपनाया गया वह सरकार के मुकदमा वापसी के प्रयास से अधिक इसका विरोध करने वाले स्वयंसेवक संघ की जिला अधिवक्ता परिषद के उद्देश्य पूर्ति के पक्ष में अधिक रहा। अभियोजन पक्ष की कमियों की चर्चा मुकदमा वापसी के पत्र को निरस्त करने का आदेश पारित करने वाली अदालत की जज सुश्री कल्पना मिश्रा ने अपने आदेश में भी की।
       अखिलेश सरकार में मुसलमानों के साथ किए जा रहे व्यवहार से हताश मुसलमानों को और अधिक धक्का उस समय लगा जब मुलायम सिंह के मुँह से मुसलमानों के कट्टर विरोधी तथा बाबरी मस्जिद की शहादत केस के आरोपी लालकृष्ण अडवाणी के लिए तारीफों के बोल निकलने प्रारम्भ हुए। यही नहीं मुलायम सिंह ने संघ व भा0ज0पा0 से मिटती अपनी दूरियाँ के कई ऐसे संकेत देकर मुसलमानों  को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि अब वे भविष्य में मुलायम पर भरोसा करें अथवा नहीं।
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मो0 नं0-9455804309
तारिक़ खान
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