राष्ट्रीय एकता परिषद की 23 सितम्बर 2013 को दिल्ली में आयोजित बैठक बेनतीजा और निराषाजनक रही। मुजफ्फरनगर दंगो की पृष्ठभूमि और देष मंे एक वर्ष के भीतर होने वाले आम चुनावों के परिप्रेक्ष्य में यह उम्मीद थी कि सरकार इस बैठक में ऐसी कोई आचारसंहिता प्रस्तुत करेगी, जिसका पालन सभी से अपेक्षित होगा, अपितु स्वेच्छा से। या कम से कम यह आषा तो थी ही कि इस मुद्दे पर चर्चा होगी। परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
हिंसा को बड़ा स्वरूप देने में सोषल मीडिया की भूमिका को रेखांकित किया गया परंतु यह किसी ने नहीं कहा कि सोषल मीडिया में इस घटना के चर्चा में आने के पूर्व से ही, मुहंजबानी अफवाहों और पिं्रट मीडिया द्वारा इन अफवाहों को बिना जांच पड़ताल के प्रकाषित करने के कारण, हिंसा षुरू हो चुकी थी। सोषल मीडिया तो केवल एक माध्यम है। उसका क्या और कैसे उपयोग किया जाए, वह उपयोगकर्ता पर निर्भर करता है। कुछ लोग इसका नकारात्मक उपयोग करने में सिद्धहस्त होते हैं, जैसा कि उस भाजपा विधायक ने किया, जिसने जुनून पैदा करने के लिए एक भड़काऊ वीडियो क्लिप को नेट पर अपलोड कर दिया। ये विधायक उन्हीं शक्तियों के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने महापंचायतें आयोजित कर कानून का उल्लंघन किया था। उनके साथ वही व्यवहार किया जाना चाहिए था जो कि कानून तोड़ने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ किया जाता है। असली दोषी तो वे हैं जिन्होने महापंचायतों में हथियारबंद लोगों को इकट्ठा किया। असली दोषी तो वे हैं जिन्होंने यह जानते हुए भी, कि एक छोटी-सी चिंगारी दावानल का रूप ले सकती है, समय रहते रोकथाम की कार्यवाही नहीं की।
राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में शामिल होने वाले सदस्य मुजफ्फरनगर घटनाक्रम से कई सबक सीख सकते थे, बषर्ते उनकी राष्ट्रीय एकता कायम करने में सचमुच रूचि होती। इसमें कोई संदेह नहीं कि कई शीर्ष नेता राष्ट्रीय एकता समिति को बहुत गंभीरता से नहीं लेते। यह इस बात से भी साफ है कि कई मुख्यमंत्रियों ने बैठक मंे हिस्सा नहीं लिया। भाजपा-शासित प्रदेषों में से केवल एक के मुख्यमंत्री ने बैठक में भागीदारी की। प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने बैठक से दूर रहना ही बेहतर समझा।
परिषद क्या निर्णय ले सकती थी? सबसे पहले तो परिषद को जोर देकर यह कहना था कि साम्प्रदायिक हिंसा, बहुसंख्यक समुदाय में अल्पसंख्यकांे के बारे में व्याप्त पूर्वाग्रहों के कारण भड़कती है। हमें यह भी समझना होगा कि पुलिस और प्रषासनिक मषीनरी भी पूर्वाग्रहग्रस्त है और कई राजनैतिक दल, साम्प्रदायिक हिंसा के प्रति अपने रूख का निर्धारण, उससे उन्हें होने वाली लाभ-हानि से करते हंै। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राष्ट्रीय एकता परिषद वह भूमिका अदा नहीं कर पा रही है जिसके लिए उसका गठन किया गया था।
राष्ट्रीय एकता समिति का गठन सन् 1961 में हुआ था। इस निर्णय के पीछे थे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू, जो जबलपुर में हुए साम्प्रदायिक दंगों से अत्यंत व्यथित थे। उन्हांेने साम्प्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद से मुकाबला करने के लिए इस समिति का गठन करने का फैसला लिया था। इसे एक व्यापक मंच का स्वरूप दिया गया, जिसमें सभी राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि, राज्यों के मुख्यमंत्री, केन्द्रीय केबिनेट मंत्री और प्रतिष्ठित नागरिक शामिल थे। राष्ट्रीय एकता परिषद की मीडिया में गाहे-बगाहे ही चर्चा होती है। परिषद से जुड़े दो पुराने वाकयात याद आते हैं। पहला था उत्तरप्रदेष के भाजपाई मुख्यमंत्री कल्याण सिंह द्वारा परिषद को बाबरी मस्जिद की हर कीमत पर रक्षा करने का वायदा। बाद मंे कल्याण सिंह ने कहा कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस से जुड़े होने पर वे गर्वित महसूस करते हैं।
दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के छःह वर्ष के शासनकाल में राष्ट्रीय एकता परिषद का गठन ही नहीं किया गया! संदेष स्पष्ट था-भाजपा का राष्ट्रीय एकता से कोई लेनादेना नहीं है। आखिर वह हिन्दू राष्ट्र मंे विष्वास करती है न कि धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक भारत में। इसके अलावा, परिषद की केवल अत्यंत सीमित परामर्षदात्री भूमिका है। यूपीए-1 शासनकाल में परिषद की कुल दो बैठकें हुईं थीं और यूपीए-2 मंे भी अब तक इसकी केवल दो बैठकें हुई हैं। परिषद एक ऐसा राष्ट्रीय मंच है जो साम्प्रदायिकता के षिकार लोगों की व्यथा को स्वर दे सकता है और हमारे देष को दीमक की तरह चाट रही साम्प्रदायिकता से निपटने के उपायों पर सार्थक विचार कर सकता है।
परिषद का सांगठनिक ढांचा ऐसा है कि सभी राज्यों के मुख्यमंत्री उसके पदेन सदस्य हैं। स्वाभाविकतः, गुजरात कत्लेआम के निदेषक नरेन्द्र मोदी भी उसके सदस्य हैं। ज्ञातव्य है कि यूपीए-1 के दौरान आयोजित राष्ट्रीय एकता समिति की बैठक में मोदी ही एकमात्र ऐसे नेता थे जिनकी चर्चा मीडिया में हुई थी। वह इसलिए क्यांेकि उन्हांेने यह दावा कर सबको चांैका दिया था कि गुजरात में अल्पसंख्यक सुरक्षित हैं! इस बार उन्होंने बैठक में भाग न लेना ही बेहतर समझा।
हालिया बैठक में जो एक अच्छी बात हुई वह थी सदस्य जाॅन दयाल का प्रस्तुतिकरण, जिसमें उन्हांेने साम्प्रदायिकता व लक्षित हिंसा निरोधक कानून को जल्द से जल्द पारित करने पर जोर दिया। जब विधेयक का मसौदा पिछली बैठक में रखा गया था तब भारी हंगामा और शोर-षराबा हुआ था। इस बार गृहमंत्री सुषील कुमार षिंदे ने बैठक को बताया कि सरकार जल्द ही साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक विधेयक लाएगी। इस सिलसिले में यह महत्वपूर्ण है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने विधेयक का मसौदा सरकार के सामने प्रस्तुत कर दिया है। इस मसौदे में राजनैतिक, प्रषासनिक व पुलिस के स्तर पर दंगो की जवाबदेही तय करने की व्यवस्था है। तीनों स्तरों के कर्मियों को हिंसा के लिए जवाबदेह ठहराकर उन्हें सजा दी जा सकेगी।
अगर यह विधेयक पारित हो जाता है तो यह राष्ट्रीय एकता परिषद की बड़ी सफलता होगी। सरकार को भी कुछ कदम उठाने होंगे। जैसे टेलीविजन का इस्तेमाल स्वाधीनता आंदोलन व भारतीय संविधान के मूल्यों और साम्प्रदायिक सद्भाव के संदेष को आमजनों तक पहुंचाने के लिए किया जा सकता है। आमजनों को हमें इस तथ्य से वाकिफ कराना होगा कि भारतीय समाज, विविधताओं से भरा हुआ है और हमारा संविधान बहुवादी है। हमें लोगों को यह बताना होगा कि किस तरह विभिन्न धर्मों के लोगांे ने भारत की आजादी की लड़ाई में षिरकत की, उसकी सांझा संस्कृति का निर्माण किया और कैसे भक्ति और सूफी संतो ंके जरिए एक धर्म के लोगों ने दूसरे धर्म के मर्म को समझा। दुर्भाग्यवष, अनेक टीवी चैनलों से इन दिनों ऐसे तथाकथित ऐतिहासिक सीरियलों का प्रसारण हो रहा है, जो सद्भाव के स्थान पर दोनों समुदायों के बीच शत्रुता को बढ़ाने वाले हैं।
सरकार पुलिस और प्रषासनिक कर्मियों को भारत के बहुवादी मूल्यों से परिचित करवाने के लिए बड़े पैमाने पर प्रषिक्षण कार्यक्रम चला सकती है। राष्ट्रीय एकता परिषद की भूमिका को अर्थपूर्ण बनाने के लिए यह जरूरी है कि हम साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा फैलाई गई वैचारिक धुंध से बाहर निकलें, दूसरे समुदायों के सदस्यों के साथ मिलें-बैठें, उन्हें समझें, उन्हें अपना दोस्त बनाएं। राष्ट्रीय एकता समिति को उन कारकों पर गहराई से विचार करना चाहिए जिनके कारण हालात आज इतने गंभीर हो गए हैं। कुल मिलाकर, राष्ट्रीय एकता परिषद के खातेे में अब तक कोई उपलब्धि नहीं है। अगर वह सरकार को साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक कानून लागू करने के लिए पे्ररित करने में सफल हो गई तो यह उसकी एक बड़ी उपलब्धि होगी।
-राम पुनियानी
हिंसा को बड़ा स्वरूप देने में सोषल मीडिया की भूमिका को रेखांकित किया गया परंतु यह किसी ने नहीं कहा कि सोषल मीडिया में इस घटना के चर्चा में आने के पूर्व से ही, मुहंजबानी अफवाहों और पिं्रट मीडिया द्वारा इन अफवाहों को बिना जांच पड़ताल के प्रकाषित करने के कारण, हिंसा षुरू हो चुकी थी। सोषल मीडिया तो केवल एक माध्यम है। उसका क्या और कैसे उपयोग किया जाए, वह उपयोगकर्ता पर निर्भर करता है। कुछ लोग इसका नकारात्मक उपयोग करने में सिद्धहस्त होते हैं, जैसा कि उस भाजपा विधायक ने किया, जिसने जुनून पैदा करने के लिए एक भड़काऊ वीडियो क्लिप को नेट पर अपलोड कर दिया। ये विधायक उन्हीं शक्तियों के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने महापंचायतें आयोजित कर कानून का उल्लंघन किया था। उनके साथ वही व्यवहार किया जाना चाहिए था जो कि कानून तोड़ने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ किया जाता है। असली दोषी तो वे हैं जिन्होने महापंचायतों में हथियारबंद लोगों को इकट्ठा किया। असली दोषी तो वे हैं जिन्होंने यह जानते हुए भी, कि एक छोटी-सी चिंगारी दावानल का रूप ले सकती है, समय रहते रोकथाम की कार्यवाही नहीं की।
राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में शामिल होने वाले सदस्य मुजफ्फरनगर घटनाक्रम से कई सबक सीख सकते थे, बषर्ते उनकी राष्ट्रीय एकता कायम करने में सचमुच रूचि होती। इसमें कोई संदेह नहीं कि कई शीर्ष नेता राष्ट्रीय एकता समिति को बहुत गंभीरता से नहीं लेते। यह इस बात से भी साफ है कि कई मुख्यमंत्रियों ने बैठक मंे हिस्सा नहीं लिया। भाजपा-शासित प्रदेषों में से केवल एक के मुख्यमंत्री ने बैठक में भागीदारी की। प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने बैठक से दूर रहना ही बेहतर समझा।
परिषद क्या निर्णय ले सकती थी? सबसे पहले तो परिषद को जोर देकर यह कहना था कि साम्प्रदायिक हिंसा, बहुसंख्यक समुदाय में अल्पसंख्यकांे के बारे में व्याप्त पूर्वाग्रहों के कारण भड़कती है। हमें यह भी समझना होगा कि पुलिस और प्रषासनिक मषीनरी भी पूर्वाग्रहग्रस्त है और कई राजनैतिक दल, साम्प्रदायिक हिंसा के प्रति अपने रूख का निर्धारण, उससे उन्हें होने वाली लाभ-हानि से करते हंै। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राष्ट्रीय एकता परिषद वह भूमिका अदा नहीं कर पा रही है जिसके लिए उसका गठन किया गया था।
राष्ट्रीय एकता समिति का गठन सन् 1961 में हुआ था। इस निर्णय के पीछे थे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू, जो जबलपुर में हुए साम्प्रदायिक दंगों से अत्यंत व्यथित थे। उन्हांेने साम्प्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद से मुकाबला करने के लिए इस समिति का गठन करने का फैसला लिया था। इसे एक व्यापक मंच का स्वरूप दिया गया, जिसमें सभी राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि, राज्यों के मुख्यमंत्री, केन्द्रीय केबिनेट मंत्री और प्रतिष्ठित नागरिक शामिल थे। राष्ट्रीय एकता परिषद की मीडिया में गाहे-बगाहे ही चर्चा होती है। परिषद से जुड़े दो पुराने वाकयात याद आते हैं। पहला था उत्तरप्रदेष के भाजपाई मुख्यमंत्री कल्याण सिंह द्वारा परिषद को बाबरी मस्जिद की हर कीमत पर रक्षा करने का वायदा। बाद मंे कल्याण सिंह ने कहा कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस से जुड़े होने पर वे गर्वित महसूस करते हैं।
दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के छःह वर्ष के शासनकाल में राष्ट्रीय एकता परिषद का गठन ही नहीं किया गया! संदेष स्पष्ट था-भाजपा का राष्ट्रीय एकता से कोई लेनादेना नहीं है। आखिर वह हिन्दू राष्ट्र मंे विष्वास करती है न कि धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक भारत में। इसके अलावा, परिषद की केवल अत्यंत सीमित परामर्षदात्री भूमिका है। यूपीए-1 शासनकाल में परिषद की कुल दो बैठकें हुईं थीं और यूपीए-2 मंे भी अब तक इसकी केवल दो बैठकें हुई हैं। परिषद एक ऐसा राष्ट्रीय मंच है जो साम्प्रदायिकता के षिकार लोगों की व्यथा को स्वर दे सकता है और हमारे देष को दीमक की तरह चाट रही साम्प्रदायिकता से निपटने के उपायों पर सार्थक विचार कर सकता है।
परिषद का सांगठनिक ढांचा ऐसा है कि सभी राज्यों के मुख्यमंत्री उसके पदेन सदस्य हैं। स्वाभाविकतः, गुजरात कत्लेआम के निदेषक नरेन्द्र मोदी भी उसके सदस्य हैं। ज्ञातव्य है कि यूपीए-1 के दौरान आयोजित राष्ट्रीय एकता समिति की बैठक में मोदी ही एकमात्र ऐसे नेता थे जिनकी चर्चा मीडिया में हुई थी। वह इसलिए क्यांेकि उन्हांेने यह दावा कर सबको चांैका दिया था कि गुजरात में अल्पसंख्यक सुरक्षित हैं! इस बार उन्होंने बैठक में भाग न लेना ही बेहतर समझा।
हालिया बैठक में जो एक अच्छी बात हुई वह थी सदस्य जाॅन दयाल का प्रस्तुतिकरण, जिसमें उन्हांेने साम्प्रदायिकता व लक्षित हिंसा निरोधक कानून को जल्द से जल्द पारित करने पर जोर दिया। जब विधेयक का मसौदा पिछली बैठक में रखा गया था तब भारी हंगामा और शोर-षराबा हुआ था। इस बार गृहमंत्री सुषील कुमार षिंदे ने बैठक को बताया कि सरकार जल्द ही साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक विधेयक लाएगी। इस सिलसिले में यह महत्वपूर्ण है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने विधेयक का मसौदा सरकार के सामने प्रस्तुत कर दिया है। इस मसौदे में राजनैतिक, प्रषासनिक व पुलिस के स्तर पर दंगो की जवाबदेही तय करने की व्यवस्था है। तीनों स्तरों के कर्मियों को हिंसा के लिए जवाबदेह ठहराकर उन्हें सजा दी जा सकेगी।
अगर यह विधेयक पारित हो जाता है तो यह राष्ट्रीय एकता परिषद की बड़ी सफलता होगी। सरकार को भी कुछ कदम उठाने होंगे। जैसे टेलीविजन का इस्तेमाल स्वाधीनता आंदोलन व भारतीय संविधान के मूल्यों और साम्प्रदायिक सद्भाव के संदेष को आमजनों तक पहुंचाने के लिए किया जा सकता है। आमजनों को हमें इस तथ्य से वाकिफ कराना होगा कि भारतीय समाज, विविधताओं से भरा हुआ है और हमारा संविधान बहुवादी है। हमें लोगों को यह बताना होगा कि किस तरह विभिन्न धर्मों के लोगांे ने भारत की आजादी की लड़ाई में षिरकत की, उसकी सांझा संस्कृति का निर्माण किया और कैसे भक्ति और सूफी संतो ंके जरिए एक धर्म के लोगों ने दूसरे धर्म के मर्म को समझा। दुर्भाग्यवष, अनेक टीवी चैनलों से इन दिनों ऐसे तथाकथित ऐतिहासिक सीरियलों का प्रसारण हो रहा है, जो सद्भाव के स्थान पर दोनों समुदायों के बीच शत्रुता को बढ़ाने वाले हैं।
सरकार पुलिस और प्रषासनिक कर्मियों को भारत के बहुवादी मूल्यों से परिचित करवाने के लिए बड़े पैमाने पर प्रषिक्षण कार्यक्रम चला सकती है। राष्ट्रीय एकता परिषद की भूमिका को अर्थपूर्ण बनाने के लिए यह जरूरी है कि हम साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा फैलाई गई वैचारिक धुंध से बाहर निकलें, दूसरे समुदायों के सदस्यों के साथ मिलें-बैठें, उन्हें समझें, उन्हें अपना दोस्त बनाएं। राष्ट्रीय एकता समिति को उन कारकों पर गहराई से विचार करना चाहिए जिनके कारण हालात आज इतने गंभीर हो गए हैं। कुल मिलाकर, राष्ट्रीय एकता परिषद के खातेे में अब तक कोई उपलब्धि नहीं है। अगर वह सरकार को साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक कानून लागू करने के लिए पे्ररित करने में सफल हो गई तो यह उसकी एक बड़ी उपलब्धि होगी।
-राम पुनियानी
3 टिप्पणियां:
राजनीति जब वोट की, अपने अपने स्वार्थ |
परिषद् भी बीमार है, मोहग्रस्त ज्यों पार्थ ||
संशोधन : शुक्रवारीय चर्चा मंच पर :
सुन्दर प्रस्तुति .; हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ
कभी इधर भी पधारिये
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