बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

भडका रहे हैं आग लब-ए-नग़्मगर से हम , ख़ामोश क्यों रहेंगे ज़माने के डर से हम -- साहिर

' मेरे सरकश तराने सून के दरिया ये समझती है कि शायद मेरे दिल को इश्क के नगमो से नफरत है ''
साहिर एक बेमिशाल अल्फाजो का जादूगर , तरक्की पसन्द इंकलाबी शायर जिनके दिलो -- दिमाग में गूजता  रहता कि ये दुनिया कैसे खुबसूरत बने | एक फनकार सिर्फ अदब और अदीब की दुनिया में रहते हुए वो अपने हर हर्फो में जिन्दगी के मायने तलाशते हुए वर्तमान के साथ सवाल खड़ा करता है कि जीवन को कैसे जिया जाए वह आने वाले कल के महरलो से अवगत कराता है | ऐसी ही इस दुनिया में एक अजीम हस्ती थी साहिर लुधियानवी उस बेनजीर शक्सियत का असली नाम अब्दुल हयी साहिर था | 8 मार्च 1921 को लुधियाना के एक जागीरदार घराने में उनकी पैदाइश हुई थी | साहिर का बचपन बहुत ही कड़े संघर्षो से भरा पड़ा था कारण कि उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली थी जिसके चलते साहिर की माँ ने घर छोड़ दिया और अपनी जिन्दगी जीने के लिए रेलवे लाइन के किनारे झोपड़ पट्टी में रहकर अपने सहारे को मजबूत इरादे वाला बनाने के लिए मेहनत - मजदूरी करने लगी | साहिर का बचपन इन्ही रेलवे लाइनों के किनारे गुजर रहा था जहा पर वो देखते कि लाइनों के बीच औरते और बच्चे कोयला और कचरा बीनते रहते साहिर ने पूरा बचपन जीवन के संघर्ष को बड़े नजदीक से देखा , तभी वो बोल पड़े '' कसम उन तंग गलियों की वह मजदुर रहते है '' इन्ही झंझावतो के बीच लुधियाना के खालसा स्कूल में साहिर ने अपनी शिक्षा की शुरुआत की और माध्यमिक की शिक्षा पूरी करते हुए अपनी शेरो -- शायरी को परवान चढाते रहे | उन हालातो से लड़ते हुए साहिर लिखते है '' आज से मैं अपने गीतों में आतिश - पारे भर दूंगा माध्यम लचीली तानो में सारे जेवर भर दूंगा जीवन के अंधियारे पथ पर मशाल ले के निकलू धरती के फैले आँचल में सुर्ख सितारे भर दूंगा "" ऐसी सुलगती आग से उस इंकलाबी शायर का एक नया चेहरा सामने आता है | 1939 में साहिर ने गवर्मेंट कालेज में स्नातक की शिक्षा के लिए दाखिओला लिया | तब तक साहिर के नज्मो और शायरी की चर्चा पूरे भारत में फ़ैल चुकी थी | उसी कालेज में उस दरमियान अमृता प्रीतम भी अपनी पढ़ाई पूरी कर रही थी और वो साहिर के शेरो -- शायरी की बहुत बड़ी प्रशंसक थी और अमृता के दिल की धरती पर साहिर के प्यार भरे नज्म अंकित हो चला था | अमृता छात्र जीवन में ही साहिर से प्यार करने लगी थी और साहिर का भी झुकाव उनकी तरफ हो चुका था | अमृता के दिल पर साहिर के नज्म अपना नाम लिखने लगे और अमृता ने अपना दिल साहिर के हवाले कर दिया | पर साहिर से प्यार करना अमृता के घर वालो को रास नही आया कारण था धन और वैभव जो साहिर के पास नही था अगर था कुछ तो अदब और अदीब का खजाना उसको कौन देखता है इसके साथ ही इन दोनों तरक्की पसंद प्रेमियों के आडे आया धर्म की दीवार जिसको ये लोग तोड़ नही पाए जिसके चलते अमृता को उनका प्यार नसीब नही हुआ जिसके हर पन्नो पर अमृता ने पूरी इबारत लिख दी | उसी वक्त वो इंकलाबी शायर अपने दिल के जज्बात को लिखते हुए कहता है ''
मैंने जो गीत तेरे प्यार की खातिर लिखे
आज उन गीतों को बाजार में ले आया हूँ
आज दूकान में नीलाम उठेगा उनका
हमने जिन गीतों पर रक्खी थी मुहब्बत की अशार
आज चाँदी के तराजू पे तुलेगी हर चीज
मेरे अशरार , मेरी शायरी , मेरा एह्साह ''

साहिर के शायरी में जहा आम आदमी के संघर्षो के लिए निकले शब्दों की अभिव्यक्ति धधकती ज्वाला नजर आती है वही पर एक प्यार भरा मासूम दिल भी नजर आता है जहा प्यार के रूमानियत से भरे अलफ़ाज़ यह एह्साह दिलाते है कि भोर में पड़ी फूलो और पत्तो पर गिरी ओस की बुँदे सूरज के रौशनी पड़ते ही शबनम की मोतिया बनी बिखरी होती है जिसके एक -- एक कण से प्यार के नये एह्साह के साथ ही विद्रोह का स्वर फूट पड़ा हो | जो एक नई दुनिया को न्य प्रकाश दे रहा हो | लुधियाने में साहिर ने घर चलाने के लिए छोटे -- मोटे काम किये उसके बाद वो 1943 में लाहौर आ गये |
उसी वर्ष उनके नज्मो का संग्रह '' तल्खिया '' छपी इसके छपते ही साहिर की ख्याति बड़े शायरों में होने लगी | तल्खिया में वो लिखते है कि

ताज तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़तही सही
तुझको इस वादी-ए-रंगींसे अक़ीदत ही सही

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से!

बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह में हों सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी

मेरी महबूब! पस-ए-पर्दा-ए-तशहीर-ए-वफ़ा तो दूसरी तरफ
चलो इक बार फिर से अज़नबी बन जाएँ हम दोनों

न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखो दिलनवाज़ी का
न तुम मेरी तरफ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लडखडाये मेरी बातों से
न ज़ाहिर हो हमारी कशमकश का राज़ नज़रों से
तुम्हे भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी स
मुझे भी लोग कहते हैं की ये जलवे पराये हैं
मेरे हमराह भी रुसवाइयां हैं मेरे माजी की
तुम्हारे साथ में गुजारी हुई रातों के साये हैं |


1945 में प्रसिद्ध उर्दू पत्र '' अदब - ए तारिक '' और शाहकार ( लाहौर ) के सम्पादक बने | उन्होंने अपने सम्पादन काल में इन दोनों पत्रों को बुलन्दियो पर पहुचाया | वो वक्त तरक्की पसन्द और जंगे आजादी केदौर से गुजर रहा था भला साहिर का इंकलाबी शायर चुप कैसे रहता और उन्होंने कहा कि --------

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे-तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के

ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है साहिर के इन गहरी अभिव्यक्ति से आम समाज की पीड़ा झलकती है साहिर के इन जज्बातों पे महान साहित्यकार और फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास की कलम कुछ यू बया करती है साहिर के पिछले कल को '' एक मौके पर सर सैयद अहमद खा ने कहा था कि अगर खुदा ने मुझसे पूछा कि दुनिया तुमने क्या काम किया , तो मैं जबाब दूंगा कि मैंने ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली से '' मुस्द्द्से हाली '' लिखवाई | इसी तरह जो ऐतिहासिक तौर से उपयोगी साबित हुई , तो वह एक खुली चिठ्ठी थी , जो मैंने 1948 में साहिर लुधियानवी के नाम लिखी थी | साहिर उस वक्त पाकिस्तान चले गये थे | यह खुला ख़त साहिर लुधियानवी के नाम था , मगर उसके जरिये मैं उन सब तरक्की -- पसंदों को आवाज दे रहा था जो फसादों के दौरान यहाँ से हिजरत कर गये थे | तीन महीने बाद मैं हैरान रह गया , जब मैंने साहिर लुधियानवी को मुंबई में देखा | उस वक्त तक मैं साहिर से निजी तौर पर ज्यादा वाकिफ न था , लेकिन उनकी नज्मो खासतौर पर '' ताजमहल '' का मैं कायल था , और इसी लिए मैंने वह '' खुली चिठ्ठी '' साहिर के नाम लिखी थी |
जब साहिर को मैंने मुंबई में देखा , तो मैंने कहा , '' आप तो पाकिस्तान चले गये थे ? '' उन्होंने विस्तार पूर्वक बताया कि जब मेरा ख़त उन्होंने अख़बार में पढ़ा , तो वह दुविधा में थे | पचास प्रतिशत हिन्दुस्तान आने के हक़ में और पचास प्रतिशत पाकिस्तान में रहने के हक़ में थे | मगर मेरी '' खुली चिठ्ठी '' ने हिन्दुस्तान का पलड़ा भारी कर दिया और वह हिन्दुस्तान वापस आ गये और ऐसे आये कि फिर कभी पाकिस्तान न गये हालाकि वह भी उनके चाहने वाले वालो और उनकी शायरी को चाहने वालो की कमी न थी |
उस वक्त से एक तरह की जिम्मेदारी साहिर को हिन्दुस्तान बुलाने के बाद मेरे कंधो पर आ पड़ी | फ़िल्मी दुनिया में इंद्रराज आनन्द ने उन्हें अपनी कहानी '' नौजवान '' के गाने लिखने के लिए कारदार साहब और निदेशक महेश कॉल से मिलवाया और पहली फिल्म में ही साहिर ने अदबी शायरी के झंडे गाड दिए | फिल्म नौजवान के गीत ने साहिर को हिन्दी सिनेमा में स्थापित कर दिया और उन्होंने हिन्दी सिनेमा को ऐसे गीतों की माला से सजाया जो आज की तवारीख में इतिहास बन के खड़ा है |
'' रात भी है कुछ भीगी- भीगी, चांद भी है कुछ मद्धम-मद्धम
तुम आओ तो आँखें खोले, सोई हुई पायल की छम-छम
किसको बताएँ, कैसे बताएँ, आज अजब है दिल का आलम
चैन भी है कुछ हलका-हलका, दर्द भी है कुछ मद्धम-मद्धम ''


तुम न जाने किस जहाँ में खो गए
हम भरी दुनिया में तनहा हो गए
मौत भी आती नहीं, आस भी जाती नही
दिल को यह क्या हो गया, कोई शैय भाती नही
लूट कर मेरा जहाँ, छुप गए हो तुम कहाँ


साहिर ने फिल्मो में भी अपनी अदबी शायरी को बनाये रखा और यह कह कि

''न मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो
ग़मों का दौर भी आये तो मुस्कुरा के जियो
न मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो

घटा में छुपके सितारे फ़ना नहीं होते
अँधेरी रात में दिये जला के चलो
न मुँह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो ''


उस दिन जब साहिर अपनी आखरी सांसे ले रहे थे तब भी उन्होंने अपनी रविश न छोड़ी | जो भी लिखा , वह एक शायर के जज्बात और एहसासों की नुमाइंदगी करता था | कभी उन्होंने अपना कलात्मक मियर न गिरने दिया |
बला की लोकप्रियता नसीब हुई साहिर को | उसमे उर्दू जुबान की लताफत , मिठास , हसन और जोर का भी दखल था , और उस जुबान के सबब से हस्सास और नाजुक - मुजाज और रंगीले शायर की सृजन का भी दखल था , जो उस जुबान का एक ही वक्त में आशिक भी था और माशूक भी | आशिके -- सादिक इस लिहाज से कि वह उस वक्त उस जुबान पर मोहित थे | साहिर उर्दू के लिए बहुत सी परेशानियों का सामना किया और उसके अस्तित्व के लिए लड़ते भी रहे माशूक इन मायनो में कि उस जुबान ने जितनी छुट साहिर को दे राखी थी उतनी किसी और शायर को नही दी थी |
साहिर ने जितने तजुर्बात शायरी की वह किसी ने कम किये होंगे | उन्होंने सियासी शारी भी की है रोमानी शायरी भी की | किसानो और मजदूरो की बगावत का ऐलान भी किया ऐसी शायरी भी की जो त्ख्लिकी तौर से पैगम्बरी की सरहदों को छू गयी और ऐसी शायरी भी की जिसमे रंगीन मिजाजी और शोखी झलकती दिख जायेगी |
फ़िल्मी शायरों को एक अदबी मियार सबसे पहले साहिर ने ही दिया उन्होंने फिल्म देखने वालो के जोक को न सिर्फ उंचा उठाया , बल्कि एक सच्चे शायर की तरह कभी आवामी मजाक को घटिया न समझा , वरन '' मैं पल दो पल का शायर हूँ '' और '' कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिए "" जैसे गीत लिखकर दुसरो को रास्ता दिया |

आज उस अजीम हस्ती शायर साहिर की पुण्यतिथि पर मेरा नमन

-सुनील दत्ता

स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

इसके कुछ अंश ख्वाजा अहमद अब्बास के संस्मरण से लिए गये है

5 टिप्‍पणियां:

नीलिमा शर्मा Neelima Sharma ने कहा…

वाह वाह .........उम्दा

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
साझा करने के लिए आभार।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
साझा करने के लिए आभार।

Sarik Khan Filmcritic ने कहा…

Good evening india main sahir ludiyanbi

बेनामी ने कहा…

इस पोस्ट को पढ़ने का आनंद लिया. बहुत अच्छी तरह से प्रस्तुत किया

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