रविवार, 17 नवंबर 2013

'' प्रिय प्रवास '' के बहाने अयोध्या सिंह उपाध्याय '' हरिऔध ''




 

साहित्य , समाज और संस्कृति का घनिष्ट सबंध है | युगद्रष्टा रचनाकार जिस साहित्य का सृजन कर्ता है , वह समाज के विषमताओ , संत्रास , संघर्षो को रेखांकित ही नही अपितु उसे उपयुक्त दिशाबोध भी प्रदान करता है इसके साथ ही देश काल परिस्थितियों का सांस्कृतिक जीवन दर्शन भी प्रस्तुत करता  है |

संस्कृति किसी राष्ट्र की आत्मा होती है -- पूरा विश्व ग्लोबल विलेज की दुनिया में जकड़ रहा है | साहित्य की दिशा भी समाज के साथ आगे बढ़ रही है | आधुनिक कविता जो कभी भारतेन्दु के गीतों और हरिऔध , मैथलीशरण की राष्ट्रीय कविताओं में अपनी पहचान बनाती थी वह '' आधुनिकता '' और '' उत्तर आधुनिकता के तकनिकी मुहावरों में देखी  जा रही है | समाजवाद -- मार्क्सवाद से बढ़कर वैश्वीकरण उदारवाद और मुक्त व्यापार के प्रसार के साथ हम अपनी जड़ से कट कर आर्थिक युग के एक यंत्र बनते जा रहे है , ऐसे समय में साहित्य स्वंय कितना महत्वपूर्ण रह जाता है यह विचारणीय है ?

1857 में देश एक नई चेतना की ओर अग्रसर हो रहा था और विद्रोह का स्वर फूट रहा था | ऐसे समय में भारतीय जनमानस के राजनैतिक , सामाजिक , धार्मिक , शैक्षिक और साहित्यिक आदि क्षेत्रो में नव्य चेतना से देश के लोग झंकृत हो रहे थे |

    1857 की क्रान्ति सफल न हो सकी पर इस क्रान्ति से लगी आग बराबर देश के सपूतो के दिलो -- दिमाग के अन्दर सुलगती रही | इसके पूर्व ही आर्यसमाज के माध्यम से स्वामी दयानन्द ने ब्रम्ह समाज के माध्यम से केशवचन्द्र सेन और राजा राम मोहन राय  ने हिन्दू समाज से छुआ छूत , जाति- पाति, पाखण्ड , और जड़ता आदि कुरीतियों  को  जहा दूर करने का प्रयास कर रहे थे और ऐसे में एक कड़ी ऐनी बेसेन्ट ने थियोसिफिकल सोसायटी और स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन द्वारा भारतीय जीवन को आधुनिक परिवेश से युक्त कर विश्व -- प्रतिष्ठा दी | राजनैतिक क्षेत्र में भगत सिंह , अशफाक उल्ला , राम प्रसाद बिस्मिल , सुखदेव जैसे क्रांतिवीरो ने व महामना मदन मोहन मालवीय , बाल गंगाधर तिलक , सुभाष चन्द्र बोस , सरदार पटेल ने यही काम किया | हिन्दी साहित्य में भारतीयता , राष्ट्रीयता और आधुनिकता की यही मशाल लेकर भारतेन्दु बाबा हरिश्चन्द्र खड़े हुए इसी समय आजमगढ़ की उर्वरक जमीन पर एक नया दीपक जन्म ले चुका था और आने वाले कल का हिन्दी साहित्य के क्रान्तीवीर बनकर दीपक की लौ फैलाने वाले अयोध्या सिंह हरिऔध थे | हरिऔध के काव्य गुरु बाबा सुमेर सिंह साहबजादे '' भारतेन्दु के प्रभामंडल '' के एक यशस्वी कवि थे | हरिऔध के भी बाल --  संस्कार भारतेन्दु -- यूग के वातावरण में ही परिपुष्ट हुए थे | इन सभी प्रभावों को एक रचनाकार के रूप में आत्मसात करते हुए प ० अयोध्या सिंह हरिऔध ने साहित्य जगत में प्रवेश किया  | बीसवी शताब्दी के प्रारम्भ के साथ उन्होंने जो साहित्य की रचना शुरू की वह अगले पांच दशको तक निरंतर ऊँचाइया छूती रही | इस अवधि में उन्होंने कविता , उपन्यास , आलोचना , निबन्ध , और अनेक विधाओं में रचना की | ऐसे महान साहित्य मनीषी की रचनाधर्मिता को समझना और उसे आज के सवालों के संदर्भ में दिशा निर्देश लेना समय की सर्व प्रमुख आवश्यकता है | खड़ी बोली का प्रथम महा काव्य '' प्रिय प्रवास '' जैसे रचनाकृति ने हरिऔध जी को बहुत उचाईया प्रदान की उसी के चलते '' कवि सम्राट '' और साहित्य वाचस्पति '' जैसे उपाधियो से अलंकृत किया गया | '' प्रिय प्रवास '' खड़ी बोली हिन्दी का पहला महाकाव्य है और अपने लालित्य -- प्रवाह के कारण साहित्य प्रेमियों के बीच आज भी प्रतिष्ठित है | सच तो यह है कि ऐसे महान लेखको और उनकी रचनाओं को समझे बिना आधुनिक हिन्दी साहित्य की उचाइयो को पूरी तरह नही समझा जा सकता है | भारतीय साहित्य संगम आजमगढ़ द्वारा '' अयोध्या सिंह उपाध्याय '' हरिऔध '' के खड़ी बोली में लिखे प्रथम महा काव्य '' प्रिय प्रवास '' रचना शताब्दी वर्ष पर दो दिवसीय गोष्ठी का आयोजन नेहरु हाल  में किया गया | गोष्ठी के प्रथम दिन के प्रथम सत्र के मुख्य अतिथि पूर्व महानिदेशक सार्वजनिक उद्योग ब्यूरो उत्तर  परदेश डा राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय ने '' प्रिय प्रवास '' पर अपने विचार रखते हुए कहा कि हिन्दी साहित्य का यह प्रथम खड़ी बोली का महाकाव्य है हरिऔध जी जब इस रचना को लिख रहे थे उस वक्त भाषा को लेकर अनेको प्रश्न खड़े थे तब प्रिय प्रवास को खड़ी बोली में लिखना कितना बड़ा चुनौती था | और उस चुनौती को स्वीकार किया हरिऔध जी , संस्कृत के समस्त काव्य ग्रन्थ अनुकान्त अथवा अन्त्यानुप्रास हीन कविता से भरे पड़े थे | चाहे लघुत्रयी रघुवंश आदि वृहत्रयी किरातादी जिसको आप देखे उसी में आप भिन्न्तुकान्त  कविता का  अटल राज पायेगे | परन्तु हिन्दी काव्य ग्रंथो में इस नियम का सर्वथा व्यभिचार है उसमे आप भिन्त्यानुप्रासहीन कविता पायेगे ही नही | अन्त्यानुप्रास बड़े ही श्रवण -- सुखद होते है और उस कथन को भी मधुरता बना देते है |
  
    डा पाण्डेय विचार को आगे बढाते हुए कि हरिऔध जी कहते है कि ज्ञात होता है हिन्दी -- काव्य ग्रंथो में इसी कारण अन्त्यानुप्रास की इतनी प्रचुरता है | बालको की बोलचाल में , निम्न जातियों के साधारण कथन और गान तक में आप इसका आदर देखेगे  फिर हिन्दी काव्य ग्रंथो में इसका समादर अधिकता से हो तो आश्चर्य क्या है ? हिन्दी ही नही यदि हमारे भारतवर्ष की प्रान्तिक भाषाओं बंगला , पंजाबी , मराठी , गुजराती आदि पर आप दृष्टि डालेगे तो वह भी अन्त्यानुप्रास का ऐसा ही समादर पायेगे | उन्होंने क्रम को आगे बढाते  हुए कहा कि संस्कृत वृत्त बहुत ही उपयुक्त है | इसके अतिरिक्त भाषा छन्दों में मैंने जो एक आध  अतुकान्त कविता देखि , उसको बहुत ही भद्दी पाया | यदि कोई अच्छी कविता मिली भी तो उसमे वह लावण्य नही मिला जो संस्कृत -- वृत्तो में पाया जाता है | यह भी भाषा -- साहित्य में एक नई बात है जहा तक मैं अभिज्ञ हूँ अब तक हिन्दी भाषा में केवल संस्कृत छन्दों में कोई ग्रन्थ नही लिखा गया है | जब से हिन्दी भाषा में खड़ी बोली की कविता का प्रचार हुआ है तब से लोगो की दृष्टि संस्कृत वृत्तो की ओर आकर्षित है तथापि मैं यह कहुगा कि भाषा में कविता के लिए संस्कृत छन्दों का प्रयोग अब भी उत्तम दृष्टि से नही देखा जाता है | गोष्ठी के क्रम को आगे बढ़ते हुए यू पी कालेज के हिन्दी के बरिष्ठ प्रवक्ता डा राम सुधार सिंह ने सुधिजनो को संबोधित करते हुए कहा '' प्रिय प्रवास '' 15 अक्तूबर 1909 में हरिऔध जी ने लिखना प्रारम्भ किया और खड़ी बोली  का प्रथम महा काव्य 1913 में प्रकाशित हुआ | उन्होंने आगे कहा कि हरिऔध जी  ने खड़ी बोली में संस्कृत के ललित -- वृत्तो को जोड़ा तभी अन्य प्रान्तों के विद्वान् उसे पढ़कर सच्चा आनन्द प्रात कर सके | राष्ट्र भाषा हिन्दी के काव्य ग्रंथो का स्वाद अन्य प्रांत वालो को भी चखाना था |भारत के भिन्न -- भिन्न प्रान्तों के निवासी विद्वान् संस्कृत भाषा के वृत्तो से अधिक परिचित है इसका कारण यही है कि संस्कृत भारत वर्ष की पूज्य और प्राचीन भाषा है | हरिऔध जी का प्रिय प्रवास की भाषा संस्कृत -- गर्भित है | उसमे हिन्दी के स्थान पर संस्कृत का रंग अधिक है | इसी क्रम को हिन्दी भाषा संस्थान उत्तर परदेश के पूर्व अध्यक्ष डा कन्हैया सिंह ने  बढाते हुए कहा कि हिन्दी साहित्य में गद्द  विधा में खड़ी बोली का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय हुआ नाटको में जो गीत भारतेन्दु ने लिखे थे , वे खड़ी बोली में थे , पर कृष्ण भक्ति काव्य में रीतिकाल तक की काव्य भाषा ब्रजभाषा भारतेन्दु युग तक बनी रही हरिऔध जी ने भारतेन्दु युग में ही कविता लिखनी प्रारम्भ की उनका प्रारम्भिक काव्य ब्रजभाषा में लिखा गया जो 1900 ई के पूर्व का ही अधिकाशत : है | उनका प्रथम काव्य संग्रह '' प्रेम प्रपंच '' 1898 ई में द्दितीय '' प्रेमाम्बू -- प्रवाह '' और तृतीय '' प्रेमाम्बू प्रस्त्रवंण '' 1899 ई में प्रकाशित हुए थे | उन्होंने गोष्ठी को आगे बढाते  हुए बोला कि हरिऔध जी के इन ब्रजभाषा रचनाओ के नाम से प्रकट है कि ये सभी प्रेम और श्रृगार की रचनाये है | भले ही खड़ी बोली आन्दोलन में ब्रजभाषा का महत्व कम हो गया और हरिऔध के भी इसमें लिखे काव्य का समुचित अनुशीलन -- मूल्याकन नही हुआ , किन्तु ये कविताएं हरिऔध के भावुक हृदय , रसिक -- वृति और श्रृगारिक तन्मयता की बोधक है | '' प्रिय प्रवास '' इसके पूर्व खड़ी बोली में मैथलीशरण गुप्त का खंड काव्य '' जयद्रथ वध '' ही एक मात्र प्रबंध काव्य प्रकाशित था | '' प्रिय प्रवास '' कई दृष्टियों से क्रांतिकारी रचना थी |संस्कृत के छन्दों -- म्दाकान्ता , मालिनी सगठित सुसंस्कृत भाषा आधोपान्त अतुकांत छन्दों का प्रयोग म्ग्लाच्रण का अभाव ( वस्तु -- निर्देश अवश्य ) तथा पौराणिक कथानक में आधुनिकता का समावेश  तथा श्री कृष्ण और राधा के चरित्र को युग नायक के आधुनिक गुणों के प्रतिष्ठा द्वारा उसे युगीन परिवेश में ढालना कुछ ऐसी विशेषताए थी | कन्हैया सिंह ने अपने विचार को आगे करते हुए कहते हुए कहा कि '' प्रिय प्रवास '' का कथानक कृष्ण के परपरित पौराणिक आख्यान पर आश्रित है | श्रीमद भगवत पुराण के दशम स्कन्ध में वर्णित कृष्ण चरित्र का आधार इसमें लिया गया है पर इसे कवि ने अपनी मौलिकता से मंडित कर दिया अपने चर्चा में कहते है कि मूल कथानक को बिना क्षति पहुचाये , प्रसंगो की तार्किक प्रस्तुती इसे पुराख्यान को अद्यतन रूप प्रदान कर देती है | इस आख्यान में राधा -- कृष्ण अपौरुषेय न होकर सामान्य नारी -- नर के रूप में चित्रित है और वे एकातिक प्रेम -- विरह - भक्ति में तल्लीन नही है , अपितु लोकपीड़ा के प्रति जागरूक , लोक समवेदना से परिचालित और लोकाराधन में रत है | राधा -- कृष्ण की यह नवींन चरित्र -- सृष्टि उसे एक नवीन गौरव प्रदान करती है | सीमित कथानक तथा काव्य शास्त्र के लक्षण  के अनुरूप न होने से कुछ विद्वान् इसे महाकाव्य नही मानते है | आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र '' प्रिय प्रवास , साकेत और कामायनी तीनो को एकार्थ कहते है पर महाकव्य की आधुनिक परिभाषा है कि जिसमे महत उद्देश्य को लेकर रचना हुई हो , वह महाकाव्य है | इसलिए इसे महाकाव्य और खड़ी बोली का प्रथम महाकव्य मना गया है |

    गोष्ठी की अध्यक्षता डा दीनानाथ लाल पूर्व प्राचार्य ने किया और संचालन डा अशोक श्रीवास्तव ने किया |

दुसरा सत्र  प्रिय प्रवास रचना शताब्दी के आयोजन के अवसर पर कवि सम्राट साहित्य वाचस्पति महाकवि अयोध्या सिंह हरिऔध को काव्य संध्या के रूप में समर्पित रही हरिऔध जी मुल्त: कवि थे उनकी स्मृति में काव्य संचालन कर रहे प्रभुनारायण प्रेमी ने कवि सम्मलेन को आगाज देते हुए कहा कि कविता सिर्फ मनोरंजन मात्र नही है , देश काल  समय और उसकी परिस्तिथिया ही कविता है |
'' जो आग लगाते है सियासत वाले
उस आग को शायर ही बुझाते है ''

भालचंद्र त्रिपाठी के सरस्वती वन्दना से शुरू हुआ कवि सम्मलेन में सर्व प्रथम डा अखिलेश ने सीधे वर्तमान व्यवस्था और पोगी पंथी बाबाओं पर प्रहार करते हुए कहा
'' नटवर कभी शिवशंकर कभी बने श्री राम
करे रासलीला बाबा जी और न दूजा काम
एक दिलेर शिष्या ने कर डाला काम तमाम
लगे तोड़ने जेल में रोटी बापू आसाराम
इसके साथ ही भावो की अभिव्यक्ति देते हुए पढ़ा
' भाव की यह उर्वर धरती बंजर न होने पाए
भटक रहे है इसीलिए हम दरिया की तकदीर लिए |

इस आयोजन के सयोजक नये गीत कुमार विन्रम सेन सिंह ने श्रोताओं को श्रृगार से ओत - प्रोत करते हुए पढ़ा
'' अपनी जुल्फों के घने जाल में खो लेने दे
 करीब दिल के और अब मुझे हो लेने दे
तुझसे अब इल्तजा है सुन ले मेरी जाने गजल
सर सीने में रखकर अब मुझे सो लेने दे |

इसके साथ ही अपनी माटी आजमगढ़ के गौरवशाली परम्परा की बात करते हुए कहा कि ----

    '' शस्य श्यामला चुनर धानी तमसा का पावन पानी
मातृभूमि पर शीश चढाने वाले अगणित बलिदानी
अपने जनपद में
-- शिबली , शैदा , हरिऔध राहुल की लाली इसमें
कलाभवन , शिबली मंजिल की आभा अजब निराली
संत फ्लिर पीर पंडित शोभा -- शाली
फूल - फूल क्यारी क्यारी में खिली हुई खुशहाली

अपने जनपद में इस कविता से बताया कि हमारा जनपद ऐसा गौरवशाली  इतिहास समेटे हुए है इसी कड़ी को आगे करते हुए भोजपुरी भाषा के सिद्धस्त कवि कमलेश राय  ने नारी  संवेदना को उद्घाटित करते हुए कहा कि
'' तुलसी चौरा पर दियना के बारी चले ली
का गोरी मनौती हजार चले ली
दुखवा कजरा नियर बीच अखियन बसल
 सुखवा बन के चनरमा लिलार लसरल

जैसे गीतों को सुनाकर श्रोताओ को मंत्रमुग्ध कर दिया डा वसीउद्दीन जमाली ने कवि सम्मलेन को उचाई देते हुए कहा --
 '' मादरे हिन्द को रुसवा नही होने देगे
बीज नफरत के न इस मुल्क में बोने देगे
उनकी बातो से नही हम पिघलने वाले
जो है गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले

हमको  देना है तो हक सारे  दे दो ऐसी अभिव्यक्ति से वर्तमान व्यवस्था पर जबर्दस्त प्रहार किया भाल चन्द्र त्रिपाठी ने बड़ा सटीक कहा
'' हम फकीरों को नशे की बात मत समझाइये
 हम जहा बैठे है प्यारे वो भी मयखाना ही है |
ईश्वर चन्द्र त्रिपाठी ने अपनी संवेदनो को ऐसे उकेरा
 '' फिर कोई याद कर रहा है मुझे
फिर मुझे याद कर रहा कोई
अपनी परिभाषा दे के लौटा है
मेरा अनुवाद कर रहा कोई
मधुर नजमी ने कहा
जहा से आती है मुश्किल से हस्तिया ऐसी

जिनके फिकरो नजरियात से सदी महके इसके साथ ही आर डी यादव और ब्रिजेश सिंह ने अपनी रचना सुनाई |

 दूसरे दिन का तीसरा  सत्र '' हरिऔध और उनका समय '' विषय की परिचर्चा पर केन्द्रित था | भारतीय साहित्य संगम के संरक्षक डा कन्हैया सिंह ने आगत अतिथियों का स्वागत करते हुए विषय का प्रवर्तन  करते हुए कहा वह समय राष्ट्रीय जागरण का काल था सभी क्षेत्रो में वैज्ञानिकता , और तार्किकता का  प्रवाह था | ऐसे समय में हरिऔध जी ने अपनी रचनाओ के कथ्य और उनकी भाषा का परिष्कार और परिमार्जित किया | उसी समय आजमगढ़ में ही प रामचरित उपाध्याय , गुरु भक्त  सिंह '' भक्त '' श्याम नारायण पाण्डेय , गोरखपुर के मडंन द्दिवेदी आदि अनेक रचनकारो का एक मंडल खड़ा हो गया | इसी क्रम में गोरखपुर विश्व्धालय से आये हिन्दी विभाग के एसोसियट  प्रवक्ता विषय का प्रवर्तन करते हुए बोले  कि हरिऔध जी युग चेतना और स्वतंत्र चेतना के प्रतीक थे | रामचन्द्र शुक्ल ने हरिऔध जी के सम्बन्ध में अपने इतिहास में बड़ी ही सराहनीय टिपण्णीया लिखी है | महावीर प्रसाद द्दिवेदी के युग में रहते हुए भी वे सपाट कविता से आगे गंम्भीर अभिव्यक्ति की कविताएं लिखते रहे | उन्होंने लोक संग्रह और लोक चेतना को लक्ष्य करके प्रिय प्रवास की रचना की | पौराणिक कथा को नया रूप दिया नई चेतना के साथ नई भाषा भी प्रयोग किया | परिचर्चा के मुख्य वक्ता प्रो चितरंजन मिश्र ने अपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि हरिऔध ऐतिहासिक महत्व के रचनाकार थे | हिन्दी भाषा की सर्जनात्मकता का पहला रूप साहित्य को इसी आजमगढ़ की धरती से मिला था | वह नव युग के पुरोधा थे उन्होंने यह भी कहा कि हरिऔध ने एक ऐसी भाषा का निर्माण किया जो आगे चलकर हिन्दी की काव्य भाषा बनी | खड़ी बोली ही गद्द और पद्द के अभिव्यक्ति की सशक्त भाषा थी उसी में भाषा के विविध रूपों में उन्होंने अपनी रचनाओं का सृजन किया | मुख्य अतिथि रणविजय सिंह ने कहा कि यदि हरिऔध और महावीर प्रसाद द्दिवेदी न होते तो आज हमारी पीढ़ी में कोई रचनाकार भी नही होता | हरिऔध का युग राजनैतिक और साहितियिक चेतना का युग था | स्वतंत्रता संग्राम की सुगबुगाहट शुरू थी स्वराज और स्वदेशी और स्वभाषा के लिए जमीन तैयार हो रही थी हरिऔध ने साहित्य में इन संवदनाओ को स्थान देकर हिन्दी और राष्ट्र दोनों के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया | इस अवसर पर युवा लेखक विन्रम सेन सिंह के आलोचना करती मार्क्सवादी आलोचना का विकास पुस्तक का विमोचन रणविजय सिंह प्रो चितरंजन मिश्र व डा दीपक त्यागी ने सम्ल्लित रूप से किया | परिचर्चा की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार प अमर नाथ तिवारी नें किया | यह कार्यक्रम उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा प्रायोजित था |

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सुनील दत्ता
स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक , सामजिक कार्यकर्ता

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