सामन्तवाद
, साम्प्रदायिकता और अराजक तत्वों के खिलाफ आवाज उठाने वाले मजहब और धर्म
के नाम पर लड़ने - झगड़ने वालो को आडे हाथो लेने वाले , गरीबी और नाइंसाफी को
देश से उखाड़ फेकने की तमन्ना रखने वाले मानवीय संवेदनाओं और असहाय लोगो की
आवाज को जन - जन तक पुह्चाने वाले प्रगतिशील शायर कैफ़ी आज़मी
पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले की फूलपुर तहसील से पांच -- छ: किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा सा गाँव मिजवा | मिजवा गाँव के एक प्रतिष्ठित जमीदार परिवार में उन्नीस जनवरी 1919 को सैयद फतह हुसैन रिज्वी और कनिज फातमा के चौथे बेटे के रूप में अतहर हुसैन रिज्वी का जन्म हुआ | अतहर हुसैन रिज्वी ने आगे चलकर अदब की दुनिया में कैफ़ी आजमी नाम से बेमिशाल सोहरत हासिल की
कैफ़ी की चार बहनों की असामयिक मौत ने कैफ़ी के दिलो -- दिमाग पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला |
कैफ़ी के वालिद को आने वाले समय का अहसास हो चुका था | उन्होंने अपनी जमीदारी की देख रेख करने के बजाय गाँव से बाहर निकल कर नौकरी करने का मन बना लिया | उन दिनों किसी जमीदार परिवार के किसी आदमी का नौकरी -- पेशे में जाना सम्मान के खिलाफ माना जाता था | कैफ़ी के वालिद का निर्णय घर के लोगो को नागवार गुजरा | वो लखनऊ चले आये और जल्द ही उन्हें अवध के बलहरी प्रांत में तहसीलदारी की नौकरी मिल गयी | कुछ ही दिनों बाद अपने बीबी बच्चो के साथ लखनऊ में एक किराए के मकान में रहने लगे | कैफ़ी के वालिद साहब नौकरी करते हुए अपने गाँव मिजवा से सम्पर्क बनाये हुए थे और गाँव में एक मकान भी बनाया | जो उन दिनों हवेली कही जाती थी |कैफ़ी की चार बहनों की असमायिक मौत ने न केवल कैफ़ी को विचलित किया बल्कि उनके वालिद साहब का मन भी बहुत भारी हुआ | उन्हें इस बात कि आशका हुई कि लडको को आधुनिक तालीम देने के कारण हमारे घर पर यह मुसीबत आ पड़ी है | कैफ़ी के माता -- पिता ने निर्णय लिया कि कैफ़ी को दीनी तालीम ( धार्मिक शिक्षा ) दिलाई जाय | कैफ़ी का दाखिला लखनऊ के एक शिया मदरसा सुल्तानुल मदारिस में करा दिया गया | आयशा सिद्दीक ने एक जगह लिखा है कि '' कैफ़ी साहब को उनके बुजुर्गो ने एक दीनी शिक्षा गृह में इस लिए दाखिल किया था कि वह पर फातिहा पढ़ना सीख जायेंगे | कैफ़ी साहब इस शिक्षा गृह में मजहब पर फातिहा पढ़कर निकल गये '' |
'' तुम इतना क्यु मुस्कुरा रहे हो , क्या गम है जिसको छुपा रहे हो , गीतों के पक्तियों को आजादी के बाद की पीढ़ी में कौन सा शख्स ऐसा होगा जिसने कभी न गुनगुनाया हो कोई ऐसा भी शख्स है जो यह गीत न गुनगुनाया हो जिससे उसके रोगटे खड़े न हुए हो '' कर चले हम फ़िदा जाने ए वतन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो '' कैफ़ी ने इन गीतों से पूरी दुनिया के आवाम को आवाज दी और कहा '' देश में समाजवाद आया कि नही आया इस पचड़े में क्यों पड़ते हो और तुम अखबारनवीसो को वैसे भी समाजवाद से क्या लेना देना है | एक झोक में इतना बोलने के बाद बोले देखो , ''पेट के भूख और राख के ढेर में पड़ी चिनगारी को कमजोर न समझो '' | जंगल में किसी ने पेड़ काटने से अगर रोका नही तो किसी ने देखा नही | यह समझने के भूल कभी मत करना | गाँव - देहात का हर शख्स , खेती -- किसानी से जुडा चेहरा मेहनतकश मजूर हो या खटिया -- मचिया पर बैठा कोई अपाहिज , वह तुम्हारी हर चल को देख और समझ रहा है | वह भ्रष्ट अफसर शाही को खूब समझता है पर यह दौर समझने का नही बल्कि समझाने का है | अपने साथियो से मैं हर वक्त यही कहता हूँ --- लड़ने से दरो मत , दुश्मन को खूब पहचानो और मौका मिले तो छोडो मत , अपनी माटी के गंध और पहचान को बनाये रखो , अपने हर संघर्ष में आधी दुनिया को मत भूलो , वही तुम्हारे संघर्ष की दुनिया को पूरा मरती है
मागने के आदत बंद करो , छिनने के कूबत पैदा करो | देखो , तुम्हारी कोई समस्या फिर समस्या रह जाएगी क्या ? बोले मेरे घर में तो खैर कट्टरपथि जैसा कोई माहौल कभी नही रहा मगर भइया मैं तो गाँव के मदरसे कभी नही गया | हमे तो होली का हुडदंग और रामायण की चौपाई ही अच्छी लगती थी | कैफ़ी के ये विचार उनको बखूबी बया करती है
'' खून के रिश्ते '' यह वाक्य उनके चिंतन विचार शैली और सोच के दिशा का न केवल प्रतीक है बल्कि उनके विशाल व्यक्तित्व के झलक भी दिखलाती है इसी द्र्श्म की झलक हमे उनके इन गीतों से मिलती है
माटी के घर थे , बादल को बरसना था , बरस गये |
गरीबी जलेगी , मुल्क से यह सुनते -- सुनते उम्र के सत्तर बरस गये |
समवेदना के धरातल पर दिल को झकझोर देने वाले शायर कैफ़ी की आवाज आज नही तो आने वाले कल शोषित -- पीड़ित की आवाज बनकर इस व्यवस्था को झकझोर कर रखेगी ही बस वक्त का इन्तजार है |
सुल्तानुल मदारिस में पढ़ते हुए कैफ़ी साहब 1933 में प्रकाशित और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जब्त कहानी संग्रह '' अंगारे '' पढ़ लिया था , जिसका सम्पादन सज्जाद जहीर ने किया था | उन्ही दिनों मदरसे की अव्यवस्था को लेकर कैफ़ी साहब ने छात्रो की यूनियन बना कर अपनी मांगो के के साथ हडताल शुरू कर दी | डेढ़ वर्ष तक सुल्तानुल मदरीस बन्द कर दिया गया | परन्तु गेट पर हडताल व धरना चलता रहा | धरना स्थल पर कैफ़ी रोज एक नज्म सुनाते | धरना स्थल से गुजरते हुए अली अब्बास हुसैनी ने कैफ़ी की प्रतिभा को पहचान कर कैफ़ी और उनके साथियो को अपने घर आने की दावत दे डाली | वही पर कैफ़ी की मुलाक़ात एहतिशाम साहब से हुई जो उन दिनों सरफराज के सम्पादक थे | एहतिशाम साहब ने कैफ़ी की मुलाक़ात अली सरदार जाफरी से कराई | सुल्तानुल मदारीस से कैफ़ी साहब और उनके कुछ साथियो को निकाल दिया गया | 1932 से 1942 तक लखनऊ में रहने के बाद कैफ़ी साहब कानपुर चले गये और वह मजदूर सभा में काम करने लगे | मजदूर सभा में काम करते हुए कैफ़ी ने कम्युनिस्ट साहित्य का गम्भीरता से अध्ययन किया | 1943 में जब बम्बई में कम्युनिस्ट पार्टी का आफिस खुला तो कैफ़ी बम्बई चले गये और वही कम्यून में रहते हुए काम करने लगे सुल्तानुल मदारीस से निकाले जाने के बाद कैफ़ी ने पढ़ना बन्द नही किया | प्राइवेट परीक्षा में बैठते हुए उन्होंने दबीर माहिर ( फार्सी ० दबीर कामिल ( फार्सी ) आलिम ( अरबी ) आला काबिल ( उर्दू ) मुंशी ( फार्सी ) कामिल ( फार्सी ) की डिग्री हासिल कर ली | कैफ़ी के घर का माहौल बहुत अच्छा था | शायरी का हुनर खानदानी था | उनके तीनो बड़े भाई शाइर थे | आठ वर्ष की उम्र से ही कैफ़ी ने लिखना शुरू कर दिया | ग्यारह वर्ष की उम्र में पहली बार कैफ़ी ने बहराइच के एक मुशायरे में गजल पढ़ी | उस मुशायरे की अध्यक्षता मानी जयासी साहब कर रहे थे | कैफ़ी की जगल मानी साहब को बहुत पसंद आई और उन्होंने काफी को बहुत दाद दी |मंच पर बैठे बुजुर्ग शायरों को कैफ़ी की प्रंशसा अच्छी नही लगी और फिर उनकी गजल पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया गया कि क्या यह उन्ही की गजल है ? कैफ़ी साहब को इम्तिहान से गुजरना पडा | मिसरा दिया गया ---- '' इतना हंसो कि आँख से आँसू निकल पड़े ' फिर क्या कैफ़ी साहब ने इस मिसरे पर जो गजल कही वह सारे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हुई | लोगो का शक दूर हुआ '' काश जिन्दगी में तुम मेरे हमसफर होते तो जिन्दगी इस तरह गुजर जाती जैसे फूलो पर से नीमसहर का झोका ''
जिन्दगी जेहद में है , सब्र के काबू में नही ,
नब्जे हस्ती का लहू , कापते आँसू में नही ,
उड़ने खुलने में है निकहत , खमे गेसू में नही ,
जन्नत एक और है जो मर्द के पहलु में नही |
उसकी आजाद रविश पर भी मचलना है तुझे , उठ मेरी जान , मेरे साथ ही चलना है तुझे | ( कैफ़ी )
कामरेड अतुल अनजान कहते है कि कैफ़ी साहब साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे | लोकतंत्र के जबर्दस्त हामी थे | गरीब मजदूरो , किसानो के सबसे बड़े पैरोकार थे | मार्क्सवादी दर्शन तथा वैज्ञानिक समाजवाद में उनकी जबर्दस्त आस्था थी | आवाज बड़े बुलंद थी | गम्भीर बातो को भी बड़ी आसानी से जनता के सामने रखने की अद्भुँत क्षमता थी | शब्दों का प्रयोग बहुत सोच समझकर नपे - तुले अंदाज में रखते थे | इसीलिए वे आवामी शायर थे | इसीलिए उनकी पहचान और मकबूलियत देश परदेश में थी | इतना विशाल व्यक्तित्व और अत्यंत सादे और सरल | यही थे कामरेड कैफ़ी | मेरे जीवन में साहित्यिक अभिरुचि बनाये रखने के प्रेरणा स्रोत थे कामरेड कैफ़ी | --
कैफ़ी एक ऐसे संवेदनशील शयर थे जिन्हें मुंबई की रगिनियत बाँध न सकी | जिले के कई नामवर मुंबई से लेकर इडियन द्वीप बार्वाडोस और सूरीनाम ,अमेरिका ,जापान तक गये लेकिन वही के होकर वहा रह गये | कई लोगो ने मुंबई को व्यवसायिक ठिकाना बनाया और जिले के मिटटी के प्रति प्रेम उपजा तो चंद नोटों की गद्दिया चंदे के नाम व हिकारत की नजर से यहाँ के लोगो को सौप दी ; लेकिन कैफ़ी इसके अपवाद साबित हुए | उन्होंने एक शेर में जिक्र भी किया है
'' वो मेरा गाँव है वह मेरे गाँव के चूल्हे कि जिनमे शोले तो शोले धुँआ नही उठता ''
कैफ़ी ने जिन्दगी के आखरी वकत को बड़ी सिद्दत के साथ अपने गाँव मिजवा की तरक्की के नाम दिए | लकवाग्रस्त शरीर जो की व्हील चेयर पर सिमट गया था , के वावजूद उन्होंने यहाँ के विकास के ऐसे सपने सजोये थे , जो एक कृशकाय शरीर को देखते हुए कल्पित ख़्वाब की तरह नजर आता था | लेकिन कैफ़ी ने अपने अपाहिज शरीर को आडे आने नही दिया | उन्होंने मिजवा में बालिका डिग्री कालेज खोलने का सपना देखा था वो तो साकार नही हो पाया लेकिन आज मिजवा में बालिकाओं का माध्यमिक विद्यालय उनके सपने को साकार करने का रह का सेतु बना | इस विद्यालय में बालिकाओ को कधी , बुनाई से लेकर आधुनिक दुनिया से लड़ने के लिए कंप्यूटर की शिक्षा दी जाती है |
कैफ़ी का मानना था कि '' अपनी मिटटी से कटा व्यक्ति किसी का भी नही हो सकता | जमीदार के घर में पैदा होने और लखनऊ के शायराना फिजा में पलने -- बढने के वावजूद कैफ़ी को मुज्वा की बुनियादी जरूरते अक्सर खिचती रहती थी |
पतेह मंजिल नाम लोगो की जुबान पर बसे कैसी का यह आशियाना आज भी कैफ़ी की यादो का चिराग बना हुआ है और आने वाले सदियों तक बना रहेगा |
अजीब आदमी था वो --------
मुहब्बतों का गीत था बगावतो का राग था
कभी वो सिर्फ फूल था कभी वो सिर्फ आग था
अजीब आदमी था वो
वो मुफलिसों से कहता था
कि दिन बदल भी सकते है
वो जाबिरो से कहता था
तुम्हारे सर पे सोने के जो ताज है
कभी पिघल भी सकते है
वो बन्दिशो से कहता था
मैं तुमको तोड़ सकता हूँ
सहूलतो से कहता था
मैं तुमको छोड़ सकता हूँ
हवाओं से वो कहता था
मैं तुमको मोड़ सकता हूँ
वो ख़्वाब से ये कहता था
के तुझको सच करूंगा मैं
वो आरजू से कहता था
मैं तेरा हम सफर हूँ
तेरे साथ ही चलूँगा मैं |
तू चाहे जितनी दूर भी बना अपनी मंजिले
कभी नही थकुंगा मैं
वो जिन्दगी से कहता था
कि तुझको मैं सजाऊँगा
तू मुझसे चाँद मांग ले
मैं चाँद ले आउंगा
वो आदमी से कहता था
कि आदमी से प्यार कर
उजड़ रही ये जमी
कुछ इसका अब सिंगार कर
अजीब आदमी था वो --------------
कैफ़ी अपनी जिन्दगी से रुखसत होते -- होते ये नज्म कही थी पूरे दुनिया के मेहनतकस आवाम से --------
'' कोई तो सूद चुकाए , कोई तो जिम्मा ले
उस इन्कलाब का , जो आज तक उधार सा है |
- सुनील दत्ता . स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक
http://win.blogadda.com/view-blogs-voting/political/Loksangharsha/
पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले की फूलपुर तहसील से पांच -- छ: किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा सा गाँव मिजवा | मिजवा गाँव के एक प्रतिष्ठित जमीदार परिवार में उन्नीस जनवरी 1919 को सैयद फतह हुसैन रिज्वी और कनिज फातमा के चौथे बेटे के रूप में अतहर हुसैन रिज्वी का जन्म हुआ | अतहर हुसैन रिज्वी ने आगे चलकर अदब की दुनिया में कैफ़ी आजमी नाम से बेमिशाल सोहरत हासिल की
कैफ़ी की चार बहनों की असामयिक मौत ने कैफ़ी के दिलो -- दिमाग पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला |
कैफ़ी के वालिद को आने वाले समय का अहसास हो चुका था | उन्होंने अपनी जमीदारी की देख रेख करने के बजाय गाँव से बाहर निकल कर नौकरी करने का मन बना लिया | उन दिनों किसी जमीदार परिवार के किसी आदमी का नौकरी -- पेशे में जाना सम्मान के खिलाफ माना जाता था | कैफ़ी के वालिद का निर्णय घर के लोगो को नागवार गुजरा | वो लखनऊ चले आये और जल्द ही उन्हें अवध के बलहरी प्रांत में तहसीलदारी की नौकरी मिल गयी | कुछ ही दिनों बाद अपने बीबी बच्चो के साथ लखनऊ में एक किराए के मकान में रहने लगे | कैफ़ी के वालिद साहब नौकरी करते हुए अपने गाँव मिजवा से सम्पर्क बनाये हुए थे और गाँव में एक मकान भी बनाया | जो उन दिनों हवेली कही जाती थी |कैफ़ी की चार बहनों की असमायिक मौत ने न केवल कैफ़ी को विचलित किया बल्कि उनके वालिद साहब का मन भी बहुत भारी हुआ | उन्हें इस बात कि आशका हुई कि लडको को आधुनिक तालीम देने के कारण हमारे घर पर यह मुसीबत आ पड़ी है | कैफ़ी के माता -- पिता ने निर्णय लिया कि कैफ़ी को दीनी तालीम ( धार्मिक शिक्षा ) दिलाई जाय | कैफ़ी का दाखिला लखनऊ के एक शिया मदरसा सुल्तानुल मदारिस में करा दिया गया | आयशा सिद्दीक ने एक जगह लिखा है कि '' कैफ़ी साहब को उनके बुजुर्गो ने एक दीनी शिक्षा गृह में इस लिए दाखिल किया था कि वह पर फातिहा पढ़ना सीख जायेंगे | कैफ़ी साहब इस शिक्षा गृह में मजहब पर फातिहा पढ़कर निकल गये '' |
'' तुम इतना क्यु मुस्कुरा रहे हो , क्या गम है जिसको छुपा रहे हो , गीतों के पक्तियों को आजादी के बाद की पीढ़ी में कौन सा शख्स ऐसा होगा जिसने कभी न गुनगुनाया हो कोई ऐसा भी शख्स है जो यह गीत न गुनगुनाया हो जिससे उसके रोगटे खड़े न हुए हो '' कर चले हम फ़िदा जाने ए वतन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो '' कैफ़ी ने इन गीतों से पूरी दुनिया के आवाम को आवाज दी और कहा '' देश में समाजवाद आया कि नही आया इस पचड़े में क्यों पड़ते हो और तुम अखबारनवीसो को वैसे भी समाजवाद से क्या लेना देना है | एक झोक में इतना बोलने के बाद बोले देखो , ''पेट के भूख और राख के ढेर में पड़ी चिनगारी को कमजोर न समझो '' | जंगल में किसी ने पेड़ काटने से अगर रोका नही तो किसी ने देखा नही | यह समझने के भूल कभी मत करना | गाँव - देहात का हर शख्स , खेती -- किसानी से जुडा चेहरा मेहनतकश मजूर हो या खटिया -- मचिया पर बैठा कोई अपाहिज , वह तुम्हारी हर चल को देख और समझ रहा है | वह भ्रष्ट अफसर शाही को खूब समझता है पर यह दौर समझने का नही बल्कि समझाने का है | अपने साथियो से मैं हर वक्त यही कहता हूँ --- लड़ने से दरो मत , दुश्मन को खूब पहचानो और मौका मिले तो छोडो मत , अपनी माटी के गंध और पहचान को बनाये रखो , अपने हर संघर्ष में आधी दुनिया को मत भूलो , वही तुम्हारे संघर्ष की दुनिया को पूरा मरती है
मागने के आदत बंद करो , छिनने के कूबत पैदा करो | देखो , तुम्हारी कोई समस्या फिर समस्या रह जाएगी क्या ? बोले मेरे घर में तो खैर कट्टरपथि जैसा कोई माहौल कभी नही रहा मगर भइया मैं तो गाँव के मदरसे कभी नही गया | हमे तो होली का हुडदंग और रामायण की चौपाई ही अच्छी लगती थी | कैफ़ी के ये विचार उनको बखूबी बया करती है
'' खून के रिश्ते '' यह वाक्य उनके चिंतन विचार शैली और सोच के दिशा का न केवल प्रतीक है बल्कि उनके विशाल व्यक्तित्व के झलक भी दिखलाती है इसी द्र्श्म की झलक हमे उनके इन गीतों से मिलती है
माटी के घर थे , बादल को बरसना था , बरस गये |
गरीबी जलेगी , मुल्क से यह सुनते -- सुनते उम्र के सत्तर बरस गये |
समवेदना के धरातल पर दिल को झकझोर देने वाले शायर कैफ़ी की आवाज आज नही तो आने वाले कल शोषित -- पीड़ित की आवाज बनकर इस व्यवस्था को झकझोर कर रखेगी ही बस वक्त का इन्तजार है |
सुल्तानुल मदारिस में पढ़ते हुए कैफ़ी साहब 1933 में प्रकाशित और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जब्त कहानी संग्रह '' अंगारे '' पढ़ लिया था , जिसका सम्पादन सज्जाद जहीर ने किया था | उन्ही दिनों मदरसे की अव्यवस्था को लेकर कैफ़ी साहब ने छात्रो की यूनियन बना कर अपनी मांगो के के साथ हडताल शुरू कर दी | डेढ़ वर्ष तक सुल्तानुल मदरीस बन्द कर दिया गया | परन्तु गेट पर हडताल व धरना चलता रहा | धरना स्थल पर कैफ़ी रोज एक नज्म सुनाते | धरना स्थल से गुजरते हुए अली अब्बास हुसैनी ने कैफ़ी की प्रतिभा को पहचान कर कैफ़ी और उनके साथियो को अपने घर आने की दावत दे डाली | वही पर कैफ़ी की मुलाक़ात एहतिशाम साहब से हुई जो उन दिनों सरफराज के सम्पादक थे | एहतिशाम साहब ने कैफ़ी की मुलाक़ात अली सरदार जाफरी से कराई | सुल्तानुल मदारीस से कैफ़ी साहब और उनके कुछ साथियो को निकाल दिया गया | 1932 से 1942 तक लखनऊ में रहने के बाद कैफ़ी साहब कानपुर चले गये और वह मजदूर सभा में काम करने लगे | मजदूर सभा में काम करते हुए कैफ़ी ने कम्युनिस्ट साहित्य का गम्भीरता से अध्ययन किया | 1943 में जब बम्बई में कम्युनिस्ट पार्टी का आफिस खुला तो कैफ़ी बम्बई चले गये और वही कम्यून में रहते हुए काम करने लगे सुल्तानुल मदारीस से निकाले जाने के बाद कैफ़ी ने पढ़ना बन्द नही किया | प्राइवेट परीक्षा में बैठते हुए उन्होंने दबीर माहिर ( फार्सी ० दबीर कामिल ( फार्सी ) आलिम ( अरबी ) आला काबिल ( उर्दू ) मुंशी ( फार्सी ) कामिल ( फार्सी ) की डिग्री हासिल कर ली | कैफ़ी के घर का माहौल बहुत अच्छा था | शायरी का हुनर खानदानी था | उनके तीनो बड़े भाई शाइर थे | आठ वर्ष की उम्र से ही कैफ़ी ने लिखना शुरू कर दिया | ग्यारह वर्ष की उम्र में पहली बार कैफ़ी ने बहराइच के एक मुशायरे में गजल पढ़ी | उस मुशायरे की अध्यक्षता मानी जयासी साहब कर रहे थे | कैफ़ी की जगल मानी साहब को बहुत पसंद आई और उन्होंने काफी को बहुत दाद दी |मंच पर बैठे बुजुर्ग शायरों को कैफ़ी की प्रंशसा अच्छी नही लगी और फिर उनकी गजल पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया गया कि क्या यह उन्ही की गजल है ? कैफ़ी साहब को इम्तिहान से गुजरना पडा | मिसरा दिया गया ---- '' इतना हंसो कि आँख से आँसू निकल पड़े ' फिर क्या कैफ़ी साहब ने इस मिसरे पर जो गजल कही वह सारे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हुई | लोगो का शक दूर हुआ '' काश जिन्दगी में तुम मेरे हमसफर होते तो जिन्दगी इस तरह गुजर जाती जैसे फूलो पर से नीमसहर का झोका ''
जिन्दगी जेहद में है , सब्र के काबू में नही ,
नब्जे हस्ती का लहू , कापते आँसू में नही ,
उड़ने खुलने में है निकहत , खमे गेसू में नही ,
जन्नत एक और है जो मर्द के पहलु में नही |
उसकी आजाद रविश पर भी मचलना है तुझे , उठ मेरी जान , मेरे साथ ही चलना है तुझे | ( कैफ़ी )
कामरेड अतुल अनजान कहते है कि कैफ़ी साहब साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे | लोकतंत्र के जबर्दस्त हामी थे | गरीब मजदूरो , किसानो के सबसे बड़े पैरोकार थे | मार्क्सवादी दर्शन तथा वैज्ञानिक समाजवाद में उनकी जबर्दस्त आस्था थी | आवाज बड़े बुलंद थी | गम्भीर बातो को भी बड़ी आसानी से जनता के सामने रखने की अद्भुँत क्षमता थी | शब्दों का प्रयोग बहुत सोच समझकर नपे - तुले अंदाज में रखते थे | इसीलिए वे आवामी शायर थे | इसीलिए उनकी पहचान और मकबूलियत देश परदेश में थी | इतना विशाल व्यक्तित्व और अत्यंत सादे और सरल | यही थे कामरेड कैफ़ी | मेरे जीवन में साहित्यिक अभिरुचि बनाये रखने के प्रेरणा स्रोत थे कामरेड कैफ़ी | --
कैफ़ी एक ऐसे संवेदनशील शयर थे जिन्हें मुंबई की रगिनियत बाँध न सकी | जिले के कई नामवर मुंबई से लेकर इडियन द्वीप बार्वाडोस और सूरीनाम ,अमेरिका ,जापान तक गये लेकिन वही के होकर वहा रह गये | कई लोगो ने मुंबई को व्यवसायिक ठिकाना बनाया और जिले के मिटटी के प्रति प्रेम उपजा तो चंद नोटों की गद्दिया चंदे के नाम व हिकारत की नजर से यहाँ के लोगो को सौप दी ; लेकिन कैफ़ी इसके अपवाद साबित हुए | उन्होंने एक शेर में जिक्र भी किया है
'' वो मेरा गाँव है वह मेरे गाँव के चूल्हे कि जिनमे शोले तो शोले धुँआ नही उठता ''
कैफ़ी ने जिन्दगी के आखरी वकत को बड़ी सिद्दत के साथ अपने गाँव मिजवा की तरक्की के नाम दिए | लकवाग्रस्त शरीर जो की व्हील चेयर पर सिमट गया था , के वावजूद उन्होंने यहाँ के विकास के ऐसे सपने सजोये थे , जो एक कृशकाय शरीर को देखते हुए कल्पित ख़्वाब की तरह नजर आता था | लेकिन कैफ़ी ने अपने अपाहिज शरीर को आडे आने नही दिया | उन्होंने मिजवा में बालिका डिग्री कालेज खोलने का सपना देखा था वो तो साकार नही हो पाया लेकिन आज मिजवा में बालिकाओं का माध्यमिक विद्यालय उनके सपने को साकार करने का रह का सेतु बना | इस विद्यालय में बालिकाओ को कधी , बुनाई से लेकर आधुनिक दुनिया से लड़ने के लिए कंप्यूटर की शिक्षा दी जाती है |
कैफ़ी का मानना था कि '' अपनी मिटटी से कटा व्यक्ति किसी का भी नही हो सकता | जमीदार के घर में पैदा होने और लखनऊ के शायराना फिजा में पलने -- बढने के वावजूद कैफ़ी को मुज्वा की बुनियादी जरूरते अक्सर खिचती रहती थी |
पतेह मंजिल नाम लोगो की जुबान पर बसे कैसी का यह आशियाना आज भी कैफ़ी की यादो का चिराग बना हुआ है और आने वाले सदियों तक बना रहेगा |
अजीब आदमी था वो --------
मुहब्बतों का गीत था बगावतो का राग था
कभी वो सिर्फ फूल था कभी वो सिर्फ आग था
अजीब आदमी था वो
वो मुफलिसों से कहता था
कि दिन बदल भी सकते है
वो जाबिरो से कहता था
तुम्हारे सर पे सोने के जो ताज है
कभी पिघल भी सकते है
वो बन्दिशो से कहता था
मैं तुमको तोड़ सकता हूँ
सहूलतो से कहता था
मैं तुमको छोड़ सकता हूँ
हवाओं से वो कहता था
मैं तुमको मोड़ सकता हूँ
वो ख़्वाब से ये कहता था
के तुझको सच करूंगा मैं
वो आरजू से कहता था
मैं तेरा हम सफर हूँ
तेरे साथ ही चलूँगा मैं |
तू चाहे जितनी दूर भी बना अपनी मंजिले
कभी नही थकुंगा मैं
वो जिन्दगी से कहता था
कि तुझको मैं सजाऊँगा
तू मुझसे चाँद मांग ले
मैं चाँद ले आउंगा
वो आदमी से कहता था
कि आदमी से प्यार कर
उजड़ रही ये जमी
कुछ इसका अब सिंगार कर
अजीब आदमी था वो --------------
कैफ़ी अपनी जिन्दगी से रुखसत होते -- होते ये नज्म कही थी पूरे दुनिया के मेहनतकस आवाम से --------
'' कोई तो सूद चुकाए , कोई तो जिम्मा ले
उस इन्कलाब का , जो आज तक उधार सा है |
- सुनील दत्ता . स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक
http://win.blogadda.com/view-blogs-voting/political/Loksangharsha/
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