रविवार, 26 अक्तूबर 2014

लोकतंत्र के लिए चुनौती भरे दिन

समझौता एक्सप्रेस, मालेगांव और मक्का मस्जिद में हुए आतंकवादी हमले की आरोपी साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर के साथ, लगभग पांच साल पहले किसी गोपनीय वैठक में अपनी तस्वीर के सार्वजनिक हो जाने से चर्चा में रह चुके राजनाथ सिंह एक बार फिर गलत कारणों से चर्चा मे हैं। बेशक इस बार देश के गृहमंत्री के बतौर, जिन्हें पिछले दिनों तिरुअनन्तपुरम में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता संतोष ने सार्वजनिक तौर पर पगड़ी पहनाई। इसकी तस्वीरें देश भर के अखबारों में छपी हैं। संतोष पर 2008 में माकपा के युवा संगठन डीवाईएफआई के कार्यकर्ता विष्णु की हत्या का आरोप है और इन दिनों वह जमानत पर छूटा है।
                                                 इस विवाद से कुछ अहम सवाल उठने लाजिमी हैं जो मौजूदा केन्द्र सरकार की वैचारिक और कार्यनीतिक दिशा का भी आभास करा देते हैं। मसलन हत्या जैसे गंभीर मामले के आरोपी का इतना साहस कैसे हो सकता है कि वह देश के गृहमंत्री तक सार्वजनिक तौर पर पहुंच जाए, उनके सर पर पगड़ी पहनाए और तस्वीरें खिंचवा ले? जबकि गृहमंत्री को जेड प्लस की सुरक्षा मिली हुई है। उनसे किसी अहम शक्सियतों को मिलने के लिए भी काफी मेहनत करनी पड़ती है। तो क्या यह गर्म जोशी भरी मुलाकात इसलिए संभव हो सकी कि राजनाथ सिंह और संतोष दोनों एक ही मातृ संगठन आरएसएस से जुड़े हैं? बहुत हद तक संभव लगने के बावजूद सामान्यतः ऐसा नही होता। क्योंकि किसी संगठन या पार्टी से जुड़े लोगों के संवैधानिक पदों पर पहुंच जाने के बाद अमूमन उनकी तरफ से ही संवैधानिक और सांगठनिक के फर्क को बरता जाता है। और वो अपने को संविधान के प्रति जवाबदेह मानता है न कि अपने संगठन के प्रति।
                                                                       इसीलिए, प्रधानमंत्री या कोई भी मंत्री देश का प्रधानमंत्री या मंत्री होता है। अपनी पार्टी या संगठन का नही। इसलिए इन पदों पर पहुंचने वाले लोग अपने संगठन से जुड़े हत्या जैसे जघन्यतम अपराध के आरोपियों से सार्वजनिक रूप से मिलने से बचते हैं। यह दिखाने के लिए ही सही, लेकिन एक अच्छी परंपरा रही है।
                    इसलिए हत्या आरोपी संघ कार्यकर्ता के हाथों पगड़ी पहनना और मुस्कराते हुए फोटो खिंचवाना, इन दोनों के एक ही संगठन से जुड़े होने के कारण ही संभव नही हो सकता। यह तभी संभव है जब गृहमंत्री संवैधानिक और सांगठनिक के बीच के भेद बरतने की हमारी लोकतांत्रिक परंपरा से असहमत हों। वे दोनों के बीच के अंतर को मिटा देना चाहते हों।
                                                  दरअसल, सरकार के ऊंचे पद पर बैठे लोगों के सोचने के नजरिए में आया यह छोटा लगने वाला बदलाव, वह सबसे अहम बदलाव है जिसे देश सोलह मई के बाद से ही यानी चुनाव परिणामों के घोषित होने से ही महसूस कर रहा है। यह बदलाव सिर्फ किसी एक मंत्रालय तक सीमित नहीं है। इसकी अभिव्यक्ति पूरे देश में हम महसूस कर सकते हैं, जहां संविधान की शपथ लेकर बनी सरकार को संघ
परिवार, जिसका साहित्य भारतीय संविधान को ’पश्चिमी, आधुनिक और अपशकुन’ बताता रहा है, और उसके दूसरे अनुवांशिक संगठनों बजरंग दल और विहिप में रूपान्तरित होते हुए देखा जा सकता है। जहां संविधान के कस्टोडियन यानी जमानतदार न्यायपालिका को अपने हिसाब से ’ठीक’ किया जा रहा है। जहां किसी अमित शाह के किसी हत्याकांड के मुकदमे में अदालत में पेश न होने पर वजह पूछने वाले जज को रातों-रात स्थानांतरित कर दिया जाता है। या फिर किसी प्रतिष्ठित पत्रकार को संघ की ’सांस्कृतिक’ विचारधारा में आकंठ डूबे गुंडों द्वारा सरेआम पीट दिया जाता है। लेकिन इन तमाम घटनाओं पर हम आज तक नही जान पाए कि सरकार की सबसे ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोग क्या सोचते हैं? वे अपने ’गुरू भाइयों’ की करतूत से सहमत हैं या असहमत? सार्वजनिक तौर पर ’असहमति’ जता देने और अंदर ही अंदर उनकेे साथ खड़ा होने की रणनीतिक मजबूरी जो पिछले गठबंधन वाली एनडीए सरकार में बनी रहती थी, उसे भी उन्होंने तिलांजलि दे दी है?
                   इन सब मसलों पर हम कुछ भी नही जानते, क्योंकि सरकार की ऊंची कुर्सियां मीडिया से बात नही करतीं। वे एक तानाशाही निजाम की तरह सिर्फ बोलती दिख रही हैं। वह भी सिर्फ एकल माध्यमों जैसे ट्वीटर पर। यानी एक भयानक तरह की चुप्पी है, जो साजिशी और सुनियोजित लगती है। उसमें एक खतरनाक किस्म की सड़ांध हैं। इसे छह दशकों के लोकतंत्र के तमाम बुरे अनुभवों के बावजूद पहली बार ही बिल्कुल स्पष्ट महसूस किया जा रहा है।
                                         लेकिन ऐसा नही है कि वे सिर्फ अराजकतावादियों की तरह परंपराओं को नष्ट कर
रहे हैं। वे नया गढ़ भी रहे हैं। जो उनके स्पष्ट फासीवादी प्रवृत्ति और एजेंडे को पुख्ता करता है। इसीलिए हम पाते हैं कि सरकार के बजाए संघ प्रमुख और उनके लोग खुलकर मीडिया से मुखातिब हो रहे हैं, जो वे अपने को
पहले सिर्फ एक ’सांस्कृतिक’ संगठन होने के तर्क के साथ करने से बचते थे। यानी अलोकतांत्रिक तरीके से चलने वाला संगठन संघ परिवार देश की ड्राइविंग सीट पर बैठ गया है। वह एजेंडा तय कर रहा है कि कौन भारतीय है, इतिहास की पुस्तकों में क्या पढ़ाया जाना चाहिए और किन्हे दुबारा हिन्दू बनाया जाना चाहिए। वहीं जनता द्वारा चुने गए लोग या तो प्रधानमंत्री की तरह कार्पोरेट के ’हरकारों’ की तरह आज दुनिया भर में दौड़ लगा रहे हैं तथा संघ के गुरू भाइयों के जघन्यतम अपराधों को सार्वजनिक तौर पर वैधता दे रहे
हैं, गृह मंत्री की तरह। ये बदलाव इस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इससे न सिर्फ पूरा देश सांसत
में फंसने जा रहा है बल्कि स्वयं लोकतंत्र के समक्ष भी एक चुनौती उत्पन्न होती दिख रही है। जो जाहिर है भारत के लिए अच्छे दिन नही हैं।
-गुफरान सिद्दीकी

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