भँवर मेघवंशी |
पक्के हरामजादे हैं
हमारे मसीहा आजकल
बसपा मूलतः बामसेफ नामक एक अधिकारी कर्मचारी संगठन था, जिसमे अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अल्पसंख्यक समुदाय के कर्मचारी शामिल थे। निसंदेह इस संगठन ने सामाजिक चेतना जगाने का काम पूरी शिद्दत से किया। बाबा साहब के ‘पे बैक टू सोसाइटी‘ के सिद्धांत को आधार बना कर समाज के पढ़े लिखे तबके ने बहुजन समाज को संगठित करने, जागृत करने तथा संघर्षशील बनाने के कार्य में अद्भुत सफलता पाई, शुरुआत में कांशीराम इसका नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन जब उन्होंने बामसेफ और दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएसफोर) को बसपा में बदल डाला तो पीछे रह गए। कुछ लोगों ने बामसेफ को समाप्त करने के बजाए जिंदा रखने पर बल दिया और इस काम में जुट गए। फलतः आज बामसेफ अपने कई समूहों व गुटों में मौजूद है, हर गुट स्वयं को असली साबित करने में लगा रहता है। अलग-अलग प्रान्तों में अलग अलग समूहों का जोर है, राजस्थान में जो गुट ज्यादा प्रभावी है वह वामन मेश्राम का है, ये महाशय भी शुरुआत में मान्यवर कांशीराम के घनिष्ठ सहयोगी रहे थे, बाद में बसपा बन जाने के बाद इन्हांेने बामसेफ के एक धड़े को नेतृत्व देना शुरू कर दिया, मेश्राम आज भी सर्वाधिक सक्रिय बामसेफ समूह के नेता हैं। एक बार बामसेफ के मेश्राम गुट ने ‘आरक्षण समाप्ति की ओर‘ विषय पर राजसमन्द जिला मुख्यालय पर सम्मलेन आयोजित किया, मुझे भी बतौर वक्ता आमन्त्रित किया गया, सो मैं भी गया, कई वक्ता बोल चुके थे, मुख्य वक्ता बामसेफ के राष्ट्रीय
अध्यक्ष वामन मेश्राम बोलने वाले थे, इससे पहले ही केलवा राजकीय माध्यमिक विद्यालय के प्रधानाचार्य सोहन लाल रेगर ने खड़े होकर मंच पर मौजूद लोगों से एक सवाल पूछा कि अगर सब लोगों को रोजगार का
अधिकार मिल जाए तो क्या आरक्षण समाप्त हो सकता है? बस इतनी सी बात पर माननीय वामन मेश्राम बुरी तरह भड़क गए, वे सामान्य शिष्टाचार भी भूल गए और दलित गरिमा और स्वाभिमान की धज्जियाँ उड़ाते हुए बोले दृरे रेगर तुझे प्रिंसिपल किसने बना दिया है? सोहन लाल जी ने मेश्राम जी को टोका और बोले कि आप संसदीय भाषा नहीं बोल रहे हैं, माइंड योर लैंग्वेज, इस बात पर तो मेश्राम साहब बेकाबू ही हो गए बोले दृरे मुझे तमीज सिखाता है, मैं चाहँू तो अभी मेरे लोग उठा कर इस सभा से तुझे बाहर फेंक देंगे, चुपचाप बैठ, सवर्णों के दलाल जैसे सवाल करता है।.
बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष जिन्हें माननीय कह कर लोग सम्मानित करते हैं और एक बड़ा नेता मानते हैं, उनके द्वारा किए गए इस तरह के घटिया व्यवहार से हर कोई स्तब्ध था, पर वहाँ एक चुप्पी सी छाई हुई थी, कोई भी साहब के गुस्से का शिकार नहीं होना चाहता था, पता नहीं सोहन जी की तरह किसी और को भी अपमानित होना पड़े इसलिए कोई कुछ नहीं बोला, लेकिन मैं कैसे सहन करता, मैंने माइक पर जाकर अपना गुबार निकाल ही दिया कि दृ हम इस तरह के व्यवहार का समर्थन नहीं कर सकते हैं बहुजन नायकों की ऐसी बेलगाम भाषा को हम सहन नहीं करेंगे, हमारी पूरी लड़ाई ही इज्जत, स्वाभिमान और गरिमा की है, अगर कोई भी, चाहे वे वामन मेश्राम साहब ही क्यों न हांे, हमारे लोगों के स्वाभिमान को ठेस पहुँचाएँगे तो हम उनसे भी संघर्ष को तैयार हंै, हम अनंत समय तक कथित अपने रहनुमाओं और परायों से लड़ेंगे, रही बात आज के इस निकृष्ट व्यवहार की तो मैं मंच की, ओर से आदरणीय सोहन लाल जी रेगर से क्षमा प्रार्थना करता हूँ और इस सभा का बहिष्कार करता हूँ, हमें ऐसे लोगांे की जरूरत नहीं है, जो सवालों, असहमतियों और आलोचनाओं से डर जाते हों, ऐसा कायर नेतृत्व हमें मंजूर नहीं है, हमें समावेशी और धीर, गंभीर तथा सबको सम्मान देने वाला सामूहिक नेतृत्व चाहिए। मैं यह कह कर मंच से नीचे आ गया, मेरे पीछे-पीछे बड़ी संख्या में शेष लोग भी निकल आए, अन्य कई मंचस्थ लोगों ने भी सभा छोड़ दी, बचे रहे केवल मेश्राम और उनकी चंदा उगाओ, चंदा खाओ टीम। इस दुखद अनुभव के बाद मैंने बामसेफ से एक दूरी बना ली, वैचारिक रूप से आज भी बामसेफ को स्वयं के नजदीक पाता हूँ, पर रहबरों की कथनी और करनी के फर्क ने मुझे उनसे जुड़़ने से पहले ही तोड़ डाला।
अब सुनता हूँ कि वामन मेश्राम का धंधा जोर शोर से चल रहा है, उनकी दुकान चल निकली है, पूरे मसीहा बन बैठे हैं, जय भीम के नारे को उन्होंने जय मूल निवासी में बदल डाला है, बामसेफ से पेट नहीं भरा तो भारत मुक्ति मोर्चा खड़ा कर लिया और अब राज सत्ता की ओर बढ़ने के लिए बहुजन मुक्ति पार्टी बना ली है, चंदा उगाही का काम बदस्तूर जारी है, मिशन के नाम पर सब कुछ जायज हो गया है, समाज के लिए जीवन देने वाले मसीहा अपने ही कार्यकर्ता की अपने से आधी उम्र की बेटी से परिणय सूत्र बंधन में
बंध कर शादीशुदा हो गए हैं, खुद की कोई फैक्ट्री तो उनकी चलती नहीं है कि अपनी बुढ़ापे की इस शादी का रिसेप्शन निजी पैसों से करते सो समाज से संगृहीत धन से ही शानदार आशीर्वाद समारोह कर डाला, बातें अब भी मिशन की ही होती हैं, जीवन में बड़े मजे हैं, मंचांे पर समाज परिवर्तन के उपदेश और खुद की जिन्दगी में रत्ती भर भी बदलाव नहीं, यह क्या हो जाता है हमारे मसीहाओं को अचानक? ज्यादातर दलित नेता थोड़ी सी प्रसिद्धि मिलते ही औरतखोरी पर क्यों उतर आते हैं, कई बार इन रहबरों की कारगुजारियाँ बेहद पीड़ा के साथ मिशनरी साथी सुनाते हैं, तब कहना पड़ता है कि पक्के हरामजादे हागए हैं हमारे मसीहा। आजकल दलित वर्ग की विडम्बना यह है कि कोई भी बाबा साहब के नाम पर मूर्खतापूर्ण थियरीज लेकर आ जाए उसे ही माननीय या साहब मान लिया जाता है, विगत कई वर्षों से बहुत सारी अमरबेलें दलित समाज के निरंतर सूखते जा रहे पेड़ पर फलती फूलती रही हैं जो साल भर घूम-घूम कर ‘पे बैक टू सोसाइटी‘ के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाती हैं, चंदा उगाहती हैं और साल के आखिर में एक अधिवेशन करके हिसाब-किताब पूरा कर देती हैं, इनका यही काम हो गया है, बस बाबा साहब की कृपा से सबकी दुकानें चल रही हैं, कोई अगर इस दुकानदारी पर सवाल खड़ा कर दे तो उसे ‘यूरेशियन ब्राहमणों का दलाल‘ घोषित कर देते हैं या चंदे के कूपनों में घोटाले का मुख्य आरोपी करार देते हैं, बस उनका काम चलता रहता है और दलित बहुजन समाज अपना सिर धुनता रहता है, यह निरंतर प्रक्रिया है दशकों से चल रही है, मेरा मानना है कि जब तक दलित बहुजन मूलनिवासी समाज के लोग अपने ही मसीहाओं से जवाबदेही नहीं माँगेंगे तब तक हर दौर हरामी मसीहाओं का दौर ही रहेगा।
-भँवर मेघवंशी
क्रमस:लोकसंघर्ष पत्रिका के दिसम्बर 2014 के अंक में प्रकाशित
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