अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर सन 2002 में हुए हमले के बाद शायद यह दूसरी बार है जब आतंकवाद के खिलाफ पूरी दुनिया में एक साथ भर्तस्ना की आवाजें उठीं हैं। इन आवाजों का निशाना मुस्लिम आतंकवादी हैं और कारण है पेरिस में पत्रकारों की सामूहिक हत्या।
इस समय विश्व एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जब मुस्लिम आतंकवादियों और दुनिया के अन्य लोगों के बीच दरार गहरी होती जा रही है। इस मौके पर एक बड़ी व सुनियोजित पहल की आवश्यकता है। यदि ऐसी पहल न की गई तो दुनिया में हिंसा और प्रतिशोध का एक ऐसा चक्र प्रारंभ हो जायेगा, जिसपर नियंत्रण करना काफी कठिन होगा।
द्वितीय महायुद्ध के पूर्व, हिटलर ने यहूदियों के विरूद्ध घृणा का वातावरण बनाया था। उस वातावरण ने विश्व युद्ध का रूप ले लिया। परंतु उस समय यहूदियों के विरूद्ध घृणा सिर्फ जर्मनी की सीमाओं तक सीमित थी। अब स्थिति अलग है। यहूदी,दुनिया के बहुत कम देशों में रहते हैं। इनकी आबादी भी बहुत कम है। परंतु शायद ही विश्व का कोई ऐसा देश हो जहां मुसलमान न रहते हों। इतिहास गवाह है कि घृणा के वातावरण का लाभ निहित स्वार्थ जमकर उठाते हैं। इस तरह की स्थितियां निर्मित न होंए इसकी जिम्मेदारी पूरी दुनिया के नेताओं और विशेषकर संयुक्त राष्ट्र संघ की है।
पेरिस की घटना के बाद फ्रांस की राजधानी में यूरोपीय व अन्य देशों के लोग आए और उन सबने एकजुटता दिखाते हुए अपना आक्रोश प्रकट किया। पेरिस आए सभी नेताओं का स्वागत करते हुए फ्रांस के प्रधानमंत्री ने कहा कि आज यथार्थ में पेरिस, दुनिया की राजधानी बन गया है। अकेले यूरोप से ही 11 प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष पेरिस के शांतिमार्च में शामिल हुए। अमरीका के अनेक लोग नाराज हैं कि राष्ट्रपति ओबामा पेरिस नहीं गए।
अमरीका के एक प्रसिद्ध पत्रकार ने कहा कि अमरीका का नागरिक होने के नाते मेरी तीव्र इच्छा थी कि पेरिस के शांतिमार्च में ओबामा भी शामिल होते। यहां यह उल्लेखनीय है कि अमरीका के एर्टोनी जनरल ऐरिक होल्डर पेरिस में थे परंतु वे शांतिमार्च में शामिल नहीं हुए। इसी तरह, वहां के विदेश मंत्री उस समय भारत भ्रमण पर थे। अमरीका के कई समाचारपत्रों ने इस मुद्दे को लेकर राष्ट्रपति ओबामा की आलोचना की।
पेरिस मार्च का एक अद्भुत पहलू यह था कि उसमें एक.दूसरे के जानी दुश्मन.इजराईल के प्रधानमंत्री और फिलस्तीन के राष्ट्रपति.भी शामिल थे। शांतिमार्च के बाद जारी एक संयुक्त वक्तव्य में कहा गया कि यह आवश्यक है कि दुनिया की सरकारें आपस में सहयोग करें और यदि जरूरी हो तो साईबर दुनिया से उन संदेशों को हटाएं जो घृणा और आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले हैं। यह भी तय किया गया कि जो लोग दूसरे देशों से आते हैं, उनके कागजातों की काफी बारीकी से जांच की जाए।
जहां दुनिया की सरकारों को यह महसूस हो रहा है कि इस तरह की आतंकवादी ताकतों से मुकाबला करने के लिए एकता की आवश्यकता है वहीं इस बात पर भी जोर देना आवश्यक है कि मुस्लिम राष्ट्रों के राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री और बादशाह इस मुद्दे पर मंथन करें और यह सोचें की उन परिस्थितियों को कैसे टाला जा सकता है, जिनके चलते इस्लामी और गैर.इस्लामी राष्ट्रों या सभ्यताओं के बीच संघर्ष की स्थिति निर्मित हो। यदि ऐसा होता है तो वह द्वितीय विश्व युद्ध से भी ज्यादा विध्वंसकारी होगा।
जिस समय पेरिस में शांतिमार्च चल रहा था उसी समय अमरीका की पुलिस को एक संदेश मिला जिसमें कहा गया था कि 'एक हो जाओ और कानून को लागू करने वाले अधिकारियों की हत्या करो'। इस संदेश में उन देशों के नाम गिनाए गए थे जहां के अधिकारियों की हत्या करने की बात कही गई थी। वे देश हैं अमरीका, फ्रांस,आस्ट्रेलिया और कनाडा। इस संदेश को अमरीका के अधिकारियों ने काफी गंभीरता से लिया।
आवश्यकता इस बात की है कि मुस्लिम क्षेत्रों के राजनीतिक नेताओं के अतिरिक्त वहां के धार्मिक नेता भी इस मुद्दे पर अपनी आवाज बुलंद करें और अपने.अपने देशों के सिरफिरे युवकों के दिमागों को ठीक करने का प्रयास करें। यह सर्वज्ञात है कि किसी भी अन्य धार्मिक समूह की तुलना में,मुसलमान अपने धार्मिक नेताओं की बात काफी गंभीरता से सुनते हैं। होना यह चाहिए कि धार्मिक नेता अपने.अपने देशों की सीमाओं को लांघकर,किसी एक स्थान पर एकत्रित होकर उन लोगों से सामूहिक अपील करें जो निरर्थक खून बहाने वाली हरकते करते हैं। वे उनसे कहें कि वे अपनी गतिविधियों से बाज आएं वरना सारे मुस्लिम समुदाय पर एक गहन संकट आ सकता है और प्रतिबद्ध मुस्लिम.विरोधी लोग दुनिया की इस मुद्रा का नाजायज लाभ उठा सकते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में दुनिया के विभिन्न देशों में जो कुछ हुआ हैए उससे मुस्लिम युवाओं के मन में आक्रोश और गुस्सा है। सबसे पहले अमरीका व पूंजीवादी देशों के विरूद्ध भावनाएं, ईरान में हुई धार्मिक क्रांति के बाद पैदा र्हुइं। ईरान के शाह का तख्ता पलटकर जब खोमैनी ने वहां की सत्ता संभाली तो उसका मुख्य आधार अमरीका.विरोध था। बाद में ईराक और अफगानिस्तान में जो कुछ अमरीका और उसके सहयोगी राष्ट्रों ने कियाए उसे न सिर्फ मुस्लिम समाज वरन् दुनिया का गैर.मुस्लिम समाज भी कभी नहीं भूल सकता। अमरीका ने पहले तालिबानियों को हथियार दिये ताकि वे अफगानिस्तान से कम्युनिस्टों का शासन समाप्त कर सकें। उसके बाद वे ही तालिबानी अमरीका के लिए भस्मासुर सिद्ध हुए।
ईराक के पास खतरनाक रासायनिक हथियार हैं, यह आरोप लगाते हुए अमरीका ने वहां की स्थिर सरकार को गिरा दिया, सद्दाम हुसैन को फांसी दी और उसके बाद अफगानिस्तान और ईराक के निर्दोष नागरिकों पर हवाई हमले किए। इसी तरह,फिलस्तीन के सवाल पर अमरीका समेत कुछ अन्य देशों का जो रवैया रहा है, उसके कारण भी मुस्लिम दुनिया का एक बड़ा हिस्सा अमरीका से घृणा करता है। एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि जहां कुछ मुस्लिम राष्ट्र अमरीका के जानी दुश्मन हैं वहीं कुछ ऐसे मुस्लिम राष्ट्र भी हैं जो अमरीका के पिछलग्गू हैं। ऐसे राष्ट्रों की सूची में सऊदी अरब भी शामिल है। इन सभी देशों के युवकों और अन्य देशों के मुस्लिम निवासियों में पश्चिमी देशों के विरूद्ध आक्रोश है। इस आक्रोश को प्रगट करने के लिए जिहाद का नारा दिया जाता है। जबकि जिहाद का संबंध हिंसा और बदले की भावना से कदापि नहीं है।
मैं इस समय एक किताब को पढ़ रहा हूं जिसमें जिहाद का वास्तविक अर्थ बताया गया है और उसकी लंबी विवेचना की गई है। यह पुस्तक इस्लाम के एक बड़े विद्वान ने लिखी है। पुस्तक का शीर्षक है 'द ट्रूथ अबाउट जिहाद' ;जिहाद का सच। यह किताब मौलाना याह्या नोमानी ने लिखी है। वे एक सुप्रसिद्ध धार्मिक उर्दू पत्रिका के संपादक हैं। वे सारी दुनिया में कुरान और कुरान के संदेशों का सही विवेचन करते हैं। उन्होंने हाल ही में एक संस्थान की स्थापना की है, जिसमें इस्लाम के विभिन्न धार्मिक पहलुओं पर विचार किया जाता है। इस किताब में जिहाद की जो विवेचना की गई है वह यदि लोगों तक पहुंचाई जाए और खासकर मुस्लिम युवकों के बीच पहुंचाई जाए, तो स्थिति में काफी अंतर आयेगा। इस किताब के लेखक ने बार.बार यह दावा किया है कि इस्लाम का हिंसा और प्रतिशोध से कोई लेनादेना नहीं है। इसी तरह, आतंकवाद के लिए भी इस्लाम में कोई स्थान नहीं है। दो देशों के बीच इस्लाम के नाम पर किसी भी प्रकार की हिंसक गतिविधियां करना, इस्लाम के बुनियादी उसूलों के विरूद्ध है।
इस समय विश्व एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जब मुस्लिम आतंकवादियों और दुनिया के अन्य लोगों के बीच दरार गहरी होती जा रही है। इस मौके पर एक बड़ी व सुनियोजित पहल की आवश्यकता है। यदि ऐसी पहल न की गई तो दुनिया में हिंसा और प्रतिशोध का एक ऐसा चक्र प्रारंभ हो जायेगा, जिसपर नियंत्रण करना काफी कठिन होगा।
द्वितीय महायुद्ध के पूर्व, हिटलर ने यहूदियों के विरूद्ध घृणा का वातावरण बनाया था। उस वातावरण ने विश्व युद्ध का रूप ले लिया। परंतु उस समय यहूदियों के विरूद्ध घृणा सिर्फ जर्मनी की सीमाओं तक सीमित थी। अब स्थिति अलग है। यहूदी,दुनिया के बहुत कम देशों में रहते हैं। इनकी आबादी भी बहुत कम है। परंतु शायद ही विश्व का कोई ऐसा देश हो जहां मुसलमान न रहते हों। इतिहास गवाह है कि घृणा के वातावरण का लाभ निहित स्वार्थ जमकर उठाते हैं। इस तरह की स्थितियां निर्मित न होंए इसकी जिम्मेदारी पूरी दुनिया के नेताओं और विशेषकर संयुक्त राष्ट्र संघ की है।
पेरिस की घटना के बाद फ्रांस की राजधानी में यूरोपीय व अन्य देशों के लोग आए और उन सबने एकजुटता दिखाते हुए अपना आक्रोश प्रकट किया। पेरिस आए सभी नेताओं का स्वागत करते हुए फ्रांस के प्रधानमंत्री ने कहा कि आज यथार्थ में पेरिस, दुनिया की राजधानी बन गया है। अकेले यूरोप से ही 11 प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष पेरिस के शांतिमार्च में शामिल हुए। अमरीका के अनेक लोग नाराज हैं कि राष्ट्रपति ओबामा पेरिस नहीं गए।
अमरीका के एक प्रसिद्ध पत्रकार ने कहा कि अमरीका का नागरिक होने के नाते मेरी तीव्र इच्छा थी कि पेरिस के शांतिमार्च में ओबामा भी शामिल होते। यहां यह उल्लेखनीय है कि अमरीका के एर्टोनी जनरल ऐरिक होल्डर पेरिस में थे परंतु वे शांतिमार्च में शामिल नहीं हुए। इसी तरह, वहां के विदेश मंत्री उस समय भारत भ्रमण पर थे। अमरीका के कई समाचारपत्रों ने इस मुद्दे को लेकर राष्ट्रपति ओबामा की आलोचना की।
पेरिस मार्च का एक अद्भुत पहलू यह था कि उसमें एक.दूसरे के जानी दुश्मन.इजराईल के प्रधानमंत्री और फिलस्तीन के राष्ट्रपति.भी शामिल थे। शांतिमार्च के बाद जारी एक संयुक्त वक्तव्य में कहा गया कि यह आवश्यक है कि दुनिया की सरकारें आपस में सहयोग करें और यदि जरूरी हो तो साईबर दुनिया से उन संदेशों को हटाएं जो घृणा और आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले हैं। यह भी तय किया गया कि जो लोग दूसरे देशों से आते हैं, उनके कागजातों की काफी बारीकी से जांच की जाए।
जहां दुनिया की सरकारों को यह महसूस हो रहा है कि इस तरह की आतंकवादी ताकतों से मुकाबला करने के लिए एकता की आवश्यकता है वहीं इस बात पर भी जोर देना आवश्यक है कि मुस्लिम राष्ट्रों के राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री और बादशाह इस मुद्दे पर मंथन करें और यह सोचें की उन परिस्थितियों को कैसे टाला जा सकता है, जिनके चलते इस्लामी और गैर.इस्लामी राष्ट्रों या सभ्यताओं के बीच संघर्ष की स्थिति निर्मित हो। यदि ऐसा होता है तो वह द्वितीय विश्व युद्ध से भी ज्यादा विध्वंसकारी होगा।
जिस समय पेरिस में शांतिमार्च चल रहा था उसी समय अमरीका की पुलिस को एक संदेश मिला जिसमें कहा गया था कि 'एक हो जाओ और कानून को लागू करने वाले अधिकारियों की हत्या करो'। इस संदेश में उन देशों के नाम गिनाए गए थे जहां के अधिकारियों की हत्या करने की बात कही गई थी। वे देश हैं अमरीका, फ्रांस,आस्ट्रेलिया और कनाडा। इस संदेश को अमरीका के अधिकारियों ने काफी गंभीरता से लिया।
आवश्यकता इस बात की है कि मुस्लिम क्षेत्रों के राजनीतिक नेताओं के अतिरिक्त वहां के धार्मिक नेता भी इस मुद्दे पर अपनी आवाज बुलंद करें और अपने.अपने देशों के सिरफिरे युवकों के दिमागों को ठीक करने का प्रयास करें। यह सर्वज्ञात है कि किसी भी अन्य धार्मिक समूह की तुलना में,मुसलमान अपने धार्मिक नेताओं की बात काफी गंभीरता से सुनते हैं। होना यह चाहिए कि धार्मिक नेता अपने.अपने देशों की सीमाओं को लांघकर,किसी एक स्थान पर एकत्रित होकर उन लोगों से सामूहिक अपील करें जो निरर्थक खून बहाने वाली हरकते करते हैं। वे उनसे कहें कि वे अपनी गतिविधियों से बाज आएं वरना सारे मुस्लिम समुदाय पर एक गहन संकट आ सकता है और प्रतिबद्ध मुस्लिम.विरोधी लोग दुनिया की इस मुद्रा का नाजायज लाभ उठा सकते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में दुनिया के विभिन्न देशों में जो कुछ हुआ हैए उससे मुस्लिम युवाओं के मन में आक्रोश और गुस्सा है। सबसे पहले अमरीका व पूंजीवादी देशों के विरूद्ध भावनाएं, ईरान में हुई धार्मिक क्रांति के बाद पैदा र्हुइं। ईरान के शाह का तख्ता पलटकर जब खोमैनी ने वहां की सत्ता संभाली तो उसका मुख्य आधार अमरीका.विरोध था। बाद में ईराक और अफगानिस्तान में जो कुछ अमरीका और उसके सहयोगी राष्ट्रों ने कियाए उसे न सिर्फ मुस्लिम समाज वरन् दुनिया का गैर.मुस्लिम समाज भी कभी नहीं भूल सकता। अमरीका ने पहले तालिबानियों को हथियार दिये ताकि वे अफगानिस्तान से कम्युनिस्टों का शासन समाप्त कर सकें। उसके बाद वे ही तालिबानी अमरीका के लिए भस्मासुर सिद्ध हुए।
ईराक के पास खतरनाक रासायनिक हथियार हैं, यह आरोप लगाते हुए अमरीका ने वहां की स्थिर सरकार को गिरा दिया, सद्दाम हुसैन को फांसी दी और उसके बाद अफगानिस्तान और ईराक के निर्दोष नागरिकों पर हवाई हमले किए। इसी तरह,फिलस्तीन के सवाल पर अमरीका समेत कुछ अन्य देशों का जो रवैया रहा है, उसके कारण भी मुस्लिम दुनिया का एक बड़ा हिस्सा अमरीका से घृणा करता है। एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि जहां कुछ मुस्लिम राष्ट्र अमरीका के जानी दुश्मन हैं वहीं कुछ ऐसे मुस्लिम राष्ट्र भी हैं जो अमरीका के पिछलग्गू हैं। ऐसे राष्ट्रों की सूची में सऊदी अरब भी शामिल है। इन सभी देशों के युवकों और अन्य देशों के मुस्लिम निवासियों में पश्चिमी देशों के विरूद्ध आक्रोश है। इस आक्रोश को प्रगट करने के लिए जिहाद का नारा दिया जाता है। जबकि जिहाद का संबंध हिंसा और बदले की भावना से कदापि नहीं है।
मैं इस समय एक किताब को पढ़ रहा हूं जिसमें जिहाद का वास्तविक अर्थ बताया गया है और उसकी लंबी विवेचना की गई है। यह पुस्तक इस्लाम के एक बड़े विद्वान ने लिखी है। पुस्तक का शीर्षक है 'द ट्रूथ अबाउट जिहाद' ;जिहाद का सच। यह किताब मौलाना याह्या नोमानी ने लिखी है। वे एक सुप्रसिद्ध धार्मिक उर्दू पत्रिका के संपादक हैं। वे सारी दुनिया में कुरान और कुरान के संदेशों का सही विवेचन करते हैं। उन्होंने हाल ही में एक संस्थान की स्थापना की है, जिसमें इस्लाम के विभिन्न धार्मिक पहलुओं पर विचार किया जाता है। इस किताब में जिहाद की जो विवेचना की गई है वह यदि लोगों तक पहुंचाई जाए और खासकर मुस्लिम युवकों के बीच पहुंचाई जाए, तो स्थिति में काफी अंतर आयेगा। इस किताब के लेखक ने बार.बार यह दावा किया है कि इस्लाम का हिंसा और प्रतिशोध से कोई लेनादेना नहीं है। इसी तरह, आतंकवाद के लिए भी इस्लाम में कोई स्थान नहीं है। दो देशों के बीच इस्लाम के नाम पर किसी भी प्रकार की हिंसक गतिविधियां करना, इस्लाम के बुनियादी उसूलों के विरूद्ध है।
-एल.एस. हरदेनिया
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