गत 20 फरवरी को,जब कामरेड गोविंद पंसारे की मृत्यु की दुखद खबर आई, तो मुझे ऐसा लगा मानो एक बड़ा स्तंभ ढह गया हो.एक ऐसा स्तंभ जो महाराष्ट्र के सामाजिक आंदोलनों का शक्ति स्त्रोत था। मेरे दिमाग में जो पहला प्रश्न आया वह यह था कि उन्हें किसने मारा होगा और इस तरह के साधु प्रवृत्ति के व्यक्ति की जान लेने के पीछे क्या कारण हो सकता है। ज्ञातव्य है कि कुछ दिन पहलेए सुबह की सैर के वक्त उन्हें गोली मार दी गई थी। पंसारे ने जीवनभर हिंदुत्ववादियों और रूढि़वादी सोच के खिलाफ संघर्ष किया। पिछले माह, कोल्हापुर के शिवाजी विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए उन्होंने भाजपा द्वारा गोडसे को राष्ट्रवादी बताकर उसका महिमामंडन किया जाने का मुद्दा उठाया था। पंसारे ने श्रोताओं को याद दिलाया कि गोडसे, आरएसएस का सदस्य था। इस पर श्रोताओं का एक हिस्सा उत्तेजित हो गया।
उन्हें'सनातन संस्था' नाम के एक संगठन के कोप का शिकार भी होना पड़ा था। पंसारे का कहना था कि यह संस्था हिंदू युवकों को अतिवादी बना रही है। यह वही संगठन है, ठाणे और गोवा में हुए बम धमाकों में जिसकी भूमिका की जांच चल रही है। पंसारे ने खुलकर इस संस्था को चुनौती दी, जिसके बाद संस्था द्वारा उनके खिलाफ मानहानि का दावा भी किया गया।
डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या के कुछ माह बाद, पंसारे को एक पत्र के जरिये धमकी दी गई थी। पत्र में लिखा था'तुमचा दाभोलकर करेन' ;तुम्हारे साथ वही होगा, जो दाभोलकर के साथ हुआ। उन्हें ऐसी कई धमकियां मिलीं परंतु वे उनसे डरे नहीं और उन्होंने मानवाधिकारों और तर्कवाद के समर्थन में अपना अभियान जारी रखा। वे समाज के सांप्रदायिकीकरण के विरूद्ध अनवरत लड़ते रहे। शिवाजी के चरित्र के उनके विश्लेषण के कारण भी पंसारे,अतिवादियों की आंखों की किरकिरी बन गए थे। जब 15 फरवरी को उन पर हमले की खबर मिली तो मुझे अनायास पिछले साल पुणे में उनके द्वारा शिवाजी पर दिये गये भाषण की याद हो आई। खचाखच भरे हाल में पंसारे ने शिवाजी के जीवन और कार्यों पर अत्यंत विस्तार से और बड़े ही मनोरंजक तरीके से प्रकाश डाला था। श्रोताओं ने उनके भाषण को बहुत रूचि से सुना और उनकी बहुत तारीफ हुई।
शिवाजी की जो छवि वे प्रस्तुत करते थेए वह 'जानता राजा' ;सर्वज्ञानी राजा जैसे शिवाजी पर आधारित नाटकों और सांप्रदायिक तत्वों द्वारा शिवाजी के कार्यकलापों की व्याख्या से एकदम अलग थी। सांप्रदायिक तत्व, शिवाजी को एक मुस्लिम.विरोधी राजा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह कहा जाता है कि अगर शिवाजी न होते तो हिंदुओं का जबरदस्ती खतना कर उन्हें मुसलमान बना दिया जाता। पंसारे ने गहन अनुसंधान कर शिवाजी का असली चरित्र अपनी पुस्तक 'शिवाजी कौन होता' में प्रस्तुत की। यह पुस्तक बहुत लोकप्रिय हुई। इसके कई संस्करण निकल चुके हैं और यह कई भाषाओं में अनुदित की जा चुकी है। अब तक इसकी लगभग डेढ़ लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। अपने भाषण में पंसारे ने अत्यंत तार्किक तरीके से यह बताया कि किस तरह शिवाजी सभी धर्मों का आदर करते थे, उनके कई अंगरक्षक मुसलमान थे, जिनमें से एक का नाम रूस्तम.ए.जमां था, उनके राजनीतिक सचिव मौलाना हैदर अली थे और शिवाजी की सेना के एक.तिहाई सिपाही मुसलमान थे। शिवाजी के तोपखाने के मुखिया का नाम था इब्राहिम खान। उनके सेना के कई बड़े अधिकारी मुसलमान थे जिन्हें आज भी महाराष्ट्र में बडे़ प्रेम और सम्मान के साथ याद किया जाता है।
एक साम्यवादी द्वारा एक सामंती शासक की प्रशंसा! यह विरोधाभास क्यों, इस प्रश्न का उत्तर अपने भाषण में उन्होंने जो बातें कहीं, उससे स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने तथ्यों के आधार पर यह प्रमाणित किया कि शिवाजी अपनी रैयत की बेहतरी के प्रति बहुत चिंतित रहते थे। उन्होंने किसानों और कामगारों पर करों का बोझ कम किया था। पंसारे जोर देकर कहते थे कि शिवाजी, महिलाओं का बहुत सम्मान करते थे। वे बताते थे कि किस प्रकार शिवाजी ने कल्याण के मुस्लिम राजा की बहू को सम्मानपूर्वक वापस भिजवा दिया था। कल्याण के राजा को हराने के बादए शिवाजी के सैनिक लूट के माल के साथ राजा की बहू को भी अगवा कर ले आये थे। यह किस्सा महाराष्ट्र में बहुत लोकप्रिय है। परंतु हिंदुत्व चिंतक सावरकर, कल्याण के राजा की बहू को सम्मानपूर्वक उसके घर वापस भेजने के लिए शिवाजी की आलोचना करते हैं। सावरकर का कहना था कि उस मुस्लिम महिला को मुक्त कर शिवाजी ने मुस्लिम राजाओं द्वारा हिंदू महिलाओं के अपमान का बदला लेने का मौका खो दिया था!
पंसारे स्वयं यह स्वीकार करते थे कि शिवाजी की उनकी जीवनी ने उनके विचारों को आम लोगों तक पहुंचाने में बहुत मदद की। वे बहुत साधारण परिवार में जन्मे थे और उन्होंने अपना जीवन अखबार बेचने से शुरू किया था। शिवाजी पर उनकी अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक के अलावाए उन्होंने 'अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण',छत्रपति शाहू महाराज, संविधान का अनुच्छेद 370 और मंडल आयोग जैसे विषयों पर भी लेखन किया था। इससे यह साफ है कि उनका अल्पसंख्यकों के अधिकारो,जातिवाद आदि जैसे मुद्दों से भी गहरा जुड़ाव था। वे जनांदोलनों से भी जुड़े थे और कोल्हापुर में टोल टैक्स के मुद्दे पर चल रहे आंदोलन में उनकी अग्रणी भूमिका थी।
कामरेड पंसारे ने स्वयं को मार्क्स और लेनिन की विचारधारा की व्याख्या तक सीमित नहीं रखा। यद्यपि वे प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट थे परंतु शिवाजी, शाहू महाराज और जोतिराव फुले भी उनके विचारधारात्मक पथप्रदर्शक थे। वे यह मानते थे कि शाहू महाराज और फुले ने समाज में समानता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वे स्वयं भी जातिवाद और धार्मिक अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करते थे और इन विषयों पर अपने प्रबुद्ध विचार लोगों के सामने रखते थे। एक तरह से उन्होंने भारतीय वामपंथियों की एक बहुत बड़ी कमी की पूर्ति करने की कोशिश की। प्रश्न यह है कि साम्यवादी आंदोलन ने जातिगत मुद्दों पर क्या रूख अपनाया ? पंसारे जैसे कम्युनिस्टों ने जाति के मुद्दे पर फोकस किया और दलित.ओबीसी वर्गों के प्रतीकों.जिनमें शाहू महाराज, जोतिराव फुले व आंबेडकर शामिल हैं.से स्वयं को जोड़ा। परंतु दुर्भाग्यवश,वामपंथी आंदोलन ने इन मुद्दों को कभी गंभीरता से नहीं लिया। भारत जैसे जातिवाद से ग्रस्त समाज में कोई भी सामाजिक आंदोलन तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि उसमें जाति के कारक को समुचित महत्व न दिया जाए। उनके जीवन से हम यह सीख सकते हैं कि भारत में सामाजिक परिवर्तनकामियों को अपनी रणनीति में क्या बदलाव लाने चाहिए।
पंसारे पर हुए हमले ने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या की याद फिर से ताजा कर दी है। दक्षिणपंथी ताकतें अपने एजेंडे को लागू करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। उनकी हिम्मत बहुत बढ़ चुकी है। दाभोलकर और पंसारे असाधारण सामाजिक कार्यकर्ता थे। दोनों तर्कवादी थे, अंधविश्वासों के विरोधी थे और जमीन पर काम करते थे। दोनों पर हमला मोटरसाईकिल पर सवार बंदूकधारियों ने तब किया जब वे सुबह की सैर कर रहे थे। दोनों को उनकी हत्या के पहले सनातन संस्था और अन्य दक्षिणपंथी संगठनों की ओर से धमकियां मिलीं थीं।
कामरेड पंसारे की हत्या के बाद पूरे महाराष्ट्र में गुस्से की एक लहर दौड़ गई। राज्य में अनेक स्थानों पर विरोध प्रदर्शन हुए। ये विरोध प्रदर्शन इस बात का प्रतीक थे कि आमजन उन्हें अपना साथी और हितरक्षक मानते थे। क्या हमारे देश के सामाजिक आंदोलनों के कर्ताधर्ताए कामरेड पंसारे के अभियान को आगे ले जायेंगे? यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
-राम पुनियानी
उन्हें'सनातन संस्था' नाम के एक संगठन के कोप का शिकार भी होना पड़ा था। पंसारे का कहना था कि यह संस्था हिंदू युवकों को अतिवादी बना रही है। यह वही संगठन है, ठाणे और गोवा में हुए बम धमाकों में जिसकी भूमिका की जांच चल रही है। पंसारे ने खुलकर इस संस्था को चुनौती दी, जिसके बाद संस्था द्वारा उनके खिलाफ मानहानि का दावा भी किया गया।
डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या के कुछ माह बाद, पंसारे को एक पत्र के जरिये धमकी दी गई थी। पत्र में लिखा था'तुमचा दाभोलकर करेन' ;तुम्हारे साथ वही होगा, जो दाभोलकर के साथ हुआ। उन्हें ऐसी कई धमकियां मिलीं परंतु वे उनसे डरे नहीं और उन्होंने मानवाधिकारों और तर्कवाद के समर्थन में अपना अभियान जारी रखा। वे समाज के सांप्रदायिकीकरण के विरूद्ध अनवरत लड़ते रहे। शिवाजी के चरित्र के उनके विश्लेषण के कारण भी पंसारे,अतिवादियों की आंखों की किरकिरी बन गए थे। जब 15 फरवरी को उन पर हमले की खबर मिली तो मुझे अनायास पिछले साल पुणे में उनके द्वारा शिवाजी पर दिये गये भाषण की याद हो आई। खचाखच भरे हाल में पंसारे ने शिवाजी के जीवन और कार्यों पर अत्यंत विस्तार से और बड़े ही मनोरंजक तरीके से प्रकाश डाला था। श्रोताओं ने उनके भाषण को बहुत रूचि से सुना और उनकी बहुत तारीफ हुई।
शिवाजी की जो छवि वे प्रस्तुत करते थेए वह 'जानता राजा' ;सर्वज्ञानी राजा जैसे शिवाजी पर आधारित नाटकों और सांप्रदायिक तत्वों द्वारा शिवाजी के कार्यकलापों की व्याख्या से एकदम अलग थी। सांप्रदायिक तत्व, शिवाजी को एक मुस्लिम.विरोधी राजा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह कहा जाता है कि अगर शिवाजी न होते तो हिंदुओं का जबरदस्ती खतना कर उन्हें मुसलमान बना दिया जाता। पंसारे ने गहन अनुसंधान कर शिवाजी का असली चरित्र अपनी पुस्तक 'शिवाजी कौन होता' में प्रस्तुत की। यह पुस्तक बहुत लोकप्रिय हुई। इसके कई संस्करण निकल चुके हैं और यह कई भाषाओं में अनुदित की जा चुकी है। अब तक इसकी लगभग डेढ़ लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। अपने भाषण में पंसारे ने अत्यंत तार्किक तरीके से यह बताया कि किस तरह शिवाजी सभी धर्मों का आदर करते थे, उनके कई अंगरक्षक मुसलमान थे, जिनमें से एक का नाम रूस्तम.ए.जमां था, उनके राजनीतिक सचिव मौलाना हैदर अली थे और शिवाजी की सेना के एक.तिहाई सिपाही मुसलमान थे। शिवाजी के तोपखाने के मुखिया का नाम था इब्राहिम खान। उनके सेना के कई बड़े अधिकारी मुसलमान थे जिन्हें आज भी महाराष्ट्र में बडे़ प्रेम और सम्मान के साथ याद किया जाता है।
एक साम्यवादी द्वारा एक सामंती शासक की प्रशंसा! यह विरोधाभास क्यों, इस प्रश्न का उत्तर अपने भाषण में उन्होंने जो बातें कहीं, उससे स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने तथ्यों के आधार पर यह प्रमाणित किया कि शिवाजी अपनी रैयत की बेहतरी के प्रति बहुत चिंतित रहते थे। उन्होंने किसानों और कामगारों पर करों का बोझ कम किया था। पंसारे जोर देकर कहते थे कि शिवाजी, महिलाओं का बहुत सम्मान करते थे। वे बताते थे कि किस प्रकार शिवाजी ने कल्याण के मुस्लिम राजा की बहू को सम्मानपूर्वक वापस भिजवा दिया था। कल्याण के राजा को हराने के बादए शिवाजी के सैनिक लूट के माल के साथ राजा की बहू को भी अगवा कर ले आये थे। यह किस्सा महाराष्ट्र में बहुत लोकप्रिय है। परंतु हिंदुत्व चिंतक सावरकर, कल्याण के राजा की बहू को सम्मानपूर्वक उसके घर वापस भेजने के लिए शिवाजी की आलोचना करते हैं। सावरकर का कहना था कि उस मुस्लिम महिला को मुक्त कर शिवाजी ने मुस्लिम राजाओं द्वारा हिंदू महिलाओं के अपमान का बदला लेने का मौका खो दिया था!
पंसारे स्वयं यह स्वीकार करते थे कि शिवाजी की उनकी जीवनी ने उनके विचारों को आम लोगों तक पहुंचाने में बहुत मदद की। वे बहुत साधारण परिवार में जन्मे थे और उन्होंने अपना जीवन अखबार बेचने से शुरू किया था। शिवाजी पर उनकी अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक के अलावाए उन्होंने 'अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण',छत्रपति शाहू महाराज, संविधान का अनुच्छेद 370 और मंडल आयोग जैसे विषयों पर भी लेखन किया था। इससे यह साफ है कि उनका अल्पसंख्यकों के अधिकारो,जातिवाद आदि जैसे मुद्दों से भी गहरा जुड़ाव था। वे जनांदोलनों से भी जुड़े थे और कोल्हापुर में टोल टैक्स के मुद्दे पर चल रहे आंदोलन में उनकी अग्रणी भूमिका थी।
कामरेड पंसारे ने स्वयं को मार्क्स और लेनिन की विचारधारा की व्याख्या तक सीमित नहीं रखा। यद्यपि वे प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट थे परंतु शिवाजी, शाहू महाराज और जोतिराव फुले भी उनके विचारधारात्मक पथप्रदर्शक थे। वे यह मानते थे कि शाहू महाराज और फुले ने समाज में समानता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वे स्वयं भी जातिवाद और धार्मिक अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करते थे और इन विषयों पर अपने प्रबुद्ध विचार लोगों के सामने रखते थे। एक तरह से उन्होंने भारतीय वामपंथियों की एक बहुत बड़ी कमी की पूर्ति करने की कोशिश की। प्रश्न यह है कि साम्यवादी आंदोलन ने जातिगत मुद्दों पर क्या रूख अपनाया ? पंसारे जैसे कम्युनिस्टों ने जाति के मुद्दे पर फोकस किया और दलित.ओबीसी वर्गों के प्रतीकों.जिनमें शाहू महाराज, जोतिराव फुले व आंबेडकर शामिल हैं.से स्वयं को जोड़ा। परंतु दुर्भाग्यवश,वामपंथी आंदोलन ने इन मुद्दों को कभी गंभीरता से नहीं लिया। भारत जैसे जातिवाद से ग्रस्त समाज में कोई भी सामाजिक आंदोलन तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि उसमें जाति के कारक को समुचित महत्व न दिया जाए। उनके जीवन से हम यह सीख सकते हैं कि भारत में सामाजिक परिवर्तनकामियों को अपनी रणनीति में क्या बदलाव लाने चाहिए।
पंसारे पर हुए हमले ने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या की याद फिर से ताजा कर दी है। दक्षिणपंथी ताकतें अपने एजेंडे को लागू करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। उनकी हिम्मत बहुत बढ़ चुकी है। दाभोलकर और पंसारे असाधारण सामाजिक कार्यकर्ता थे। दोनों तर्कवादी थे, अंधविश्वासों के विरोधी थे और जमीन पर काम करते थे। दोनों पर हमला मोटरसाईकिल पर सवार बंदूकधारियों ने तब किया जब वे सुबह की सैर कर रहे थे। दोनों को उनकी हत्या के पहले सनातन संस्था और अन्य दक्षिणपंथी संगठनों की ओर से धमकियां मिलीं थीं।
कामरेड पंसारे की हत्या के बाद पूरे महाराष्ट्र में गुस्से की एक लहर दौड़ गई। राज्य में अनेक स्थानों पर विरोध प्रदर्शन हुए। ये विरोध प्रदर्शन इस बात का प्रतीक थे कि आमजन उन्हें अपना साथी और हितरक्षक मानते थे। क्या हमारे देश के सामाजिक आंदोलनों के कर्ताधर्ताए कामरेड पंसारे के अभियान को आगे ले जायेंगे? यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
-राम पुनियानी
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