यद्यपि भारतीय उपमहाद्वीप के सभी निवासियों का सांझा इतिहास है तथापि विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं में यकीन करने वाले अलग.अलग समूह, इस इतिहास को अलग.अलग दृष्टि से देखते हैं। दिल्ली में सरकार बदलने के बाद से, कई महत्वपूर्ण संस्थानों की नीतियों में रातों.रात बदलाव आ गया है। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ;आईसीएचआर व राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद ;एनसीईआरटी, उन अनेक संस्थाओं में शामिल हैं, जिनके मुखिया बदल दिये गये हैं और नए मुखिया, संबंधित विषय में अपने ज्ञान से ज्यादा, शासक दल की विचारधारा के प्रति अपनी वफादारी के लिए जाने जाते हैं। ये वे संस्थान हैं जो इतिहास व शिक्षा सहित समाजविज्ञान के विभिन्न विषयों से संबंधित हैं। इन संस्थानों की नीतियों व नेतृत्व में परिवर्तन,भाजपा के पितृसंगठन आरएसएस के इशारे पर किया गया प्रतीत होता है। आरएसएस की राजनैतिक विचारधारा हिंदू राष्ट्रवाद है, जो कि भारतीय राष्ट्रवाद और भारतीय संविधान के मूल्यों के खिलाफ है। आरएसएस के सरसंघचालक ने हाल ;3 मार्च 2015 में कहा था कि भारतीय इतिहास का'भगवाकरण' होना चाहिए। उनका समर्थन करते हुए भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि भारतीय इतिहास का भगवाकरण समय की आवश्यकता है और संबंधित मंत्री को इतिहास की पुस्तकों पर भगवा रंग चढाने में गर्व महसूस करना चाहिए।
इतिहास की किताबों के भगवाकरण से क्या आशय है ? भगवाकरण शब्द को प्रगतिशील व तर्कवादी इतिहासविदों और बुद्धिजीवियों ने तब गढ़ा था, जब वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ;1998 में मानव संसाधान विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने शिक्षा, इतिहास व अन्य समाजविज्ञानों के पाठ्यक्रमों और पाठ्यपुस्तकों में व्यापक परिवर्तन करने शुरू किए। जो किताबें मुरली मनोहर जोशी के कार्यकाल में लागू की गईं थीं उनमें कई तरह की आधारहीन बातें कही गईं थीं जैसे, चूंकि हम मनु के पुत्र हैं इसलिए हम मनुष्य या मानव कहलाते हैं,वैज्ञानिक यह मानते हैं कि पेड़.पौधे अजीवित होते हैं परंतु हिंदू, पेड़.पौधों को जीवित मानते हैं और जब बंदा बैरागी ने इस्लाम कुबूल करने से इंकार कर दिया तो उसके लड़के की हत्या कर उसका कलेजा निकालकर, बंदा बैरागी के मुंह में ठूंसा गया। इन पुस्तकों में सती प्रथा को राजपूतों की एक ऐसी परंपरा के रूप में प्रस्तुत किया गया थाए जिस पर हम सब को गर्व होना चाहिए। मध्यकाल के इतिहास को भी जमकर तोड़ामरोड़ा गया। जैसे,यह कहा गया कि कुतुबमीनार का निर्माण सम्राट समुद्रगुप्त ने किया था और उसका मूल नाम विष्णुस्तंभ था। इन पुस्तकों में शिवाजी और अफजल खान, अकबर और महाराणा प्रताप, गुरू गोविंद सिंह और औरंगजैब़ के बीच हुए युद्धों.जो केवल और केवल सत्ता हासिल करने के लिए लड़े गये थे.को सांप्रदायिक रंग देते हुए उन्हें हिंदुओं और मुसलमानों के बीच युद्ध के रूप में प्रस्तुत किया गया।
इन परिवर्तनों की पेशेवर, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष इतिहासविदों ने तार्किक आधार पर आलोचना की। उन्होंने इतिहास के इस रूप में प्रस्तुतिकरण के लिए 'शिक्षा का भगवाकरण' शब्द इस्तेमाल करना शुरू किया। परिवर्तनों की आलोचना का जवाब देते हुए मुरली मनोहर जोशी ने कहा ;अप्रैल 2003 कि यह भगवाकरण नहीं बल्कि इतिहास की विकृतियों को ठीक करने का प्रयास है। लेकिन अब, बदली हुई परिस्थितियों और परिवर्तित राजनैतिक समीकरणों के चलते, वे उसी शब्द.भगवाकरण.को न सिर्फ स्वीकार कर रहे हैं वरन् उस पर गर्व भी महसूस कर रहे हैं।
भारत में इतिहास का सांप्रदायिकीकरण,अंग्रेजों ने शुरू किया। उन्होंने हर ऐतिहासिक घटना को धर्म के चश्मे से देखना और प्रस्तुत करना प्रारंभ किया। अंग्रेजों के रचे इसी इतिहास को कुछ छोटे.मोटे परिवर्तनों के साथ, हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिक तत्वों ने अपना लिया। हिंदू सांप्रादयिक व राष्ट्रवादी तत्व कहते थे कि भारत हमेशा से एक हिंदू राष्ट्र है और मुसलमान व ईसाई, भारत में विदेशी हैं। मुस्लिम सांप्रदायिक तत्वों के लिए इतिहासए आठवीं सदी में मोहम्मद.बिन.कासिम के सिंध पर हमले से शुरू होता था। उनका दावा था कि चूंकि मुसलमान भारत के शासक थे इसलिए अंग्रेजों को इस देश का शासन मुसलमानों को सौंपकर यहां से जाना था। इतिहास के इसी संस्करण का किंचित परिवर्तित रूप पाकिस्तान में स्कूलों और कालेजों में पढ़ाया जाता है।
इसके विपरीत,जो लोग धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति प्रतिबद्ध थे उन्होंने जोर देकर कहा कि किसी राजा का धर्म, उसकी नीतियों का निर्धारक नहीं हुआ करता था। यही बात स्वाधीनता आंदोलन के सर्वोच्च नेता महात्मा गांधी ने भी कही। अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में वे लिखते हैंए 'मुस्लिम राजाओं के शासन में हिंदू फलेफूले और हिंदू राजाओं के शासन में मुसलमान। दोनों पक्षों को यह एहसास था कि आपस में युद्ध करना आत्मघाती होगा और यह भी कि दोनों में से किसी को भी तलवार की नोंक पर अपना धर्म त्यागने पर मजबूर नहीं किया जा सकता। इसलिए दोनों पक्षों ने शांतिपूर्वक, मिलजुलकर रहने का निर्णय किया। अंग्रेजों के आने के बाद दोनों पक्षों में विवाद और हिंसा शुरू हो गई.क्या हमें यह याद नहीं रखना चाहिए कि कई हिंदुओं और मुसलमानों के पूर्वज एक ही थे और उनकी नसों में एक ही खून बह रहा है? क्या कोई व्यक्ति मात्र इसलिए हमारा दुश्मन बन सकता है क्योंकि उसने अपना धर्म बदल लिया हैक्या मुसलमानों का ईश्वर, हिंदुओं के ईश्वर से अलग है? धर्म, दरअसल,एक ही स्थान पर पहुंचने के अलग.अलग रास्ते हैं। अगर हमारा लक्ष्य एक ही है तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि हम अलग.अलग रास्तों से वहां पहुंच रहे हैं? इसमें विवाद या संघर्ष की क्या गुंजाईश है'
स्वाधीनता के बाद अंग्रेजों द्वारा रचे इतिहास को कुछ समय तक पढ़ाया जाता रहा। शनैः शनैः, इतिहास की पुस्तकों को तार्किक आधार देते हुए उनमें इतिहास पर हुये गंभीर शोध के नतीजों का समावेश किया जाने लगा। एनसीईआरटी के गठन के बाद,उन स्कूलों में, जिनमें एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम लागू था, इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या वाली पुस्तकों के स्थान पर एनसीईआरटी की पुस्तकें पढ़ाई जाने लगीं। फिर, सन् 1998 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के सत्ता में आने के बादए डॉ.जोशी ने पाठ्यक्रम के सांप्रदायिकीकरण और शिक्षा के भगवाकरण का सघन अभियान चलाया। सन् 2004 में एनडीए सत्ता से बाहर हो गई और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए ने केंद्र में सत्ता संभाली। इसके बाद, कुछ हद तक, स्कूली पाठ्यपुस्तकों में वैज्ञानिक सोच और तार्किक विचारों की वापसी हुई और पुस्तकों को सांप्रदायिकता के जहर से मुक्त करने के प्रयास भी हुए। चाहे वह पाकिस्तान हो या भारत,इतिहास के सांप्रदायिक संस्करण का इस्तेमाल,धार्मिक राष्ट्रवाद को मजबूती देने के लिए किया जाता है। इसलिए भारत में ताजमहल को तेजो महालय नामक शिव मंदिर बताया जाता है और स्वाधीनता संग्राम को मुसलमानों के खिलाफ लड़ा गया धार्मिक युद्ध। मुस्लिम राजाओं को मंदिरों का ध्वंस करने व हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाने का दोषी बताया जाता है। इस विभाजनकारी पाठ्यक्रम का इस्तेमाल राजनैतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए होता है। पाकिस्तान में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में मुस्लिम राजाओं का महिमामंडन किया जाता है और हिंदू राजाओं की चर्चा तक नहीं होती।
आरएसएस स्कूलों की एक विस्तृत श्रृंखला का संचालन करता है जिनमें सरस्वती शिशु मंदिर, एकल विद्यालय और विद्या भारती शामिल हैं। इन स्कूलों में इतिहास का सांप्रदायिक संस्करण पढ़ाया जाता है। वर्तमान सरकार की यही कोशिश है कि आरएसएस के स्कूलों का पाठ्यक्रम ही सरकारी शिक्षण संस्थाओं में लागू कर दिया जाए। जाहिर है कि यह खतरनाक कदम होगा। इससे विविधताओं से भरे हमारे बहुवादी देश में विघटनकारी ताकतें मजबूत होंगी।
-राम पुनियानी
इतिहास की किताबों के भगवाकरण से क्या आशय है ? भगवाकरण शब्द को प्रगतिशील व तर्कवादी इतिहासविदों और बुद्धिजीवियों ने तब गढ़ा था, जब वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ;1998 में मानव संसाधान विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने शिक्षा, इतिहास व अन्य समाजविज्ञानों के पाठ्यक्रमों और पाठ्यपुस्तकों में व्यापक परिवर्तन करने शुरू किए। जो किताबें मुरली मनोहर जोशी के कार्यकाल में लागू की गईं थीं उनमें कई तरह की आधारहीन बातें कही गईं थीं जैसे, चूंकि हम मनु के पुत्र हैं इसलिए हम मनुष्य या मानव कहलाते हैं,वैज्ञानिक यह मानते हैं कि पेड़.पौधे अजीवित होते हैं परंतु हिंदू, पेड़.पौधों को जीवित मानते हैं और जब बंदा बैरागी ने इस्लाम कुबूल करने से इंकार कर दिया तो उसके लड़के की हत्या कर उसका कलेजा निकालकर, बंदा बैरागी के मुंह में ठूंसा गया। इन पुस्तकों में सती प्रथा को राजपूतों की एक ऐसी परंपरा के रूप में प्रस्तुत किया गया थाए जिस पर हम सब को गर्व होना चाहिए। मध्यकाल के इतिहास को भी जमकर तोड़ामरोड़ा गया। जैसे,यह कहा गया कि कुतुबमीनार का निर्माण सम्राट समुद्रगुप्त ने किया था और उसका मूल नाम विष्णुस्तंभ था। इन पुस्तकों में शिवाजी और अफजल खान, अकबर और महाराणा प्रताप, गुरू गोविंद सिंह और औरंगजैब़ के बीच हुए युद्धों.जो केवल और केवल सत्ता हासिल करने के लिए लड़े गये थे.को सांप्रदायिक रंग देते हुए उन्हें हिंदुओं और मुसलमानों के बीच युद्ध के रूप में प्रस्तुत किया गया।
इन परिवर्तनों की पेशेवर, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष इतिहासविदों ने तार्किक आधार पर आलोचना की। उन्होंने इतिहास के इस रूप में प्रस्तुतिकरण के लिए 'शिक्षा का भगवाकरण' शब्द इस्तेमाल करना शुरू किया। परिवर्तनों की आलोचना का जवाब देते हुए मुरली मनोहर जोशी ने कहा ;अप्रैल 2003 कि यह भगवाकरण नहीं बल्कि इतिहास की विकृतियों को ठीक करने का प्रयास है। लेकिन अब, बदली हुई परिस्थितियों और परिवर्तित राजनैतिक समीकरणों के चलते, वे उसी शब्द.भगवाकरण.को न सिर्फ स्वीकार कर रहे हैं वरन् उस पर गर्व भी महसूस कर रहे हैं।
भारत में इतिहास का सांप्रदायिकीकरण,अंग्रेजों ने शुरू किया। उन्होंने हर ऐतिहासिक घटना को धर्म के चश्मे से देखना और प्रस्तुत करना प्रारंभ किया। अंग्रेजों के रचे इसी इतिहास को कुछ छोटे.मोटे परिवर्तनों के साथ, हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिक तत्वों ने अपना लिया। हिंदू सांप्रादयिक व राष्ट्रवादी तत्व कहते थे कि भारत हमेशा से एक हिंदू राष्ट्र है और मुसलमान व ईसाई, भारत में विदेशी हैं। मुस्लिम सांप्रदायिक तत्वों के लिए इतिहासए आठवीं सदी में मोहम्मद.बिन.कासिम के सिंध पर हमले से शुरू होता था। उनका दावा था कि चूंकि मुसलमान भारत के शासक थे इसलिए अंग्रेजों को इस देश का शासन मुसलमानों को सौंपकर यहां से जाना था। इतिहास के इसी संस्करण का किंचित परिवर्तित रूप पाकिस्तान में स्कूलों और कालेजों में पढ़ाया जाता है।
इसके विपरीत,जो लोग धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति प्रतिबद्ध थे उन्होंने जोर देकर कहा कि किसी राजा का धर्म, उसकी नीतियों का निर्धारक नहीं हुआ करता था। यही बात स्वाधीनता आंदोलन के सर्वोच्च नेता महात्मा गांधी ने भी कही। अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में वे लिखते हैंए 'मुस्लिम राजाओं के शासन में हिंदू फलेफूले और हिंदू राजाओं के शासन में मुसलमान। दोनों पक्षों को यह एहसास था कि आपस में युद्ध करना आत्मघाती होगा और यह भी कि दोनों में से किसी को भी तलवार की नोंक पर अपना धर्म त्यागने पर मजबूर नहीं किया जा सकता। इसलिए दोनों पक्षों ने शांतिपूर्वक, मिलजुलकर रहने का निर्णय किया। अंग्रेजों के आने के बाद दोनों पक्षों में विवाद और हिंसा शुरू हो गई.क्या हमें यह याद नहीं रखना चाहिए कि कई हिंदुओं और मुसलमानों के पूर्वज एक ही थे और उनकी नसों में एक ही खून बह रहा है? क्या कोई व्यक्ति मात्र इसलिए हमारा दुश्मन बन सकता है क्योंकि उसने अपना धर्म बदल लिया हैक्या मुसलमानों का ईश्वर, हिंदुओं के ईश्वर से अलग है? धर्म, दरअसल,एक ही स्थान पर पहुंचने के अलग.अलग रास्ते हैं। अगर हमारा लक्ष्य एक ही है तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि हम अलग.अलग रास्तों से वहां पहुंच रहे हैं? इसमें विवाद या संघर्ष की क्या गुंजाईश है'
स्वाधीनता के बाद अंग्रेजों द्वारा रचे इतिहास को कुछ समय तक पढ़ाया जाता रहा। शनैः शनैः, इतिहास की पुस्तकों को तार्किक आधार देते हुए उनमें इतिहास पर हुये गंभीर शोध के नतीजों का समावेश किया जाने लगा। एनसीईआरटी के गठन के बाद,उन स्कूलों में, जिनमें एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम लागू था, इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या वाली पुस्तकों के स्थान पर एनसीईआरटी की पुस्तकें पढ़ाई जाने लगीं। फिर, सन् 1998 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के सत्ता में आने के बादए डॉ.जोशी ने पाठ्यक्रम के सांप्रदायिकीकरण और शिक्षा के भगवाकरण का सघन अभियान चलाया। सन् 2004 में एनडीए सत्ता से बाहर हो गई और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए ने केंद्र में सत्ता संभाली। इसके बाद, कुछ हद तक, स्कूली पाठ्यपुस्तकों में वैज्ञानिक सोच और तार्किक विचारों की वापसी हुई और पुस्तकों को सांप्रदायिकता के जहर से मुक्त करने के प्रयास भी हुए। चाहे वह पाकिस्तान हो या भारत,इतिहास के सांप्रदायिक संस्करण का इस्तेमाल,धार्मिक राष्ट्रवाद को मजबूती देने के लिए किया जाता है। इसलिए भारत में ताजमहल को तेजो महालय नामक शिव मंदिर बताया जाता है और स्वाधीनता संग्राम को मुसलमानों के खिलाफ लड़ा गया धार्मिक युद्ध। मुस्लिम राजाओं को मंदिरों का ध्वंस करने व हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाने का दोषी बताया जाता है। इस विभाजनकारी पाठ्यक्रम का इस्तेमाल राजनैतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए होता है। पाकिस्तान में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में मुस्लिम राजाओं का महिमामंडन किया जाता है और हिंदू राजाओं की चर्चा तक नहीं होती।
आरएसएस स्कूलों की एक विस्तृत श्रृंखला का संचालन करता है जिनमें सरस्वती शिशु मंदिर, एकल विद्यालय और विद्या भारती शामिल हैं। इन स्कूलों में इतिहास का सांप्रदायिक संस्करण पढ़ाया जाता है। वर्तमान सरकार की यही कोशिश है कि आरएसएस के स्कूलों का पाठ्यक्रम ही सरकारी शिक्षण संस्थाओं में लागू कर दिया जाए। जाहिर है कि यह खतरनाक कदम होगा। इससे विविधताओं से भरे हमारे बहुवादी देश में विघटनकारी ताकतें मजबूत होंगी।
-राम पुनियानी
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