रविवार, 21 जून 2015

हाशिमपुरा जनसंहार: भारतीय न्याय व्यवस्था पर उठते सवाल

   22 मई 1987 को उ0प्र0 के मेरठ जिले में हाशिमपुरा मोहल्ले के 42 मुसलमानों का कत्ल हुआ था। पी0एस0सी0 के जवानों ने इस बर्बरता को अंजाम दिया था। इसी घटना को हाशिमपुरा-जनसंहार के नाम से जाना जाता है। इस जनसंहार में जुल्फिकार बाबूद्दीन, मुजीबुर्रहमान, मो0 उस्मान, नसीर अहमद घायल होकर बच गये। पीडि़त परिवार की माताएँ, बच्चे, पत्नियाँ, बुजुर्ग व रिश्तेदार और मोहल्लावासी पिछले 28 वर्षों से न्याय की आस लगाये अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर हैं। इतने वर्षों में कितनी सरकारें आईं, कितनी चली गईं। लेकिन बेसब्री से न्याय की आस करने वाले पीडि़त परिवारों व जनपक्षधर लोगों को 22 मार्च 2015 को अदालत ने काफी गहरा धक्का पहुँचाया है क्योंकि इसी दिन दिल्ली के तीस हजारी की अदालत ने सभी 16 आरोपी पी0एस0सी0 पुलिस बलों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया।
    1987 में उ0प्र0 के मेरठ में हिन्दू-मुसलमान दंगे का माहौल बना था। करीब 500 मुसलमान नमाज के बाद मस्जिद के बाहर खड़े थे। तभी सैकड़ों की संख्या में पी0एस0सी0 पुलिस बल आ धमके और करीब 50 मुसलमानों को उठाकर 50-60 किमी दूर एक पुल (ब्रिज) पर ले गए। पी0एस0सी0 बलों ने वहाँ एक-एक को गोली मारकर उनके शवों को नहर में फेंक दिया। बाद में लोग मुरादनगर नहर में सभी शव तैरते हुए पाए थे।
    उक्त घटना में जिन्दा बचे नासिर अहमद बताते हैं कि ‘‘उस वक्त हमारी उम्र 15 वर्ष थी, गोली खाकर लाशों के अम्बार मंे सांस रोककर पड़े रहे थे।’’ मोहम्मद शाहनवाज बताते हैं कि जब उनकी उम्र 5 महीने भर की थी तभी उनके पिता हाजी शमीम अहमद की इसी जनसंहार में मौत हुई, नतीजतन उनकी पढ़ाई नहीं हो सकी। उनकी मां मेहरुन्निशा के पास आठ बच्चे थे। कैसे वह 28 साल गुजारी, कैसे बच्चों को पाला-पोसा, बयां नहीं कर पातीं। सर्वविदित है कि धर्म के नाम पर दंगा-फसाद में गरीब, कारीगर, मजदूर, किसानों यानी आम जनता की जान जाती है लेकिन धर्म की कट्टरपंथी राजनीति की बीज बोने से लेकर साम्प्रदायिक माहौल बनाने वाले राजनेता, मीडिया, पूँजीपति, बड़े-बड़े धर्म के ठेकेदारों का बाल भी बांका नहीं होता। जनसंहार कोई एक बार की घटना हो, ऐसा नहीं हैै। लक्ष्मणपुर दाथे जनसंहार, बथानी टोला जनसंहार, भोपाल गैस त्रासदी में जनसंहार, गुजरात जनसंहार, सैकड़ों जनसंहारों की घटनाएँ तथाकथित आजाद भारत में बदनुमा कलंक हैं। सभी जनसंहारों में दलित, आदिवासी, मुसलमान व महिलाएँ निशाना बनाए गए इसलिए ये आधुनिक भारत के उत्पीडि़त वर्ग हैं।
    आज उत्पीडि़त वर्गों के पक्ष में लड़ने वाले वकील, बुद्धिजीवी, पत्रकार, जनवादी या कम्युनिस्टों पर भी दमनचक्र चलाया जाना आम होता जा रहा है। लगभग सभी जनसंहारों के आरोपी बरी होते जा रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि गरीबों, उत्पीडि़त वर्गों के लिए वह कहावत कहाँ छुप जाता है कि ‘‘कानून के हाथ बहुत लम्बे होते हैं, कानून से कोई बच नहीं सकता।’’ इसी तरह लगता है कि फिल्मों के खोजी कुत्ते, मोस्ट वाण्टेड स्पेक्टर, सी0आई0डी0......... जैसे राज्य व्यवस्था के हीरो या पात्र आम आदमी का मजाक उड़ाते हैं और मध्यम वर्ग को भरमाते हैं।
       साम्प्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस नामक एक अच्छी किताब के लेखक व पूर्व आई0पी0एस0 अधिकारी, विभूति नारायण राय के अनुसार ‘‘उस वक्त मेरठ में नियुक्त अधिकांश पुलिस की धारणा में मुसलमान ही दोषी थे। वे लोग मेरठ को मुसलमानों का ‘‘मिनी पाकिस्तान’’ मानते थे और इसीलिए मुसलमानों को सबक सिखाना बहुत जरूरी हो गया था। 28 वर्षों के बाद इस अदालती फैसले पर उनका अपील छपा कि ‘‘मुसलमान उकसावे में न आएँ, धैर्य के साथ कानून पर भरोसा बनाए रखंे। किसी उकसावे में आकर हथियार उठा लेने जैसी कोशिश की कोई आवश्यकता नहीं.....।’’
    फिलहाल, हाशिमपुरा जनसंहार के पीडि़तों सहित मोहल्ला के अधिकांश नागरिकों को 28 वर्षों बाद न्याय की आस को गहराई से धक्का पहुँचा है। फैसले के दूसरे दिन ही हाशिमपुरा के लोगों ने कैण्डल व काले झण्डों के साथ विभिन्न चैराहों से होते हुए जुलूस प्रदर्शन किया। लगातार दस दिनों तक अखबारों में ऐसे विरोध प्रदर्शनों की खबरें छपती रहीं। जुलूस (11 जुलाई 1996) में तीन शिशु (एक मात्र तीन माह का) छः बच्चे और ग्यारह महिलाओं समेत 21 लोगों की नृशंस हत्या सवर्ण जाति की रणवीर सेना ने अंजाम दिया था, इसमें 33 हमलावर नामजद थे। लेकिन 16 वर्ष बाद 16 अप्रैल 2012 को हाईकार्ट ने ‘‘त्रुटिपूर्ण साक्ष्य’’ को आधार बनाकर सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया। शंकर बिगहा  जनसंहार (25 जनवरी 1999) मंे पाँच महिलाएँ, सात बच्चे समेत 23 दलित व अति पिछड़ी जातियों की बर्बर हत्या व 14 दीगर लोग जख्मी हुए थे। हमले में हत्यारों ने 10 माह के बच्चे तक को नहीं बख्शा था। इसमें अभियुक्त रणवीर सेना के प्रमुख ब्रम्हेश्वर मुखिया समेत 29 लोग थे। अदालत ने इसमें भी कछुए की चाल से मुकदमा चलाते-चलाते 16 साल बाद सबको बरी कर दिया। गुजरात जनसंहार (2002) के अभियुक्तों का आज तक कुछ नहीं हुआ। ऐसे और भी चर्चित मुकदमे हैं लेकिन इतना ही अभी काफी है।
    सर्वोच्च न्यायालय ने खुद ही स्वीकार किया है कि ‘31 मार्च 2009 तक जिला न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक तीन करोड़ सात लाख से अधिक मुकदमे लम्बित हैं, जिन्हें निपटाने में (अगर कोई नया मुकदमा हाथ में नहीं लिया गया तो) 464 वर्ष लगेंगे। ऐसे में न्याय कैसे मिलेगा? केस लड़ते हुए हौसले पस्त हो जाते हैं, आम आदमी टूट जाता है, उनका घर-खेत, गहना-बिक्खो सब बिक जाता है। कई मुकदमे तो पीढ़ी दर पीढ़ी घिसटते मिल जाएँगे। क्या इसे ही न्याय कहा जाता है? क्या देर से न्याय मिलना भी अन्याय नहीं है?
       सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री आर0एम0 लोढ़ा ने न्याय व्यवस्था के बारे मंे चिन्ता जताया कि ‘‘भारत में न्याय देने की प्रक्रिया खुद में एक सजा बन गई है।’’ सचमुच साल दर साल न्याय के लिए भटकना, तारीख दर तारीख कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाता आम आदमी न्याय व्यवस्था से भला क्षुब्ध क्यों न हो?
अदालतों का वर्गीय-चेहरा कैसा है?
    अदालतों के हजारों-लाखों फैसलों को अभी छोड़ दिया जाय। सिर्फ उपर्युक्त जनसंहारों के फैसलों के आधार पर ही कहा जा सकता है कि फैसले निष्पक्ष नहीं होते। मुकदमे के निस्तारण में होने वाली देरी से एक ओर जहाँ गरीबों का घर-खेती, गहना-पैसे का असीमित खर्च पूरे जीवन को बर्बाद कर देता है, वहीं दूसरी ओर शासक वर्ग के घोटालेबाज, भ्रष्ट, परजीवी रसूखदार (अमीर)े
लोगों को फायदा है। अपने पैसे और पहँुच के चलते वे संगीन से संगीन अपराधों में नामजद होते हुए भी जमानत पर चले जाते हैं और लम्बे समय तक समान्य जीवन का मजा लेते हैं और साथ-साथ अपना शासन भी चलाते हैं। भोपाल गैस काण्ड में न्यायालय अमरीका के पूँजीपति एण्डरसन को सजा नहीं दे पाया, यह न्यायालय का औपनिवेशिक चेहरा है। निठारी काण्ड में नौकर को फाँसी की सजा दी जाती है लेकिन उसके मालिक का नाम तक जिक्र नहीं करना, अमीर वर्गीय चेहरा है। किल्वेनमनी जनसंहार के मामले में ही, जहाँ 42 दलित मजदूरों को जिन्दा जला दिया गया था, मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि धनी जमींदार जिनके पास कारें तक हैं, ऐसा जुर्म नहीं कर सकते और अदालत ने उन्हें बरी कर दिया। यानी यहाँ अदालत गरीब मजदूरों के पक्ष में खड़ा नहीं हो पाया क्योंकि उसका वर्गीय चेहरा ब्राह्मणवादी-सामंती भी है। सैकड़ों दलितों के हत्यारे रणवीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर सहित सैकड़ों नामजद अभियुक्तों को क्यों सजा नहीं दिया जाता? यहाँ भी क्यों अदालत उच्च वर्ग-जाति का पक्ष लेता रहा?
    हाशिमपुरा जनसंहार हो या 1984 का सिक्ख जनसंहार हो या 2002 का गुजरात जनसंहार सबमें अदालतों का वर्गीय चेहरा हिन्दू साम्प्रदायिकता का पक्षधर साबित होता है।
          देश की संसद में सैकड़ों आपराधिक रिकार्ड वाले बैठते हैं। इनमें से कइयों पर तो संगीन अपराध का आरोप है। स्वच्छता अभियान चलाने वाले खुद प्रधानमंत्री सहित कई मंत्री जमानतों पर छूटकर देश चला रहे हैं। स्वच्छ शासन का वादा करने वाली पार्टी का अध्यक्ष खुद फर्जी एनकाउन्टर जैसे संगीन अपराध में नामजद है। कुछ अपवादस्वरूप बड़े नेता बड़े अधिकारी, पूँजीपति को कभी सजा यदि मिलती भी है तो इस कारण कि सत्ता में उसका कोई विरोध पैदा हो गया या सत्ता के लिए किसी काम का नहीं रहा। कभी-कभी सत्ता में अपनी सरकार नहीं होने या न होने का भी फर्क पड़ता है। जैसे ‘दस्तक’ नये समय की (मार्च-अप्रैल 2015) पत्रिका के सम्पादकीय में जिक्र है कि आई.पी.एस. अफसर सिंघल, आई0पी0एस0 पी.पी. पाण्डेय, डी.जी. बंजारा, आई.जी. गीता जौहरी, जी.एल. गोहिल कई फर्जी मुठभेड़ों में आरोपी थे। मोदी सरकार आते ही एक-एक करके बरी कर दिए गए।
    भंवरी देवी गिरोबहन्द बलात्कार केस, जेसीका लाल हत्याकाण्ड, प्रियदर्शनी मण्टू, हत्याकाण्ड के मामलों से पता चलता है कि फैसले सिर्फ गवाह और सबूतों के
आधार पर ही नहीं लिए जाते हैं, फैसले देने में न्यायाधीश की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन वह उसके लिए जवाबदेह नहीं हैं। ये उदाहरण साबित करते हैं कि गरीब कमजोर लोगों के विरुद्ध ताकतवर लोग अपने पक्ष में न्याय खरीद कर उन्हें हमेशा के लिए न्याय से वंचित कर देते हैं। सच है कि गरीब आदमी आज के समय में न्यायालय पर विश्वास नहीं करता।
न्याय पालिका में भ्रष्टाचार
    इकाॅनोमिक जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय न्याय पालिका में 45 प्रतिशत रिश्वतखोरी व्याप्त है। 2002 में देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एस.पी. भरूवा ने कहा था कि उच्च न्यायालय में 20 फीसदी न्यायाधीश भ्रष्ट हैं।
    जस्टिस मार्कण्डेय काटजू के अनुसार, ‘‘उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुछ न्यायाधीशों की ईमानदारी संदेहास्पद है। मुख्य न्यायाधीश को ऐसे संदिग्ध
न्यायाधीशों का तबादला करना चाहिए।’’
    जस्टिस निर्मल यादव पर पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहते हुए 2008 में 15 लाख की रिश्वत लेने का आरोप लगा। सी.बी.आई. को उनके खिलाफ सबूत मिले।
    पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी0 रामास्वामी ने पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार किया। सी.बी.आई. ने उनके घर से काफी रकम बरामद की। संसद में उनके विरुद्ध 1991 में महाभियोग लाया गया जो असफल रहा।
    न्याय पालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के ये चन्द चर्चित उदाहरण हैं। यह समुद्र में तैरते बर्फ की चट्टान का मात्र ऊपर चमकता छोटा हिस्सा है। 2007 में जारी ‘‘ट्रांस्पेरेन्सी इण्टरनेशनल’ की रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘भारत की निचली अदालतों में 2500 रूपये से भी ज्यादा रिश्वत का लेन-देन होता है। जिसे वकीलों, जजों और दलालों के बीच हैसियत के हिसाब से बाँटा जाता है।
न्याय व्यवस्था की जनविरोधी चरित्र की आधारशिला
        तथाकथित आजाद भारत में संविधान निर्माण काम नये भारत के निर्माण के लिए अति आवश्यक कार्य था। इसके लिए यह भी आवश्यक था कि विविध जाति, धर्म, क्षेत्र या लिंग के सभी वयस्क देशवासियों द्वारा एक संविधान सभा का चुनाव होता। इससे व्यापक जनता के बहुमत का प्रतिनिधित्व होता और ऐसी संविधान सभा देश की विशिष्टताओं व जरूरतों के मुताबिक होती। लेकिन ऐसा दुर्भाग्य कहा जाय या जनता के विरुद्ध साजिश कि ऐसा नहीं हुआ। मात्र 13 फीसदी निर्वाचकों द्वारा चुनी गई, अंग्रेजों की मातहती में बनी 1935 की विधानसभा को ही संविधान सभा का रूप दे दिया गया। नतीजतन उन्होंने अपने वर्गीय जरूरतों के हिसाब से संविधान तैयार किया।
         भारतीय न्याय प्रणाली की आधारशिला बनी-1863 की औपनिवेशिक ‘भारतीय दण्ड संहिता’। ब्रिटिश संसद ने भारत पर शासन चलाने के लिए 1858 में ‘भारत शासन अधिनियम’ बनाया। फिर 1861 में ‘भारतीय परिषद अधिनियम’ बनाया। इसके बाद उसने 1892, 1901, 1919 और 1935 का अधिनियम बनाया। ये सभी अधिनियम भारत पर अंग्रेजी-साम्राज्य को सुदृढ़ करने के लिए बनाए गए अर्थात औपनिवेशिक नीति के अनुरूप थे। आखिर इस आधारशिला पर खड़ी न्याय-व्यवस्था किन भारतीय-हितों की रक्षा करेगी या करती?
    सबसे पहले उच्च न्यायालयों की स्थापना 1866 में मद्रास, कलकत्ता और बाम्बे में हुई। फिर 1856 में इलाहाबाद, 1884 में बंगलौर, 1916 में पटना, 1928 में श्रीनगर व जम्मू में उच्च न्यायालय स्थापित हुए। कैसे भूल जाए कि इन्हीं न्यायालयों ने शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, अशफाक उल्ला खां, खुदीराम बोस, करतार सिंह सराभा जैसे असंख्य क्रांतिकारियों, देशभक्तों को फाँसी की सजा दी थी। 1947 की तथाकथित आजादी के बाद भी, ठीक उसी ढर्रे पर न्याय प्रणाली की स्थापना की गई। न्यायालयों का सम्पूर्ण परिवेश अभी भी औपनिवेशिक दासता व सामंती शोषण का बगुला-न्याय ही है।
    अंग्रेजों ने जिस प्रकार अपना साम्राज्य चलाने के लिए शासन के विभिन्न अंगों-पुलिस, रेलवे, सेना इत्यादि को बनाया था उसी तरह न्याय पालिका को भी खड़ा किया था। दुर्भाग्य है कि अभी तक इस औपनिवेशिक ढाँचे से हमें मुक्ति नहीं मिल सकी है।
आज कैसी न्याय पालिका का तकाजा है?
    हाशिमपुरा जनसंहार, लक्ष्मणपुर बाथे, शंकर बिगहा जनसंहार, भोपाल गैस काण्ड जनसंहार पर फैसला दिखलाता है कि तथाकथित भारतीय लोकतंत्र कितना बीमार और खोखला हो चुका है। जरूरत इस बात की है कि एक स्वस्थ लोकतंत्र की लड़ाई विकसित की जाए। आज कानून व संविधान संशोधन के चर्चे जोरों पर हैं। कोई जजों की संख्या बढ़ाने की बात करता है तो कुछ मुकदमों का जल्दी से जल्दी निस्तारण (निपटारा) चाहता है तो कोई अदालत की कार्यवाही स्थानीय भाषा में पूरी करवाना चाहता है। लेकिन क्या इस चर्चा में आम आदमी के लिए कोई जगह है? दरअसल हम भूल जाते हैं कि न्याय व्यवस्था भी कार्यपालिका,
विधायिका की ही तरह राज्य व्यवस्था का अंग है। यह कोई अलौकिक, ईश्वर प्रदत्त, परमपावन संस्था नहीं, बल्कि शासन चलाने के लए मानवनिर्मित संरचना है। जब व्यवस्थापिका और कार्यपालिका भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हैं, तो न्याय पालिका भला कैसे बची रह सकती है, जबकि तीनों एक ही आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक ढाँचे का संचालन करते हैं।
      हमारे देश पर आज देशी-विदेशी बड़े पूँजीपतियों का गठजोड़ काबिज है। हर जगह उन्हीं की तूती बोलती है। किसी भी समाज में अर्थव्यवस्था का निर्वाध संचालन के लिए उसके अनुरूप ही सम्पूर्ण व्यवस्था, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक शैक्षणिक, प्रशासनिक, न्यायिक-व्यवस्था निर्मित की जाती है। इसलिए न्यायपालिका में कोई भी जनपक्षीय सुधार तभी सम्भव है जब पूरे समाज में आमूल बदलाव हो। एक स्वस्थ, समतामूलक, मानव केन्द्रित और न्यायपूर्ण समाज में ही सबके लिए न्याय सम्भव है।
 -राजेश
मो0 नं0-09889231737
लोकसंघर्ष पत्रिका के जून2015 अंक प्रकाशित

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