शनिवार, 11 जुलाई 2015

नरम हिंदुत्व और गरम हिंदुत्व


वर्तमान एनडीए सरकार की नीति है- सांस्कृतिक आयोजनों पर पानी की तरह पैसा बहाओ, कुबेरपतियों की कंपनियों को टैक्स में छूट दो और समाज कल्याण के बजट को घटाते जाओ। इस प्रक्रिया के चलते, समाज के दमित व शोषित वर्ग यदि भूख, कर्ज और आत्महत्या के दुष्चक्र में फंसते जा रहे हैं तो सरकार की बला से। कार्पोरेट घरानों और कुछ अरबपति परिवारों की जेबें भरना ज्यादा जरूरी है।
नरम हिंदुत्व और गरम हिंदुत्व दोनों का उद्देष्य हाशिए पर खिसकते जा रहे वंचित वर्गों  को ‘‘अपनी संस्कृति पर गर्व’’ करना सिखाना और उनमें ‘‘फील गुड’’ के भाव को मजबूती देना है। ‘‘इंडिया शाईनिंग’’ व ‘‘फील गुड’’ अभियानों से भाजपा को 2004 के लोकसभा चुनाव में कोई फायदा नहीं हुआ था और भारत की जनता ने इस अभियान और उसे चलाने वालों को सिरे से खारिज कर दिया था। परंतु यह सरकार उसी पुरानी शराब को नई बोतल में पेश कर रही है। लोगों से कहा जा रहा है कि वे अपनी लड़की के साथ सेल्फी लें और गर्व महसूस करें, योग करें और खुश हों, सड़कों पर झाड़ू लगाएं और आल्हादित हो जाएं।
सामाजिक क्षेत्र के लिए बजट में कटौती
सन् 2014-15 के बजट में सामाजिक क्षेत्र को, कुल बजट का 16.3 प्रतिषत हिस्सा आवंटित किया गया था। सन् 2015-16 में यह आवंटन घटकर 13.7 प्रतिशत रह गया। ताजा बजट में महिला एवं बाल विकास के लिए आवंटन, पिछली बार की तरह, कुल बजट का मात्र 0.01 प्रतिशत है। लैंगिक बजट के लिए आवंटन 4.19 प्रतिशत से घटकर 3.71 प्रतिशत रह गया है। सन् 2014-15 के पुनर्रीक्षित बजट अनुमानों के लिहाज से, सन् 2015-16 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के आवंटन में 49.3 प्रतिशत व लैंगिक बजट में 12.2 प्रतिशत की कमी आई है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में लैंगिक बजट, 17.9 प्रतिशत कम हो गया है। लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहन देने की सरकारी घोषणाओं के बाद भी, स्कूल शिक्षा के लिए लैंगिक बजट में 8.3 प्रतिशत की कमी आई है। ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’’ अभियान बड़े जोरशोर से चलाया गया परंतु इस अभियान के लिए बजट में केवल 100 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। समन्वित बाल विकास कार्यक्रम (आईसीडीएस), जिससे लगभग 10 करोड़ महिलाएं और बच्चे लाभांवित होते हैं, का बजट आधा कर दिया गया है। सन् 2014-15 में इस मद में रूपए 18,108 करोड़ का प्रावधान किया गया था, जो कि सन् 2015-16 में घटकर 8,245 करोड़ रह गया। पेयजल और साफ-सफाई संबंधी योजनाओं के लिए बजट प्रावधान, 12,100 करोड़ रूपए से घटाकर 6,236 करोड़ रूपए रह गया।
कुल मिलाकर, सामाजिक क्षेत्र के लिए आवंटन में 1,75,122 करोड़ रूपए की कमी आई। इसमें से 66,222 करोड़ रूपए सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के लिए दिए जाने वाले अनुदान को घटाकर, 5,900 करोड़ रूपए पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष को आवंटन में कमी कर और 1,03,000 करोड़ रूपए खाद्य सुरक्षा योजना को लागू न कर बचाए गए। इससे महिला और बाल विकास, कृषि (जो देश की 49 प्रतिशत आबादी के जीवनयापन का जरिया है), सिंचाई, पंचायती राज,शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास व अनुसूचित जाति/जनजाति कल्याण से संबंधित कार्यक्रम प्रभावित होंगे। स्वास्थ्य के बजट में 17 प्रतिशत की कमी की गई। सन् 2015-16 के बजट में अनुसूचित जाति विशेष घटक योजना के लिए रूपए 30,852 करोड का प्रावधान किया गया और आदिवासी उपयोजना के लिए रूपए 19,980 करोड का। ये दोनों योजनाएं अनुसूचित जातियों व जनजातियों के विकास और कल्याण के लिए बनाई गई हैं और इनका उद्देष्य यह है कि इन वर्गों की भलाई की योजनाओं पर बजट का लगभग उतना ही हिस्सा खर्च किया जाए, जितना इन वर्गों का देश की कुल आबादी में हिस्सा है। अनुसूचित जातियां, देश की कुल आबादी का 16.6 प्रतिशत हैं जबकि अनुसूचित जनजातियों का कुल आबादी में हिस्सा 8.5 प्रतिशत है। सन् 2015-16 के बजट में विशेष घटक योजना के लिए कुल बजट का केवल 6.63 प्रतिशत हिस्सा उपलब्ध करवाया गया है।
स्कूली शिक्षा व साक्षरता के लिए आवंटन, 2014-15 में 51,828 करोड़ रूपए से घटाकर 2015-16 में 39,038 करोड़ रूपए कर दिया गया है। इसी अवधि में उच्च शिक्षा विभाग के लिए आवंटन, 16,900 करोड़ रूपए से घटाकर 15,855 करोड़ रूपए और सर्वशिक्षा अभियान के लिए 28,258 करोड़ से घटाकर 22,000 करोड़ रूपए कर दिया गया है। मध्याह्न भोजन योजना भारत सरकार की एक अत्यंत महत्वपूर्ण योजना है। इसके लिए सन् 2014-15 में 13,215 करोड़ रूपए आवंटित किए गए थे, जो कि सन् 2015-16 में घटकर 9,236 करोड़ रूपए रह गए। आवंटन में वास्तविक कमी, इन आंकड़ों से कहीं ज्यादा है क्योंकि पिछले एक वर्ष में रूपए की कीमत में कमी आई है। माध्यमिक शिक्षा के लिए आवंटन 8,579 करोड़ रूपए से घटकर 6,022 करोड़ रूपए रह गया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का आवंटन जस का तस है जिसका अर्थ यह है कि वास्तविक  अर्थ में उसमें कमी आई है। तकनीकी शिक्षा के लिए आवंटन में 434 करोड़ रूपए की कमी की गई है। भारतीय विज्ञान शिक्षा व अनुसंधान संस्थान का बजट 25 प्रतिषत घटा दिया गया है।
सरकार ने अमीरों द्वारा चुकाए जाने वाले संपत्तिकर को समाप्त कर दिया है और इस कर से होने वाली 8,325 करोड़ रूपए की वार्षिक आमदनी की प्रतिपूर्ति के लिए आम जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ा दिया है। पिछले बजट की तुलना में, इस बजट में सरकार को अप्रत्यक्ष करों से होने वाली आमदनी में रूपए 23,383 करोड़ की वृद्धि हुई है।
उच्च जातियों की संस्कृति
जहां एक ओर सामाजिक क्षेत्र पर होने वाले खर्च और कार्पोरेट टैक्सों में कमी की जा रही है वहीं हिंदू समुदाय की उच्च जातियों के श्रेष्ठी वर्ग की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने अपने खजाने के मुंह खोल दिए हैं। योग, जिसका मूल स्त्रोत ब्राह्मणवादी धर्मशास्त्र, उपनिषद व पतंजलि जैसे दार्षनिक ग्रंथ हैं और जिसे मुख्यतः मध्यम वर्ग के लोग करते आए हैं, को भारत के ‘‘साॅफ्ट पाॅवर’’ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सुझाव पर दिसंबर 2014 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने भारत द्वारा प्रस्तुत एक प्रस्ताव को अपनी मंजूरी दी, जिसके तहत 21 जून को ‘‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’’ घोषित किया गया। इस साल 21 जून को सैन्य व पुलिसकर्मियों और स्कूल व कालेज के विद्यार्थियों को इकट्ठा कर, दिल्ली के राजपथ पर एक बड़ा कार्यक्रम किया गया। यह आयोजन लगभग उतना ही भव्य था, जितना की गणतंत्र दिवस पर किया जाता है। इस कार्यक्रम को गिनीज बुक आॅफ वल्र्ड रिकार्डस में जगह मिली। गिनीज बुक कहती है ‘‘भारत में दिल्ली के राजपथ पर 21 जून 2015 को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर भारत सरकार के आयुष मंत्रालय द्वारा आयोजित कार्यक्रम में 35,985 व्यक्तियों ने एक साथ योग किया, जो कि दुनिया की सबसे बड़ी योग क्लास थी।
‘‘यह कार्यक्रम दिल्ली के केंद्र में स्थित प्रसिद्ध राजपथ के 1.4 किलोमीटर लंबे हिस्से में आयोजित किया गया। मुख्य मंच पर चार प्रशिक्षक योग कर रहे थे और उनकी तस्वीरों को 32 विशाल एलईडी स्क्रीनों के जरिए वहां मौजूद लोगों को दिखाया जा रहा था ताकि वे प्रशिक्षकों के साथ-साथ योग कर सकें। कार्यक्रम की शुरूआत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण से हुई। भाषण के बाद उन्होंने भी इस योग प्रषिक्षण में हिस्सा लिया। कार्यक्रम में (लगभग) 5,000 स्कूली बच्चे, 5,000 एनसीसी के कैडिट, 5,000 सेना के जवान, 1,200 महिला पुलिस अधिकारी, 5,000 केंद्रीय मंत्री व अन्य विशिष्ट जन, 5,000 राजनयिक व विदेशी नागरिक और विभिन्न योग केंद्रों के 15,000 सदस्यों ने भाग लिया। यह सुनिष्चित करने के लिए कि सभी प्रतिभागी ठीक ढंग से विभिन्न आसन करें, आयुष मंत्रालय ने कार्यक्रम से दो माह पहले उन्हें किए जाने वाले आसनों का वीडियो उपलब्ध करवाया ताकि वे अभ्यास कर सकें।’’
इस कार्यक्रम के प्रचार का जिम्मा केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को सौंपा गया, जिसने इस पर 100 करोड़ रूपए खर्च किए। आयुष मंत्रालय ने इसके अतिरिक्त 30 करोड़ रूपए खर्च किए। कार्यक्रम के इंतजाम और सुरक्षा आदि पर कितना खर्च हुआ, इसके संबंध में कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2013 में इलाहाबाद में आयोजित कुंभ पर 1,151 करोड़ रूपए खर्च किए गए, जिसमें से 1,017 करोड़ रूपए केंद्र सरकार ने उपलब्ध करवाए और 134 करोड़ रूपए राज्य सरकार ने खर्च किए। नासिक में 2015 में आयोजित होने वाले कुंभ मेले पर संभावित खर्च रूपए 2,380 करोड़ है। अर्थात दो वर्षों में कंुभ मेले के आयोजन पर होने वाला खर्च दो गुना से भी अधिक हो गया है। नासिक में सुरक्षा इंतजामों के लिए 15,000 पुलिसकर्मियों की ड्यूटी लगाई जाएगी। पानी की सप्लाई के लिए 145 किलोमीटर लंबी पाईप लाईने बिछा दी गई हैं। करीब 450 किलोमीटर लंबी बिजली की लाईनों से 35 पाॅवर सब स्टेशनों के जरिए 15,000 स्ट्रीट लाईटों तक बिजली पहुंचाई जाएगी।
संस्कृत, जो आज भारत के किसी भी हिस्से में बोलचाल की भाषा नहीं है, को बढ़ावा देने के लिए एनडीए सरकार धरती-आसमान एक कर रही है। बेशक, उन लोगों को संस्कृत अवश्य सीखनी चाहिए जो हिंदू दर्शन या धार्मिक गं्रथों को पढ़ना चाहते हैं या उन पर शोध करना चाहते हैं। परंतु आम लोगों को संस्कृत सिखाने की कोई आवष्यकता नहीं है। वैसे भी, प्राचीन भारत में संस्कृत, नीची जातियों का दमन करने के उपकरण के तौर पर इस्तेमाल की जाती थी। जो शूद्र संस्कृत बोलता था, सजा के तौर पर उसकी जीभ काटी जा सकती थी। अगर कोई शूद्र संस्कृत सुन लेता था तो उसके कान में पिघला हुआ सीसा डाला जा सकता था और अगर कोई शूद्र संस्कृत पढ़ता था तो उसकी आंखे निकाली जा सकती थीं। एनडीए सरकार भारी रकम खर्च कर संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन को प्रोत्साहन दे रही है। कंेद्रीय मानव संसाधान मंत्रालय ने शैक्षणिक सत्र 2013-14 के अधबीच में, केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन की जगह संस्कृत को तीसरी अनिवार्य भाषा बना दिया। यह इस तथ्य के बावजूद कि संस्कृत पढ़ाने के लिए न तो पर्याप्त संख्या में अध्यापक उपलब्ध थे और ना ही पाठ्यपुस्तकें थीं। थाईलैंड में 28 जून से 2 जुलाई 2015 तक आयोजित विश्व संस्कृत सम्मेलन में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के नेतृत्व में 250 सदस्यों के भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने हिस्सा लिया। इनमें से 30, आरएसएस से जुड़े संस्कृत भारती से थे।
नरम हिंदुत्व और गरम हिंदुत्व
सरकार करदाताओं के धन का इस्तेमाल, नरम हिंदुत्व को बढ़ावा देने के लिए कर रही है। भाजपा के कई नेता, जिनमें मंत्री और सांसद शामिल हैं, गरम हिंदुत्व के झंडाबरदार बने हुए हैं। वे गैर-हिंदू धर्मावलंबियों के विरूद्ध आक्रामक भाषा का इस्तेमाल कर रहे हंै और उनके खिलाफ नफरत फैला रहे हैं। गरम हिंदुत्व का लक्ष्य है देष को गैर-हिंदुओं से मुक्त कराना या कम से कम उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर, मताधिकार से वंचित करना। हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए गरम हिंदुत्ववादी, युद्ध करने के लिए भी तैयार हैं। अलग-अलग बहानों से, जिनमें गौवध, लवजिहाद, हिंदुओं के पवित्र प्रतीकों का अपमान, धर्मपरिवर्तन आदि शामिल हैं, दंगे भड़काए जा रहे हैं। साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ, साध्वी निरंजन ज्योति व गिरिराज सिंह जैसे लोग दिन-रात जहर उगल रहे हैं।
दूसरी ओर, नरम हिंदुत्व का उद्देष्य मीडिया, शिक्षा संस्थाओं और बाबाओं की मदद से धार्मिक-सांस्कृतिक विमर्ष पर हावी होना और ऊँची जातियों के हिंदुओं का सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करना है। धार्मिक-सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने की इस कोशिश से भारत की धार्मिक प्रथाओं, विष्वासों, सांस्कृतिक परंपराओं और जीवन पद्धति की विविधता प्रभावित हो रही है। हिंदू धर्म के मामले में भी केवल उसके ब्राह्मणवादी संस्करण को प्रोत्साहित किया जा रहा है। हिंदू धर्म में सैंकड़ों पंथ और विचारधाराएं समाहित हैं, जिनमें लोकायत, नाथ व सिद्ध जैसी परंपराएं तो शामिल हैं ही, सभी जातियों, संस्कृतियों और परंपराओं के सैंकड़ों भक्ति संतों की शिक्षाएं भी उसका हिस्सा हैं। क्यों न डाॅ. बाबा साहेब अंबेडकर द्वारा प्रतिपादित नवायान बौद्ध धर्म को प्रोत्साहित किया जाए? क्यों न जैन और सिक्ख धर्म की शिक्षाओं का प्रसार किया जाए?
दरअसल, नरम हिंदुत्व और गरम हिंदुत्व के लक्ष्य एक ही हैं। और केवल सामरिक कारणों से ये दो अलग-अलग रणनीतियां इस्तेमाल की जा रही हैं। नरम हिंदुत्व उन लोगों के लिए है जिन्हें हिंसा और आक्रामक व अशिष्ट भाषा रास नहीं आती।
नरम और गरम हिंदुत्व एक दूसरे के पूरक हैं।  प्रधानमंत्री मोदी ने तब तक गरम हिंदुत्व का इस्तेमाल किया जब तक वह उनके लिए उपयोगी था और अब उन्होंने नरम हिंदुत्व का झंडा उठा लिया है। एनडीए सरकार के शासन में आने के बाद बाबू बजरंगी और माया कोडनानी जैसे दोषसिद्ध अपराधी जमानत पर जेलों से बाहर आ गए हैं और एनआईए की वकील रोहिणी सालियान ने आरोप लगाया है कि उन्हें यह निर्देष दिया गया है कि वे मालेगांव बम धमाकों के आरोपी कर्नल पुरोहित, दयानंद पांडे और साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के विरूद्ध चल रहे मुकदमें में नरम रूख अपनाएं और यह भी कि एनआईए नहीं चाहती कि वे यह मुकदमा जीतें। नरम हिंदुत्ववादियों के सत्तासीन होने से गरम हिंदुत्ववादियों के हौसले बुलंदियों पर हैं और वे दिन पर दिन और हिंसक और आक्रामक होते जा रहे हैं। उन्हें कानून का कोई डर नहीं है। प्रधानमंत्री, गिरीराज सिंह व साक्षी महाराज जैसे लोगों की कुत्सित बयानबाजी की निंदा नहीं करते-मौनं स्वीकृति लक्षणं। नरम हिंदुत्व का एक लाभ यह है कि यह उन लोगों में, जो धीरे-धीरे गरीबी के दलदल में और गहरे तक धसते जा रहे हैं, गर्व का झूठा भाव पैदा करता है। परंतु यह खेल ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा और जल्दी ही लोगों को यह समझ में आ जाएगा कि गरीबी, बेकारी और भूख इस देश की मूल समस्याएं हैं और उनसे मुकाबला किए बगैर, आम जनता का सही मायने में सशक्तिकरण संभव नहीं है।
-इरफान इंजीनियर

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