बुधवार, 15 जुलाई 2015

दाना धरै, पछोरन बाँटै, कहाँ सिखै

बघेली, बुदेली, मालवी और हिंदी की कविताओं से सराबोर एक शाम 
यूँ तो काव्य पाठ या रचना पाठ आदि का आयोजन होता ही रहता है और आजकल इन आयोजनों में भी श्रोताओं की अधिक संख्या तभी होती है जब या तो कोई ग्लैमरस नाम जुड़ा हो या या फिर कार्यक्रम उपरांत सहभोज का आयोजन हो। इन अर्थों में मध्य प्रदेश की प्रगतिशील लेखक संघ की इंदौर इकाई द्वारा 6 जुलाई 2015 को काव्यपाठ का आयोजन आम होते हुए भी कुछ खास था। यहाँ अलग-अलग बोलियों की मिठास थी और शब्दों में रचा-बसा श्रम का सौंदर्य भी।
हिंदी के रचनाकार अंग्रेजी के प्रचलन और प्रभुत्व की शिकायत करते अक्सर मिलते हैं। अंग्रेजी के बढ़ते साम्राज्य ने हिंदी को संपन्न करने के बजाय प्रदूषित अधिक कर दिया है। उनकी शिकायत निराधार भी नहीं लेकिन यह अक्सर भुला दिया जाता है कि जो व्यवहार अंग्रेजी ने हिंदी के साथ किया है, लगभग वैसा ही व्यवहार हिंदी भी अपनी बोलियों के साथ कर रही है। नतीजा ये हो रहा है कि बोलियाँ नष्ट हो रही हैं। ऐसे में इंदौर की मालवी बोली की ज़मीन पर बघेली, बुंदेली के कवियों को मालवी और हिंदी के कवियों का एकसाथ कार्यक्रम रखना एक साहसभरा काम था लेकिन जिन्होंने इसे सुना उनके लिए वह एक स्मरणीय विरल अनुभव था।
इंदौर के प्रीतम लाल दुआ सभागृह में सर्वश्री शिवशंकर मिश्र ‘‘सरस’’(सीधी), बाबूलाल दाहिया (सतना) ने बघेली में, महेष कटारे ‘‘सुगम’’ (बीना), प्रेमप्रकाश चौबे (कुरवाई) ने बुंदेलखंडी में, महेन्द्र सिंह (भोपाल) ने हिन्दी एवं नरहरि पटेल (इंदौर) ने मालवी में अपनी कविताओं का पाठ कर श्रोताओं को अलग-अलग बोली-भाषा की कविता की सामथ्र्य से परिचित करवाया।
शिवशंकर मिश्र ‘‘सरस’’ ने काव्यपाठ की शुरुआत के पहले बघेलखण्ड की जानकारी देते हुए बताया कि बघेलखण्ड के ग्रामीण क्षेत्र में बघेली अभी जीवित है और व्यवहार की भाषा है। इसका राग श्रमराग है, क्योंकि बघेलखंड मेहनतकशों, किसानों, आदिवासियों और दलितों का क्षेत्र है। वहाँ अभी भी जंगल, कंकड़ीली-पथरीली खेती की ज़मीन, महुआ, कोदों और मोटा अनाज होता है। लोग दिनभर की कमरतोड़ मेहनत के बाद शाम को वापस लौटते हैं। पूरे बघेलखंड की रचनाओं में विरोध का स्वर मिलता है। बघेली में श्रृंगार की रचनायें बहुत कम मिलेंगी। सरसजी ने बताया कि बुंदेलखंड नृत्यप्रधान, मालवा चित्रप्रधान और बघेलखंड गीतप्रधान क्षेत्र हैं। वहां तन के काले मन के गोरे आदिवासियों के लोकगीतों में अभी भी सामन्ती विरोध, अन्याय और शोषण का स्वर दिखता है। बोलियाँ ही हमारी मातृभाषा हैं। सरसजी की रचनाएँ सीधे-सादे वाक्यों से गहरे अर्थ ग्रहण करती हैं -
‘बहत-बहत कहाँ चले गयन, सहत-सहत कहाँ चले गयन।
हम कहें चोर, कहन लुच्चा। कहत-कहत कहाँ चले गयन।
शासन प्रणाली पर वार करते हुए कहते हैं -
काहे का लोकतंत्र तुहूं नहीं जनते काहे का लोकतंत्र हमूं नहीं जानी,
केखे खातिर स्वतंत्र तुहूं नही जनते केखे खातिर स्वंतंत्र हमूं नहीं जानी,
धीरे-धीरे जहर मिली एक दिन, धीरे-धीरे मरैं परी सबका
उज्जर साँपे के मंत्र तुंहु नहीं जनते उज्जर साँपे के मंत्र हमूु नहीं जानी।
आज के दौर में बढ़ते दोगलेपन को निशाना बनाकर उन्होंने आगे सुनाया -
अइसन चुपरैं अइसन चाटैं कहा सिखे, दाना धरैं पछोरन बांटै कहां सिखे
कुछ दिन पहिले कुछु दिन बाद मा अतना अन्तर, मुँहु जोरैं अउ मन से काटैं कहाँ सिखे।
बाबूलाल दाहिया (सतना) ने बताया कि मध्य प्रदे की चार मुख्य बोलियों में से बघेली भी एक है और यह अपने आप में किसी भी भाषा की भाँति संपन्न है। बोलियाँ ही नहीं, ग़रीबों की जि़ंदगी भी इस विकास की भेंट चढ़ती जा रही हैं। इससे ‘विकास’ शब्द अपने आप में भय पैदा करने वाला बन गया है। इस विकास में प्रकृति और ग़रीब आदमी के पिसने की पीड़ा का दर्द उनकी इस कविता में व्यक्त्त होता है -
कउन तरक्की का खुला रामदई के द्वार, सहमे-सहमे सब थमे जंगल, नदी, पहार।
इतने संघर्ष के बाद मिली तथाकथित आजादी किसकी आजादी है, दाहियाजी अपनी कविता में इस तरह व्यक्त्त करते हैं -
सब के आजादी घरै आई कहाँ, पाट पायन बीच कै खाई कहाँ।
एक तो अक्कास से बातैं कराथै, एक कै छान्हिब अबै छाई कहाँ।
दे की समसामयिक समस्या पर गाँव के लोगों की आम चर्चा को ही उन्होंने कविता में ढाला है -
मोदीजी बिदेस बस घुमिहें, आपन भासन खूब सुनैहें,
उनके माथै रामदई कै, अच्छे दिन कबहूँ ना अइहैं।
झूंठ का नारा लगावा ना लगी, जीभ मा तारा लगावा ना लगी।
ईंट सगली खत गईं दीवाल की जब, तब वमा गारा लगाबा ना लगी।
बुंदेली बोली को उसके तंज के लिए जाना जाता है। कुरवाई जि़ला विदिषा के प्रेमप्रकाष चैबे ने एक बुंदेलखंडी और दूसरी हिन्दी कविता का पाठ किया। उनकी कविता ‘पूछा मेरी बिटिया ने’ पिता-पुत्री के सुंदर और कोमल संबंध का भावुक दृष्य खींचती है। साथ ही उन्होंने बदलते गाँवों में पथभ्रष्ट हो रहे युवाओं पर भी प्रभावी बुंदेली रचना सुनायी-
बेटा, तुम जे का कर रये हो, हमने सुनी खेत बेच रये हो
रात-रात भर दारू पी रये, कै रये आम सभा कर रये हो।
महेष कटारे ‘सुगम’ (बीना) बुंदेलखंडी बोली में ग़ज़ल कहने वाले पहले रचनाकार हैं। उन्होंने बुंदेली में करीब तीन हज़ार ग़ज़लें लिखीं हैं। सुगमजी ने बुंदेली की पहली ग़ज़ल ‘‘पंच सबई पथरा हो जेहें, ऐसो नईं जानत्ते’’ से अपना पाठ शुरू किया। आगे उनकी कविताओं की एक-एक पंक्ति ने बुंदेली के तिरछे तेवरों के आस्वाद से श्रोताओं को परिचित करवाया -
ऐसे कबै मुकद्दर हुइहैं, सबरे दूर दलिद्दर हुईहैं,
जित्ते लंबे पाँव हमारे, उत्ते बड्डे चद्दर हुइहैं।
दूर-पास के शहरों से वातानुकूलित कारों से गाँव देख-घूमकर गाँव की तारीफ़ करने वालों को आड़े हाथों लेते हुए उन्होंने कहा -
कभऊँ गांव में आकै देखो तो जानें, दो दिन इतै बिता के देखौ तो जानें,
मोड़ी-मोड़ा गाँवन के स्कूलन में, अपने कभऊँ पढ़ा के देखौ तो जानें।
ग़रीब किसान-मज़दूर के लिए सूखे का अर्थ क्या होता है, ये उनकी इन सरल पंक्तियों में घनीभूत तरह से व्यक्त होता है -
जा सूखा की साल रामदई, बन गई है जंजाल रामदई,
मैंगाई मंगरे पै चढ़ कें, ठोकत फिर रई ताल रामदई।
प्रशासनिक सेवा से पदमुक्त होकर सामाजिक समस्याओं के हल ढूँढ़ने के लिए निकले महेन्द्र सिंह (भोपाल) ने हिन्दी में अपनी कविताओं के ज़रिये दे के मौजूदा हालात के लिए जि़म्मेदार लोगों को चेताते हुए कहा -
यूं गिर के काम करने के पहले ये सोच लो, गर दे ना रहा तो सियासत ना रहेगी,
तुम जैसी अलालत औ वहम बांट रहे हो, पस्तादमों में चलने की ताक़त ना रहेगी।
झूठे दिखावे, दंभी और मेहनतकशों का खून चूसने वाले लोगों के रहते समाज में बदलाव लाने की चिंता महेन्द्रजी इन शब्दों में करते हैं -
जो ज़ंजीरों को जेवर की तरह पहन इतराता हो,
बदलावों की सूरत क्या जब ऐसा कठिन समाज मिले।
इज़्ज़त की रोटी मेहनत की खोज तलक ले जानी थी,
इतनी जरा सी बात से नाकिश  दौलतमंद नाराज मिले।
चंद पूँजीपतियों और प्रषासन की घालमेल की ओर इषारा करती उनकी इस कविता को भी श्रोताओं ने बहुत सराहना दी -
ये जमीं मिल गयी, आसमाँ मिल गया, चंद लोगों को सारा जहाँ मिल गया,
ना हिले ना डुले बस इशारों में ही, जो जहाँ चाहिए था, वो वहाँ मिल गया।
इसी बीच विनीत तिवारी ने झाबुआ के रचनाकार महिपाल भूरिया को याद किया जिनका पिछले दिनों निधन हो गया। महिपाल भूरिया भील आदिवासी समुदाय से थे और उन्हें उच्च अध्ययन का अवसर मिला था। उन्होंने भीली भाषा के क़रीब दो हज़ार गीतों का संग्रह कर उन्हें अंग्रेजी में अनुवाद भी किया था। सभा ने उन्हें भरे मन से याद किया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री नरहरि पटेल का इप्टा और प्रलेसं से 1950 के ज़माने से संबंध रहा है जब ज़ोहरा सहगल और पापाजी (पृथ्वीराज कपूर) अपने नाटक लेकर इंदौर आते थे। नरहरि जी ने मालवी की लोकधुनों को आधार बनाकर अनेक गीत लिखे हैं। अध्यक्षीय वक्तव्य के तौर पर नरहरि जी ने अपने चंद मालवी गीत और एक मालवी ग़ज़ल तरन्नुम में सुनायी जिसने मालवी की मिठास का परिचय अतिथि कवियों को दिया।
प्रगतिषील लेखक संघ, इंदौर इकाई के तत्वाधान में हुआ ये कार्यक्रम अपने आप में अनूठा था जिसे लोगों ने बहुत सराहा। दर्शक जो बैठे तो सबसे अंतिम कविता के पाठ तक अपनी जगह से हिले भी नहीं। यूँ तो शहर में क्षेत्रीय/आंचलिक बोली मालवी और निमाड़ी पर आधारित कार्यक्रम होते हैं लेकिन एक साथ इतनी आंचलिक बोलियों के रचनाकारों और वो भी शब्दों और कलम के जरिये सीधी मार करने वाली कविताओं का पाठ लोगों को बहुत पसंद आया। आभार इंदौर प्रलेसं के अध्यक्ष श्री एस.के.दुबे ने ज्ञापित किया और कार्यक्रम का संचालन ख्यात कवि श्री ब्रजेश कानूनगो ने किया। कार्यक्रम में अनुराधा तिवारी, आलोक खरे, सरोज कुमार, रषिकेस कृष्ण शर्मा, शोभना जोशी, कामना शर्मा, होल्कर काॅलेज के प्रिंसिपल श्री अरुण खेर, रवीन्द्र व्यास, अषोक दुबे, राजकुमार कुम्भज, केशरी सिंह चिड़ार, अरविंद पोरवाल, प्रमोद बागड़ी, अजय लागू,शशांक जैन, दीपिका, सारिका श्रीवास्तव और साथ ही अनेक अन्य श्रोताओं की उपस्थिति रही।

- सारिका श्रीवास्तव

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |